Wednesday 31 October 2012

दा याने राजनारायण मिश्र




दा चले गए हैं और मेरे मन का एक कोना सूना हो गया है। दा याने राजनारायण मिश्र। छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार राजनारायण मिश्र इस प्यार भरे संबोधन से ही जाने जाते थे। दा को प्यार करने वालों की कमी नहीं थी और न उनके साथ महफिल सजाने वालों की। ऐसे लोग भी बड़ी संख्या में हैं, जो या तो दा को अपना गुरु मानते हैं या जिन्हें दा ने अपना शिष्य होने का गौरव प्रदान किया था। किन्तु दा के साथ मेरा रिश्ता कुछ अलग ही था। वे 1959 में देशबन्धु (तब नई दुनिया रायपुर) में काम करने आए थे। इस नाते वे मेरे वरिष्ठ सहयोगी थे। 1988 में उन्होंने देशबन्धु से विदा ले ली थी। इसके बाद वे मेरे लिए एक भूतपूर्व सहयोगी मात्र रह जाते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और वे मेरे लिए अंत तक दा ही बने रहे, संबोधन की पूरी गहराई से। उन्होंने जब देशबन्धु में काम करना प्रारंभ किया तब मैं ग्वालियर में हाईस्कूल का विद्यार्थी था। छुट्टियों में घर आते-जाते उनके साथ परिचय तो हो चुका था, लेकिन वह एक रस्मी परिचय था। 1961-62 में जब उन्होंने पत्र के साहित्य पृष्ठ पर मेरी रचनाएं छापना प्रारंभ किया तथा जबलपुर की साहित्यिक संस्था संगम का रायपुर अध्याय प्रारंभ किया तब यह परिचय कुछ और बढ़ा, लेकिन उनके साथ मेरे आत्मीय संबंधों की शुरुआत 1963 में उस वक्त हुई जब वे नवस्थापित जबलपुर समाचार में काम करने के लिए रायपुर से जबलपुर आए।  ममता भाभी संभवत: अपने मायके में थीं और अगस्त 1963 के अंत में एक माह की बेटी रिमझिम को लेकर जबलपुर आ गई थीं। उन दिनों दा के साथ मैंने एक साल तक लगातार संपादकीय विभाग में काम किया और उनसे बहुत कुछ सीखा- रेडियो से समाचार लेना, शीर्षक बनाना, पेज मेकअप करना इत्यादि। उन्हीं दिनों मेरी एक कविता ''जेल का गुलमोहर'' को भी उन्होंने संशोधित किया।

एक साल बाद याने 1964 में हम लोग लगभग साथ-साथ रायपुर लौटे। दा पहले प्रेस के पास सदर बाजार में हरि तिवारी के घर में रहे, फिर क्रमश: कंकालीपारा, बैरनबाजार, डीके अस्पताल के पीछे एक पुराने क्वार्टर में और बाद में चौबे कालोनी में। वे पत्रकारिता में तो मेरे वरिष्ठ थे ही, निजी जीवन में कब, कैसे वे मेरे बड़े भाई बन गए, यह कहना मुश्किल है। इतना जरूर कहूंगा कि दा और भाभी दोनों से मुझे निश्छल स्नेह मिला। दा की आवारगी के बारे में ढेरों किस्से प्रचलित हुए, लेकिन मेरे प्रति उन्होंने वही अनुशासन दिखाया, जिसकी अपेक्षा एक बड़े भाई से की जा सकती है। मैं उन दिनों सिगरेट पीता था, यह बात दा को नागवार गुजरती थी, फिर भी इस पर उन्होंने समझौता कर लिया था। इसके आगे बढ़ने की इजाजत उन्होंने मुझे नहीं दी और हमेशा इस बात का ख्याल रखा कि मैं कहीं बिगड़ न जाऊं !

दा नि:संदेह एक गुणी पत्रकार थे और मुझे इस बात को लेकर उनसे शिकायत बनी रही कि उन्होंने खुद होकर अपने लिए जो सीमा बना रखी थी उसे लांघ कर आगे जाने के बारे में कभी नहीं सोचा। उनकी भाषा सीधी-सपाट न होकर उसमें वह विदग्धता थी, जो एक अच्छे रिपोर्टर या कॉलम लेखक का गुण होता है। उनमें अनजान से अनजान व्यक्ति से भी तुरंत संवाद स्थापित कर लेने की क्षमता थी, जिसके बिना कोई भी अच्छा रिपोर्टर नहीं बन सकता। वे समाजवादी विचारों के थे और उनमें एक प्रतिबध्द पत्रकार के लिए स्वाभाविक, वंचितों के प्रति गहरी हमदर्दी थी। और वे दिन हो या रात जंगल हो या पहाड़ खतरे उठाकर भी काम करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। इतने सारे गुण एक साथ मुश्किल से ही मिलते हैं।

अपनी इन्हीं खूबियों के चलते वे अपनी पहचान कायम कर सके। सन् 1979 में स्टेटमैन ने ग्रामीण पत्रकारिता में उत्कृष्टता के लिए पुरस्कार स्थापित किया था। यह दा की पत्रकारिता का ही कमाल था कि साढ़े तीन सौ से भी ज्यादा प्रविष्टियों के बीच पहले ही वर्ष उन्हें प्रथम पुरस्कार मिला, जबकि हिन्दी ही नहीं, अंग्रेजी और अनेक भारतीय भाषाओं के पत्रकार स्पर्धा में शामिल थे। 16 सितम्बर 1980 को उन्हें कोलकाता में आयोजित एक भव्य समारोह में यह पुरस्कार मिला और इसके बाद देशबन्धु में एक दर्जन साथियों ने उनका अनुकरण कर एक रिकॉर्ड बनाया। दा की यह रिपोर्ट गरियाबंद इलाके में अवस्थित कुल्हाड़ीघाट के आदिवासियों के शोचनीय हालत पर थी। इस तरह की कितनी ही रिपोर्टें  उन्होंने आगे-पीछे तैयार कीं।

मैं दा के द्वारा की गई कुछ रिपोर्टों का विशेष कर उल्लेख करना चाहता हूं। 1970 के दशक में ही उन्होंने देशबन्धु के कांकेर स्थित संवाददाता बंशीलाल शर्मा के साथ पन्द्रह दिन तक अबूझमाड़ के वर्जित क्षेत्र की पैदल व साइकिल से यात्रा की। ऐसा दु:साहस उनके जैसा पत्रकार ही कर सकता था। अबूझमाड़ का बीहड़ इलाका, दूर-दूर तक बसे गांव, सड़कों का सवाल ही नहीं, पीने का पानी मिलना भी मुश्किल, भोजन की तो कौन कहे और रात में सोने के लिए किसी आदिवासी की झोपड़ी। इसी तरह एक दफे दा ने अचानकमार में जंगल के किनारे बसे गांव की लगातार बारह दिन तक यात्रा की। उस इलाके में कोई डकैती हुई थी और जिसके विवरण लेने दा उस गांव पहुंचे। वहां उन्होंने आगे किसी गांव मे डाका पड़ने की खबर मिली और ऐसा कुछ हुआ कि डाकू आगे-आगे और दा पीछे-पीछे।

कहने का आशय यह कि दा धुन के पक्के थे और खबर जुटाते वक्त अपने आपको भूल जाते थे। 1977 में वे विधानसभा चुनावों की रिपोर्टिंग करने के लिए दुर्ग जिले के खेरथा बाजार विधानसभा क्षेत्र में थे। वहीं उन्हें दल्लीराजहरा में उग्र आंदोलन और पुलिस गोलीबारी की खबर मिली तो वे चुनाव छोड़कर दल्लीराजहरा निकल गए और अगले दिन गोलीकांड की आंखों देखी रिपोर्ट लेकर रायपुर आए। 1979 में बस्तर में  आदिवासी किशोरी यशोदा की हत्या हुई थी, उसमें कानून और प्रशासन से जुड़े बड़े लोगों का हाथ होने का संदेह था। दा उसकी सच्चाई जानने जगदलपुर गए। इसी बीच उन्हें खबर मिली कि किरंदुल में कुछ गड़बड़ है। वे आनन-फानन में बस्तर जिला प्रतिनिधि भरत अग्रवाल को लेकर किरंदुल के लिए चल पड़े। किरंदुल में पुलिस फायरिंग हुई थी, जिसमें ग्यारह मजदूर मारे गए थे। कर्फ्यू लगा दिया गया था। किरंदुल में घुसना आसान नहीं था, लेकिन दा और भरत जुगाड़ लगाकर वहां पहुंचे, तथ्य एकत्र किए और छुपते-छुपाते जगदलपुर पहुंचे। जगदलपुर तारघर से प्रेस को तार भेजना भी मना कर दिया गया था। तब दा किसी ट्रक में बैठकर रायपुर आए और सकलेचा सरकार में हुए इस गोलीकांड की रिपोर्ट छापने वाला देशबन्धु पहला अखबार बन गया।

ये रिपोर्टें अपने आप में पत्रकारिता का बेहतरीन नमूना थीं, लेकिन दा प्रसिध्द हुए ''घूमता हुआ आईना'' के कारण। यूं तो यह कॉलम लिखना मैंने शुरु किया था, लेकिन चार-छह अंकों के बाद ही दा ने इसका जिम्मा अपने ऊपर ले लिया था और इस तरह चमकाया  कि देशबन्धु की ही पहचान बन गया। पाठक उत्सुकता के साथ सोमवार का इंतजार करते थे, जिस दिन यह कॉलम छपता था। दा चुटीले अंदाज में इस स्तंभ में बड़े-बड़े लोगों की ऐसी खबर लेते थे कि वे आह भी नहीं भर सकते थे। दा स्वयं अजातशत्रु थे और अपने कॉलम में भी उन्होंने किसी के साथ निजी हिसाब बराबर नहीं किया, बल्कि जो लिखा वह व्यापक जनहित में।

दा एक अच्छे कहानीकार थे और एक अच्छे कवि। हम लोगों ने साथ-साथ न जाने कितने साहित्यिक कार्यक्रमों में शिरकत की, लेकिन दा का मन इसमें ज्यादा समय नहीं रमा। वे स्वभाव से मनमौजी और उदार थे। उनके पास जो गया भोलेनाथ की तरह उसे आशीर्वाद दे देते थे। उनकी जीवन यात्रा में ममता भाभी चट्टान की तरह उनके साथ रहीं और ध्रुवतारा बनकर उन्हें बार-बार घर की दिशा दिखाती रहीं। इन्हीं स्मृतियों के साथ में दा को अपनी श्रध्दांजलि अर्पित करता हूं।

देशबंधु में 1 नवम्बर 2012 को प्रकाशित 




1 comment: