Thursday 7 February 2013

वेलेंटाइन डे के लिए कुछ विचार





आज
 जब यह कॉलम छपेगा तब वेलेंटाइन डे लिए ठीक एक सप्ताह बाकी बचेगा। यह रोचक संयोग है कि  इस वर्ष वेलेंटाइन डे  और बसंत पंचमी दोनो पर्व एक साथ पड़ रहे हैं। जो ''भारत कुमार'' मानते हैं कि पूरब और पश्चिम का कभी मेल नहीं हो सकता, उन्हें कुछ तकलीफ हो सकती है कि बसंत पंचमी को इसी दिन क्यों पड़ना था? वैसे उनके लिए तसल्ली की बात यह हो सकती है कि इस दिन बहुत से नौजवान या तो किसी बारात की  तैयारी कर रहे होंगे या फिर किसी बारात की अगवानी के इंतजाम में व्यस्त होंगे। याने ऐसे बहुत से युवा जिन्हें वेलेन्टाइन डे प्रिय है, कम से कम इस साल वे तो इस आयातित पर्व से बचे रहेंगे। 
 
वेलेन्टाइन डे की उत्पत्ति क्यों और कैसे हुई, इस दिन मित्रों या सखियों को गुलाब का फूल भेंट करने का तरीका किसने ईजाद किया, यह दिन भारतीय संस्कारों के अनूकूल है या प्रतिकूल- ऐसे तमाम सवाल खडे क़रने वाले अनेक लोग हैं, लेकिन जिन्हें यह पर्व मनाना है, वे इन सवालों की परवाह नहीं करते। सच तो यह है कि इस दिन का भारतीयकरण प्रारंभ हो चुका है। इस मामले में भारतवासियों का कोई मुकाबला नहीं हैं। मदर्स डे, फादर्स डे इत्यादि कितने ही पश्चिमी पर्व हमारे देश में मनाए जाने लगे हैं और वही इस दिन के साथ भी हो रहा है। हिन्दी अखबारों में वेलेन्टाइन डे पर जो संदेश छपते हैं जरूरी नहीं कि वे किसी प्रेमी या प्रेमिका को ही संबोधित हों, बल्कि उनमें माता-पिता, भाई-बहन, शिक्षक, मित्र, पति-पत्नी सब आ जाते हैं। यह एक  सच्चाई हैं, जिसे जानकर धर्म के रक्षकों को संतोष हासिल करना चाहिए।  वे यदि ऐसा नहीं करते हैं तो उनके जड़बुध्दि होने में कोई संदेह बाकी नहीं रहता।

भारत में अंग्रेजीदां बुध्दिजीवियों का एक अच्छा खासा वर्ग है जो वेलेन्टाइन डे के बारे में उठाई गई आपत्तियों को अपनी तरह से खारिज करने की कोशिश करता है। इस वर्ग के प्रवक्ता भारत के क्लासिक साहित्य, चित्रकला, मंदिर-शिल्प आदि से उदाहारण खोज कर लाते हैं और सिध्द करने का प्रयत्न करते हैं कि प्रेम का यह पर्व भारतीय परंपरा के विरुध्द नहीं है। वे नाहक अपने दिमाग को तकलीफ देते हैं। प्रेम किसी भी रूप में हो समयसिध्द है एवं उसके लिए बौध्दिक बहसों की इतनी जरूरत नहीं पड़ना चाहिए, किन्तु हमारे मन में यहां एक शंका उपजती है। यूं तो  मनुष्य की जीवनचर्या में  बाजार का स्थान आरंभ  से ही रहा है, लेकिन इधर सौ साल में यह दखल कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। इसलिए लगता है कि वेलेन्टाइन डे को स्थापित करने के तर्कों  के पीछे कहीं न कहीं बाजार की शक्तियां काम कर रही हैं!

यह कोई नई बात नहीं है। क्रिसमस पर सांताक्लाज का रोल भी कोकाकोला कंपनी की ईजाद है। इसी तरह हम जिन त्यौहारों को भारतीय परंपरा का अंग मानते हैं उनमें भी बाजार का कुछ न कुछ हस्तक्षेप रहा ही है। हमारे प्रमुख त्योहारों का सीधा संबंध फसल कट कर बिकने के बाद किसानों के हाथ में आई रकम से है। बाजार ताकते रहता है कि इधर घर में पैसा आए और उधर वह धावा बोले। दीपावली इसका सबसे बड़ा उदाहारण है। यहीं नहीं, जितने तीर्थ हैं वे भी बाजार के भरोसे चलते हैं और ऐसा कौन सा मेला है जिसमें दुकानें न सजती हों! प्रेमचंद की कहानी ईदगाह याद कीजिए। जिन बच्चों के पास पैसे हैं वे मेले में मनचाहे खिलौने खरीद रहे हैं और उनके सामने गरीब दादी की आंख का तारा हमीद है जो हाथ में महज तीन पैसे लिए हमजोलियों की खरीदारी को हसरत भरी निगाह से देखता रहता है। 

यह भी देखिए कि त्यौहार मनाने में बाजार ने ग्रीटिंग्स कार्ड के माध्यम से क्या भूमिका निभाई है। दीवाली और नववर्ष पर तो ग्रीटिंग्स कार्ड भेजने का चलन लंबे समय से चला आ रहा है। इसके अलावा और भी बहुत से अवसर हैं जैसे जन्मदिन, विवाह की वर्षगांठ आदि जब ये शुभकामना पत्र भेजे जाते हैं। इसमें आर्ची और हॉलमार्क जैसे कार्ड निर्माताओं की भूमिका प्रेरक की रही है। वेलेन्टाइन डे को लोकप्रिय बनाने का प्रथम श्रेय भी इन्हीं को दिया जाना चाहिए, लेकिन समय बदला तो कार्डों का चलन कम हो गया  उनकी जगह एसएमएस ने ले ली। इससे डाकघर को भले ही नुकसान हुआ हो, मोबाइल फोन कंपनियों की तो चांदी हो गई। जो एसएमएस पर शुभकामनाएं भेजते हैं वे भले ही इससे आनंदित होते हैं, लेकिन इन संदेशों को पढ़ना और उनका उत्तर देना खासी मशक्कत का काम हो जाता है। 

इस तरह देखें तो वेलेन्टाइन डे मनाना न तो कोई अनहोनी है और न अवांछित। अगर युवा जगत अपने मनोभावों को व्यक्त करने के लिए उन्मुक्ति के कुछ क्षण पा लेते हैं तो इसमें इतनी हाय तौबा मचाने की कोई जरूरत नहीं होना चाहिए थी। लेकिन मुश्किल यह है कि भारतीय समाज न तो पुरानी रूढ़ियों को पूरी तरह तोड़ पा रहा है और न जमाने के साथ कदम मिलाकर चलने के लिए पूरी तरह साहस जुटा पा रहा है। इसे यूं भी कहा जा सक ता है कि हमारा समाज विगलित सामंती मानसिकता से प्राप्त विशेषाधिकारों का त्याग किए बिना पूंजीवादी औद्योगिक व्यवस्था के सारे लाभ हथिया लेना चाहता है याने दोनों हाथ चाशनी में और सिर कढ़ाही में। यहां समाज से हमारा आशय उस प्रभुत्वशाली वर्ग से है, जो समाज के बाकी अंगों को लंबे समय से दबाकर रखते आया है। इसकी मानसिकता लगभग निरपवाद ही पुरुषवादी है और इसके सदस्य वही हैं जो हर तरह से अधिकार सम्पन्न हैं।

वेलेन्टाइन डे का विरोध, नववर्ष का विरोध; इसके बरक्स सड़ी-गली मान्यताओं को पुनर्जीवित करने के उपक्रम- ये सभी काम स्वस्फूर्त नहीं, बल्कि किसी सोची-समझी योजना के अंतर्गत होते हैं। इन्हें डर लगता है कि जनतांत्रिक, समतापूर्ण, खुले वातावरण में इनकी दादागिरी समाप्त हो जाएगी। इसी भय से संचालित होकर ये अपनी योजनाएं गढ़ते हैं। इस मानसिकता को मजबूत करने में धर्म का पाखंड काफी काम आता है। ये जो नए-नए अवतारी पुरुष एक के बाद एक प्रकट हो रहे हैं वे इस योजना की ही उपज हैं। इनके प्रवचन पहली बार में तो लुभाते हैं, लेकिन तह में एकाध इंच भी भीतर जाएं तो पता चलता है कि ये वर्चस्ववाद को ही पुख्ता करने का काम कर रहे हैं। इसीलिए आसाराम बापू जैसे लोग सामने आते हैं जो अपने एक बयान से मचे बवाल के बाद भी अपनी भाषा पर संयम नहीं रख पाते और कुछ ही दिन बाद जबलपुर में अपने दूसरे प्रवचन में सवाल उठाने वाली युवतियों को 'मनचली' की संज्ञा दे देते हैं। ऐसे ही उद्गार अन्य कथित साधु-संतों से सुनने मिलते हैं।

राजसत्ता व संगठित धर्म का यह जो गठजोड़ है वह जानता है कि सिर्फ प्रचवनों से बात नहीं बनती इसलिए वह लुम्पेन युवाओं के दस्ते तैयार करता है और उन्हें सड़कों पर निकलकर उत्पात मचाने के लिए छोड़ देता है। यह आज के भारत की एक बड़ी विडम्बना है कि जिनका अपना आचरण अनैतिक है वे ही पोंगापंथी नैतिकता का पालन करवाने के लिए बाहुबल  का प्रयोग करने में भी नहीं हिचकते।  लेकिन जैसा कि हम समझते हैं देश की युवा पीढ़ी इस पाखंड को खूब समझती है और जरूरत पड़ने पर वही इसका माकूल उत्तर देगी।

देशबंधु में 7 फरवरी 2013 को प्रकाशित 

 

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