Friday, 15 June 2012

साहित्य में तमाशा

  



छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन के बंदोबस्त में एक महत्वाकांक्षी साहित्यिक कार्यक्रम पिछले दिनों रायपुर में सम्पन्न हुआ। यह एक राष्ट्रीय स्तर का आयोजन था क्योंकि इसमें छत्तीसगढ़ के अलावा कुछ अन्य प्रदेशों के लेखकों ने भी भागीदारी की। कार्यक्रम प्रदेश के सुपरिचित साहित्यकार स्वर्गीय प्रमोद वर्मा की स्मृति में था और प्रकट तौर पर इसका आयोजन प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान नामक एक नवगठित संस्था ने किया था। विश्वरंजन इस संस्थान के संभवत: संस्थापक अध्यक्ष हैं। उनकी अपनी पहचान एक कवि और चित्रकार के रूप में भी विकसित हुई है। प्रमोद वर्मा की स्मृति में कोई संस्था बने और उन्हें स्मरण करते हुए अगर कोई अच्छा कार्यक्रम हो जाए तो सामान्यत: ऐसी पहल का स्वागत होना चाहिए। ऐसे आयोजनों के माध्यम से ही रचनाशील मित्रों को एक-दूसरे से मिलने-जुलने के अवसर मिलते हैं। ऐसे प्रसंगों के दौरान जो साहित्यिक चर्चाएं होती हैं उनका प्रभाव कई-कई बरसों तक बना रहता है। छत्तीसगढ़ में इस तरह के आयोजन पहले भी हो चुके हैं। लेकिन मैंने इस आयोजन में भाग नहीं लिया।

दरअसल, छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के बाद मन में एक आशा थी कि इससे प्रदेश में साहित्य और संस्कृति के एक नए वातावरण की सर्जना होगी। यह हमारा चरम दुर्भाग्य है कि राज्य बनने के एक साल के भीतर यह आशा खंडित हो गई। पिछले नौ सालों में एक के बाद एक ऐसे निर्णय लिए गए हैं जिनके चलते प्रदेश का सांस्कृतिक परिदृश्य एक अशोभन तमाशे में तब्दील हो चुका है। हर मंच और हर अवसर पर छुटभैय्ये, चाटुकारों और कमीशनखोरों का कब्जा है। जो बड़े-बड़े नाम वाले लेखक, कलाकार थे, वे भी अब बड़ी- छोटी डयोढ़ियों पर सलाम करते नजर आ रहे हैं। सांस्कृतिक विमर्श की तमाम संस्थाएं प्रदेश की नदियों की तरह प्रदूषित हो चुकी हैं। जिस तरह से स्पंज आयरन कारखानों का जहरीला धुआं खेतों और घरों पर छा रहा है, वैसे ही फूहड़ गीत, संगीत, घटिया दर्जे की कविताएं, तमाशानुमा नाटक और झूठी जय-जयकार उसी कालिख की मानिंद प्रदेश के बुध्दिजीवियों की आत्मा पर छा गई है।

प्रमोद वर्मा स्मृति आयोजन इस अस्वस्थ सांस्कृतिक परिदृश्य का ही विस्तार सिध्द हुआ। मैं पिछले नौ साल में सायास अपने आपको ऐसे कार्यक्रमों से लगातार दूर रखते आया हूं। 2001 में राज्य पुरस्कारों की जूरी में जिस तरह का छोटापन मैंने देखा, उसके बाद फिर मैंने जूरी का सदस्य बनने से इंकार कर दिया। संस्कृति के नाम पर आए दिन जो स्वांग होते हैं ऐसे आयोजनों से बराबर अनुपस्थित रहकर मैं अपनी आपत्ति दर्ज करते रहा हूं। इस कार्यक्रम से एक क्षीण आशा बंधी थी कि शायद यहां कुछ बेहतर होगा लेकिन जैसे-जैसे आयोजन का समय नजदीक आते गया, यह स्पष्ट होते गया कि बहुत सारे लोगों का इसके माध्यम से अपनी छोटी-बड़ी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के अलावा और कोई ध्येय नहीं है। यह समझ में आया कि ऐसे तमाम लोगों के लिए प्रमोद वर्मा नहीं, बल्कि विश्वरंजन मायने रखते हैं, वह भी इसलिए कि इस समय वे छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक हैं।

कुछेक अखबारों में आयोजन पूर्व जिस तरह की सामग्री प्रकाशित की गई उससे इस बात की पुष्टि हुई। फिर एकाएक एक सुबह विश्वरंजन का एक लेख पढ़ने मिला जिसमें उन्होंने आयोजन के आर्थिक पक्ष आदि पर अपनी सफाई दी। इस पत्र में एक आला अफसर से अपेक्षित आक्रोश साफ झलक रहा था। उनकी वेदना थी कि कुछ लोग आयोजन को असफल करना चाहते हैं। इस पर मुझे कुछ हैरत भी हुई क्योंकि प्रदेश व प्रदेश के बाहर एक भी लेखक ने अब तक ऐसी कोई बात नहीं कही थी। कुल मिलाकर माहौल तो ऐसा था कि प्रमोद वर्मा को छत्तीसगढ़ के तमाम रचनाकारों से भी बड़ा सिध्द किया जाए, क्योंकि शायद ऐसा करने से ही आयोजन समिति के अध्यक्ष की कृपा पाई जा सकती थी।

मुझे अविभाजित मध्यप्रदेश के अलग-अलग स्थानों पर ऐसे साहित्यिक आयोजनों में भाग लेने के अवसर मिले हैं जिन्हें हर दृष्टि से उल्लेखनीय कहा जा सकता है। इनमें से मैं फिलहाल छत्तीसगढ़ के कुछ आयोजनों को रेखांकित करना चाहता हूं यथा- छत्तीसगढ़ विभागीय हिन्दी साहित्य सम्मलेन का तीन दिवसीय आयोजन (भिलाई 1965), मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन (राजनांदगांव 1972), म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ का महत्व नागार्जुन आयोजन (रायपुर 1982), दुर्गा महाविद्यालय हिन्दी साहित्य समिति का पंचरत्न सम्मान समारोह (रायपुर, 1966), धमतरी जिला हिन्दी साहित्य समिति का नई कलम सम्मेलन (धमतरी, 1967) इत्यादि। इन तमाम आयोजनों की विशेषता यही थी कि इन्हें साहित्यकारों ने अपनी प्रेरणा से आयोजित किया था। कार्यक्रम के लिए जो वित्तीय प्रबंधन होना थे वे भी लेखकों ने निजी तौर पर या अपने संबंधों के जरिए जुटाए। इनमें न तो कभी शासन हावी हुआ न कोई व्यापारी।

दूसरे शब्दों में ये जनतांत्रिक तरीके से किए गए आयोजन थे जिनमें सहयोग समाज के सभी वर्गों का था, लेकिन राज्याश्रय या सेठाश्रय जैसी स्थिति नहीं थी। यह बात अलग है कि अपने परिचय के सहारे थोड़ी-बहुत अनुदान राशि शासकीय अथवा अर्ध्दशासकीय संस्थाओं से जुटाई गई हो। मुझे 1964 की मई में राजनांदगांव में आयोजन बख्शी सम्मान समारोह की भी स्मृति है। इसमें भाग लेने के लिए रायपुर से हम कितने सारे लोग मिनी बस में बैठकर राजनांदगांव गए थे। 1965 में दुर्गा महाविद्यालय ने पांच लेखकों सर्वश्री मुकुटधर पाण्डेय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, बलदेव प्रसाद मिश्र, सुन्दरलाल त्रिपाठी व मालवी प्रसाद श्रीवास्तव का सम्मान किया गया था। इस अवसर पर कॉलेज ने जो ''व्यंजना'' शीर्षक स्मारिका प्रकाशित की थी उसका आज भी संदर्भ सामग्री के रूप में उपयोग किया जाता है। ऐसे तमाम आयोजन रचनाकारों और कलाकारों को आम जनता के साथ जोड़ते थे। इसके कारण ही समाज में साहित्यकारों की पूछ-परख होती थी। अब अपनी सामर्थ्य पर होने वाले कार्यक्रमों की परंपरा बिल्कुल समाप्त हो गई है। इस बीच में पुस्तकों की सरकारी खरीद, सरकारी व गैर सरकारी तौर पर नए-नए पुरस्कारों की स्थापना तथा सरकारी  तंत्र के कार्यक्रम जैसे बहुत से आकर्षण पैदा हो गए हैं जिन्होंने साहित्यकार से उसका आत्मसम्मान और स्वतंत्रता छीन ली है।

तर्क दिया जाता है कि जनतांत्रिक व्यवस्था में यदि राज्य साहित्य व संस्कृति के समर्थन के लिए मदद करे तो उसे जनतांत्रिक अधिकार मानकर लेना ही चाहिए। इस तर्क में 
वज़न है, लेकिन प्रश्न उठता है कि शासकीय अनुदान एक पारदर्शी नीति के अंतर्गत दिया जा रहा है या खैरात समझकर बाँटा जा रहा है। बात साफ है। अगर पारदर्शी नीति होगी तो गुणवत्ता के आधार पर सहयोग राशि दी जाएगी। अन्यथा इसका लाभ सिर्फ चाटुकारों को ही मिलता रहेगा। इसे समझने की जरूरत है कि छत्तीसगढ़ सरकार ने 2001 में जब राज्य पुरस्कार स्थापित किए तो माधवराव सप्रे के नाम पर कोई पुरस्कार देना जरूरी नहीं समझा। जब पत्रकारिता विश्वविद्यालय खुला तब भी उनका नाम जोड़ना उचित नहीं माना गया। मुकुटधर पाण्डेय का नाम भी अब नहीं लिया जाता। शानी और श्रीकांत वर्मा को भी भुला दिया गया है। गजानन माधव मुक्तिबोध के नाम पर भी कोई समुचित पहल नहीं की गई। दूसरी तरफ ऐसे-ऐसे पुरस्कार स्थािपत कर दिए गए, जिनके बारे में जनता को तो क्या सरकार को भी ठीक से ज्ञान नहीं है। सुंदरलाल शर्मा के नाम पर साहित्य का राष्ट्रीय पुरस्कार स्थापित हुआ जबकि उनका प्रमुख योगदान समाज सुधारक के रूप में था।

हमारे रचनाकार मित्रों ने ऐसी तमाम बातों को अनदेखी की। विडंबना की बात है कि भारतीय जननाटय संघ याने इप्टा जैसी संस्था भी छत्तीसगढ़ में शासकीय इमदाद की तलबगार हो गई है। जिन कलाकारों को जनता के बीच में जाकर आर्थिक-राजनीतिक प्रश्नों पर चेतना जगाना चाहिए, वे रंगशाला के भीतर बजती तालियों से ही प्रसन्न हो रहे हैं। पूरे प्रदेश में उत्सवों और पर्वों की बहार आई हुई है। इनमें कवि सम्मेलन भी रखे जाते हैं। एक घंटे में औसतन तीस कवि निपट जाते हैं। आपाधापी में किसने कविता सुनाई और किसने सुना पता ही नहीं चलता, लेकिन पत्र-पुष्प तो मिल ही जाते हैं। पुष्प की एकाध पंखुड़ी  आमंत्रित करने वाले अधिकारी को भी पदसिध्द अधिकार से मिल जाती है। हमारे कुछेक साहित्यकार तो कविता, कहानी लिखना छोड़कर स्मृति लेख लिखने में ही व्यस्त हो गए हैं। इससे दिवंगतों का परलोक सुधारने के साथ अपना इहलोक सुधारने में मदद मिलती है। जिन्हें साहित्य की कोई समझ नहीं है, वे अकादमी और सृजनपीठ में जाकर बैठ गए हैं। कुल मिलाकर जबसे प्रदेश गठित हुआ है, तबसे राजभक्ति प्रदर्शित करने का माहौल बना हुआ है। इस सबको देखकर घनघोर निराशा होती है।

इसमें आशा की किरण अगर कहीं है तो वह उन रचनाकारों के रूप में है जो इस सबके बीच लगातार लेखन में जुटे हुए हैं। इस बीच हमारे लेखक मित्रों की कितनी ही महत्वपूर्ण कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं जिनके बारे में न तो सत्ताधीशों को पता है और न सत्ता के चारणों को। इन्हें न पुरस्कार का लोभ है, न सम्मान का। प्रभाकर चौबे जैसे साथी भी इनमें हैं, जो 75 साल की उम्र में भी नियमित लिख रहे हैं, और इससे संतुष्ट हैं कि आम जनता तक उनके विचार पहुँच रहे हैं। सब ऐसे वीतराग नहीं हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ में साहित्य को बचाने काम यही लोग कर रहे हैं। इसका मूल्यांकन आने वाला समय करेगा।

 देशबंधु में 16 जुलाई 2009 को प्रकाशित 

 

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