क्रिकेट प्रेमियों को यह प्रसंग अवश्य याद होगा। 1971 में अजीत वाडेकर की कप्तानी में भारत ने विदेश में दो टेस्ट श्रंखलाएंं शानदार तरीके से जीती थीं। इस विजय के उपलक्ष्य में क्रिकेट के एक प्रमुख शहर इंदौर में किसी प्रमुख चौराहे पर क्रिकेट के बल्ले का एक विराट प्रस्तर प्रतिरूप स्थापित किया गया था। लेकिन 1974 में जब वाडेकर की ही कप्तानी में भारत इंग्लैण्ड से 3-0 से टेस्ट श्रंखला हार गया तो इंदौर की गुस्साई जनता ने विजय के उस बल्ले पर कालिख पोत दी; उधर तब की बंबई में वाडेकर के घर पर लोगों ने पथराव भी किया। आज यह ज़िक्र यह समझने के लिए कि समाज कैसे एक व्यक्ति से ढेर सारी आशाएं बांध लेता है, उसे मसीहा और भगवान तक का दर्ज़ा दे देता है; लेकिन जब आशाएं क्षणिक तौर पर ही सही बिखरने लगती हैं तो वही मसीहा अपमान, तिरस्कार, घृणा का पात्र बना दिया जाता है, उसकी विराट छवि धूल-धूसरित कर दी जाती है।
अभिनय, कला, क्रीड़ा जैसे क्षेत्रों में इस सामाजिक मनोवृत्ति के ढेरों उदाहरण सामने हैं। और यह दारुण सच्चाई भारत तक सीमित नहीं है। खेल व सिनेमा आदि में प्रदर्शन व परिणाम के बीच बहुत अधिक फासला नहीं होता, इसलिए इन क्षेत्रों के दृष्टांत अधिक दिखाई देते हैं। एक समय राजेश खन्ना सबके चहेते अभिनेता थे। 'नमक हराम' के बाद उनका ग्राफ जो गिरा तो गिरता ही गया, जिसे 'अवतार' ने कुछ सम्हाला। दो नामों का उल्लेख अपवादस्वरूप किया जा सकता है- अमिताभ बच्चन और सचिन तेंदुलकर। ये अभी भी भगवान बने हुए हैं; और यह तो सामाजिक मनोविज्ञान का कोई शोधकर्ता ही कभी बता सकेगा कि इनकी करिश्माई छवि बरकरार रखने में कारपोरेट घरानों के संरक्षण तथा कारपोरेट मीडिया ने क्या भूमिका निभाई है। हमें अनायास हॉलीवुड का एक प्रसंग ध्यान आता है जब किसी कम प्रतिभावान गायक को माफिया के संरक्षण के कारण एक के बाद एक ''ब्रेक'' मिलते गए और उसे अन्तत: महान पार्श्वगायक के रूप में स्थापित कर दिया गया।
हॉलीवुड, बॉलीवुड, स्टेडियम, स्टेज आदि का अपना महत्व है। श्रम का परिहार करने के लिए मनोरंजन की आवश्यकता होना स्वाभाविक है। लेकिन किसी खिलाड़ी या अभिनेता के अच्छे या बुरे प्रदर्शन का प्रभाव दूरगामी नहीं होता। समय के साथ लोग उसे भुला देते हैं। ध्यानचंद, पेले, पावो नूर्मी जैसा कोई बिरला ही होता है जो देश के गौरव का पर्याय बन जाए। किसी भी देश के शासक, राजनेता, नीतिनिर्धारक की स्थिति इसके ठीक विपरीत है। शायर बशीर बद्र का प्रसिद्ध शेर है-''लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई।'' उनका यह शेर शायद इस कोटि के व्यक्तियों को ध्यान में रखकर ही लिखा गया था। विश्व इतिहास में एक के बाद एक दृष्टांत मिलते हैं कि कैसे शासक वर्ग की अदूरदर्शिता, संकीर्ण मानसिकता, अहंकार, आत्मविश्वास का अतिरेक और स्वयं को अपरोजय समझने के कारण किसी देश और समाज को नारकीय यातनाओं के दौर से गुजरना पड़ा। प्लेटो जब दार्शनिक सम्राट की वकालत करता है तब क्या प्रकारांतर से वह विचारहीन, बुद्धिहीन, विवेकहीन शासकों की आलोचना नहीं कर रहा होता?
यह हमारे समय की बड़ी विडंबना है और साथ में यक्ष प्रश्न भी कि एक आदर्श शासन व्यवस्था कैसे लागू हो! हमने अतीत में राजाओं और सम्राटों को देखा है। उनके वैभव के प्रतीक, उनके तुगलकी निर्णय, उनके ऐशोआराम के साधन, उनकी महत्वाकांक्षा, अपनी प्रजा के प्रति उनकी उपेक्षा और निर्ममता के किस्सों से हम परिचित हुए हैं। नि:संदेह ताजमहल विश्व की सबसे सुंदर इमारत है, जिस पर हमें गर्व है; लेकिन क्या किसी शहंशाह या सम्राट को अपनी पत्नी का मकबरा बनाने के लिए इस बेहद फिज़ूलखर्ची की इजाजत मिलना चाहिए थी? आज भी जब सत्ताधीश ऐसे ऐश्वर्य का प्रदर्शन करते हैं तो जनता के दिल पर क्या गुजरती है, यह क्या कोई कहने की बात है! विडंबना ही तो है कि आज के समय में भी अंबानी परिवार सत्ताइस मंजिल की अट्टालिका में रहता है और देश के प्रधानमंत्री को सोने के धागे से पिरोया सूट पहनने में संकोच नहीं होता!
हमने इतिहास में उन शासकों के बारे में पढ़ा है जिन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए दूसरे देशों पर आक्रमण किए। इसमें होने वाले खून -खराबे के बारे में उन्होंने सोचना जरूरी नहीं समझा। इतिहासकारों ने जिस सिकंदर को महान की उपाधि दी वह भारत की सीमा तक आ गया, लेकिन अंतत: परिणाम क्या निकला? कहावत बन गई कि सिकंदर भी खाली हाथ आया था और खाली हाथ चला गया। एक सम्राट अशोक का ही उदाहरण है जिसे युद्ध में रक्तपात देखने के बाद पश्चाताप हुआ। फिर जिसने स्वयं का कायाकल्प शांतिदूत के रूप में किया। एक दूसरा उदाहरण इंग्लैण्ड के एडवर्ड अष्टम का है जिसने अपनी प्रेमिका से विवाह करने के लिए इंग्लैण्ड का राजपाट त्याग दिया। लेकिन ऐसे उदाहरण बिरले ही हैं। अशोक ने तो भगवान बुद्ध से प्रेरणा ली थी जिन्होंने राजसुख की कभी परवाह ही नहीं की।
मैं सोचता हूं कि सही मायनों में मसीहा तो बुद्ध और गांधी जैसे ही लोग थे। उन्होंने अपने समय में अपने आचरण से जन-जन को प्रभावित और प्रेरित किया और एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था कायम करने का रास्ता खोला जहां हर मनुष्य को बराबरी के अवसर मिले, जहां अपने-पराए का भेद न हो, जहां ऊंच-नीच और छुआछूत न हो, जहां एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से न देखा जाए और जहां सब मिलजुल कर सद्भाव व सौमनस्य के साथ सुंदर जीवन जी सकें। हमने इन्हें मसीहा से ऊपर भी माना, लेकिन गौर करने की बात यह है कि बुद्ध या गांधी ने जनता को कभी उन पर निर्भर रहने के लिए नहीं कहा। उन्होंने जनसाधारण के स्वाभिमान को जगाया। उसकी छुपी हुई शक्ति से उसे परिचित कराया और निर्भय होकर आचरण करने की प्रेरणा दी। विचार करें कि क्या हम आज भी गांधी के रास्ते पर चल रहे हैं?
आज की बात करते हुए मालूम नहीं क्यों मेरा ध्यान अपनी पुराकथाओं की ओर चला जाता है। ब्रजवासियों ने श्रीकृष्ण से यह विनती क्यों की कि वे इंद्र के कोप से उनकी रक्षा करें? और अगर भगवान कृष्ण को गोवर्धन पर्वत उठाना ही था तो उन्होंने ब्रजवासियों का आह्वान क्यों नहीं किया कि आओ हम सब मिलकर इस पहाड़ को उठा लें! क्या यह सर्वोच्च सत्ता के सामने समर्पण का उदाहरण नहीं है? मैं यह भी सोचता हूं कि गुरु विश्वामित्र राजा दशरथ के दरबार में ऋषियों की सुरक्षा के लिए राजपुत्रों को भेजने का अनुरोध करने क्यों आए? संशय है कि उस युग में आज के समान कानून- व्यवस्था का कोई तंत्र था या नहीं। और अगर नहीं था तो इन ऋषि मुनियों का तपोबल कहां था? वे अपनी रक्षा स्वयं करने में समर्थ क्यों नहीं थे? यह मेरी अपनी जिज्ञासा है।
मैं देखता हूं कि हमारे देश में संविधान सम्मत संसदीय जनतंत्र होने के बावजूद हमें खुद पर भरोसा नहीं है। हम जब देखो तब किसी न किसी मसीहा की तलाश में लगे रहते हैं। कभी किसी प्रशासनिक अधिकारी में अपना प्राणरक्षक दिखाई देने लगता है तो कभी किसी नेता में। अभी चुनावों के दौर में कुछ ज्ञानियों को टी.एन. शेषन बार-बार याद आ रहे हैं। गोया शेषन के पहले कभी यहां न चुनाव हुए थे, न सरकारें बदली थीं! कभी प्रियंका गांधी को हम मुक्तिदात्री मान बैठते हैं, तो कभी कन्हैया कुमार से हम अपार उम्मीदें लगा बैठते हैं। और वर्तमान प्रधानमंत्री का जहां तक सवाल है तो एक बड़े वर्ग ने मान लिया है कि मोदी हैं तो मुमकिन है। मोदीजी सुपरमैन का चोला धारण कर तृतीय पुरुष में बतलाते हैं कि मोदी ने बालाकोट जाकर आतंकियों को मारा और हम जो अपना आत्मविश्वास खो चुके हैं इस बड़बोलेपन पर विश्वास कर बैठते हैं। यह मसीहाई अंदाज नहीं तो क्या है?
#देशबंधु में 02 मई 2019 को प्रकाशित
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