Wednesday 7 November 2012

संसाधनों का राष्ट्रीयकरण!




एक सप्ताह पूर्व एक एसएमएस मिला जिसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह होगा- ''प्राकृतिक एवं खनिज संसाधनों में एक के बाद एक घोटाले उजागर होने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी, अन्य राजनैतिक दल, संवेदी समाज (सिविल सोसायटी) और मीडिया अब तक के सारे आबंटनों को रद्द करने और इन तमाम संसाधनों का राष्ट्रीयकरण करने की मांग क्यों नहीं कर रहे हैं?'' मुझे यह संदेश पाकर थोड़ी हैरानी हुई, वह इसलिए कि संदेश दिल्ली निवासी अनुज अग्रवाल ने भेजा था, जो अपने अन्य कामों के अलावा गत दो-तीन वर्षों से 'डॉयलाग इंडिया' नामक मासिक पत्रिका प्रकाशित कर रहे हैं। अपनी पत्रिका में अनुज मेरा एक न एक लेख हर माह छापते हैं, लेकिन मैं जानता हूं कि राजनीतिक रूप से वे संघ परिवार के निकट हैं। उनके संदेश का पहला हिस्सा तो ठीक है, लेकिन वे प्राकृतिक संसाधनों के राष्ट्रीयकरण की मांग कर सकते हैं, यह मेरे लिए आश्चर्य की बात थी।

हम अगले सप्ताह देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन मनाएंगे।  इस अवसर पर यह ध्यान अपने आप आता है कि राष्ट्रीयकरण का यह विचार मुख्यत: पंडित नेहरू ने ही दिया था जिसे बाद में इंदिराजी ने बढ़ाया।  आज़ादी के बाद भारत आर्थिक एवं अन्य कई दृष्टियों से बदहाल था। देश के नवनिर्माण की भारी चुनौती उस समय के राजनीतिक नेतृत्व पर थी। पंडितजी और उनके साथियों ने एक ओर जहां संसदीय जनतंत्र की राजनीतिक प्रणाली को मूर्तरूप दिया, वहीं दूसरी ओर आर्थिक मोर्चे पर भी एक नई पहल की गई। उन्होंने देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए पंचवर्षीय योजना की अवधारणा को लागू किया। उनका मानना था कि एक दीर्घकालीन दृष्टि विकसित  कर कदम-दर कदम बढ़ाते हुए ही देश को आर्थिक बदहाली से उबारा जा सकता है।

 सर्वविदित है कि भारत में उस समय औद्योगिक गतिविधियां नाममात्र को थीं। देश का एकमात्र स्टील प्लांट कोई चालीस साल पहले टाटानगर में निजी क्षेत्र में स्थापित हुआ था। उसके बाद भारी उद्योग लगाने की कोई पहल अंग्रेजी राज के दौरान नहीं हुई थी। मुंबई, अहमदाबाद व कानपुर में कपड़ा मिलें थीं, कलकत्ता में जूट मिलें और इसी तरह अलग-अलग जगहों पर कुछ और औद्योगिक इकाईयां। आर्थिक प्रगति के लिए जो बुनियादी ढांचा चाहिए था, वह जैसे था ही नहीं। अपनी अनेकानेक जरूरतों के लिए देश को आयात पर निर्भर रहना पड़ता था। यूं अनेक कारखाने अंग्रेजी स्वामित्व में थे, लेकिन वे प्राथमिक क्षेत्र में नहीं थे।

इस पृष्ठभूमि में नेहरू सरकार के सामने बड़ी चुनौती थी कि प्राथमिक क्षेत्र या कि बुनियादी उद्योग कैसे स्थापित किए जाएं। देश को पेट्रोलियम, इस्पात, बिजली इन सबकी जरूरत थी, क्योंकि औद्योगिक विकास व आर्थिक प्रगति की नींव इन्हीं से रखी जा सकती थी। सरकार ने इंग्लैंड व अन्य पश्चिमी देशों से इसमें सहायता मांगी, लेकिन उन्होंने कोई खास उत्साह नहीं दिखाया। देश में तेल भंडारों के अन्वेषण के लिए आई पश्चिमी कंपनियों ने तो साफ-साफ कह दिया कि भारत में तेल है ही नहीं। यही वह समय था जब भारत और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच सुदृढ़ मैत्री संबंधों की शुरुआत हुई। सोवियत संघ व कम्युनिस्ट ब्लॉक के अन्य देशों इस्पात, तेल, बिजली, इंस्ट्रुमेंटेशन जैसे उपक्रम स्थापित करने के लिए दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाया। 

हमारे छत्तीसगढ़ का भिलाई इस्पात संयंत्र इस तरह से देश को आत्मनिर्भरता की ओर ले जाने की दिशा में एक प्रारंभिक व ज्वलंत उदाहरण है। इसके बाद भोपाल में हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, बंगलौर में हिन्दुस्तान मशीन टूल्स व इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज आदि स्थापित हुए। इसी दौरान भाखड़ा नांगल व हीराकुंड जैसे बांध भी स्थापित हुए। ये सारे के सारे कारखाने और प्रकल्प सार्वजनिक क्षेत्र में ही थे। नेहरूजी ने इन्हें आधुनिक भारत के तीर्थ की संज्ञा यूं ही नहीं दी थी। वे जानते थे कि ये प्रकल्प देश की जनता की बेहतरी के लिए वरदान सिध्द होंगे। यह पंडित नेहरू की उदारवादी और व्यवहारिक सोच भी थी कि जब पश्चिमी शक्तियों ने भी इन सार्वजनिक उद्योगों में सहयोग की मंशा दर्शाई तो सरकार ने उसे स्वीकार करने में संकोच नहीं किया।

पंडित नेहरू साम्यवादी नहीं थे। वे साम्यवाद के अच्छे पहलुओं को स्वीकार करने के लिए तैयार रहते थे, लेकिन साम्यवाद के तौर-तरीकों से उन्हें कुछ बुनियादी आपत्तियां थीं और देश के भीतर साम्यवादी दल की रीति-नीति को लेकर उन्हें बहुत से संदेह भी थे। वे एक खुले विचारों वाले व्यक्ति थे और देश के नव-निर्माण में सबसे यथायोग्य योगदान की अपेक्षा करते थे। जब देशी उद्योगपतियों ने उन्हें बॉम्बे प्लान दिया तो उसको उन्होंने बिना देखे खारिज नहीं किया। किन्तु उनकी दृढ़ मान्यता थी कि स्वतंत्र भारत में सार्वजनिक क्षेत्र प्रमुख भूमिका निभाएगा। आर्थिक गतिविधि का कोई भी आयाम हो, वे मानते थे कि उसकी कमान केन्द्र सरकार के पास होना चाहिए।

इस तरह हम पाते हैं कि उन्होंने देश में औद्योगिक प्रगति के लिए आधारभूत ढांचा तैयार करना प्रारंभ किया। सार्वजनिक क्षेत्र को यह जिम्मेदारी सौंपी गई। उद्योग के साथ कृषि संवर्धन के लिए भी नई नीतियां बनाई गईं। उन्होंने सहकारी कृषि की भी कल्पना की, जिसकी शुरुआत राजस्थान के सूरतगढ़ से हुई। पशुपालन व दुग्ध व्यवसाय में भी डॉ. कुरियन के नेतृत्व में सहकारी क्षेत्र को बढ़ावा दिया गया। विज्ञान व तकनीकी विकास के लिए आईआईटी जैसे संस्थान खुले।  आणविक ऊर्जा आयोग, अंतरिक्ष आयोग, सीएसआईआर आदि की स्थापना की गई। इन सबकी परिकल्पनाएं योजना आयोग में की गई, जिसके अध्यक्ष वे स्वयं थे।
पंडित नेहरू के इस ऐतिहासिक अवदान की चर्चा अब शायद ही कोई करता है। इंदिराजी के समय में जरूर न सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र को प्रोत्साहित किया गया, बल्कि निजी क्षेत्र के बीमार उद्योगों को पुनर्जीवित करने का बीड़ा भी सरकार ने उठाया। लेकिन उनके बाद से देश के राजनैतिक नेतृत्व में बौध्दिक क्षमता का अभाव निरंतर परिलक्षित हो रहा है। कांग्रेस पार्टी ने भी नेहरू के रास्ते को एक तरह से छोड़ दिया है। आज के शासक जनता की सामर्थ्य विकसित करने के बजाय उसे याचक बनने पर मजबूर कर रहे हैं। देश व प्रदेश, कांग्रेस और भाजपा और बाकी सब इसमें बराबर के भागी हैं। अब एक हाथ से राष्ट्र के बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन मुनाफाखोर औद्योगिक घरानों को दिए जा रहे हैं और दूसरी ओर गरीबों को सस्ता चावल व दोपहर के भोजन के नाम पर खुश करने की कोशिशें हो रही हैं। 

मैं अनुज की भावना से सहमत हूं कि प्राकृतिक संसाधनों का नियंत्रण सरकार के पास होना चाहिए और बेहतर होगा कि सार्वजनिक उद्यमों के माध्यम से ही उन्हें उत्पादन प्रक्रिया में प्रयुक्त किया जाए, लेकिन इसके लिए तैयार कौन होगा? भारतीय जनता पार्टी तो जनसंघ के दिनों से ही व्यापारिक हितों की पार्टी रही है, वह इसे क्यों मानने चली? कांग्रेस से भी कोई उम्मीद कैसे की जाए? रही बात मीडिया की तो वह तो पहले ही कारपोरेट जगत के हाथों बिक चुका है; फिर भी एक विचार उठा है, तो वह जीवित रहेगा, यह उम्मीद करना चाहिए।

 देशबंधु में 08 नवम्बर को प्रकाशित 

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