Friday, 1 March 2019

भारत की शिक्षा नीति : अतीत, वर्तमान एवं भविष्य-2


प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल के दौरान सितंबर 1985 में एक नई और कल्पनाशील पहल की थी, जब शिक्षा मंत्रालय के कार्यक्षेत्र का विस्तार कर उसे मानव संसाधन विकास मंत्रालय का रूप दिया गया। नए स्वरूप में चिकित्सा क्षेत्र को छोड़कर बाकी सारे अध्ययन क्षेत्रों यथा प्राथमिक, उच्चतर, तकनीकी, प्रबंधन, साक्षरता, शिक्षक प्रशिक्षण, तकनीकी शिक्षक प्रशिक्षण को एक छतरी के नीचे लाया गया। संस्कृति व रोजगार नियोजन को भी इसमें जोड़ा गया। उद्देश्य था कि युवा पीढ़ी की आशा-आकांक्षा के अनुरूप ऐसा शिक्षा तंत्र विकसित हो जिसमें नीति और निर्णयों में निरन्तरता बनी रहे और कहीं भी भ्रम का वातावरण न बने। इस अभिनव पहल का स्वागत हुआ और आज भी मंत्रालय लगभग उसी रूप में विद्यमान है (यद्यपि 2004 में संस्कृति व रोजगार नियोजन को इस मंत्रालय से अलग कर दिया गया)। स्वाभाविक अपेक्षा थी कि केन्द्र सरकार के कदम का अनुकरण राज्य सरकारें भी करेंगी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। राज्यों में तो स्कूली शिक्षा और उच्चतर शिक्षा को भी अलग-अलग विभागों में बांट दिया गया है, जबकि पूर्व में ऐसा नहीं था। मध्यप्रदेश में शंकरदयाल शर्मा, अर्जुन सिंह इत्यादि शिक्षा मंत्रियों के समय संपूर्ण महकमा उनके प्रभार में होता था।
सन् 2000 में अन्तरराष्ट्रीय पटल पर एक ऐतिहासिक घटना घटित हुई जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने सहस्राब्दी घोषणापत्र को अंगीकार किया; और आठ लक्ष्यों (एमडीजी) के प्रति वचनबद्धता प्रकट की। इस घोषणापत्र के हस्ताक्षरकर्ताओं में भारत एक प्रमुख देश था। एमडीजी में एक प्रमुख लक्ष्य हर बालक को न्यूनतम प्राथमिक शिक्षा सुनिश्चित कराना था। इसी पृष्ठभूमि में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में 86वां संविधान संशोधन कर शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल किया गया। एमडीजी में एक अपेक्षा की गई थी कि सरकारें सकल राष्ट्रीय आय का न्यूनतम छह प्रतिशत शिक्षा पर व्यय करेंगी। तभी तो शिक्षा को सर्वसुलभ बनाया जा सकता था। विडंबना यह हुई कि शिक्षा को मौलिक अधिकार तो मान लिया गया किंतु उसके लिए न तो बजट प्रावधानों में समुचित वृद्धि हुई; और न ही अधिकार-संपन्नता के लिए जिस प्रभावी कानून की आवश्यकता थी, उसे मूर्तरूप दिया गया। यह जिम्मेदारी अगली सरकार पर आन पड़ी और मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह के मार्गदर्शन में शिक्षा का अधिकार कानून बनने की शुरूआत 2005 में हुई जो संसद से वर्तमान रूप में अप्रैल 2010 में पारित हुआ।
इस बीच स्कूली शिक्षा से संबंधित अनेक आयामों पर नवाचार की पहल हुई, जिसमें राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी), केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार मंडल (सीएबीई), राष्ट्रीय शिक्षक प्रशिक्षण परिषद (एनसीटीई) आदि ने भागीदारी की; तथा शिक्षण विधि, पाठ्य पुस्तकों का निर्माण, परीक्षा पद्धति, शिक्षकों का प्रशिक्षण आदि विषयों पर ध्यान दिया गया। कुछ ही समय बाद हमने देखा कि निजी क्षेत्र के शिक्षा व्यापारी, कोचिंग के नाम पर करोड़ों की कमाई कर रहा शिक्षा माफिया और ऐसे ही अन्य निहित स्वार्थों व रूढ़िवादी सोच ने नवाचार को विफल करने के लिए हर संभव प्रयत्न किए। इसी के समानांतर उच्च शिक्षा के वर्तमान स्वरूप में बुनियादी परिवर्तन लाने की मुहिम भी अनेक स्तरों पर चलाई गई। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के स्थान पर एक बहुआयामी शिक्षा आयोग बनाया जाए व एआईसीटीई, एनसीटीई जैसे निकायों को उसमें समाहित कर दिया जाए; यूजीसी से अनुदान देने का अधिकार वापिस लिया जाए; इत्यादि प्रश्नों पर अनेक स्थानों से आवाज उठने लगीं। निजी विश्वविद्यालयों की स्थापना में भी इसी समय गति पकड़ी। विहंगम दृष्टि डालें तो अनुमान होता है कि नवपूंजीवाद सोच से अनुप्राणित होकर भारत में शिक्षा का काम बड़े पैमाने पर निजी कारपोरेट क्षेत्र को सौंपने की मानसिकता बनने लगी थी। यह ऐसी दुरभिसंधि थी, जिसे अब तक ठीक से नहीं समझा गया है।
यहां एक विरोधाभासी स्थिति प्रकट होती है। एक ओर एमडीजी (जिसका स्थान आगे चलकर एसडीजी ने ले लिया) के तहत किए संकल्प और दूसरी तरफ शिक्षा का कारपोरेटीकरण। यक्ष प्रश्न उपस्थित होता है कि इनमें से किसे स्वीकार किया जाए। यदि हम सरकार के बुनियादी कर्तव्यों में शिक्षा की गणना करते हैं तो दूसरा प्रश्न उठता है कि कारपोरेट जगत को प्रवेश से कैसे रोका जाएगा। यह तो तभी होगा एक तो जब समाज अपनी रूढ़िवादी सोच त्यागकर नवाचार के लिए मानसिक रूप से तैयार होगा और दूसरे जब सामान्य नागरिक व शिक्षक दोनों मिलकर नवपूंजीवादी ताकतों के विरोध करने की ताकत जुटा पाएंगे।
विख्यात शिक्षाशास्त्री अनिल सद्गोपाल ने शिक्षा के अधिकार कानून की आलोचना की थी कि इसके प्रावधान अपर्याप्त हैं। मेरा तब कहना था कि जो मिला है, पहले उसे लागू करें, और आगे सुधार के लिए आवाज उठाना जारी रखें। लेकिन अब तो स्थिति पूरी तरह पलट गई है। 2010 के कानून में जो मिला, उसी को समाप्त करने का खेल हो रहा है। मैं फिर जोर देकर कहना चाहूंगा कि समाज को रूढ़िवादी सोच से बाहर निकलना होगा। हमने जो वर्तमान परीक्षा प्रणाली को बुद्धिमता की कसौटी मान लिया है, यह सोच खोटी है तथा बच्चों के साथ अन्याय करती है। उनके अंतर्निहित गुणों का, उनकी विशिष्ट परिस्थितियों का तिरस्कार करती है। यहां महात्मा गांधी के जीवन का एक दृष्टांत देना शायद उपयुक्त होगा। वे दक्षिण अफ्रीका में फीनिक्स फार्म पर हर माह बच्चों की परीक्षा लेते थे। उनकी पद्धति में उस बच्चे को प्रथम स्थान मिलता था जिसने पिछले माह के मुकाबले इस माह अपने स्तर में सबसे अधिक सुधार किया हो। ऐसा नहीं कि जो सबसे जहीन है, वही माह-दर-माह प्रथम स्थान पाता रहे। कहना होगा कि गांधीजी की यह पद्धति सतत मूल्यांकन की अवधारणा पर आधारित थी, जिसमें हर बच्चे को आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती थी।
हमारे शिक्षा तंत्र में और भी बहुत से परिवर्तनों की आवश्यकता है। अनेक बच्चे औपचारिक पढ़ाई में रुचि नहीं लेते, लेकिन वे किसी अन्य क्षेत्र में हुनरमंद होते हैं। हम अपने बच्चों को संगीतकार, कलाकार, खिलाड़ी, मूर्तिकार या ऐसे किसी अन्य क्षेत्र में आगे पढ़ने के लिए प्रेरणा क्यों नहीं दे सकते? इन विषयों को औपचारिक शिक्षा प्रणाली में विधिवत शामिल करने में ऐसी क्या अड़चन है? बहुत से विद्यार्थी विपरीत परिस्थितियों के कारण पढ़ाई अधूरी छोड़ देते हैं। आगे चलकर अगर वे काम के साथ पढ़ाई करने के इच्छुक हों तो स्कूल कॉलेज में पढ़ाई के घंटों में लचीलापन क्यों न हो? जो दिन की पाली में काम कर रहा है वो शाम को पढ़ाई कर ले।
किसी शारीरिक अक्षमता के कारण भी अनेक बच्चे औपचारिक शिक्षा में रुचि नहीं ले पाते। तारे जमीन पर फिल्म में इसी बात को रेखांकित किया गया है। इन बच्चों के लिए विशेष व्यवस्था और समझदार शिक्षकों की आवश्यकता है। फिर हमारे यहां विज्ञान, वाणिज्य, कला आदि संकायों का एक नकली विभेद वर्तमान में प्रचलित है। अगर कोई विद्यार्थी गणित के साथ इतिहास पढ़ना चाहता है तो यह व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती? एक अहम मुद्दा यह भी है कि मां-बाप अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, सीए ही क्यों बनाना चाहते हैं। कायदे से तो उनकी नैसर्गिक रुझान देखकर पढ़ाई होना चाहिए।
इस चक्कर मे देश में न जाने कितने कोचिंग संस्थान प्रारंभ हो गए हैं। इनके चक्कर में बच्चे मशीन बनते जा रहे हैं। उनकी भावनाओं के सजल स्त्रोत सूख रहे हैं। और यह भयावह सच्चाई है कि कोटा (राजस्थान) में हर साल दर्जनों विद्यार्थी खुदकुशी कर रहे हैं। हमारा समाज अपने बच्चों के प्रति कितना निर्दयी है उसका यह भयंकर प्रमाण है।
यह वर्तमान का खाका है। इसका हम गंभीरतापूर्वक विश्लेषण करने के लिए तैयार हों तो फिर भविष्य के लिए नीति बनाना कोई कठिन काम नहीं होगा। आपने मुझे आमंत्रित किया। अपने विचार रखने का मौका दिया। एक बार फिर मैं धन्यवाद ज्ञापित करता हूं।
(अवधेश प्रताप सिंह विवि रीवां में अर्जुन सिंह स्मृति व्याख्यानमाला के अंतर्गत ''भारत की शिक्षा नीति : अतीत, वर्तमान एवं भविष्य'' विषय पर15 फरवरी 2019 को मुख्य अतिथि का व्याख्यान)
#देशबंधु में 22 फरवरी 2019 को प्रकाशित

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