Thursday, 14 February 2013

अफजल गुरु को फांसी के निहितार्थ






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 दिसम्बर 2001 को भारत की संसद पर आतंकवादी हमला हुआ। यह देश की सार्वभौमिकता और संविधान को चुनौती देने वाला  एक कल्पनातीत दुस्साहस और भीषणतम अपराध था। जिन्होंने यह साजिश रची और अपराध को अंजाम दिया उन्हें कठोरतम सजा मिलना ही चाहिए थी। अदालती कार्रवाई के हर चरण पर इस अपराध की गंभीरता का संज्ञान लिया गया और उसी के अनुसार फैसला भी सुनाया गया। राष्ट्रपति द्वारा अफजल गुरु की प्राणदान की याचिका को खारिज करना न्यायिक प्रक्रिया का अंतिम बिन्दु था। जो सुरक्षाकर्मी इस आतंकी हमले के दौरान शहीद हुए उनके परिजन अफजल गुरु को फांसी दिए जाने से इसलिए संतुष्ट हैं कि उनके पिता या पति की शहादत का सम्मान हुआ है। हमले में तीन आतंकियों को मार गिराने वाले सुरक्षाकर्मी संतोष कुमार का मानना है कि इससे सुरक्षा बलों का मनोबल कायम रहेगा।

देश में अधिकतर लोगों ने फांसी दिए जाने पर स्वागत किया है। काश्मीर घाटी में अभी (कॉलम लिखे जाने तक) कर्फ्यू और सेंसर लागू है इसलिए वहां जनसामान्य में जो प्रतिक्रिया हुई है वह सामने नहीं आई है, लेकिन देश के बाकी हिस्सों में सामान्य तौर पर संतोष ही प्रकट किया गया है।  नोट करने लायक है कि आम जनता ने फांसी दिए जाने को इस निर्विकार भाव से ही लिया है कि अंतत: पटाक्षेप हो गया। जो शक्तियां राजनीतिक लाभ उठाने की दृष्टि से फांसी देने की मांग चिल्ला-चिल्लाकर कर रही थीं उन्हें जनता की संयत प्रक्रिया से शायद कुछ निराशा ही हुई हो। एक अल्पमत उनका है जो मानते हैं कि अफजल गुरु के प्रकरण में न्याय प्रक्रिया के पालन में कमी थी और उसे सुनवाई का एक अंतिम मौका और मिलना चाहिए था।

उल्लेखनीय है कि राजीव गांधी हत्या प्रकरण में जिन तीन लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई वे राष्ट्रपति से याचिका खारिज होने के बाद फिर अदालत में गए और मद्रास उच्च न्यायालय ने इस तर्क के आधार पर उनकी फांसी पर रोक लगा दी कि फांसी सुनाए जाने के इतने लंबे अरसे बाद याचिका खारिज करना न्यायोचित नहीं था। जब यह तर्क 1991 के आरोपियों के लिए लागू हो सकता है तो 2001 के आरोपी को भी अपने प्राण बचाने के लिए यह अवसर दिया जाना संभवत: न्यायोचित ही होता! इस बारे में दूसरा तर्क यह भी दिया गया कि पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के आरोपी सिख आतंकवादियों की प्राणदान याचिका पर अब तक विचार क्यों नहीं किया गया।

अफजल गुरु को फांसी देने पर इस तरह कुछेक न्यायविदों ने अपनी असहमति न्याय संहिता से दृष्टांत देते हुए व्यक्त की। इनके अलावा एक खासी संख्या में उन व्यक्तियों की भी है जो सैध्दांतिक आधार पर एक लंबे समय से मृत्युदंड का प्रावधान ही खत्म करने की मुहिम चलाए हुए हैं। विश्व के अनेक देशों में सजा-ए-मौत को कानून की किताब से हटा दिया गया है। यह उम्मीद की जाती थी कि भारत भी जल्द ऐसा करेगा, लेकिन फिलहाल भारत ने इस उम्मीद पर पानी फेर दिया है। तीन-चार महीने के अंतराल में दो फांसियां दी जा चुकी हैं और इसी तरह के भीषण अपराधों के अनेक दोषी काल-कोठरी में अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे हैं। राजीव गांधी हत्याकांड के अपराधी हों या पंजाब के भुल्लर या रजौना। इनकी जिंदगी बचने की अब कोई उम्मीद नहीं लगती याने आने वाले दिनों में देश को कुछ और लोगों को फांसी पर लटकाए जाने की घटनाओं से रूबरू  होना पड़ सकता है। भारतीय समाज पर इसका क्या मनोवैज्ञानिक असर पड़ेगा एवं विश्व समाज में भारत की क्या छवि बनेगी, यह कल्पना करने से ही डर लगता है।

यह तथ्य ध्यान में रखना जरूरी है कि फांसी की सजा को आजन्म कारावास में बदल देने का अर्थ यह नहीं होता कि कैदी चौदह साल या बीस साल बाद जेल से छोड़ दिया जाएगा। इसके विपरीत उसे आखिरी सांस तक एक-एक पल काल कोठरी में बिताना होगा याने उसने जो जघन्य अपराध किया है उसका अहसास उसे पल-पल होते रहेगा। दूसरे न्याय प्रणाली में यह छोटी सी गुंजाइश हमेशा बनी रहती है कि किसी को गलत तरीके से सजा दे दी गई हो। अगर मृत्युदंड का अपराधी आगे चलकर कभी निर्दोष साबित हुआ तो उसके प्राण कैसे लौटाए जाएंगे? इसीलिए पिछले साल जुलाई में 14 सेवानिवृत्त जजों ने उदाहरण देते हुए अपील जारी की थी कि मृत्युदंड क्यों समाप्त कर देना चाहिए। इस अपील की अनदेखी कर दी गई। हमारा समाज आज भी मृत्युदंड समाप्त करने के पक्ष में नजर नहीं आता; फिर भी चूंकि मनुष्य जीवन से बहुमूल्य दुनिया में कुछ भी नहीं है इसलिए इस बारे में समाज को आज नहीं तो कल गंभीरतापूर्वक विचार करना ही पड़ेगा।

अफजल गुरु को फांसी देने के राजनीतिक निहितार्थ खोजे जा रहे हैं। कोई यह कह रहा है कि बजट सत्र ठीक से चल जाए इसलिए यह किया गया, तो कोई भाजपा की हवा निकलने की बात कह रहा है, तो तीसरा कोई इसे सुशील कुमार शिन्दे की छवि सुधारने के रूप में देख रहा है। कुछेक ने तो भविष्यवाणी ही कर दी कि कांग्रेस समय पूर्व लोकसभा चुनाव करवाने जा रही है। राजनीति के गलियारों में ऐसी सच्ची-झूठी बातें उड़ाना कोई नई बात नहीं है, लेकिन यदि मान भी लें कि कांग्रेस ने राजनीतिक लाभ उठाने की दृष्टि से फांसी देने के लिए यह वक्त चुना तो व्यवहारिक राजनीति के धरातल पर इसमें गलत क्या है? आखिरकार भाजपा उठते-बैठते अफजल गुरु को फांसी देने की मांग कांग्रेस को असुविधा में डालने और खुद को देशभक्त सिध्द करने के लिए ही न कर रही थी! इसीलिए तो नेशनल कांफ्रेंस के सांसद महबूब बेग ने सीधे-सीधे सवाल उठाया कि भाजपा ने पंजाब व तमिलनाडु के आतंकी हत्यारों को फांसी देने की मांग क्यों नहीं उठाई। प्रश्न यह भी उठता है कि भाजपा अकाली दल के साथ गठबंधन से बाहर क्यों नहीं आ जाती। जाहिर है कि तत्काल लाभ लेने में भाजपा कांग्रेस से आगे ही है।

देश में आम चुनाव समय पूर्व होंगे या समय पर कांग्रेस को इसका क्या लाभ मिलेगा  इत्यादि प्रश्नों का उत्तर तो समय आने पर मिल जाएगा, लेकिन भाजपा और हिन्दुत्व के ठेकेदारों को खासकर इस बारे में गंभीरतापूर्वक आत्मचिंतन करने की जरूरत है कि शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में महाराजा हरिसिंह की इच्छा के विपरीत काश्मीर की जिस जनता ने भारत में विलय स्वीकार किया था आज वही काश्मीर भारत से इतना दूर क्यों चला गया है? प्रजा परिषद के जमाने से चली आ रही साम्प्रदायिक राजनीति क्या इसके लिए जिम्मेदार नहीं है? अगर आप समझते हैं कि काश्मीर भारत का अभिन्न अंग है तो वहां की जनता के साथ धर्म के आधार पर बना दोयम दर्जे का बर्ताव करना कहां तक उचित है और यदि आपको उन पर भरोसा नहीं है तो सैन्य बल से आप उनको कब तक दबाकर रख पाएंगे? क्या आप इस कड़वे सच को सुनने के लिए तैयार हैं?

देशबंधु में 14 फरवरी 2013 को प्रकाशित 

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