Monday 18 March 2019

सत्रहवीं लोकसभा की ओर


23 मई की तारीख पहली नजर में बहुत दूर लग रही है। लेकिन आम चुनावों की घोषणा के बाद आज चार दिन तो बीत ही चुके हैं। एक-एक कर बाकी दिन भी बीत जाएंगे। चुनाव आयोग ने जो टाइम टेबल बनाया है उसे लेकर कहीं शंका व्यक्त की जा रही है, तो कहीं आपत्ति दर्ज कराई जा रही है। जो तय हो चुका है उसमें बदलाव शायद ही हो पाए। एक मुख्य आपत्ति जो वाजिब प्रतीत होती है वह जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव फिलहाल न करवाए जाने को लेकर है। इस बारे में निर्वाचन आयोग ने जो तर्क प्रस्तुत किए हैं वे संतोषजनक नहीं हैं। सामान्य समझ कहती है कि राज्य में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ सम्पन्न हो सकते थे। इस मुद्दे को लेकर आयोग की निष्पक्षता पर भी सवाल उठे हैं। कहा जा रहा है कि यह निर्णय भाजपा को लाभ पहुंचाने के लिए लिया गया है। सत्तारूढ़ मोदी सरकार ने जिस तरह लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता को नष्ट किया है उसे देखते हुए यह असंभव नहीं लगता। वैसे चुनाव आयोग पर आरोप लगना कोई नई बात नहीं है। लेकिन जब नतीजे सामने आते हैं तो सारे आरोप एक किनारे धरे रह जाते हैं। अत: मेरा सोचना है कि इस माथापच्ची के बजाय जो अधिक महत्वपूर्ण मुुद्दे हैं उन पर चर्चा करें।
मैं सबसे पहले मीडिया के रोल की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा। यह बात छुपी हुई नहीं है कि मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा कारपोरेट घरानों के नियंत्रण में है; उसके साथ तरह-तरह के व्यवसायिक हित जुड़े हुए हैं; वह किसी हद तक संघ से अनुप्राणित और पोषित भी है। वर्तमान केन्द्र सरकार के जिन पूंजीपतियों के साथ 'क्रोनी कैपिटलिज्म' के रिश्ते हैं, उन्होंने अखबारों और चैनलों में बेशुमार पूंजी निवेश किया हुआ है। चुनावों की घोषणा होने के दिन तक भारत सरकार के विज्ञापन जिस बड़ी तादाद में इन्हें मिल रहे थे उसे देखकर आम जनता हैरत में थी और सोशल मीडिया में उस पर आलोचना भी हो रही थी। यह 2004 के शाइनिंग इंडिया कैम्पेन का कई गुना बड़ा रूप था। विडंबना यह है कि कांग्रेस के भी कई नेताओं की इन मीडिया घरानों के साथ सांठ-गांठ बनी हुई है। बहरहाल मुुद्दा यह है कि क्या मतदाताओं को मीडिया में प्रसारित आम चुनावों से संबंधित सामग्री पर एतबार करना चाहिए या नहीं। मैं कहूंगा कि बिना सोचे-समझे किसी पर भी भरोसा न करें। मुझ पर भी नहीं। हमें उनसे खतरा है जो जाहिरा तौर पर निष्पक्ष होने का दावा करते हैं, लेकिन वास्तविकता में जिन्होंने अपनी आत्मा व कलम सत्ता प्रतिष्ठान के पास गिरवी रख दी है।
इस संदर्भ में दो-एक उदाहरणों का जिक्र करना उचित होगा। चुनाव आयोग ने 10 तारीख की शाम आम चुनाव की तिथियां घोषित की ही थीं कि देखते ही देखते चैनलों पर मोदी, भाजपा और एनडीए की जीत की भविष्यवाणी होने लगी। सबने जैसे यह पहले से तय कर रखा था। एक चैनल ने तो अतिउत्साह में एनडीए को कुल 545 सीटों की जगह 566 सीटों पर विजय दिला दी। अगर यह पेड न्यूज़ और प्रायोजित पत्रकारिता नहीं थी तो क्या थी? दूसरे, सोमवार की शाम अनेक चैनल एक साथ राहुल गांधी पर हमलावर हो उठे कि उन्होंने आतंकी मसूद अजहर को जी प्रत्यय लगाकर संबोधित किया। राहुल के बयान में जो व्यंग्य था उसे उन्होंने जानबूझ कर नकार दिया। जब रविशंकर प्रसाद द्वारा आतंकी हाफिज सईद को जी कहने और मुरली मनोहर जोशी द्वारा उसके नाम के आगे श्री लगाने का वीडियो वायरल हुआ तो फिर ये भक्तगण सोशल मीडिया में कुतर्क पर उतर आए।
यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि लोकतंत्र को पुष्ट या नष्ट करने में आम चुनावों की कितनी अहम भूमिका होती है। इसलिए आज हमें सबसे पहले यह तय करने की आवश्यकता है कि आसन्न चुनाव किन बड़े मुद्दों पर लड़े जाएंगे। अगर मीडिया की मानें तो देश की सुरक्षा सबसे बड़ा मुद्दा है। भाजपा की मंशा भी यही है कि मतदाताओं को इसी मुद्दे के आसपास भरमा कर रखा जाए। ऐसा करने से ही उनका हित साधन हो सकता है। जनसंघ और भाजपा प्रारंभ से ही चुनावों के समय इसी नीति पर चलते आए हैं। लेकिन आज हमें नरेन्द्र मोदी से पूछना चाहिए कि 2014 में तो आप भ्रष्टाचार को सबसे बड़ा मुद्दा बनाकर जीते थे उसका क्या हुआ? क्या देश से भ्रष्टाचार सचमुच समाप्त हो गया है? प्रतिरक्षा और भ्रष्टाचार- इन दो मुद्दों को आजू-बाजू रखकर देखें तो यह बात भी उठती है कि राफेल के मुद्दे पर आपने संयुक्त संसदीय समिति याने जेपीसी गठित क्यों नहीं होने दी? आखिर संसद ही तो हमारी सर्वोपरि संस्था है। वहां बहस नहीं होगी तो कहां होगी?
दरअसल, इस समय देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती बेरोजगारी को दूर करने की है। इस बार मतदाता सूची में नौ करोड़ नए मतदाता जुड़े हैं। इनमें से अधिकतर वे हैं जो नई सदी प्रारंभ होने के बाद जन्मे हैं। इन नौजवानों के सामने क्या भविष्य है? सरकार बार-बार देश की जीडीपी बढ़ने के दावे करती है; मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया जैसे कार्यक्रम चलाती है; रोजगार के नए अवसर उत्पन्न होने का दावा भी करती है। और तो और कुछेक बड़े नेता तो यहां तक कह चुके हैं कि देश में बेरोजगारी है ही नहीं, लेकिन सब जानते हैं कि हकीकत क्या है और वह चिंताजनक और दुखदायी है। एक अरब तीस करोड़ की आबादी वाले देश में हर हाथ को काम तभी मिल सकता है जब कुटीर, लघु और मध्यम उद्योगों की स्थापना की जाए, उन्हें प्रोत्साहित किया जाए। अंबानी, अडानी, टाटा या ऐसे चंद उद्योगपतियों के भरोसे रहेंगे तो युवाओं को रोजगार कहां से मिलेगा? नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी को इस पर जवाब देना ही होगा।
इस दौर का दूसरा उतना ही बड़ा सवाल खेती-किसानी और कृषि आधारित उद्यमों की स्थिति को लेकर है। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के नाम पर किसानों की जमीनें छीनी जा रही हैं। नागपुर से मुंबई तक सुपर एक्सप्रेस-वे बन रहा है। उसके लिए जिस किसान की जमीन छीनी गई है वह तो सड़क पर कभी चलेगा भी नहीं। लेकिन पूरे देश में इसी तरह से किसानों की जमीन हथिया कर आप कैसा देश बनाना चाहते हैं? पंजाब से लेकर नासिक और नीचे केरल तक के किसान अगर सरकार से खफा हैं तो इसके पीछे ठोस कारण हैं। पूंजी और सत्ता के गठजोड़ में जो मदहोश हैं वे इस वास्तविकता से आंखें चुरा रहे हैं। याद कीजिए कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को प्रचंड विजय किसानों की सरकार बनने के भरोसे ही मिली है। लोकसभा चुनावों में भी हमारी समझ में एक बार फिर सबसे बड़ा मुद्दा यही बनेगा।
किसान और नौजवान- चुनाव के ये दो प्रमुख मुद्दे रहेंगे। देश की सुरक्षा व अखंडता के नाम पर भावनाएं उभाड़ने की कोशिशें दक्षिणपंथी दल अवश्य करेंगे, किंतु जनता अब सच्चाई को भलीभांति जान रही है। उसे अपनी प्राथमिकताएं भी मालूम हैं। हां, चुनावों में विभिन्न दल प्रत्याशियों का चयन कैसे करते हैं, चुनाव-पूर्व समीकरण क्या बनते हैं, इनकी ओर भी थोड़ा ध्यान तो देना होगा। मसलन, दिल्ली में कांग्रेस और आप का गठबंधन न होने से अनेक चुनावी पंडित हताश प्रतीत होते हैं। कुछ अन्य राज्यों में भी ऐसी ही स्थिति बनी है। हम समझते हैं कि कांग्रेस यदि अपने बूते चुनाव मैदान में उतर रही है तो यह उसके लिए श्रेयस्कर है। उसे अपना खोया जनाधार वापिस लाना है और सभी तरफ कार्यकर्ताओं को बांधे रखना है। इसलिए जहां आपसी समझदारी से गठबंधन हो जाए तो ठीक है जैसे महाराष्ट्र में हुआ, अन्यथा चुनाव के बाद भी तो हाथ मिलाने की गुंजाइश बनी रहेगी। कांग्रेस का शायद आकलन है कि भाजपा 2014 का प्रदर्शन दोहरा नहीं पाएगी और शायद इसलिए वह किसी हद तक आश्वस्त भी नजर आ रही है। लेकिन ऐसा सोचकर गाफिल हो जाना नुकसानदायक हो सकता है।
#देशबंधु में 14 मार्च 2019 को प्रकाशित

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