छत्तीसगढ़ में आप किसी विषय पर शोध करना चाहते हैं, कोई पुरानी खबर या विज्ञापन आपको देखना है तो बहुत संभव है कि इसके लिए आप देशबन्धु लाइब्रेरी आएं। इस सार्वजनिक ग्र्रंथालय में देशबन्धु के पिछले साठ सालों के दौरान प्रकाशित अंकों की जिल्दों में कहीं आपको अपनी वांछित सामग्री मिल जाएगी। देश-दुनिया के अनेक समाचारपत्रों में विगत अंकों को इस तरह से संरक्षित रखा जाता है। इसलिए यह कोई अनोखी बात नहीं है। लेकिन आपको जानकर अचरज होगा कि जिस व्यक्ति ने देशबन्धु की पुरानी फाइलों को सिलसिलेवार संजोने की प्रणाली विकसित की, वह लगभग निरक्षर था। उसकी पढ़ाई चौथी हिन्दी से आगे नहीं हुई थी; लिखावट बहुत खराब, जिसे शायद मैं अकेला ही पढ़ पाता था; जिसने कभी आजीविका के लिए कुछ समय के लिए पान दूकान खोल ली थी; और जो सदर बाजार के सद्दानी चौक पर खड़े होकर लोगों से शर्त लगाने का शौकीन था कि छप्पर से बारिश की पहली बूंद कितनी देर में नीचे गिरेगी। इस शख्स का नाम था- बालकृष्ण जोशी। उन्हें और उनकी पत्नी झुमरीबाई को हम फूफाजी-बुआजी का आदरसूचक संबोधन देते थे।
बालकृष्ण जोशी बूढ़ापारा में प्रेस के बाजू से गुजरने वाली गोकुलचंद्रमा गली में उस छोर पर दूसरे मकान में रहते थे। 17 अप्रैल 1959 को अखबार चालू हुआ तो दूसरे-तीसरे दिन वे मुहल्लावासियों का डेलीगेशन लेकर बाबूजी से लड़ने आ गए थे। आपकी मशीन की खटखट से हमारी रातों की नींद में बाधा पड़ रही है। बाबूजी ने मुस्कुरा कर उन्हें समझाया- कुछ दिनों बाद यही खटखट आपको लोरी लगने लगेगी। और फिर अखबार का काम चौबीस घंटे चलता है तो आपके घर चोर भी नहीं आएंगे। मुहल्लेवासी संतुष्ट होकर लौट गए। यही जोशीजी लगभग चार साल बाद 1963 में प्रेस से कैसे जुड़े, यह मुझे ध्यान नहीं, लेकिन जब आ गए तो ताउम्र हमारे साथ ही रहे आए। गोकुलचंद्रमा मंदिर में जोशी दंपति का मेरे दादा-दादी से परिचय हुआ होगा। उसी कारण शायद यह मुंहबोला रिश्ता बना होगा। नि:संतान जोशीजी की एक भतीजी कृष्णा उनके पास रहती थीं, वह मेरी छोटी बहिन ममता की हमउम्र सहेली बन गई। जोशीजी पढ़े-लिखे तो नहीं थे, लेकिन व्यवहारबुद्धि उनमें अपार थी। वे अपने ढंग से कुछ चालाक भी थे। अनेक प्रेस कर्मचारी उनसे सूद पर रकम उठाते थे। मुझे मालूम पड़ा तो उन्हें रोका। कर्मचारियों के लिए उनका अपना कल्याण कोष स्थापित किया, जिससे वे कई जगहों से कर्जमुक्त हो सके। जोशीजी ने शिकायत की-आपने मेरी कमाई बंद करवा दी।
खैर, यह जोशीजी की ही सोच थी कि अखबार की दैनंदिन प्रतियों को संभालकर रखा जाए। उन्होंने पिछले तीन-तीन माह के अंकों की फाइलें बनवाना शुरू किया। उन्हें रखने के लिए भारी लकड़ी के बड़े-बड़े रैक बनवाए। पत्र की जो अतिरिक्त प्रतियां रखी जाती थीं, उसकी भी प्रणाली बनाई- आज के अंक की बीस कॉपियां, एक माह बाद सिर्फ दस, एक साल बाद घटाकर पांच। अनावश्यक जगह क्यों घेरी जाए! अगर किसी को पुराने अखबार की प्रति चाहिए तो जितना पुराना अंक, उतना अधिक दाम। अधिकतर जमीन-जायदाद के मुकदमों से संबंधित खबर/विज्ञापन के लिए ही लोग पुराना पेपर लेने आते थे। उनसे मुरव्वत क्यों? आखिर रख-रखाव में हमें भी तो खर्च करना पड़ता है, यह जोशीजी का तर्क था। उन्होंने जो व्यवस्था लागू की, वह आज छप्पन साल बाद भी लगभग वैसी ही चली आ रही है।
जोशीजी पर प्रेस की रद्दी, स्याही के ड्रम आदि के निबटान का जिम्मा भी था। हमारे हितैषी बैंक मैनेजर डागाजी ने जोशीजी को निर्देश दिया- तुम रद्दी बिक्री की रकम से हर माह एक सौ रुपए लाकर मुझे दोगे। उसका एक अलग खाता खोला गया। पांच साल बाद जब घर बनाने के लिए सहकारी समिति में प्लॉट खरीदने का अवसर मिला तो बचत की रकम काम आई। बाबूजी को भी उस दिन तक इसका पता नहीं था। जोशीजी के अनोखे व्यक्तित्व के बारे में लिखने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन एक प्रसंग का जिक्र करना उचित होगा। जोशी दंपति का अपना कोई खास घर खर्च नहीं था। अनेक संपन्न परिवारों में उनकी जजमानी चलती थी। अपने देहांत से कुछ साल पहले उन्होंने एक कन्या शाला में पेयजल व्यवस्था के लिए अपनी मेहनत से जोड़ी कमाई का एक बड़ा हिस्सा लगा दिया। वे एक सहृदय, सदाशयी व्यक्ति थे और उनकी स्मृति जब-तब आ ही जाती है।
एक अन्य सहयोगी रामसखीले दुबे भी अपने ढंग के अनोखे थे। मैं उन्हें महाराज कहता था। गो कि अधिकतर उन्हें लंगड़े पंडित ही कहा जाता था। आज रामसागरपारा के जिस प्रेस भवन से देशबन्धु का कारोबार संचालित होता है, उसके निर्माण में महाराज ने अनथक और अनकथ परिश्रम किया है। हमारे आवासगृह को तामीर करने में भी महाराज ने वैसी ही दौड़-धूप की थी। महाराज रीवां के पास किसी गांव के मूल निवासी थे और अब भी शायद वहीं रहते हैं। मुझे जहां तक याद पड़ता है वे 1961-62 में जबलपुर पे्रस में फोल्डिंग विभाग में काम करने आए थे। सन् 62 के अंत में जबलपुर नई दुनिया से बाबूजी अलग हुए तो महाराज भी हमारे साथ-साथ आ गए। नया अखबार शुरू होने में कुछ माह का समय था तो पाककला में प्रवीण महाराज ने घर की रसोई संभाल ली। अखबार चालू हुआ तो घर-दफ्तर दोनों जगह ड्यूटी करते रहे। पोलियोग्रस्त होने के कारण महाराज का एक पैर छोटा था। लंगड़ाकर चलते थे, लेकिन उनकी फुर्ती देखते बनती थी। वे हमारे ऐसे साथी थे, जिन्होंने कभी किसी काम के लिए मना नहीं किया। भवन निर्माण के समय दिन-दिन भर साइट पर खड़े रहना, निर्माण सामग्री के लिए दूकानों के चक्कर लगाना, श्रमिकों के साथ सद्व्यवहार के साथ उनके काम की निगरानी रखना- यह सब काम महाराज ने पूरी लगन और निष्ठा के साथ किया। बढ़ती उम्र में विवाह करने के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियों को सम्हालने आदि कारणों से वे गांव वापस चले गए। यह हमारी विवशता थी कि चाहकर भी उन्हें रोककर नहीं रख सके।
मुझे रघुनाथराव कड़वे की भी याद आती है। प्रेस में अधिकतर लोग उन्हें रघुनाथ दादा कहते थे। दुर्बल कद-काठी के रघुनाथ रातपाली के चौकीदार थे। दिन में वे म.प्र. विद्युत मंडल में चतुर्थ श्रेणी के किसी पद पर काम करते थे। रघुनाथ देखने में सुकोमल लेकिन स्वभाव में कड़क थे। मजाल है कि उनके ड्यूटी पर रहते एक कागज इधर का उधर हो जाए। हमारे एक कैशियर को भूलने की बीमारी थी, शायद जानबूझकर। वे शाम को कई बार कैशबॉक्स खुला छोड़कर घर चले जाते थे। रघुनाथ कैशबॉक्स को ताला लगाते, गोदरेज की आलमारी में बंद करते और चाबियां देने घर तक आते। उनके बारे में दिलचस्प तथ्य यह था कि उनकी उम्र का किसी को पता नहीं था। देखकर लगता था कि रिटायरमेंट का समय हो चुका है, लेकिन विद्युत मंडल में किसी जादू से हर साल उनकी सेवानिवृत्ति टल जाती थी। शायद हो कि वहां के अधिकारी भी उनकी कर्तव्यनिष्ठा से प्रसन्न होकर उन्हें विदा न करना चाहते हों! रघुनाथ के बेटे सतीश ने भी कुछ समय तक प्रेस में काम किया, लेकिन टिक नहीं पाए। रघुनाथराव ने शायद तीस साल से भी अधिक समय तक अखबार को अपनी सेवाएं दीं। कर्तव्यपरायणता और ईमानदारी उन दिनों भी शायद इतनी ही दुर्लभ या सुलभ थी, जितनी आज है। यह हमारा सौभाग्य था कि हमें इनके जैसी साथी-सहयोगी मिले।
इस लेखमाला की 11 अप्रैल को प्रकाशित पहली किश्त में मैंने कुछ ऐसे जनों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की थी, जिनका देशबन्धु की साठसाला यात्रा में किसी न किसी वक्त पर अनमोल सहयोग मिला। आज उसी कड़ी में अपने उपरोक्त तीन सहयोगियों की चर्चा हुई है। मैंने अमेरिका के उपन्यासकार कैमरून हॉले का बहुचर्चित उपन्यास -''द एक्जीक्यूटिव सुईट'' या ''अध्यक्ष कौन हो'' 1962-63 में पढ़ा था और उससे गहरे तक प्रभावित हुआ था। इस उपन्यास का आधारबिंदु यही था कि कोई भी प्रतिष्ठान सिर्फ मशीनों और जड़ नियमों से नहीं बल्कि मानवीय सरोकारों से संचालित होता है। मैं अक्सर सोचता हूं कि बाबूजी को ऐसे साथी न मिले होते तो अखबार आगे कैसे बढ़ता! अगली किश्त शीघ्र ही, कुछ और साथियों-सहयोगियों के परिचय के साथ।
देशबंधु में 27 जून 2019 को प्रकाशित