लोकसभा चुनावों के परिणाम आने के बाद की कुछ घटनाओं को नोट करना चाहिए। एक-राहुल गांधी का कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा। दो- पश्चिम बंगाल से चार विधायकों का दलबदल। तीन- समाजवादी पार्टी और कांग्रेस द्वारा टी.वी. चैनलों पर अपने प्रवक्ता न भेजने का निर्णय। चार- मध्यप्रदेश व कर्नाटक में सरकार को गिरा देने के मंसूबे। पांच- महाराष्ट्र कांग्रेस में तोड़-फोड़ के संकेत। छह- राहुल गांधी का शरद पवार से जाकर भेंट करना। सात- राहुल गांधी की कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से नाराज़गी के संकेत। आठ- नई शिक्षा नीति के मसौदे की बिना पर दक्षिण भारत में हिंदी का विरोध। नौ- देश में बेरोजगारी के आंकड़ों का अधिकृत तौर पर प्रकाशन। दस- अमेरिका द्वारा भारत को दी गई व्यापार वरीयता समाप्त। ग्यारह- आंध्रप्रदेश में जगनमोहन रेड्डी का मुख्यमंत्री बनना। बारह- कर्नाटक के नगरीय निकाय चुनावों में कांग्रेस व जद (स) की शानदार जीत। तेरह- 'टाइम' पत्रिका में नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में लेख। मैंने केंद्रीय मंत्रिमंडल के स्वरूप को फिलहाल छोड़ दिया है। ऐसे और भी अनेक बिंदु हैं जिन्हें आप चाहें तो जोड़ लें। इन्हें एक साथ देखने से आने वाले दिनों की राजनीतिक तस्वीर का एक अनुमान लगाया जा सकता है।
सबसे पहले राज्यों में चल रही उथल-पुथल पर बात करना बेहतर होगा। प्रश्न उठता है कि भारतीय जनता पार्टी को अन्य दलों द्वारा संचालित राज्य सरकारें गिराने की इतनी हड़बड़ी क्यों है? एक तरफ प्रधानमंत्री सबके साथ के अलावा सबका विश्वास हासिल करने का मंतव्य व्यक्त करते हैं और दूसरी तरफ चुनी हुई सरकारों को गिराने की कोशिशें होती हैं- यह दोहरापन सत्तारूढ़ दल को शोभा नहीं देता। हारे हुए दलों के नेता सत्तासुख पाने के लिए दलबदल करना चाहें तो कोई नई बात नहीं है। लेकिन जिस पार्टी ने प्रचंड बहुमत से दुबारा जीत हासिल की हो, क्या उसे आज भी इन स्वार्थी नेताओं को प्रोत्साहन देना चाहिए? कायदे से तो इन नेताओं की लानत-मलामत होना चाहिए। यह भी विचारणीय है कि दल-बदलुओं का स्वागत-सत्कार करने से क्या अपने ही निष्ठावान कार्यकर्ताओं का मनोबल नहीं टूटता? क्या इस प्रक्रिया में उनके आगे बढ़ने के अवसर नहीं छीन लिए जाते? ध्यान दीजिए कि ये सवाल नैतिकता से नहीं, व्यवहारिकता से संबंधित है। मीडिया में जो खबरें आ रही हैं उनसे पता चलता है कि भाजपा संगठन के अनेक कद्दावर नेता भीतर ही भीतर नाराज़ हैं कि उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान नहीं मिला जबकि इन सबने अपने-अपने प्रभार के प्रदेशों में पार्टी को जिताने के लिए हाड़तोड़ मेहनत की थी। इन रुष्टजनों में कैलाश विजयवर्गीय, अनिल जैन, अरुण सिंह, राम माधव आदि के नाम गिनाए जा रहे हैं।
हमने जो बिंदु गिनाए हैं, उनमें कांग्रेस व सपा द्वारा टीवी चैनलों पर प्रवक्ता न भेजने की बात भी है। सपा ने तुरंत ही यह कदम उठा लिया, लेकिन कांग्रेस ने इसके लिए दो-तीन दिन का वक्त लिया और उसका निर्णय भी एक समय सीमा तक ही है। ऐसा प्रतीत होता है कि राहुल गांधी के इस्तीफे को लेकर चैनलों पर कोई अवांछित बहस न हो, यह सोचकर कांग्रेस ने निर्णय लिया है। लेकिन हम तो पिछले आठ साल से लगातार कहते आए हैं कि विपक्षी दलों को टीवी पर होने वाली फर्जी बहसों में भाग लेना ही नहीं चाहिए। यह सलाह हम यूपीए-दो के समय से दे रहे हैं। कारण स्पष्ट है कि टीवी चैनलों व काफी हद तक अखबारों पर कारपोरेट घरानों का नियंत्रण है, और वे मुख्यत: कांग्रेस की घोषित जनहितकारी नीतियों के विरोधी हैं। अब तो लगभग सारे चैनल सत्तारूढ़ दल के साथ हैं। उन्होंने सरकार को परेशान करने वाले सवाल पूछना पूरी तरह बंद कर रखा है, जबकि हर गलती का दोष कांग्रेस पर मढ़ने में वे देर नहीं करते। ऐसे में श्रेयस्कर यही है कि इन बहसों में भाग न लिया जाए। जिसे कांग्रेस का पक्ष जानना हो, वह आकर बात करे।
यहीं प्रसंगवश 'टाइम' पत्रिका की भी बात कर लेना उपयुक्त होगा। चुनावों के दौरान पत्रिका ने नरेंद्र मोदी और उनकी नीतियों के विरुद्ध 'कवर स्टोरी' की याने मुख्य लेख छापा। इसकी मोदी विरोधियों ने खूब चर्चा की और माना गया कि मोदीजी को इससे चुनावों में नुकसान होगा। लेकिन इसी अंक में भीतर और भी लेख थे, जिनमें मोदी सरकार की सराहना की गई थी। उनकी उपेक्षा कर दी गई। अभी नतीज आने के बाद पत्रिका ने एक और लेख छापा है, जिसमें मोदीजी की प्रशंंसा की गई है। इसे लेकर कहा जा रहा है कि 'टाइम' जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका ने पाला बदल लिया या पलटी मार ली। वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। पत्रिका में पक्ष-विपक्ष दोनों को ही स्थान मिलता रहा है। देश में ही कुछ मीडिया घराने हैं जिनका एक से अधिक माध्यम पर नियंत्रण है तो वे एक जगह सरकार के गुण गाते हैं तो दूसरी जगह आलोचना करने की जगह भी बना लेते हैं।
आज एक बड़ा मुद्दा राहुल गांधी के इस्तीफे और कांग्रेस की भावी दिशा का है। कांग्रेस अध्यक्ष ने हार की जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए अपने पद से त्यागपत्र दे दिया, उनकी इस भावना का सम्मान किया जाना चाहिए। यह संसदीय जनतंत्र की आधारभूमि इंग्लैंड में विकसित परिपाटियों के अनुकूल है। लेकिन सोचना होगा कि इंग्लैंड ने कई सदियों के अनुभव व अभ्यास से जो परंपराएं स्थापित तथा स्वीकार की हैं, क्या भारतीय संदर्भों में उन्हें यथावत लागू किया जा सकता है? दरअसल, राहुल को अपने आप से यहां कुछ सवाल करना चाहिए। मसलन, क्या आपके इस्तीफा देने से यह हार जीत में बदल जाएगी? क्या इसके बाद कांग्रेस का कायाकल्प हो जाएगा? और क्या पार्टी में ऐसा कोई सदस्य है जो आपके विकल्प के रूप में स्वीकार्य, समर्थ और इच्छुक है?
राहुल के बाद कौन-यह एक अटपटा प्रश्न हो सकता है कि एक सौ पैंतीस साल पुरानी पार्टी में नेतृत्व देने में सक्षम एक भी व्यक्ति नहीं है! लेकिन इस सवाल का उत्तर आसान नहीं है, वह इसलिए कि कांग्रेस अपने बुनियादी चरित्र में एक राजनैतिक दल नहीं, बल्कि एक आंदोलन है। इतिहास उठाकर देखें कि पार्टी में समय-समय पर भांति-भांति के विचारों के लोग आते-जाते रहे हैं। इसकी शुरूआत नरम दल और गरम दल के समय ही हो गई थी। गो कि इसे आंदोलन का रूप महात्मा गांधी ने दिया। इस दृष्टि से विचार करें तो समझ आता है कि कांग्रेस को हर समय ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो उसके आंदोलनकारी रूप को कायम रख सके। इसके लिए सत्ता को साध्य नहीं, बल्कि साधन मानने की भावना; और जब सत्ता से बाहर हों तो आंदोलन को जारी रखने के लिए धैर्य, साहस और बलिदान के गुण चाहिए। कहना न होगा कि 1947 से लगातार लंबे समय तक सत्ता में बने रहने के कारण पार्टी के बड़े वर्ग ने उसे ही साध्य मान लिया, जिसके दुष्परिणाम भी पार्टी को जब-तब भुगतने पड़े हैं।
यह मेरा मानना है कि महात्मा गांधी ने कांग्रेस को जिस सांचे में ढाला था, उसे सबसे बढ़कर नेहरूजी ने ही सही अर्थों में समझा था। आज राहुल उसी भावना का पुनराविष्कार करने का प्रयत्न कर रहे हैं। आज की बदली हुई परिस्थितियों में वे कितने सफल हो पाते हैं, यह एकदम अलग बात है। 1964 के बाद से अलग-अलग दौर में के. कामराज, सिंडीकेट, पीवी नरसिंहराव, सीताराम केसरी आदि का पार्टी में वर्चस्व रहा, लेकिन यह सबके सामने है कि उन्होंने पार्टी को मजबूत किया या कमजार!
यह मेरा मानना है कि महात्मा गांधी ने कांग्रेस को जिस सांचे में ढाला था, उसे सबसे बढ़कर नेहरूजी ने ही सही अर्थों में समझा था। आज राहुल उसी भावना का पुनराविष्कार करने का प्रयत्न कर रहे हैं। आज की बदली हुई परिस्थितियों में वे कितने सफल हो पाते हैं, यह एकदम अलग बात है। 1964 के बाद से अलग-अलग दौर में के. कामराज, सिंडीकेट, पीवी नरसिंहराव, सीताराम केसरी आदि का पार्टी में वर्चस्व रहा, लेकिन यह सबके सामने है कि उन्होंने पार्टी को मजबूत किया या कमजार!
इस बीच राहुल गांधी का दिल्ली में शरद पवार से उनके आवास पर जाकर मिलना एक महत्वपूर्ण घटना थी। इसके बाद कयास लगाए जा रहे हैं कि एनसीपी का कांग्रेस में विलय हो सकता है, कि उसका अनुसरण तृणमूल कांग्रेस व वाईएसआर कांग्रेस भी कर सकते हैं। चूंकि प. बंगाल में ममता बनर्जी अभी भी काफी मजबूत स्थिति में हैं और जगन मोहन ने तो भारी विजय के साथ पहली पारी शुरू की है, इसलिए उनके बारे में कोई अनुमान लगाना गलत हो सकता है; किंतु कांग्रेस और एनसीपी के एक साथ आने की संभावना साकार हो सकती है। शरद पवार अपनी इनिंग्स खेल चुके हैं और महाराष्ट्र में दोनों दलों का गठबंधन लंबे समय से चल ही रहा है, इसलिए विलय दोनों के लिए श्रेयस्कर होगा। लेकिन कांग्रेस के सामने इस समय सबसे बड़ा लक्ष्य जनता से व्यापक स्तर पर संवाद स्थापित करना होना चाहिए। क्या राहुल इस बात को समझने के लिए तैयार हैं?
#देशबंधु में 06 जून 2019 को प्रकाशित
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