राहुल गांधी ने कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद से अभी तक इस्तीफ़ा वापिस नहीं लिया है। इस बात को तीन सप्ताह हो चुके हैं। अनुमान होता है कि राहुल अपने निर्णय पर अडिग हैं। इस बीच कांग्रेस पार्टी के भीतर से कुछ और तस्वीरें सामने आई हैं। पंजाब में मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू की आपसी लड़ाई खुलकर जनता के बीच आ गई है। कैप्टन ने सिद्धू के उनके पुराने विभाग छीन लिए हैं, लेकिन सिद्धू ने नए विभागों का प्रभार अब तक ग्रहण नहीं किया है। वे राहुल गांधी के दरबार में गुहार लगाने पहुंचे हैं। महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे राधाकृष्ण विखे-पाटिल ने पुत्र के नक्शे-कदम पर चलते हुए भाजपा का दामन थाम लिया है। विखे-पाटिल पहले कोई और पार्टी छोड़कर कांग्रेस में आए थे। कर्नाटक में कांग्रेसी विधायकों पर डोरे डालना भाजपा ने बंद नहीं किया है। तेलंगाना में कांग्रेस के बारह विधायक एकमुश्त टीआरएस में शामिल हो गए हैं। गोवा में भी कांग्रेस में तोड़फोड़ की कोशिशें जारी हैं। राजस्थान में गहलोत बनाम पायलट द्वंद्व लगातार जारी है। इधर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ अपने पुत्र नवनिर्वाचित लोकसभा सदस्य नकुलनाथ के साथ जाकर प्रधानमंत्री से शिष्टाचार भेंट कर आए हैं। उधर आंध्र के युवा मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी ने प्रधानमंत्री मोदी के प्रदेश आगमन पर न सिर्फ उनकी अगवानी की, बल्कि उनके साथ-साथ तिरुपति दर्शन का लाभ भी लिया।
इस तमाम घमासान के बीच राहुल गांधी अपने नए लोकसभा क्षेत्र वायनाड के दौरे पर पहुंचे। वे तीन दिन वहां रहे, मतदाताओं का आभार माना और कोई नई बात न कह बारंबार यही कहा कि वे घृणा नहीं, प्रेम की राजनीति करते हैं और करते रहेंगे। राहुल इतना तो समझ ही रहे होंगे कि भारत की राजनीति में खेल के नियम पूरी तरह बदल चुके हैं, मुहावरे भी बदल गए हैं। यह जानने और चुनावी मैदान में बुरी तरह घायल हो जाने के बावजूद यदि वे किन्हीं पुराने मूल्यों की पुनर्स्थापना करना चाहते हैं, तो स्वाभाविक ही सवाल उठता है कि इसके लिए उनकी कार्ययोजना क्या है? उसे अमल में आने के लिए क्या वे कोई समयबद्ध कार्यक्रम बना रहे हैं और इसमें उनका साथ कौन देगा? क्या सत्तालोलुप कांग्रेसियों में इतना धीरज और साहस है कि वे उनके साथ-साथ चल सकें? जब राजनीति करने का मूल मकसद ही स्वार्थपूर्ति हो तब सिद्धांतों पर टिके रहने वाले कार्यकर्ता कहां से जुटेंगे?
जाहिर है कि राहुल गांधी ने अपने लिए एक नया रास्ता चुन लिया है, जिस पर चलने में कदम-कदम पर बाधाएं आएंगी और हौसला कायम रखने के लिए एकमेव अवलंब दृढ़ इच्छाशक्ति का ही होगा। मुझे यहां वह नीतिकथा अनायास याद आ रही है जिसमें बाप-बेटे अपने गधे के साथ कहीं जा रहे हैं और तमाशबीनों की फब्तियां सुन-सुन अपना ही तमाशा बना बैठते हैं। कभी बाप गधे पर सवार तो कभी बेटा, कभी दोनों सवार, तो कभी दोनों पैदल। मतलब यह कि हर ऐरे-गैरे की सलाह मानने की बजाय अपनी बुद्धि से चलना ही श्रेयस्कर है। उम्मीद करना चाहिए कि राहुल गांधी भली-भांति विचार करने के बाद ही एक नए पथ पर चलेंगे और उससे डिगेंगे नहीं। लेकिन यहां एक और सवाल उठता है कि वर्तमान दौर में कांग्रेस के अलावा उन तमाम दलों व नेताओं की क्या भूमिका होना चाहिए, जो जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखते हैं? राहुल गांधी और इन नेताओं के बीच समन्वय और हमराह होने की क्या संभावना है? और यह कितना वांछित है?
ऐसे तमाम सवालों के बीच हमें लगता है कि राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष पद से एक निश्चित अवधि के लिए अवकाश भले ही ले लें, किंतु त्यागपत्र न दें। वे औपचारिक रूप से पद पर बने रहें, लेकिन व्यवहारिक स्तर पर ऐसे वरिष्ठ साथियों को दायित्व सौंप दें जो संगठन में और सदन में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने के काबिल हों। यदि मल्लिकार्जुन खड़गे इस बार हारे न होते तो उन्हें एक बार फिर सदन में प्रमुख विपक्षी दल का नेता निर्वाचित किया जा सकता था। विगत लोकसभा में उन्होंने अपनी भूमिका सशक्त रूप से निभाई थी। आज शायद उचित होगा कि उन्हें कांग्रेस पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष या कार्यकारी उपाध्यक्ष बना दिया जाए। एक समय कमलापति त्रिपाठी, फिर अर्जुन सिंह को यह जिम्मेदारी सौंपी गई थी। लोकसभा में पार्टी के नेता व उपनेता पद का दायित्व क्रमश: अधीर रंजन चौधरी व शशि थरूर अथवा प्रणीत कौर को सौंपा जा सकता है। बहरहाल, यह बैठे-ठाले की सलाह है। अंतिम निर्णय तो पार्टी के भीतर ही होना है।
अपने पिछले लेख में हमने राहुल गांधी से व्यापक पैमाने पर जनता से संवाद स्थापित करने की अपेक्षा की थी। यही अपेक्षा अन्य गैर-एनडीए दलों से भी हम करते हैं। आज सबसे महती आवश्यकता इसी बात की है। इस संपर्क-संवाद अभियान का प्रारंभ करने के लिए एक बेहतरीन अवसर भी सामने है। इस साल राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की सार्द्धशती है। याने 2 अक्टूबर 2019 को उनकी एक सौ पचासवीं जयंती है। कांग्रेस ने बीते बरसों में कुछ अच्छे अवसर यूं ही गंवा दिए जैसे दांडी यात्रा के पचहत्तर साल, सत्याग्रह शताब्दी और पं. नेहरू की एक सौ पच्चीसवीं जयंती। परंतु आज जो अवसर मिला है, उसे बिलकुल नहीं चूकना चाहिए। खासकर तब जबकि जनमानस से गांधी को अपदस्थ करने का एक महीन षड़यंत्र चुपचाप चलाया जा रहा है। आज जनता के बीच जाकर समझाना है कि गांधी सिर्फ एक चश्मे की कमानी या एक छड़ी मात्र नहीं थे, कि स्वच्छता उनके विराट जीवन दर्शन का एक छोटा सा हिस्सा मात्र था, कि सत्य और अहिंसा को अस्त्र बनाकर ही उन्होंने साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई जीतने में निर्णायक भूमिका निभाई थी।
हमारी राय में इस संपर्क अभियान के लिए राहुल गांधी को बिना समय गंवाए देश की पदयात्रा पर निकल पड़ना चाहिए। याद करें कि जब 1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे तो अपने गुरु गोपालकृष्ण गोखले के निर्देश पर उन्होंने पूरा एक साल देशभ्रमण कर देश की आत्मा को समझने में बिताया था। उस यात्रा में ही उन्हें अंग्रेजी राज के खिलाफ अपनी रणनीति तैयार करने के सूत्र मिले थे। राहुल को इस देशव्यापी पदयात्रा में साथ देने के लिए उन तमाम लोगों का, खासकर युवाओं का आह्वान करना चाहिए जो सत्ता की नहीं, सिद्धांत की राजनीति में विश्वास रखते हैं। राहुल और प्रियंका के साथ अगर कन्हैया जैसे युवा जुड़ पाते हैं तो यह एक उत्साहवर्द्धक बात होगी। इस अभियान में भाकपा, माकपा, राजद, द्रमुक, राकांपा आदि भी साथ दें तो अच्छा होगा। दरअसल, समय की मांग है कि चुनावी राजनीति से ऊपर उठकर दीर्घकालीन लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित किया जाए।
जनता के बीच जाएंगे तो समझ आएगा कि मतदाता आप से विमुख क्यों होते गया है। राहुल को चाहिए कि इन्हें उदार मन से आमंत्रित करें। उन्हें जनतांत्रिक मूल्यों के पैरोकार बुद्धिजीवियों से भी अपना संपर्क बढ़ाना चाहिए। इस तरह से दो काम सिद्ध होंगे। एक ओर गांधी-नेहरू दर्शन को लोगों के बीच ले जाना, दूसरी ओर स्वयं अपने लिए सबक सीखना। और अंत में यह भी जोड़ना चाहूंगा कि तथाकथित ''लेफ्ट-लिबरल'' बुद्धिजीवी जो अधिकतर दिल्ली में पाए जाते हैं, और जो अब तक कांग्रेस व राहुल को पानी पी-पीकर कोस रहे थे, वे भी आत्मालोचना का साहस जुटाएं।
#देशबंधु में 13 जून 2019 को प्रकाशित
No comments:
Post a Comment