Wednesday, 26 June 2019

देशबन्धु के साठ साल-2


छत्तीसगढ़ में आप किसी विषय पर शोध करना चाहते हैं, कोई पुरानी खबर या विज्ञापन आपको देखना है तो बहुत संभव है कि इसके लिए आप देशबन्धु लाइब्रेरी आएं। इस सार्वजनिक ग्र्रंथालय में देशबन्धु के पिछले साठ सालों के दौरान प्रकाशित अंकों की जिल्दों में कहीं आपको अपनी वांछित सामग्री मिल जाएगी। देश-दुनिया के अनेक समाचारपत्रों में विगत अंकों को इस तरह से संरक्षित रखा जाता है। इसलिए यह कोई अनोखी बात नहीं है। लेकिन आपको जानकर अचरज होगा कि जिस व्यक्ति ने देशबन्धु की पुरानी फाइलों को सिलसिलेवार संजोने की प्रणाली विकसित की, वह लगभग निरक्षर था। उसकी पढ़ाई चौथी हिन्दी से आगे नहीं हुई थी; लिखावट बहुत खराब, जिसे शायद मैं अकेला ही पढ़ पाता था; जिसने कभी आजीविका के लिए कुछ समय के लिए पान दूकान खोल ली थी; और जो सदर बाजार के सद्दानी चौक पर खड़े होकर लोगों से शर्त लगाने का शौकीन था कि छप्पर से बारिश की पहली बूंद कितनी देर में नीचे गिरेगी। इस शख्स का नाम था- बालकृष्ण जोशी। उन्हें और उनकी पत्नी झुमरीबाई को हम फूफाजी-बुआजी का आदरसूचक संबोधन देते थे।
बालकृष्ण जोशी बूढ़ापारा में प्रेस के बाजू से गुजरने वाली गोकुलचंद्रमा गली में उस छोर पर दूसरे मकान में रहते थे। 17 अप्रैल 1959 को अखबार चालू हुआ तो दूसरे-तीसरे दिन वे मुहल्लावासियों का डेलीगेशन लेकर बाबूजी से लड़ने आ गए थे। आपकी मशीन की खटखट से हमारी रातों की नींद में बाधा पड़ रही है। बाबूजी ने मुस्कुरा कर उन्हें समझाया- कुछ दिनों बाद यही खटखट आपको लोरी लगने लगेगी। और फिर अखबार का काम चौबीस घंटे चलता है तो आपके घर चोर भी नहीं आएंगे। मुहल्लेवासी संतुष्ट होकर लौट गए। यही जोशीजी लगभग चार साल बाद 1963 में प्रेस से कैसे जुड़े, यह मुझे ध्यान नहीं, लेकिन जब आ गए तो ताउम्र हमारे साथ ही रहे आए। गोकुलचंद्रमा मंदिर में जोशी दंपति का मेरे दादा-दादी से परिचय हुआ होगा। उसी कारण शायद यह मुंहबोला रिश्ता बना होगा। नि:संतान जोशीजी की एक भतीजी कृष्णा उनके पास रहती थीं, वह मेरी छोटी बहिन ममता की हमउम्र सहेली बन गई। जोशीजी पढ़े-लिखे तो नहीं थे, लेकिन व्यवहारबुद्धि उनमें अपार थी। वे अपने ढंग से कुछ चालाक भी थे। अनेक प्रेस कर्मचारी उनसे सूद पर रकम उठाते थे। मुझे मालूम पड़ा तो उन्हें रोका। कर्मचारियों के लिए उनका अपना कल्याण कोष स्थापित किया, जिससे वे कई जगहों से कर्जमुक्त हो सके। जोशीजी ने शिकायत की-आपने मेरी कमाई बंद करवा दी।
खैर, यह जोशीजी की ही सोच थी कि अखबार की दैनंदिन प्रतियों को संभालकर रखा जाए। उन्होंने पिछले तीन-तीन माह के अंकों की फाइलें बनवाना शुरू किया। उन्हें रखने के लिए भारी लकड़ी के बड़े-बड़े रैक बनवाए। पत्र की जो अतिरिक्त प्रतियां रखी जाती थीं, उसकी भी प्रणाली बनाई- आज के अंक की बीस कॉपियां, एक माह बाद सिर्फ दस, एक साल बाद घटाकर पांच। अनावश्यक जगह क्यों घेरी जाए! अगर किसी को पुराने अखबार की प्रति चाहिए तो जितना पुराना अंक, उतना अधिक दाम। अधिकतर जमीन-जायदाद के मुकदमों से संबंधित खबर/विज्ञापन के लिए ही लोग पुराना पेपर लेने आते थे। उनसे मुरव्वत क्यों? आखिर रख-रखाव में हमें भी तो खर्च करना पड़ता है, यह जोशीजी का तर्क था। उन्होंने जो व्यवस्था लागू की, वह आज छप्पन साल बाद भी लगभग वैसी ही चली आ रही है।
जोशीजी पर प्रेस की रद्दी, स्याही के ड्रम आदि के निबटान का जिम्मा भी था। हमारे हितैषी बैंक मैनेजर डागाजी ने जोशीजी को निर्देश दिया- तुम रद्दी बिक्री की रकम से हर माह एक सौ रुपए लाकर मुझे दोगे। उसका एक अलग खाता खोला गया। पांच साल बाद जब घर बनाने के लिए सहकारी समिति में प्लॉट खरीदने का अवसर मिला तो बचत की रकम काम आई। बाबूजी को भी उस दिन तक इसका पता नहीं था। जोशीजी के अनोखे व्यक्तित्व के बारे में लिखने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन एक प्रसंग का जिक्र करना उचित होगा। जोशी दंपति का अपना कोई खास घर खर्च नहीं था। अनेक संपन्न परिवारों में उनकी जजमानी चलती थी। अपने देहांत से कुछ साल पहले उन्होंने एक कन्या शाला में पेयजल व्यवस्था के लिए अपनी मेहनत से जोड़ी कमाई का एक बड़ा हिस्सा लगा दिया। वे एक सहृदय, सदाशयी व्यक्ति थे और उनकी स्मृति जब-तब आ ही जाती है।
एक अन्य सहयोगी रामसखीले दुबे भी अपने ढंग के अनोखे थे। मैं उन्हें महाराज कहता था। गो कि अधिकतर उन्हें लंगड़े पंडित ही कहा जाता था। आज रामसागरपारा के जिस प्रेस भवन से देशबन्धु का कारोबार संचालित होता है, उसके निर्माण में महाराज ने अनथक और अनकथ परिश्रम किया है। हमारे आवासगृह को तामीर करने में भी महाराज ने वैसी ही दौड़-धूप की थी। महाराज रीवां के पास किसी गांव के मूल निवासी थे और अब भी शायद वहीं रहते हैं। मुझे जहां तक याद पड़ता है वे 1961-62 में जबलपुर पे्रस में फोल्डिंग विभाग में काम करने आए थे। सन् 62 के अंत में जबलपुर नई दुनिया से बाबूजी अलग हुए तो महाराज भी हमारे साथ-साथ आ गए। नया अखबार शुरू होने में कुछ माह का समय था तो पाककला में प्रवीण महाराज ने घर की रसोई संभाल ली। अखबार चालू हुआ तो घर-दफ्तर दोनों जगह ड्यूटी करते रहे। पोलियोग्रस्त होने के कारण महाराज का एक पैर छोटा था। लंगड़ाकर चलते थे, लेकिन उनकी फुर्ती देखते बनती थी। वे हमारे ऐसे साथी थे, जिन्होंने कभी किसी काम के लिए मना नहीं किया। भवन निर्माण के समय दिन-दिन भर साइट पर खड़े रहना, निर्माण सामग्री के लिए दूकानों के चक्कर लगाना, श्रमिकों के साथ सद्व्यवहार के साथ उनके काम की निगरानी रखना- यह सब काम महाराज ने पूरी लगन और निष्ठा के साथ किया। बढ़ती उम्र में विवाह करने के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियों को सम्हालने आदि कारणों से वे गांव वापस चले गए। यह हमारी विवशता थी कि चाहकर भी उन्हें रोककर नहीं रख सके।
मुझे रघुनाथराव कड़वे की भी याद आती है। प्रेस में अधिकतर लोग उन्हें रघुनाथ दादा कहते थे। दुर्बल कद-काठी के रघुनाथ रातपाली के चौकीदार थे। दिन में वे म.प्र. विद्युत मंडल में चतुर्थ श्रेणी के किसी पद पर काम करते थे। रघुनाथ देखने में सुकोमल लेकिन स्वभाव में कड़क थे। मजाल है कि उनके ड्यूटी पर रहते एक कागज इधर का उधर हो जाए। हमारे एक कैशियर को भूलने की बीमारी थी, शायद जानबूझकर। वे शाम को कई बार कैशबॉक्स खुला छोड़कर घर चले जाते थे। रघुनाथ कैशबॉक्स को ताला लगाते, गोदरेज की आलमारी में बंद करते और चाबियां देने घर तक आते। उनके बारे में दिलचस्प तथ्य यह था कि उनकी उम्र का किसी को पता नहीं था। देखकर लगता था कि रिटायरमेंट का समय हो चुका है, लेकिन विद्युत मंडल में किसी जादू से हर साल उनकी सेवानिवृत्ति टल जाती थी। शायद हो कि वहां के अधिकारी भी उनकी कर्तव्यनिष्ठा से प्रसन्न होकर उन्हें विदा न करना चाहते हों! रघुनाथ के बेटे सतीश ने भी कुछ समय तक प्रेस में काम किया, लेकिन टिक नहीं पाए। रघुनाथराव ने शायद तीस साल से भी अधिक समय तक अखबार को अपनी सेवाएं दीं। कर्तव्यपरायणता और ईमानदारी उन दिनों भी शायद इतनी ही दुर्लभ या सुलभ थी, जितनी आज है। यह हमारा सौभाग्य था कि हमें इनके जैसी साथी-सहयोगी मिले।
इस लेखमाला की 11 अप्रैल को प्रकाशित पहली किश्त में मैंने कुछ ऐसे जनों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की थी, जिनका देशबन्धु की साठसाला यात्रा में किसी न किसी वक्त पर अनमोल सहयोग मिला। आज उसी कड़ी में अपने उपरोक्त तीन सहयोगियों की चर्चा हुई है। मैंने अमेरिका के उपन्यासकार कैमरून हॉले का बहुचर्चित उपन्यास -''द एक्जीक्यूटिव सुईट'' या ''अध्यक्ष कौन हो'' 1962-63 में पढ़ा था और उससे गहरे तक प्रभावित हुआ था। इस उपन्यास का आधारबिंदु यही था कि कोई भी प्रतिष्ठान सिर्फ मशीनों और जड़ नियमों से नहीं बल्कि मानवीय सरोकारों से संचालित होता है। मैं अक्सर सोचता हूं कि बाबूजी को ऐसे साथी न मिले होते तो अखबार आगे कैसे बढ़ता! अगली किश्त शीघ्र ही, कुछ और साथियों-सहयोगियों के परिचय के साथ।
देशबंधु में 27 जून 2019 को प्रकाशित

Thursday, 20 June 2019

तपती धूप में सड़क का सफर


बड़चिचोली। नागपुर से भोपाल राष्ट्रीय राजमार्ग क्र. 47 पर विदर्भ की सीमा पार करते साथ म.प्र. के छिंदवाड़ा जिले का एक छोटा सा गांव। कुछ दिन पहले इस रास्ते से गुजरना हुआ तो जाते वक्त तो बाईपास से ही आगे बढ़ गए, लेकिन लौटते समय तय कर लिया कि गांव में जाना ही है। इसलिए कि वह वटवृक्ष एक बार फिर देखना था, जिसे देखे करीब पच्चीस साल बीत चुके थे। इसमें शायद कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि समूचे मध्यवर्ती भारत में इससे वृहदाकार बरगद का पेड़ कोई दूसरा नहीं है। जब पिछली बार देखा था, तब वृक्ष का विस्तार एक वर्ग किमी से अधिक क्षेत्र में था, जो इन बीस-पच्चीस सालों मे और आगे बढ़कर संभवत् डेढ़ वर्ग किमी तक फैल गया है। इस विशाल वृक्ष में अब लगभग सात सौ तने हैं- तने याने ऊपर से नीचे आकर धरती में समाने वाली जड़ें। मेरी जानकारी में कोलकाता के शिवपुर वानस्पतिक उद्यान, चैन्नई के अड्यार और शायद आंध्रप्रदेश में किसी स्थान पर अवस्थित वटवृक्ष हमारे देश के प्रमुख और महाकाय वटवृक्ष हैं। बड़चिचोली की गिनती किस क्रम पर होगी, यह तो वनस्पति-विज्ञान के पंडित ही जानते होंगे, लेकिन यदि इस स्तंभ के पाठकों के पास इस संदर्भ में कोई जानकारी हो तो साझा करने की कृपा करें।
जाहिर है कि विदर्भ-महाकौशल के सीमांत पर बसे इस गांव का नाम ही अपने वटवृक्ष के कारण बड़चिचोली पड़ा है, लेकिन अपनी इस प्राकृतिक विरासत को सहेजने में म.प्र. सरकार ने कोई विशेष ध्यान दिया हो, ऐसा नहीं लगता। ध्यान आता है कि बाराबंकी (उ.प्र.) के लोकसभा सदस्य बेनीप्रसाद वर्मा केंद्रीय संचार मंत्री बने तो उन्होंने अपने क्षेत्र में स्थित अनूठे ''कल्पवृक्ष'' पर डाक टिकिट जारी करवा दिया था। देखें कि मुख्यमंत्री कमलनाथ का ध्यान अपने गृहक्षेत्र की इस अनूठी धरोहर पर कब जाता है! इसी परिसर में एक बावली भी है जो शायद दो सौ साल पुरानी होगी। बड़चिचोली के बरगद की एक और खासियत है जो आज के दौर में खासे मायने रखती है। यहां एक सूफी संत की मजार है, जिस पर हर साल उर्स भरता है। उस मजार के बाजू में ही हनुमानजी का मंदिर भी है। इस मजार व उर्स के संरक्षक व सहयोगी आसपास के गांवों के सभी धर्मों व वर्गों के नागरिक हैं। उसमें कोई भेदभाव नहीं है। पहले मजार छोटे रूप में थी, उत्साही भक्तों के सहयोग से अब उसका विस्तार हो रहा है। इससे वटवृक्ष के प्राकृतिक सौंदर्य पर असर पड़ रहा है, लेकिन यह भक्तिभाव कहां नहीं है? रायपुर के निकट चंपारन में महाप्रभु वल्लभाचार्य की जन्मस्थली में कभी जो नैसर्गिक वन होता था, उसकी शोभा कांक्रीट के बढ़ते जंगल के कारण नितदिन नष्ट हो रही है। अस्तु,
बड़चिचोली हमारी उस यात्रा का एक संक्षिप्त पड़ाव मात्र था, जिस पर हम जून और जेठ माह की तपती दोपहरों में निकल पड़े थे। हमारा गंतव्य था- नर्मदांचल का नगर हरदा जहां कवि मित्र प्रेमशंकर रघुवंशी की स्मृति में आयोजित एक समारोह में भाग लेना था। पहले कभी नरसिंहपुर, होशंगाबाद और हरदा को मिलाकर एक ही जिला हुआ करता था- होशंगाबाद। कालांतर में विभाजन होकर नरसिंहपुर व हरदा भी पृथक जिले बन गए। मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक परिदृश्य में इस अंचल का सदैव से महत्वपूर्ण स्थान रहा है। माखनलाल चतुर्वेदी, भवानी प्रसाद मिश्र, मायाराम सुरजन, हरिशंकर परसाई जैसे कलम के धनी और कलम के सिपाही मूलत: यहीं के थे। इसी कड़ी में प्रेमशंकर रघुवंशी का नाम भी जुड़ता है। भाई रघुवंशी के साथ दशकों पुरानी मित्रता थी। हमने मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन में बरसों साथ-साथ काम किया। उन्हें मैंने सन् 1961-62 में सबसे पहले एक समर्थ गीतकार के रूप में जाना था। रचनाकार के इस रूप से मैं हमेशा प्रभावित रहा। 1995 में हमने इसीलिए देशबन्धु के अवकाश अंक में लगातार एक साल तक 'गीत वर्ष' शीर्षक से साप्ताहिक स्तंभ के अंतर्गत उनके गीत छापे। उनकी लंबी कविता ''देखो सांप: तक्षक नाग'' अपने कथ्य और बुनावट में एक अद्भुत कविता है, जिसमें समसामयिक जीवन की बहुविध विसंगतियों को पुरजोर ढंग से उजागर किया गया है।
श्रीमती विनीता रघुवंशी ने जब फोन पर आदेश दिया कि मुझे 8 जून को प्रेमशंकर रघुवंशी फाउंडेशन के उद्घाटन अवसर पर उपस्थित होना ही है तो मैं मना नहीं कर सका। इससे मेरा ही लाभ हुआ। हरदा में कुछ पुराने, लेकिन अधिकतर नए रचनाशील साथियों से परिचय हुआ। इस भीषण गर्मी में आयोजन करना अपने आप में हिम्मत का काम था, लेकिन विनीताजी और उनकी टीम ने जिस सुंदर-सुचारू ढंग से कार्यक्रम किया, उसकी प्रशंसा ही की जा सकती है। भाई रघुवंशी पर एक लघु वृत्तचित्र का प्रदर्शन, लेखक बंधु कैलाश मंडलेकर का प्रभावशाली व्याख्यान, इप्टा इकाई द्वारा ''देखो सांप: तक्षक नाग'' की नाट्य प्रस्तुति और नवोदित प्रतिभाओं की कलात्मक अभिव्यक्तियां- इन सबने सभा में उपस्थित सभी जनों को पूरे समय तक बांधे रखा। उल्लेखनीय था कि कार्यक्रम 44-45 डिग्री तापमान में गैर ए.सी. हॉल में हो रहा था, लेकिन श्रोता-दर्शक उससे निर्लिप्त थे। आयोजन में महिलाओं की बढ़-चढ़कर भागीदारी भी सुखद और कल्पनातीत थी।
यह हमारी मजबूरी थी कि हमें यात्रा दिन में ही करना थी। आजकल सूरज डूबने के बाद सड़क मार्ग से यात्रा करने में बेचैनी होने लगती है। इसलिए रायपुर से हरदा और फिर बालाघाट-गोंदिया होते हुए वापसी में हमने पूरे पांच दिन तपती धूप में सफर करते हुए ही गुजारे। दिन-दिन की यात्रा का एक लाभ यह हुआ कि सतपुड़ा और नर्मदा अंचल की निरंतर बदलती हुई दृश्यावली को थोड़ा-बहुत देखने का अवसर मिल गया।
एक परिवर्तन जो विशेष कर नोट करने लायक है कि कहीं फोरलेन, कहीं सिक्सलेन, कहीं बाईपास के निर्माण के चलते रास्ते के गांव-कस्बे-शहर एक किनारे छूट जाते हैं। रायपुर से नागपुर जाते हुए भिलाई शहर के बीच से गुजरना पड़ता है, लेकिन दुर्ग किनारे रह जाता है, राजनांदगांव में फ्लाईओवर से देखते न देखते शहर पीछे छूट जाता है। नागपुर से हरदा के बीच सावनेर, पांढुर्णा, मुलताई, बैतूल- सब पर बाईपास, सड़क किनारे वृक्षों की अंधाधुंध कटाई के रूप में सामने आया है। पूरे रास्ते कहीं छाँह नहीं मिलती। दूसरे- यदि कहीं अल्प विश्राम के लिए रुकना चाहें तो कहां रुकें? इन नगरों के स्थानीय विशिष्ट व्यंजन भी अब चखने नहीं मिलते। तीसरे- टोल नाकों पर अच्छी-खासी रकम चुकाना पड़ती है। नियमों के अनुसार टोल नाकों पर यात्री सुविधाएं होना चाहिए, लेकिन ठेकेदारों की कोई रुचि उनके रख-रखाव में नहीं है।
बहरहाल, हरदा जाते समय हमने सोचा कि फोरलेन छोड़कर बैतूल के पहले बैतूलबाजार में निर्मित बालाजीपुरम में रुककर चाय पी लेंगे। एनआरआई उद्योगपति सैम वर्मा ने लगभग चालीस साल पहले बालाजी का एक छोटा सा मंदिर बनवाया था। अभी उसका भव्य रूप देखकर आश्चर्य हुआ। वहां तो सड़क के दोनों किनारे बाकायदा एक बाजार सज गया है। अतिथिशाला और बैंक की शाखाएं भी हैं। एक जगह सूचनापटल था- देश का पांचवा धाम। धर्मप्राण जनता को इसी सब में मानसिक शांति और संतोष मिलता है। लौटते समय हम इसी तरह राजमार्ग छोड़ ताप्ती नदी का उद्गम देखने मुलताई नगर में घुसे। मैंने लगभग पच्चीस वर्ष बाद ही ताप्ती कुंड के दर्शन किए। ध्यान आया कि पहले सड़क किनारे दूकानें थीं, जिनकी ओट में कुंड छुप जाता था, लेकिन वे शायद हटा दी गई हैं? छुटपुट ठेले, गुमटियां अवश्य थीं। ताप्ती कुंड में इस गर्मी में भी भरपूर पानी था, जिसे देखकर नेत्र और मन दोनों तृप्त हुए। स्मरणीय है कि मध्यप्रदेश की दो प्रमुख नदियों नर्मदा और ताप्ती पूर्व से पश्चिम की ओर बहते हुए गुजरात में अरब सागर में विलीन होती हैं। जबकि देश की अन्य प्रमुख नदियां पूर्व की ओर बहते हुए बंगाल की खाड़ी में विलीन होती हैं। ताप्ती कुंड का जल स्वच्छ था, उसमें बदकें तैर रही थीं, नौका विहार भी चल रहा था, कुल मिलाकर एक आह्लादकारी दृश्य था।
एक समय ''चांदनी रात में नौका विहार'' पर कविताएं लिखी जाती थीं, हमने तपती धूप में सड़क का सफर किया। स्वाभाविक ही कुछ कष्ट उठाए, लेकिन समग्रता में आनंददायक अनुभव पाया।
देशबंधु में 20 जून 2019 को प्रकाशित

Wednesday, 12 June 2019

राहुल गांधी नई राह पर?


राहुल गांधी ने कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद से अभी तक इस्तीफ़ा वापिस नहीं लिया है। इस बात को तीन सप्ताह हो चुके हैं। अनुमान होता है कि राहुल अपने निर्णय पर अडिग हैं। इस बीच कांग्रेस पार्टी के भीतर से कुछ और तस्वीरें सामने आई हैं। पंजाब में मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू की आपसी लड़ाई खुलकर जनता के बीच आ गई है। कैप्टन ने सिद्धू के उनके पुराने विभाग छीन लिए हैं, लेकिन सिद्धू ने नए विभागों का प्रभार अब तक ग्रहण नहीं किया है। वे राहुल गांधी के दरबार में गुहार लगाने पहुंचे हैं। महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे राधाकृष्ण विखे-पाटिल ने पुत्र के नक्शे-कदम पर चलते हुए भाजपा का दामन थाम लिया है। विखे-पाटिल पहले कोई और पार्टी छोड़कर कांग्रेस में आए थे। कर्नाटक में कांग्रेसी विधायकों पर डोरे डालना भाजपा ने बंद नहीं किया है। तेलंगाना में कांग्रेस के बारह विधायक एकमुश्त टीआरएस में शामिल हो गए हैं। गोवा में भी कांग्रेस में तोड़फोड़ की कोशिशें जारी हैं। राजस्थान में गहलोत बनाम पायलट द्वंद्व लगातार जारी है। इधर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ अपने पुत्र नवनिर्वाचित लोकसभा सदस्य नकुलनाथ के साथ जाकर प्रधानमंत्री से शिष्टाचार भेंट कर आए हैं। उधर आंध्र के युवा मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी ने प्रधानमंत्री मोदी के प्रदेश आगमन पर न सिर्फ उनकी अगवानी की, बल्कि उनके साथ-साथ तिरुपति दर्शन का लाभ भी लिया।
इस तमाम घमासान के बीच राहुल गांधी अपने नए लोकसभा क्षेत्र वायनाड के दौरे पर पहुंचे। वे तीन दिन वहां रहे, मतदाताओं का आभार माना और कोई नई बात न कह बारंबार यही कहा कि वे घृणा नहीं, प्रेम की राजनीति करते हैं और करते रहेंगे। राहुल इतना तो समझ ही रहे होंगे कि भारत की राजनीति में खेल के नियम पूरी तरह बदल चुके हैं, मुहावरे भी बदल गए हैं। यह जानने और चुनावी मैदान में बुरी तरह घायल हो जाने के बावजूद यदि वे किन्हीं पुराने मूल्यों की पुनर्स्थापना करना चाहते हैं, तो स्वाभाविक ही सवाल उठता है कि इसके लिए उनकी कार्ययोजना क्या है? उसे अमल में आने के लिए क्या वे कोई समयबद्ध कार्यक्रम बना रहे हैं और इसमें उनका साथ कौन देगा? क्या सत्तालोलुप कांग्रेसियों में इतना धीरज और साहस है कि वे उनके साथ-साथ चल सकें? जब राजनीति करने का मूल मकसद ही स्वार्थपूर्ति हो तब सिद्धांतों पर टिके रहने वाले कार्यकर्ता कहां से जुटेंगे?
जाहिर है कि राहुल गांधी ने अपने लिए एक नया रास्ता चुन लिया है, जिस पर चलने में कदम-कदम पर बाधाएं आएंगी और हौसला कायम रखने के लिए एकमेव अवलंब दृढ़ इच्छाशक्ति का ही होगा। मुझे यहां वह नीतिकथा अनायास याद आ रही है जिसमें बाप-बेटे अपने गधे के साथ कहीं जा रहे हैं और तमाशबीनों की फब्तियां सुन-सुन अपना ही तमाशा बना बैठते हैं। कभी बाप गधे पर सवार तो कभी बेटा, कभी दोनों सवार, तो कभी दोनों पैदल। मतलब यह कि हर ऐरे-गैरे की सलाह मानने की बजाय अपनी बुद्धि से चलना ही श्रेयस्कर है। उम्मीद करना चाहिए कि राहुल गांधी भली-भांति विचार करने के बाद ही एक नए पथ पर चलेंगे और उससे डिगेंगे नहीं। लेकिन यहां एक और सवाल उठता है कि वर्तमान दौर में कांग्रेस के अलावा उन तमाम दलों व नेताओं की क्या भूमिका होना चाहिए, जो जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखते हैं? राहुल गांधी और इन नेताओं के बीच समन्वय और हमराह होने की क्या संभावना है? और यह कितना वांछित है?
ऐसे तमाम सवालों के बीच हमें लगता है कि राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष पद से एक निश्चित अवधि के लिए अवकाश भले ही ले लें, किंतु त्यागपत्र न दें। वे औपचारिक रूप से पद पर बने रहें, लेकिन व्यवहारिक स्तर पर ऐसे वरिष्ठ साथियों को दायित्व सौंप दें जो संगठन में और सदन में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने के काबिल हों। यदि मल्लिकार्जुन खड़गे इस बार हारे न होते तो उन्हें एक बार फिर सदन में प्रमुख विपक्षी दल का नेता निर्वाचित किया जा सकता था। विगत लोकसभा में उन्होंने अपनी भूमिका सशक्त रूप से निभाई थी। आज शायद उचित होगा कि उन्हें कांग्रेस पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष या कार्यकारी उपाध्यक्ष बना दिया जाए। एक समय कमलापति त्रिपाठी, फिर अर्जुन सिंह को यह जिम्मेदारी सौंपी गई थी। लोकसभा में पार्टी के नेता व उपनेता पद का दायित्व क्रमश: अधीर रंजन चौधरी व शशि थरूर अथवा प्रणीत कौर को सौंपा जा सकता है। बहरहाल, यह बैठे-ठाले की सलाह है। अंतिम निर्णय तो पार्टी के भीतर ही होना है।
अपने पिछले लेख में हमने राहुल गांधी से व्यापक पैमाने पर जनता से संवाद स्थापित करने की अपेक्षा की थी। यही अपेक्षा अन्य गैर-एनडीए दलों से भी हम करते हैं। आज सबसे महती आवश्यकता इसी बात की है। इस संपर्क-संवाद अभियान का प्रारंभ करने के लिए एक बेहतरीन अवसर भी सामने है। इस साल राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की सार्द्धशती है। याने 2 अक्टूबर 2019 को उनकी एक सौ पचासवीं जयंती है। कांग्रेस ने बीते बरसों में कुछ अच्छे अवसर यूं ही गंवा दिए जैसे दांडी यात्रा के पचहत्तर साल, सत्याग्रह शताब्दी और पं. नेहरू की एक सौ पच्चीसवीं जयंती। परंतु आज जो अवसर मिला है, उसे बिलकुल नहीं चूकना चाहिए। खासकर तब जबकि जनमानस से गांधी को अपदस्थ करने का एक महीन षड़यंत्र चुपचाप चलाया जा रहा है। आज जनता के बीच जाकर समझाना है कि गांधी सिर्फ एक चश्मे की कमानी या एक छड़ी मात्र नहीं थे, कि स्वच्छता उनके विराट जीवन दर्शन का एक छोटा सा हिस्सा मात्र था, कि सत्य और अहिंसा को अस्त्र बनाकर ही उन्होंने साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई जीतने में निर्णायक भूमिका निभाई थी।
हमारी राय में इस संपर्क अभियान के लिए राहुल गांधी को बिना समय गंवाए देश की पदयात्रा पर निकल पड़ना चाहिए। याद करें कि जब 1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे तो अपने गुरु गोपालकृष्ण गोखले के निर्देश पर उन्होंने पूरा एक साल देशभ्रमण कर देश की आत्मा को समझने में बिताया था। उस यात्रा में ही उन्हें अंग्रेजी राज के खिलाफ अपनी रणनीति तैयार करने के सूत्र मिले थे। राहुल को इस देशव्यापी पदयात्रा में साथ देने के लिए उन तमाम लोगों का, खासकर युवाओं का आह्वान करना चाहिए जो सत्ता की नहीं, सिद्धांत की राजनीति में विश्वास रखते हैं। राहुल और प्रियंका के साथ अगर कन्हैया जैसे युवा जुड़ पाते हैं तो यह एक उत्साहवर्द्धक बात होगी। इस अभियान में भाकपा, माकपा, राजद, द्रमुक, राकांपा आदि भी साथ दें तो अच्छा होगा। दरअसल, समय की मांग है कि चुनावी राजनीति से ऊपर उठकर दीर्घकालीन लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित किया जाए।
जनता के बीच जाएंगे तो समझ आएगा कि मतदाता आप से विमुख क्यों होते गया है। राहुल को चाहिए कि इन्हें उदार मन से आमंत्रित करें। उन्हें जनतांत्रिक मूल्यों के पैरोकार बुद्धिजीवियों से भी अपना संपर्क बढ़ाना चाहिए। इस तरह से दो काम सिद्ध होंगे। एक ओर गांधी-नेहरू दर्शन को लोगों के बीच ले जाना, दूसरी ओर स्वयं अपने लिए सबक सीखना। और अंत में यह भी जोड़ना चाहूंगा कि तथाकथित ''लेफ्ट-लिबरल'' बुद्धिजीवी जो अधिकतर दिल्ली में पाए जाते हैं, और जो अब तक कांग्रेस व राहुल को पानी पी-पीकर कोस रहे थे, वे भी आत्मालोचना का साहस जुटाएं।
#देशबंधु में 13 जून 2019 को प्रकाशित

Thursday, 6 June 2019

आने वाले दिनों की एक तस्वीर


लोकसभा चुनावों के परिणाम आने के बाद की कुछ घटनाओं को नोट करना चाहिए। एक-राहुल गांधी का कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा। दो- पश्चिम बंगाल से चार विधायकों का दलबदल। तीन- समाजवादी पार्टी और कांग्रेस द्वारा टी.वी. चैनलों पर अपने प्रवक्ता न भेजने का निर्णय। चार- मध्यप्रदेश व कर्नाटक में सरकार को गिरा देने के मंसूबे। पांच- महाराष्ट्र कांग्रेस में तोड़-फोड़ के संकेत। छह- राहुल गांधी का शरद पवार से जाकर भेंट करना। सात- राहुल गांधी की कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से नाराज़गी के संकेत। आठ- नई शिक्षा नीति के मसौदे की बिना पर दक्षिण भारत में हिंदी का विरोध। नौ- देश में बेरोजगारी के आंकड़ों का अधिकृत तौर पर प्रकाशन। दस- अमेरिका द्वारा भारत को दी गई व्यापार वरीयता समाप्त। ग्यारह- आंध्रप्रदेश में जगनमोहन रेड्डी का मुख्यमंत्री बनना। बारह- कर्नाटक के नगरीय निकाय चुनावों में कांग्रेस व जद (स) की शानदार जीत। तेरह- 'टाइम' पत्रिका में नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में लेख। मैंने केंद्रीय मंत्रिमंडल के स्वरूप को फिलहाल छोड़ दिया है। ऐसे और भी अनेक बिंदु हैं जिन्हें आप चाहें तो जोड़ लें। इन्हें एक साथ देखने से आने वाले दिनों की राजनीतिक तस्वीर का एक अनुमान लगाया जा सकता है।

सबसे पहले राज्यों में चल रही उथल-पुथल पर बात करना बेहतर होगा। प्रश्न उठता है कि भारतीय जनता पार्टी को अन्य दलों द्वारा संचालित राज्य सरकारें गिराने की इतनी हड़बड़ी क्यों है? एक तरफ प्रधानमंत्री सबके साथ के अलावा सबका विश्वास हासिल करने का मंतव्य व्यक्त करते हैं और दूसरी तरफ चुनी हुई सरकारों को गिराने की कोशिशें होती हैं- यह दोहरापन सत्तारूढ़ दल को शोभा नहीं देता। हारे हुए दलों के नेता सत्तासुख पाने के लिए दलबदल करना चाहें तो कोई नई बात नहीं है। लेकिन जिस पार्टी ने प्रचंड बहुमत से दुबारा जीत हासिल की हो, क्या उसे आज भी इन स्वार्थी नेताओं को प्रोत्साहन देना चाहिए? कायदे से तो इन नेताओं की लानत-मलामत होना चाहिए। यह भी विचारणीय है कि दल-बदलुओं का स्वागत-सत्कार करने से क्या अपने ही निष्ठावान कार्यकर्ताओं का मनोबल नहीं टूटता? क्या इस प्रक्रिया में उनके आगे बढ़ने के अवसर नहीं छीन लिए जाते? ध्यान दीजिए कि ये सवाल नैतिकता से नहीं, व्यवहारिकता से संबंधित है। मीडिया में जो खबरें आ रही हैं उनसे पता चलता है कि भाजपा संगठन के अनेक कद्दावर नेता भीतर ही भीतर नाराज़ हैं कि उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान नहीं मिला जबकि इन सबने अपने-अपने प्रभार के प्रदेशों में पार्टी को जिताने के लिए हाड़तोड़ मेहनत की थी। इन रुष्टजनों में कैलाश विजयवर्गीय, अनिल जैन, अरुण सिंह, राम माधव आदि के नाम गिनाए जा रहे हैं।
हमने जो बिंदु गिनाए हैं, उनमें कांग्रेस व सपा द्वारा टीवी चैनलों पर प्रवक्ता न भेजने की बात भी है। सपा ने तुरंत ही यह कदम उठा लिया, लेकिन कांग्रेस ने इसके लिए दो-तीन दिन का वक्त लिया और उसका निर्णय भी एक समय सीमा तक ही है। ऐसा प्रतीत होता है कि राहुल गांधी के इस्तीफे को लेकर चैनलों पर कोई अवांछित बहस न हो, यह सोचकर कांग्रेस ने निर्णय लिया है। लेकिन हम तो पिछले आठ साल से लगातार कहते आए हैं कि विपक्षी दलों को टीवी पर होने वाली फर्जी बहसों में भाग लेना ही नहीं चाहिए। यह सलाह हम यूपीए-दो के समय से दे रहे हैं। कारण स्पष्ट है कि टीवी चैनलों व काफी हद तक अखबारों पर कारपोरेट घरानों का नियंत्रण है, और वे मुख्यत: कांग्रेस की घोषित जनहितकारी नीतियों के विरोधी हैं। अब तो लगभग सारे चैनल सत्तारूढ़ दल के साथ हैं। उन्होंने सरकार को परेशान करने वाले सवाल पूछना पूरी तरह बंद कर रखा है, जबकि हर गलती का दोष कांग्रेस पर मढ़ने में वे देर नहीं करते। ऐसे में श्रेयस्कर यही है कि इन बहसों में भाग न लिया जाए। जिसे कांग्रेस का पक्ष जानना हो, वह आकर बात करे।
यहीं प्रसंगवश 'टाइम' पत्रिका की भी बात कर लेना उपयुक्त होगा। चुनावों के दौरान पत्रिका ने नरेंद्र मोदी और उनकी नीतियों के विरुद्ध 'कवर स्टोरी' की याने मुख्य लेख छापा। इसकी मोदी विरोधियों ने खूब चर्चा की और माना गया कि मोदीजी को इससे चुनावों में नुकसान होगा। लेकिन इसी अंक में भीतर और भी लेख थे, जिनमें मोदी सरकार की सराहना की गई थी। उनकी उपेक्षा कर दी गई। अभी नतीज आने के बाद पत्रिका ने एक और लेख छापा है, जिसमें मोदीजी की प्रशंंसा की गई है। इसे लेकर कहा जा रहा है कि 'टाइम' जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका ने पाला बदल लिया या पलटी मार ली। वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। पत्रिका में पक्ष-विपक्ष दोनों को ही स्थान मिलता रहा है। देश में ही कुछ मीडिया घराने हैं जिनका एक से अधिक माध्यम पर नियंत्रण है तो वे एक जगह सरकार के गुण गाते हैं तो दूसरी जगह आलोचना करने की जगह भी बना लेते हैं।
आज एक बड़ा मुद्दा राहुल गांधी के इस्तीफे और कांग्रेस की भावी दिशा का है। कांग्रेस अध्यक्ष ने हार की जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए अपने पद से त्यागपत्र दे दिया, उनकी इस भावना का सम्मान किया जाना चाहिए। यह संसदीय जनतंत्र की आधारभूमि इंग्लैंड में विकसित परिपाटियों के अनुकूल है। लेकिन सोचना होगा कि इंग्लैंड ने कई सदियों के अनुभव व अभ्यास से जो परंपराएं स्थापित तथा स्वीकार की हैं, क्या भारतीय संदर्भों में उन्हें यथावत लागू किया जा सकता है? दरअसल, राहुल को अपने आप से यहां कुछ सवाल करना चाहिए। मसलन, क्या आपके इस्तीफा देने से यह हार जीत में बदल जाएगी? क्या इसके बाद कांग्रेस का कायाकल्प हो जाएगा? और क्या पार्टी में ऐसा कोई सदस्य है जो आपके विकल्प के रूप में स्वीकार्य, समर्थ और इच्छुक है?
राहुल के बाद कौन-यह एक अटपटा प्रश्न हो सकता है कि एक सौ पैंतीस साल पुरानी पार्टी में नेतृत्व देने में सक्षम एक भी व्यक्ति नहीं है! लेकिन इस सवाल का उत्तर आसान नहीं है, वह इसलिए कि कांग्रेस अपने बुनियादी चरित्र में एक राजनैतिक दल नहीं, बल्कि एक आंदोलन है। इतिहास उठाकर देखें कि पार्टी में समय-समय पर भांति-भांति के विचारों के लोग आते-जाते रहे हैं। इसकी शुरूआत नरम दल और गरम दल के समय ही हो गई थी। गो कि इसे आंदोलन का रूप महात्मा गांधी ने दिया। इस दृष्टि से विचार करें तो समझ आता है कि कांग्रेस को हर समय ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो उसके आंदोलनकारी रूप को कायम रख सके। इसके लिए सत्ता को साध्य नहीं, बल्कि साधन मानने की भावना; और जब सत्ता से बाहर हों तो आंदोलन को जारी रखने के लिए धैर्य, साहस और बलिदान के गुण चाहिए। कहना न होगा कि 1947 से लगातार लंबे समय तक सत्ता में बने रहने के कारण पार्टी के बड़े वर्ग ने उसे ही साध्य मान लिया, जिसके दुष्परिणाम भी पार्टी को जब-तब भुगतने पड़े हैं।
यह मेरा मानना है कि महात्मा गांधी ने कांग्रेस को जिस सांचे में ढाला था, उसे सबसे बढ़कर नेहरूजी ने ही सही अर्थों में समझा था। आज राहुल उसी भावना का पुनराविष्कार करने का प्रयत्न कर रहे हैं। आज की बदली हुई परिस्थितियों में वे कितने सफल हो पाते हैं, यह एकदम अलग बात है। 1964 के बाद से अलग-अलग दौर में के. कामराज, सिंडीकेट, पीवी नरसिंहराव, सीताराम केसरी आदि का पार्टी में वर्चस्व रहा, लेकिन यह सबके सामने है कि उन्होंने पार्टी को मजबूत किया या कमजार!
इस बीच राहुल गांधी का दिल्ली में शरद पवार से उनके आवास पर जाकर मिलना एक महत्वपूर्ण घटना थी। इसके बाद कयास लगाए जा रहे हैं कि एनसीपी का कांग्रेस में विलय हो सकता है, कि उसका अनुसरण तृणमूल कांग्रेस व वाईएसआर कांग्रेस भी कर सकते हैं। चूंकि प. बंगाल में ममता बनर्जी अभी भी काफी मजबूत स्थिति में हैं और जगन मोहन ने तो भारी विजय के साथ पहली पारी शुरू की है, इसलिए उनके बारे में कोई अनुमान लगाना गलत हो सकता है; किंतु कांग्रेस और एनसीपी के एक साथ आने की संभावना साकार हो सकती है। शरद पवार अपनी इनिंग्स खेल चुके हैं और महाराष्ट्र में दोनों दलों का गठबंधन लंबे समय से चल ही रहा है, इसलिए विलय दोनों के लिए श्रेयस्कर होगा। लेकिन कांग्रेस के सामने इस समय सबसे बड़ा लक्ष्य जनता से व्यापक स्तर पर संवाद स्थापित करना होना चाहिए। क्या राहुल इस बात को समझने के लिए तैयार हैं?
#देशबंधु में 06 जून 2019 को प्रकाशित