Thursday 6 December 2012

आई.के. गुजराल : कुछ निजी यादें






मास्को  31 जनवरी, 1978। इन्द्रकुमार गुजराल सोवियत संघ में भारत के राजदूत थे। भारत-सोवियत मैत्री संघ का एक शिष्टमंडल सोवियत संघ की सद्भावना यात्रा पर था। विभिन्न गणराज्यों का भ्रमण करने के बाद यात्रीदल उस सुबह मास्को पहुंचा था और राजदूत महोदय ने दल को रात्रिभोज के लिए आमंत्रित किया था। मैं दल का सबसे युवा सदस्य था। गुजराल साहब से जब औपचारिक परिचय करवाया गया और मैंने उन्हें बताया कि मैं मायाराम सुरजन का पुत्र हूं तो गुजरालजी ने प्रसन्नता जाहिर करते हुए कहा अच्छा, वे तो हमारे मित्र हैं। मैं यद्यपि गुजराल साहब को और भी पहले से जानता था, लेकिन उनसे ठीक-ठीक परिचय पाने का यह पहला मौका था।

इसके पहले का एक प्रसंग याद आता है।  अखिल भारतीय समाचारपत्र संपादक सम्मेलन में लघु और मध्यम समाचारपत्रों की स्थिति का आंकलन करने के लिए एक कमेटी बनाई। बाबूजी सम्मेलन के उपाध्यक्ष थे। वे ही इस अध्ययन कमेटी के अध्यक्ष बने। एक साल की मेहनत के बाद रिपोर्ट बनकर तैयार हुई। 1972 में जालंधर में सम्मेलन का त्रिवार्षिक अधिवेशन हुआ, जिसमें श्री गुजराल केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री होने के नाते बतौर मुख्य अतिथि  आमंत्रित थे। बाबूजी ने यह रिपोर्ट उन्हें औपचारिक रूप से सौंपी। गुजराल साहब ने पहले तो नाखुशी जाहिर की: संपादक सम्मेलन में अखबारों को दीगर समस्याओं पर बात क्या? बाबूजी ने स्पष्ट किया कि अधिकतर भाषायी समाचारपत्र मध्यम अथवा लघु हैं तथा उनमें अधिकतर में संपादक ही पत्र के संचालक हैं। उनकी व्यवहारिक अड़चनों पर सरकार को ध्यान देना ही चाहिए।  इस तर्क को उन्होंने स्वीकार किया और उनके कार्यकाल में समस्याओं को दूर करने के लिए कुछ प्रयत्न भी किए गए।

बहरहाल, गुजराल साहब से मेरी दूसरी मुलाकात तब हुई जब वे सोवियत संघ से भारत वापस आ चुके थे और राजनीति में उनकी सक्रिय भूमिका एक तरह से स्थगित थी। मैं उनसे संभवत: संसद के सेंट्रल हॉल में मिला होऊंगा।  मैंने जब अपना परिचय दिया तो उन्होंने कहा कि आपको मैं पहचानता हूं। यह बात उनकी विनम्रता की द्योतक थी या उन्होंने मुझे सचमुच याद रखा था, यह मैं नहीं समझ पाया। यद्यपि अपने अनुभव से मैं जानता हूं कि राजनीति हो या अन्य कोई क्षेत्र, सफल व्यक्तियों की याददाश्त बहुत तेज होती है और वे हजारों लोगों के नाम याद रख सकते हैं। जो भी हो, गुजराल साहब मुझसे बहुत स्नेहपूर्वक मिले और काफी देर तक राजनीतिक मसलों पर मेरे पास चर्चा करते रहे। मैंने उनसे इस तरह संसद में मिलना जारी रखा और ऐसे अवसर भी आए जब उन्होंने मुझे महारानी बाग स्थित अपने निवास पर आमंत्रित किया।  उनके परिवार में वैवाहिक प्रसंगों पर निमंत्रण पत्र भी मुझे बदस्तूर भेजे जाते रहे।

गुजराल साहब के साथ इस परिचय का एक लाभ मैंने 1987-88 में उठाया। कटक के गोविन्दचन्द्र सेनापति (रिटायर्ड डीजी पुलिस) रोटरी डिस्ट्रिक्ट 3260 के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर थे। इसके अंतर्गत उड़ीसा और पूर्वी मध्यप्रदेश (छत्तीसगढ़ सहित) का समावेश था। हम लोग दिल्ली में रोटरी इंटरनेशनल के एक कार्यक्रम में साथ-साथ थे, जिसमें डॉ. कर्णसिंह व्याख्यान देने आए थे।  सेनापतिजी ने डॉ. कर्णसिंह के वक्तव्य से प्रभावित हो अपनी डिस्ट्रिक्ट कांफ्रेंस में मुख्य अतिथि के नाते आमंत्रित करने का विचार किया, लेकिन डॉ. कर्णसिंह निर्धारित तिथियों पर उपलब्ध नहीं थे। फिर मैंने गुजराल साहब से सम्पर्क स्थापित किया और मेरे अनुरोध की रक्षा करते हुए वे हमारे कार्यक्रम में कटक आने को राजी हो गए। जनवरी 1988 में श्री एवं श्रीमती गुजराल दोनों कटक आए व गुजराल साहब ने अपने विद्वतापूर्ण भाषण से सबको बेहद प्रभावित किया।

इसी तरह का एक मौका 1995 में दोबारा लगा। रोटरी की डिस्ट्रिक्ट कांफ्रेंस संबलपुर में होना था। डिस्ट्रिक्ट गवर्नर घनश्याम रथ वहीं के निवासी थे। उनके आग्रह पर मैंने एक बार पुन: गुजराल साहब से सम्पर्क किया और वे संबलपुर आने के लिए राजी हो गए।  कार्यक्रम इस तरह बना कि वे हवाई जहाज से रायपुर आएंगे तथा मैं उन्हें साथ लेकर कार से संबलपुर जाऊंगा। दुर्भाग्य से 31 दिसम्बर 1994 को बाबूजी का निधन हो गया। जबलपुर में कांफ्रेंस पांच-छह दिन बाद ही होना था, जिसमें अब मेरे शामिल होने का सवाल ही नहीं था। मेरे एक रोटरी बंधु पी.एस. बहल ने रायपुर में गुजराल साहब की अगवानी की और उनके साथ संबलपुर गए। दिल्ली वापस जाने के पहले गुजराल साहब रायपुर हमारे घर आए और इस पारिवारिक दुख की घड़ी में हम लोगों को ढाढस बंधाया।

इसके पूर्व गुजराल साहब कांग्रेस छोड़कर जनमोर्चा में शामिल हो चुके थे। 1989 में वी.पी. सिंह के मंत्रिमण्डल में वे विदेशमंत्री बने। जुलाई 1990 में वी.पी. सिंह सोवियत संघ की यात्रा पर गए।  प्रधानमंत्री के यात्रीदल में एक पत्रकार के रूप में मैं भी शामिल था। इस चार-पांच दिन की यात्रा के दौरान प्रतिदिन गुजराल साहब के साथ बातचीत करने का कोई न कोई मौका निकल ही आता था। यह कहने की जरूरत नहीं कि विश्व राजनीति और खासकर सोवियत संघ के बारे में उनकी जानकारी अथाह थी। प्रधानमंत्री की इस सोवियत यात्रा के क्या आयाम व क्या महत्व हैं, यह समझने में मुझे स्वाभाविक ही गुजराल साहब के साथ चर्चाओं में मदद मिली। उनके विदेश मंत्री रहते हुए कभी साउथ ब्लाक के दफ्तर में, तो कभी संसद के केन्द्रीय कक्ष में मुलाकातों का यह सिलसिला जारी रहा। 

गुजराल साहब जब सोवियत संघ में राजदूत के पद से निवृत्त होकर भारत लौटे और उसके बाद जब मेरी पहली भेंट हुई, तभी शायद मैंने उनसे देशबन्धु के लिए लिखने का आग्रह किया।  उनके लेख अंग्रेजी अखबारों में तो छपते ही थे। उसकी कॉपी साथ-साथ देशबन्धु को भी मिलने लगी और उनका हिन्दी अनुवाद कर देशबन्धु में प्रकाशन प्रारंभ हो गया। यह सिलसिला लंबे समय तक चलता रहा। उनकी सहधर्मिणी श्रीमती शीला गुजराल की कविताएं व लेख भी देशबन्धु व अक्षर पर्व में समय-समय पर प्रकाशित होते रहे।  1997 में गुजराल साहब प्रधानमंत्री बने। मैं अगले दिन ही दिल्ली पहुंचा।  वे तब महारानी बाग के निजी निवास पर ही थे। मैंने बधाई दी तो उन्होंने मुझे गले लगा लिया और अंग्रेजी में कहा कि - ''ललित जी, आई वैल्यू योर फे्रण्डशिप।'' यह दिल को छू लेने वाली बात उनके स्वभावगत सौजन्य का ही परिचायक थी।

हमने जब देशबन्धु लाइब्रेरी को सार्वजनिक पुस्तकालय में परिवर्तित किया तब मैंने गुजराल साहब से इस लाइब्रेरी के लिए अपनी निजी लाइब्रेरी से पुस्तकें देने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया।  आज देशबन्धु लाइब्रेरी में विशेष रूप से स्थापित आई.के. गुजराल खण्ड है, जिसमें उनके द्वारा भेंट की गई लगभग एक हजार पुस्तकें हैं।  वे हमेशा नई से नई और बढ़िया पुस्तकें निकालकर अलग रखते।  कभी हमारे दिल्ली कार्यालय के मार्फत भिजवा देते या मैं जाता तो मेरी गाड़ी में रखवा देते।

बहुत सी यादें हैं। लिखने के लिए बहुत कुछ है। उनके कृतित्व, व्यक्तित्व, राजनीतिक योगदान सब पर बहुत कुछ लिखा गया है, बहुत कुछ लिखा जाएगा। वे जब प्रधानमंत्री बने थे तब सुप्रसिध्द इतिहासवेत्ता अर्नाल्ड टॉयनबी को उद्धृत करते हुए मैंने लिखा था कि - ''राजनीति को अपनी प्रामाणिकता सिध्द करने के लिए ऐसे व्यक्तियों की जरूरत होती है।'' मैं इस कथन को ही दोहराना चाहता हूं।  गुजराल साहब जिन गुणों के धनी थे उनका प्रत्यक्ष अभाव आज की राजनीति में दिखाई देता है।  ऐसे में गुजराल साहब की याद बार-बार आती रहेगी।

देशबंधु में 6 दिसम्बर 2012 को प्रकाशित 








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Lalit Surjan
Chief Editor
DESHBANDHU
RAIPUR 492001
C.G. India

1 comment:

  1. राजनीति को अपनी प्रामाणिकता सिध्द करने के लिए ऐसे व्यक्तियों की जरूरत होती है... श्रद्धांजली.

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