Thursday, 20 June 2019

तपती धूप में सड़क का सफर


बड़चिचोली। नागपुर से भोपाल राष्ट्रीय राजमार्ग क्र. 47 पर विदर्भ की सीमा पार करते साथ म.प्र. के छिंदवाड़ा जिले का एक छोटा सा गांव। कुछ दिन पहले इस रास्ते से गुजरना हुआ तो जाते वक्त तो बाईपास से ही आगे बढ़ गए, लेकिन लौटते समय तय कर लिया कि गांव में जाना ही है। इसलिए कि वह वटवृक्ष एक बार फिर देखना था, जिसे देखे करीब पच्चीस साल बीत चुके थे। इसमें शायद कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि समूचे मध्यवर्ती भारत में इससे वृहदाकार बरगद का पेड़ कोई दूसरा नहीं है। जब पिछली बार देखा था, तब वृक्ष का विस्तार एक वर्ग किमी से अधिक क्षेत्र में था, जो इन बीस-पच्चीस सालों मे और आगे बढ़कर संभवत् डेढ़ वर्ग किमी तक फैल गया है। इस विशाल वृक्ष में अब लगभग सात सौ तने हैं- तने याने ऊपर से नीचे आकर धरती में समाने वाली जड़ें। मेरी जानकारी में कोलकाता के शिवपुर वानस्पतिक उद्यान, चैन्नई के अड्यार और शायद आंध्रप्रदेश में किसी स्थान पर अवस्थित वटवृक्ष हमारे देश के प्रमुख और महाकाय वटवृक्ष हैं। बड़चिचोली की गिनती किस क्रम पर होगी, यह तो वनस्पति-विज्ञान के पंडित ही जानते होंगे, लेकिन यदि इस स्तंभ के पाठकों के पास इस संदर्भ में कोई जानकारी हो तो साझा करने की कृपा करें।
जाहिर है कि विदर्भ-महाकौशल के सीमांत पर बसे इस गांव का नाम ही अपने वटवृक्ष के कारण बड़चिचोली पड़ा है, लेकिन अपनी इस प्राकृतिक विरासत को सहेजने में म.प्र. सरकार ने कोई विशेष ध्यान दिया हो, ऐसा नहीं लगता। ध्यान आता है कि बाराबंकी (उ.प्र.) के लोकसभा सदस्य बेनीप्रसाद वर्मा केंद्रीय संचार मंत्री बने तो उन्होंने अपने क्षेत्र में स्थित अनूठे ''कल्पवृक्ष'' पर डाक टिकिट जारी करवा दिया था। देखें कि मुख्यमंत्री कमलनाथ का ध्यान अपने गृहक्षेत्र की इस अनूठी धरोहर पर कब जाता है! इसी परिसर में एक बावली भी है जो शायद दो सौ साल पुरानी होगी। बड़चिचोली के बरगद की एक और खासियत है जो आज के दौर में खासे मायने रखती है। यहां एक सूफी संत की मजार है, जिस पर हर साल उर्स भरता है। उस मजार के बाजू में ही हनुमानजी का मंदिर भी है। इस मजार व उर्स के संरक्षक व सहयोगी आसपास के गांवों के सभी धर्मों व वर्गों के नागरिक हैं। उसमें कोई भेदभाव नहीं है। पहले मजार छोटे रूप में थी, उत्साही भक्तों के सहयोग से अब उसका विस्तार हो रहा है। इससे वटवृक्ष के प्राकृतिक सौंदर्य पर असर पड़ रहा है, लेकिन यह भक्तिभाव कहां नहीं है? रायपुर के निकट चंपारन में महाप्रभु वल्लभाचार्य की जन्मस्थली में कभी जो नैसर्गिक वन होता था, उसकी शोभा कांक्रीट के बढ़ते जंगल के कारण नितदिन नष्ट हो रही है। अस्तु,
बड़चिचोली हमारी उस यात्रा का एक संक्षिप्त पड़ाव मात्र था, जिस पर हम जून और जेठ माह की तपती दोपहरों में निकल पड़े थे। हमारा गंतव्य था- नर्मदांचल का नगर हरदा जहां कवि मित्र प्रेमशंकर रघुवंशी की स्मृति में आयोजित एक समारोह में भाग लेना था। पहले कभी नरसिंहपुर, होशंगाबाद और हरदा को मिलाकर एक ही जिला हुआ करता था- होशंगाबाद। कालांतर में विभाजन होकर नरसिंहपुर व हरदा भी पृथक जिले बन गए। मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक परिदृश्य में इस अंचल का सदैव से महत्वपूर्ण स्थान रहा है। माखनलाल चतुर्वेदी, भवानी प्रसाद मिश्र, मायाराम सुरजन, हरिशंकर परसाई जैसे कलम के धनी और कलम के सिपाही मूलत: यहीं के थे। इसी कड़ी में प्रेमशंकर रघुवंशी का नाम भी जुड़ता है। भाई रघुवंशी के साथ दशकों पुरानी मित्रता थी। हमने मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन में बरसों साथ-साथ काम किया। उन्हें मैंने सन् 1961-62 में सबसे पहले एक समर्थ गीतकार के रूप में जाना था। रचनाकार के इस रूप से मैं हमेशा प्रभावित रहा। 1995 में हमने इसीलिए देशबन्धु के अवकाश अंक में लगातार एक साल तक 'गीत वर्ष' शीर्षक से साप्ताहिक स्तंभ के अंतर्गत उनके गीत छापे। उनकी लंबी कविता ''देखो सांप: तक्षक नाग'' अपने कथ्य और बुनावट में एक अद्भुत कविता है, जिसमें समसामयिक जीवन की बहुविध विसंगतियों को पुरजोर ढंग से उजागर किया गया है।
श्रीमती विनीता रघुवंशी ने जब फोन पर आदेश दिया कि मुझे 8 जून को प्रेमशंकर रघुवंशी फाउंडेशन के उद्घाटन अवसर पर उपस्थित होना ही है तो मैं मना नहीं कर सका। इससे मेरा ही लाभ हुआ। हरदा में कुछ पुराने, लेकिन अधिकतर नए रचनाशील साथियों से परिचय हुआ। इस भीषण गर्मी में आयोजन करना अपने आप में हिम्मत का काम था, लेकिन विनीताजी और उनकी टीम ने जिस सुंदर-सुचारू ढंग से कार्यक्रम किया, उसकी प्रशंसा ही की जा सकती है। भाई रघुवंशी पर एक लघु वृत्तचित्र का प्रदर्शन, लेखक बंधु कैलाश मंडलेकर का प्रभावशाली व्याख्यान, इप्टा इकाई द्वारा ''देखो सांप: तक्षक नाग'' की नाट्य प्रस्तुति और नवोदित प्रतिभाओं की कलात्मक अभिव्यक्तियां- इन सबने सभा में उपस्थित सभी जनों को पूरे समय तक बांधे रखा। उल्लेखनीय था कि कार्यक्रम 44-45 डिग्री तापमान में गैर ए.सी. हॉल में हो रहा था, लेकिन श्रोता-दर्शक उससे निर्लिप्त थे। आयोजन में महिलाओं की बढ़-चढ़कर भागीदारी भी सुखद और कल्पनातीत थी।
यह हमारी मजबूरी थी कि हमें यात्रा दिन में ही करना थी। आजकल सूरज डूबने के बाद सड़क मार्ग से यात्रा करने में बेचैनी होने लगती है। इसलिए रायपुर से हरदा और फिर बालाघाट-गोंदिया होते हुए वापसी में हमने पूरे पांच दिन तपती धूप में सफर करते हुए ही गुजारे। दिन-दिन की यात्रा का एक लाभ यह हुआ कि सतपुड़ा और नर्मदा अंचल की निरंतर बदलती हुई दृश्यावली को थोड़ा-बहुत देखने का अवसर मिल गया।
एक परिवर्तन जो विशेष कर नोट करने लायक है कि कहीं फोरलेन, कहीं सिक्सलेन, कहीं बाईपास के निर्माण के चलते रास्ते के गांव-कस्बे-शहर एक किनारे छूट जाते हैं। रायपुर से नागपुर जाते हुए भिलाई शहर के बीच से गुजरना पड़ता है, लेकिन दुर्ग किनारे रह जाता है, राजनांदगांव में फ्लाईओवर से देखते न देखते शहर पीछे छूट जाता है। नागपुर से हरदा के बीच सावनेर, पांढुर्णा, मुलताई, बैतूल- सब पर बाईपास, सड़क किनारे वृक्षों की अंधाधुंध कटाई के रूप में सामने आया है। पूरे रास्ते कहीं छाँह नहीं मिलती। दूसरे- यदि कहीं अल्प विश्राम के लिए रुकना चाहें तो कहां रुकें? इन नगरों के स्थानीय विशिष्ट व्यंजन भी अब चखने नहीं मिलते। तीसरे- टोल नाकों पर अच्छी-खासी रकम चुकाना पड़ती है। नियमों के अनुसार टोल नाकों पर यात्री सुविधाएं होना चाहिए, लेकिन ठेकेदारों की कोई रुचि उनके रख-रखाव में नहीं है।
बहरहाल, हरदा जाते समय हमने सोचा कि फोरलेन छोड़कर बैतूल के पहले बैतूलबाजार में निर्मित बालाजीपुरम में रुककर चाय पी लेंगे। एनआरआई उद्योगपति सैम वर्मा ने लगभग चालीस साल पहले बालाजी का एक छोटा सा मंदिर बनवाया था। अभी उसका भव्य रूप देखकर आश्चर्य हुआ। वहां तो सड़क के दोनों किनारे बाकायदा एक बाजार सज गया है। अतिथिशाला और बैंक की शाखाएं भी हैं। एक जगह सूचनापटल था- देश का पांचवा धाम। धर्मप्राण जनता को इसी सब में मानसिक शांति और संतोष मिलता है। लौटते समय हम इसी तरह राजमार्ग छोड़ ताप्ती नदी का उद्गम देखने मुलताई नगर में घुसे। मैंने लगभग पच्चीस वर्ष बाद ही ताप्ती कुंड के दर्शन किए। ध्यान आया कि पहले सड़क किनारे दूकानें थीं, जिनकी ओट में कुंड छुप जाता था, लेकिन वे शायद हटा दी गई हैं? छुटपुट ठेले, गुमटियां अवश्य थीं। ताप्ती कुंड में इस गर्मी में भी भरपूर पानी था, जिसे देखकर नेत्र और मन दोनों तृप्त हुए। स्मरणीय है कि मध्यप्रदेश की दो प्रमुख नदियों नर्मदा और ताप्ती पूर्व से पश्चिम की ओर बहते हुए गुजरात में अरब सागर में विलीन होती हैं। जबकि देश की अन्य प्रमुख नदियां पूर्व की ओर बहते हुए बंगाल की खाड़ी में विलीन होती हैं। ताप्ती कुंड का जल स्वच्छ था, उसमें बदकें तैर रही थीं, नौका विहार भी चल रहा था, कुल मिलाकर एक आह्लादकारी दृश्य था।
एक समय ''चांदनी रात में नौका विहार'' पर कविताएं लिखी जाती थीं, हमने तपती धूप में सड़क का सफर किया। स्वाभाविक ही कुछ कष्ट उठाए, लेकिन समग्रता में आनंददायक अनुभव पाया।
देशबंधु में 20 जून 2019 को प्रकाशित

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