Wednesday 28 November 2012

कसाब को फांसी के बाद




यह भारत के किसी गांव की कहानी है। एक ही परिवार की दो शाखाओं में खेती की जमीन पर मिल्कियत को लेकर झगड़ा होता है और बढ़ते-बढ़ते खून-खराबे तक पहुंच जाता है। कुछ लोग मारे जाते हैं और कुछ को कड़ी सजा भुगतना पड़ती है। इनमें से एक पुरुष कई साल जेल में बिताने के बाद घर लौटता है, तो उसकी पत्नी उससे मांग करती है कि तू मुझे फिर एक बेटा दे दे ताकि वह बड़े होकर अपने परिवार में हुई हत्याओं का बदला ले सके। अगर मेरी याददाश्त सही है तो जगदीशचन्द्र के उपन्यास ''कभी न छोड़े खेत'' का अंत इसी वार्तालाप के साथ होता है। अगर लेखक और उपन्यास का नाम मुझे सही-सही याद न भी हो तब भी इस कहानी के पीछे जो सच्चाई छिपी है, क्या उससे इंकार किया जा सकता है!

भारत उपमहाद्वीप में यह कथा न जाने कितने हजार सालों से बार-बार दोहराई जाती रही है। ऐसा कोई प्रसंग छिड़ने पर मुझे हमेशा राजमोहन गांधी की मूल अंग्रेजी में लिखी पुस्तक ''रिवेन एण्ड रिकन्सीलिएशन'' का ध्यान हो आता है। भारत के सामाजिक इतिहास की बहुत सटीक व्याख्या उन्होंने इस पुस्तक में की है। फिलहाल वह हमारी विवेचना का विषय नहीं है। मुझे लगता है कि इस कहानी को अगर  थोड़ा विस्तार दें तो इसे शायद भारत के विभिन्न प्रांतों के बीच संबंधों पर लागू किया जा सकता है। मसलन, बेलगांव को लेकर महाराष्ट्र व कर्नाटक के बीच विवाद या ऐसे और तमाम प्रकरण। अगर थोड़ा और विस्तार करें तो हमें गांव और प्रदेश की जगह हम शायद दो पड़ोसी देश को देख सकेंगे: भारत-पाकिस्तान, भारत-बंगलादेश या फिर भारत-श्रीलंका। बुनियादी सवाल यही है कि अंतत: प्रतिशोध का पलड़ा भारी बैठता है या सद्भाव व साहचर्य्य का। 

26-11-2008 को मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले में जीवित पकड़े गए एकमात्र आतंकवादी युवक आमिर अजमल कसाब को फांसी तामील हो जाने के बाद दोनों देश की जनता इस बुनियादी सवाल पर नए सिरे से विचार कर सकती है। कसाब जब जिंदा पकड़ लिया गया था, यह तो उस वक्त ही तय हो गया था कि उसे आगे-पीछे मृत्युदंड मिलेगा ही। यह भारत के जनतंत्र की खूबी है कि आम जनता में उमड़े तीव्र आक्रोश, मृतकों के परिजनों की पीड़ा तथा तत्काल चौराहे पर फांसी पर लटका देने की मांग- इन सबके बीच भी देश का न्यायतंत्र निर्धारित प्रणाली के अनुसार अपना काम कर सका। यह शिकायत किसी को नहीं हो सकती कि कसाब को सुनवाई का उचित मौका दिए बिना फांसी दे दी गई।

21 नवंबर को फांसी देने के बाद से अनेक तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। इसमें पाकिस्तान के किसी सरकारी प्रवक्ता का यह बयान गौरतलब है कि  कसाब को फांसी देने का कोई प्रभाव सरबजीत के मामले पर नहीं पड़ेगा, वह अपनी तरह से चलता रहेगा। इसके अलावा यह भी कहा गया कि जिस तरह भारत में कानून अपना काम करता है उसी तरह पाकिस्तान में भी अदालती प्रक्रिया अपने ढंग से चलती है और इसलिए हाफिज सईद के मामले में भारत को पाकिस्तान पर भरोसा करना चाहिए। इस प्रतिक्रिया का पहला हिस्सा किसी हद तक आश्वस्त करता है कि सरबजीत की रिहाई शायद अभी भी मुमकिन है। दूसरे हिस्से का जहां तक सवाल है यह जगजाहिर है कि पाकिस्तान की चुनी सरकार का कोई नियंत्रण आतंकवाद पर नहीं है, कि उन्हें सेना के एक प्रभावशाली वर्ग का संरक्षण मिला हुआ है और उसके इस आश्वासन पर विश्वास करना कठिन है।

जहां तक अपने देश की बात है, सामान्य तौर पर फांसी दिए जाने का स्वागत ही किया गया है, लेकिन गौर करना चाहिए कि इसमें प्रसन्नता व्यक्त होने के बजाय चार साल के लम्बे अध्याय के पटाक्षेप हो जाने का संतोष ही था। चूंकि फांसी बहुत गुपचुप तरीके से दी गई इसलिए उसे लेकर किसी भी तरह का वातावरण बनाने का अवसर किसी को भी नहीं मिल सका। भारतीय जनता पार्टी ने बाद में वही प्रतिक्रिया दी जो कि अपेक्षित थी कि अफजल गुरु को फांसी कब दी जाएगी। सत्तारूढ़ कांग्रेस को परेशान करने के लिए यह प्रश्न उपयोगी हो सकता है, लेकिन अफजल गुरु प्रकरण में ऐसे कुछ पेचीदे बिन्दु हैं जिनसे भाजपा अनभिज्ञ नहीं है। इस नाते उचित होगा कि वह इस मामले को राजनीतिक रूप से भुनाने की कोशिश न करे। दो दशक पूर्व जेकेएलएफ नेता मकबूल बट को फांसी देने पर जो प्रतिक्रिया हुई थी वह राजनीति के जानकारों को याद होना चाहिए। दूसरे, जिस तरह सरबजीत के बेगुनाह होने का लोगों को भरोसा है उसी तरह अफजल गुरु के अपराध को लेकर भी कानूनी बिरादरी एकमत नहीं है। 

यह गौरतलब है कि कसाब को फांसी देने के बाद भारत में न्यायविदों तथा राजनैतिक टीकाकारों के बीच से कुछेक नए बिन्दु उभरकर आए हैं। एक न्यायवेत्ता ने तो लिखा है कि कसाब को कानून के तहत अपनी सजा पर सुप्रीम कोर्ट में अंतिम पुनर्विचार याचिका दायर करने का अवसर नहीं दिया गया और इस तरह संविधान और दंड संहिता का उल्लंघन किया गया। एक सेवानिवृत्त उच्च सैन्य अधिकारी जनरल वी.एस. पाटणकर ने एक नए दृष्टिकोण से इस पर अपनी राय दी है। श्री पाटणकर जम्मू-काश्मीर क्षेत्र में भारतीय सेना के प्रमुख थे और वहां की स्थितियों को निश्चित ही बेहतर जानते होंगे। उन्होंने लिखा कि पाकिस्तान में जो आतंकवाद पनपा है उसके पीछे कोई धार्मिक कारण नहीं है। पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर गरीबी है, बड़ी संख्या में नौजवान बेरोजगार हैं, इसलिए उन्हें पैसों का लालच देकर खरीद लेना आसान होता है। परिवार के लोग भी सोचते हैं कि गुरबत की जिंदगी से मौत भली। जनरल के अनुसार कसाब के घरवालों को पैसा देकर उसे आतंकी अभियान में शामिल कर लिया गया था। कुछ इसी तरह की बात चर्चित लेखिका शोभा डे ने भी की है। 

ये टिप्पणियां भारत-पाक संबंध, धार्मिक कट्टरता, जेहाद इन सारे मसलों पर पुनर्विचार का रास्ता खोलती है। इधर एक टीवी चर्चा में 2611 से सबक लेने के मुद्दे पर किसी विद्वान वार्ताकार ने कहा कि  911 के बाद अमेरिका पर दुबारा कोई आक्रमण नहीं हुआ जबकि भारत ने 2611 से कुछ नहीं सीखा। ये वार्ताकार भूल गए कि अमेरिका की भौगोलिक स्थिति भारत के मुकाबले बहुत अलग और कहीं ज्यादा महफूा है। इसके अलावा और भी बहुत से कारणों से भारत और अमेरिका के बीच तुलना करने की कोई तुक नहीं है। बहरहाल भारत और पाकिस्तान सहित सारे पड़ोसी मुल्कों को मिलकर अपना ध्यान इस बात पर केन्द्रित करना चाहिए कि हरेक देश में जनतंत्र कैसे पुष्ट हो, गरीबी और गैर-बराबरी कैसे दूर हो तथा नागरिकों को सम्मानपूर्वक जीने का हक कैसे मिले। सुखद, निरापद व शांतिमय भविष्य की शर्ते यही हैं।

देशबंधु में 29 नवम्बर 2012 को प्रकाशित 





 

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