राजीव गांधी ने अपने मंत्रिमंडल का गठन करते समय एक नई सोच का परिचय दिया था। उन्होंने कुछ नोडल मंत्रालय बनाए थे जिनका आकार विशाल था व जिनके अन्तर्गत आपस में जुड़े बहुत से विभाग लाए गए थे। इनमें से एक यातायात मंत्रालय था जिसकी मंत्री मोहसिना किदवई थीं व उनके नीचे तीन राज्यमंत्री क्रमश: सड़क परिवहन, जहाजरानी व नागरिक उड्डयन देख रहे थे। इसी तरह मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अन्तर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य व संस्कृति सभी रखे गए थे। पी.वी. नरसिंहराव इसके पहले मंत्री थे। राजीव गांधी की इस नई सोच को बाद के प्रधानमंत्रियों ने जारी नहीं रखा। पी.वी. नरसिंहराव का समय आते तक मानव संसाधन विकास मंत्रालय से स्वास्थ्य हटा दिया गया था। डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो यह विभाग और भी सिकुड़ गया जब संस्कृति के लिए अलग मंत्रालय गठित कर दिया गया।
इस फेरबदल से कुछ विसंगतियां उपजीं। संस्कृति मंत्रालय को साहित्य, कला, संगीत, पुरातत्व आदि के साथ पुस्तकालय भी सौंप दिए गए जबकि परंपरा के अनुसार पुस्तकालयों का जिम्मा शिक्षा मंत्रालय के पास होता था। संस्कृति मंत्रालय अपने आप में काफी चमक-दमक का महकमा है; उसमें पर्यटन भी साथ हो तो फिर कहना ही क्या? नतीजा यह हुआ कि पुस्तकालयों की ओर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था वह नहीं दिया जा सका। इधर अपने दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री ने संस्कृति मंत्रालय को अपने अधीन ही रखा है। इसलिए उसे पहले जो सीमित महत्व मिल रहा था वह लगभग समाप्त है। ऐसे में पुस्तकालयों की क्या स्थिति बन रही होगी यह समझा जा सकता है। लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं होती।
यद्यपि पुस्तकालय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अन्तर्गत नहीं हैं फिर भी पुस्तकों से जुड़ी हुई कुछ महत्वपूर्ण संस्थाएं इसी मंत्रालय के अधीन हैं- जैसे- राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (एनबीटी) एवं राष्ट्रीय पुस्तक संवर्धन मिशन। इनके साथ यूनेस्को, विदेशों में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय पुस्तक मेले व बौध्दिक सम्पदा कानून जैसी जिम्मेदारियां भी इसी मंत्रालय के पास हैं। यही नहीं, पुस्तकों से जुड़ी एक और महत्वपूर्ण संस्था प्रकाशन विभाग केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अन्तर्गत है। इस तरह पुस्तकों का कारोबार कम से कम तीन मंत्रालयों के बीच बंटा हुआ है और कहना गलत नहीं होगा कि यह किसी की भी प्राथमिकता में नहीं है। ऐसे समय में जब भारत को ज्ञानवान समाज (नॉलेज सोसायटी) बनाने के लिए भांति-भांति के उपक्रम और बढ़-चढ़कर दावे किए जा रहे हैं तब पुस्तकों की ओर यह दुर्लक्ष्य तकलीफदेह है।
केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल इन दिनों लगातार सुर्खियों में हैं। उनसे बातचीत करने जो पत्रकार जाते हैं वे आईआईटी, आईआईएम, विदेशी विवि का प्रवेश, दसवीं बोर्ड, कुलपतियों की नियुक्तियां आदि के बारे में ही बात करते हैं; या फिर उनकी दिलचस्पी यह जानने में रहती है कि श्री सिब्बल अपने पूर्ववर्ती के किन-किन निर्णयों को बदलने जा रहे हैं। लेकिन पिछले सौ सवा-सौ दिन में एक भी पत्रकार ने केन्द्रीय मंत्री से ज्ञानार्जन के प्राथमिक स्रोत याने पुस्तकों के बारे में कोई बात नहीं की। यह भी अफसोस की बात है कि वे साहित्यकार, जो हर समय पुस्तक न बिकने का रोना रोते हैं उन्होंने भी कभी इस बारे में सरकार से उसकी जवाबदेही सुनिश्चित करने की मांग नहीं उठाई।
मेरा मानना है कि यह वक्त का तकाजा है कि देश में पुस्तकों को लेकर एक समग्र सोच विकसित की जाए तथा केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ही इस काम को सही तरीके से संपादित कर सकता है। यह उचित होगा कि राजा राममोहन राय पुस्तकालय न्यास तथा पुस्तकों से संबंधित अन्य तमाम संस्थाओं को इस मंत्रालय में लाया जाए व देश में पुस्तकों के प्रति अभिरुचि जागृत करने के लिए एक जोरदार अभियान शुरू किया जाए। मंत्रालय के अन्तर्गत जो राष्ट्रीय पुस्तक संवर्धन मिशन काम कर रहा है उसे सक्रिय व अधिकार संपन्न बनाया जाए तथा ज्ञानार्जन से जुड़े अन्य मिशनों के सहयोगी संगठन के रूप में उसे प्रतिष्ठित किया जाए।
जैसा कि हम जानते हैं राष्ट्रीय साक्षरता मिशन पिछले बीस साल से लगातार साक्षरता वृध्दि के कार्य में जुड़ा हुआ है। अब महिला साक्षरता पर सरकार का विशेष ध्यान गया है व महिला साक्षरता मिशन गठित करने की तैयारियाँ चल रही हैं। ये जो करोड़ों नवसाक्षर हैं इन्हें अगर उम्दा किताबें नहीं मिलीं तो लिखित शब्द के प्रति इनकी रुचि लुप्त होने में कितना समय लगेगा यह विचारणीय है कि केरल में साक्षरता अभियान इसीलिए कामयाब हुआ क्योंकि वहां मलयाली में बड़ी संख्या में खूबसूरत किताबें सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। केरल शास्त्र साहित्य परिषद जैसी गैर-सरकारी संस्थाओं ने इसमें अहम् भूमिका निभाई है। इस मामले में हिन्दी की स्थिति चिंताजनक है, और उस पर ही सबसे ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है।
दूसरी तरफ यह भी ध्यातव्य है कि देश में कम्प्यूटर साक्षरता के पक्ष में माहौल बन रहा है लेकिन ज्ञानार्जन हेतु उसका अधिकतम लाभ कैसे लिया जाए, इस पर गौर नहीं किया गया है। मसलन, आज कम्प्यूटर पर विकीपीडिया के माध्यम से लाखों पुस्तकें उपलब्ध हैं, लेकिन इनमें हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं की पुस्तकें नगण्य हैं। यदि अच्छी किताबें इंटरनैट पर सुलभ हो जाएं तो दूर-दराज के गाँवों तक में पुस्तक प्रेमी उन्हें पढ़ सकेंगे।
कुल मिलाकर ज़रुरत इस बात की है कि किताबें खूब लिखी जाएं; खूब बड़ी संख्या में छपें; बेहतर से बेहतर छपाई हो, ज्यादा छपेंगी तो दाम भी कम होंगे; गांव-गांव तक पुस्तकें पहुंचे; वाचनालयों को पुनर्जीवित किए जाएं; पुस्तकालय चलाने के लिए प्रोत्साहन मिले तथा कम्प्यूटर पर भी नवसाक्षरों से लेकर प्रकाण्ड पंडितों तक के लिए पुस्तकें माउस के क्लिक पर उपलब्ध हों। भारत को ज्ञानवान समाज बनाने की बुनियादी शर्त यही है।
देशबंधु में 20 अगस्त 2009 को प्रकाशित
इस फेरबदल से कुछ विसंगतियां उपजीं। संस्कृति मंत्रालय को साहित्य, कला, संगीत, पुरातत्व आदि के साथ पुस्तकालय भी सौंप दिए गए जबकि परंपरा के अनुसार पुस्तकालयों का जिम्मा शिक्षा मंत्रालय के पास होता था। संस्कृति मंत्रालय अपने आप में काफी चमक-दमक का महकमा है; उसमें पर्यटन भी साथ हो तो फिर कहना ही क्या? नतीजा यह हुआ कि पुस्तकालयों की ओर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था वह नहीं दिया जा सका। इधर अपने दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री ने संस्कृति मंत्रालय को अपने अधीन ही रखा है। इसलिए उसे पहले जो सीमित महत्व मिल रहा था वह लगभग समाप्त है। ऐसे में पुस्तकालयों की क्या स्थिति बन रही होगी यह समझा जा सकता है। लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं होती।
यद्यपि पुस्तकालय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अन्तर्गत नहीं हैं फिर भी पुस्तकों से जुड़ी हुई कुछ महत्वपूर्ण संस्थाएं इसी मंत्रालय के अधीन हैं- जैसे- राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (एनबीटी) एवं राष्ट्रीय पुस्तक संवर्धन मिशन। इनके साथ यूनेस्को, विदेशों में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय पुस्तक मेले व बौध्दिक सम्पदा कानून जैसी जिम्मेदारियां भी इसी मंत्रालय के पास हैं। यही नहीं, पुस्तकों से जुड़ी एक और महत्वपूर्ण संस्था प्रकाशन विभाग केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अन्तर्गत है। इस तरह पुस्तकों का कारोबार कम से कम तीन मंत्रालयों के बीच बंटा हुआ है और कहना गलत नहीं होगा कि यह किसी की भी प्राथमिकता में नहीं है। ऐसे समय में जब भारत को ज्ञानवान समाज (नॉलेज सोसायटी) बनाने के लिए भांति-भांति के उपक्रम और बढ़-चढ़कर दावे किए जा रहे हैं तब पुस्तकों की ओर यह दुर्लक्ष्य तकलीफदेह है।
केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल इन दिनों लगातार सुर्खियों में हैं। उनसे बातचीत करने जो पत्रकार जाते हैं वे आईआईटी, आईआईएम, विदेशी विवि का प्रवेश, दसवीं बोर्ड, कुलपतियों की नियुक्तियां आदि के बारे में ही बात करते हैं; या फिर उनकी दिलचस्पी यह जानने में रहती है कि श्री सिब्बल अपने पूर्ववर्ती के किन-किन निर्णयों को बदलने जा रहे हैं। लेकिन पिछले सौ सवा-सौ दिन में एक भी पत्रकार ने केन्द्रीय मंत्री से ज्ञानार्जन के प्राथमिक स्रोत याने पुस्तकों के बारे में कोई बात नहीं की। यह भी अफसोस की बात है कि वे साहित्यकार, जो हर समय पुस्तक न बिकने का रोना रोते हैं उन्होंने भी कभी इस बारे में सरकार से उसकी जवाबदेही सुनिश्चित करने की मांग नहीं उठाई।
मेरा मानना है कि यह वक्त का तकाजा है कि देश में पुस्तकों को लेकर एक समग्र सोच विकसित की जाए तथा केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ही इस काम को सही तरीके से संपादित कर सकता है। यह उचित होगा कि राजा राममोहन राय पुस्तकालय न्यास तथा पुस्तकों से संबंधित अन्य तमाम संस्थाओं को इस मंत्रालय में लाया जाए व देश में पुस्तकों के प्रति अभिरुचि जागृत करने के लिए एक जोरदार अभियान शुरू किया जाए। मंत्रालय के अन्तर्गत जो राष्ट्रीय पुस्तक संवर्धन मिशन काम कर रहा है उसे सक्रिय व अधिकार संपन्न बनाया जाए तथा ज्ञानार्जन से जुड़े अन्य मिशनों के सहयोगी संगठन के रूप में उसे प्रतिष्ठित किया जाए।
जैसा कि हम जानते हैं राष्ट्रीय साक्षरता मिशन पिछले बीस साल से लगातार साक्षरता वृध्दि के कार्य में जुड़ा हुआ है। अब महिला साक्षरता पर सरकार का विशेष ध्यान गया है व महिला साक्षरता मिशन गठित करने की तैयारियाँ चल रही हैं। ये जो करोड़ों नवसाक्षर हैं इन्हें अगर उम्दा किताबें नहीं मिलीं तो लिखित शब्द के प्रति इनकी रुचि लुप्त होने में कितना समय लगेगा यह विचारणीय है कि केरल में साक्षरता अभियान इसीलिए कामयाब हुआ क्योंकि वहां मलयाली में बड़ी संख्या में खूबसूरत किताबें सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। केरल शास्त्र साहित्य परिषद जैसी गैर-सरकारी संस्थाओं ने इसमें अहम् भूमिका निभाई है। इस मामले में हिन्दी की स्थिति चिंताजनक है, और उस पर ही सबसे ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है।
दूसरी तरफ यह भी ध्यातव्य है कि देश में कम्प्यूटर साक्षरता के पक्ष में माहौल बन रहा है लेकिन ज्ञानार्जन हेतु उसका अधिकतम लाभ कैसे लिया जाए, इस पर गौर नहीं किया गया है। मसलन, आज कम्प्यूटर पर विकीपीडिया के माध्यम से लाखों पुस्तकें उपलब्ध हैं, लेकिन इनमें हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं की पुस्तकें नगण्य हैं। यदि अच्छी किताबें इंटरनैट पर सुलभ हो जाएं तो दूर-दराज के गाँवों तक में पुस्तक प्रेमी उन्हें पढ़ सकेंगे।
कुल मिलाकर ज़रुरत इस बात की है कि किताबें खूब लिखी जाएं; खूब बड़ी संख्या में छपें; बेहतर से बेहतर छपाई हो, ज्यादा छपेंगी तो दाम भी कम होंगे; गांव-गांव तक पुस्तकें पहुंचे; वाचनालयों को पुनर्जीवित किए जाएं; पुस्तकालय चलाने के लिए प्रोत्साहन मिले तथा कम्प्यूटर पर भी नवसाक्षरों से लेकर प्रकाण्ड पंडितों तक के लिए पुस्तकें माउस के क्लिक पर उपलब्ध हों। भारत को ज्ञानवान समाज बनाने की बुनियादी शर्त यही है।
देशबंधु में 20 अगस्त 2009 को प्रकाशित
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