Wednesday, 20 February 2013

रक्षा सौदों का सच




इन
 दिनों भारत में भ्रष्टाचार को लेकर खबरों और बहसों का एक अंतहीन सिलसिला चल रहा है। हमने मानो ठान ली है कि अपने देश को दुनिया का सबसे भ्रष्ट देश सिध्द करने के बाद ही दम लेंगे। संभवत: आशीष नंदी जैसा कोई परम विद्वान समाज मनोविज्ञानी ही इस प्रश्न का उत्तर दे सकता है कि हम इस तरह आत्मनिंदा और आत्मधिक्कार करने में कौन सा सुख पा रहे हैं! अपने इस शगल में हमें न तो सत्य का संधान करने का धीरज है, और न अपनी अभिव्यक्ति में वाणी और लेखनी का संयम। स्थिति यह है कि जिसकी जो मर्जी आए वैसी बात कर रहा है। और समाज है  कि कौआ कान ले उड़ा की तर्ज पर हर आरोप को साबित होने के पहले ही सच मानने लगता है। यह स्थिति किसी भी तरह से सुखद नहीं कही जा सकती। इसमें एक बड़ा खतरा भी सन्निहित है कि राज्य की सभी संस्थाएं यदि जनता का विश्वास खो बैठती हैं तो फिर देश में जंगल राज कायम होने में कितना वक्त लगेगा!

यह माहौल इसलिए भी चिंतनीय है कि राजनीतिक दल भी उनसे अपेक्षित मर्यादाओं का पालन करने के बजाय भीड़ की मनोवृत्ति के अनुरूप चल रहे हैं। ऐसा करते हुए वे भूल जाते हैं कि जो आज सत्ता में है वह कल विपक्ष में हो सकता है और जो आज विपक्ष में है कल वह सत्तासीन हो सकता है। राजनीतिक दलों से प्राथमिकत: उम्मीद की जाती है कि वे अपनी नीतियां और सिध्दांत लेकर जनता के बीच में जाएंगे, लेकिन फिलहाल जो मंजर दिखाई दे रहा है उसमें इस प्राथमिक दायित्व को मानो कूड़ेदान में डाल दिया गया है। भ्रष्टाचार के राग अलापने के अलावा और कोई मुद्दा जैसे बात करने के लिए बचा ही नहीं है। इस नए माहौल में एक अन्य प्रकट सच्चाई की ओर जनता का ध्यान ठीक से नहीं जा रहा है। भ्रष्टाचार को दस क्या, सौ सिर वाला रावण बनाकर पेश कर दिया गया है और उससे लड़ने के नाम पर राम के नए-नए अवतार भी हर-दूसरे चौथे दिन प्रकट हो रहे हैं, लेकिन क्या किसी ने पलभर के लिए सोचा कि अंतत: इनका क्या हश्र होता है। सब देख रहे हैं कि अन्ना हजारे हों या बाबा रामदेव, किरण बेदी हो या अरविन्द केजरीवाल- एक के बाद एक सब दीवाली के पटाखों की तरह थोड़ी देर के लिए चमक पैदाकर बुझ जा रहे हैं; फिर भी यह जानने की ईमानदार कोशिश कहीं भी दिखाई नहीं देती कि ऐसे तमाम लोगों ने पृथक या संयुक्त रूप से जो भी आन्दोलन चलाए उनका असली मकसद क्या था।

अभी फिर इटली की सरकारी कंपनी फिनमैकानिका से हेलीकाप्टर खरीदने को लेकर भ्रष्टाचार की एक नई कहानी सामने आई है। फर्क सिर्फ इतना है कि भ्रष्टाचार के इस कथित प्रकरण का रहस्योद्धाटन और उस पर कानूनी कार्रवाई इटली में शुरु हुई न कि भारत में। अब उसे लेकर अपने देश में चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया है और तरह-तरह की बातें कही जा रही हैं। भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस पर उंगली उठाने में जरा भी वक्त नहीं गंवाया और लगे हाथ कांग्रेस अध्यक्ष की ओर भी संदेह की सुई घुमा दी।  दूसरी ओर कांग्रेस ने वाजपेयी सरकार को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है कि अगर कहीं कोई गड़बड़ी हुई भी है तो वह एनडीए के कार्यकाल में हुई थी। यूपीए सरकार ने अपनी ओर से त्वरित कार्रवाई करते हुए सौदे पर जांच चलने तक रोक लगा दी है और सीबीआई को जांच भी सौंप दी है।

यह निश्चित है कि आरोप-प्रत्यारोप का यह सिलसिला जल्दी नहीं रुकेगा और आने वाले दिनों में इस प्रकरण को लेकर हमें नई-नई कहानियां सुनने को मिलेंगी। आम जनता को उन किस्सों को पढ़ने में चाहे जितना रस मिले और चर्चा करने के लिए चाहे जितना मसाला, लेकिन एक बार फिर कोई नहीं पूछेगा कि इसमें सच क्या है और झूठ क्या है, और न इस बुनियादी मुद्दे की ओर किसी का ध्यान जाएगा कि अपुष्ट और अप्रामाणिक चर्चाओं के कारण देश के प्रशासनतंत्र में किस तरह से अनचाही शिथिलता और गिरावट घर कर सकती है, और न इस बात पर कि इस तरह से निर्दोष व्यक्तियों का भी चरित्र हनन और जीवन नष्ट हो सकता है।

इस बात को हमें समझना चाहिए कि सैन्य उपकरणों की खरीदारी एक समयसाध्य, व्ययसाध्य एवं अत्यंत जटिल प्रक्रिया है। इसमें अरबों-खरबों के सौदे होते हैं और एक-एक सौदा पूरा करने में दस-दस साल लग जाते हैं। इसका मतलब है कि सैन्य साजो-सामान की खरीद-फरोख्त अथवा उत्पादन के लिए एक दीर्घकालीन प्रक्रिया अपनाने की जरूरत होती है। उसमें अगर बीच में कोई बाधा आ जाए तो जो समय और साधन लगे वे तो गए ही गए; नए सिरे से फिर उतना समय व साधन लगाने की जरूरत होती है। दूसरे शब्दों में देश अपनी प्रतिरक्षा की तैयारियों में पांच-दस साल पीछे ढकेल दिया जाता है। ऐसा होने देने में किसकी रुचि हो सकती है यह सवाल उठाना लाजिमी है। एक तो हमारे दुश्मन कभी नहीं चाहेंगे कि भारत की प्रतिरक्षा अभेद्य हो, दूसरे इसमें उन लोगों की भी रुचि हो सकती है, जो भारत को अपना मुवक्किल राय बनाना चाहते हैं।

इस बारे में यह भी याद कर लेना ठीक होगा कि रक्षा सौदों में कमीशन दिए जाने का चलन दुनिया के हर देश में है। इसकी वैधता या अवैधता, नैतिकता या अनैतिकता की चर्चा करने का अधिकारी वही हो सकता है, जो प्रतिरक्षा मामलों की जटिलताओं को बखूबी जानता हो। हम इतना कह सकते हैं कि अगर अरबों-खरबों के इन सौदों में राजनीतिक दलों अथवा व्यक्तियों को चंदा दिया जा रहा है तो वह विश्व के हर देश की राजनीतिक प्रणाली का एक अनिवार्य अंग है तथा भारत भी उससे अलग नहीं है। राजतंत्र अथवा सैन्यतंत्र में ऐसा चंदा या घूस सीधे एक व्यक्ति के खाते में जमा होती है, लेकिन लोकतंत्र में इस तरह से लिया गया पैसा चुनाव लड़ने के समय काम आता है। गठबंधन की राजनीति को चलाने में इसकी जरूरत कुछ ज्यादा ही पड़ती है! यह अटल सत्य है कि कोई भी राजनीतिक दल इससे मुक्त नहीं है। 

यह भी समझना आवश्यक है कि रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार के मामले कब, क्यों और कैसे उजागर होते हैं। इतना तो तय है कि न तो रिश्वत देने वाला इस बारे में अपनी जबान खोलेगा और न लेने वाला। अपवाद स्वरूप कोई एकाध व्यक्ति ऐसा हो सकता है, जिसे इस तरह का लेनदेन नागवार गुजरता है, लेकिन जिस ऊंचे स्तर पर यह प्रक्रिया चलती है वहां बैठे हुए साधु प्रवृत्ति के लोग भी यह जानते ही हैं कि चुप रहने में समझदारी है। तब फिर कौन है जो इन सौदों को उजागर करता है? जाहिर है कि सैन्य सामग्री बनाने वाली जिन कम्पनियों के टेंडर अस्वीकार हो जाते हैं, जिनका भारी मुनाफा कमाने का अवसर हाथ से निकल जाता है, वे ही जमीन-आसमान एक कर सबूत जुटाती हैं और फिर सुर्खियों के लिए बेताब मीडिया को यह सामग्री परोस देती हैं। याने सवाल इस बात का नहीं है कि भ्रष्टाचार हुआ या नहीं, बल्कि इस बात का है कि एक कंपनी को मौका मिल गया और दूसरी को नहीं। यह एक आदर्श स्थिति तो नहीं है लेकिन एक व्यवहारिक सच्चाई है एवं इसे वस्तुगत रूप से समझने की आवश्यकता है

देशबंधु में 21 फरवरी 2013 को प्रकाशित 

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