Wednesday, 25 September 2013

छ.ग. : मुख्य सचिव बनाम मंत्री



छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव सुनिल कुमार (वे अपने नाम के हिज्जे इसी तरह करते हैं) एक ईमानदार, तेज-तर्रार, कड़क और बेमुरव्वत अधिकारी के रूप में जाने जाते हैं। वे रायपुर के कलेक्टर रहे हों या मुख्यमंत्री के सचिव या अब मुख्य सचिव, उनकी यह छवि पिछले पच्चीस साल से बरकरार है। इसके चलते एक तरफ उन्हें सम्मान की निगाह से देखा जाता है, तो दूसरी तरफ लोग-बाग उनसे सहमते भी हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि उन्हें गुस्सा जल्दी आता है। अपनों से वरिष्ठों के सामने वे बेबाकी से राय रखते हैं और अधीनस्थों की लापरवाही या प्रमाद को बर्दाश्त भी नहीं करते। मिलनसारिता भी उनका गुण नहीं है। जो कोई भी उनके निकट होने का दावा रखते हैं, उनका उपयोग वे अपने शासकीय कार्य के निर्वहन में सूचनाएं एकत्र करने के लिए करते हैं, ऐसी भी बात उनके बारे में सुनी जाती है। 

श्री कुमार ने अपनी इस छवि को बहुत सहेज कर रखा है। विगत 25 मई को जीरमघाटी त्रासदी के बाद जब उनसे पूछा गया (संभवत: प्रधानमंत्री द्वारा) कि इस घटना की जिम्मेदारी किसकी है तो उन्होंने राज्य के प्रशासनिक तंत्र का मुखिया होने के नाते अपने ऊपर जिम्मेदारी ले ली, बजाय पुलिस महानिदेशक या अन्य किसी को दोषी ठहराने के। उनके इस स्वभाव का एक और उदाहरण अभी चार दिन पहले सामने आया। शिक्षा विभाग में फर्नीचर खरीदी में भ्रष्टाचार को लेकर उनके खिलाफ कोई बेनामी शिकायत मुख्यमंत्री से की गई। श्री कुमार ने इसे गंभीरता से लेते हुए मुख्यमंत्री से मांग कर डाली कि यह प्रकरण सीबीआई को सौंप दिया जाए। उन्होंने एक सही बिन्दु उठाया कि मुख्य सचिव के विरूध्द कोई छोटा अधिकारी स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच नहीं कर सकता। सोमवार को यह कॉलम लिखे जाने तक मुख्यमंत्री ने मुख्य सचिव की इस अभूतपूर्व पहल पर कोई निर्णय नहीं लिया था।

आम चर्चा है कि सुनिल कुमार के खिलाफ यह शिकायत मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य बृजमोहन अग्रवाल की प्रेरणा से की गई है। जब श्री कुमार रायपुर में जिलाधीश थे तब श्री अग्रवाल एक युवा राजनेता के तौर पर अपनी छवि बनाने के बिल्कुल प्रारंभिक चरण में थे। श्री अग्रवाल 1990 में पहली बार विधायक बने। पहली बार में ही उन्हें पटवा सरकार में राज्यमंत्री का पद मिला। इसके बाद वे सन् 1993, 98, 2003 और 2008 में लगातार विधायक निर्वाचित होते रहे। जब छत्तीसगढ़ राज्य बना तब श्री अग्रवाल की दिली ख्वाहिश विपक्ष का  नेता बनने की थी। अपनी इच्छा पूरी न होने पर उन्होंने पार्टी से खुला विद्रोह भी किया और परिणाम स्वरूप कुछ समय के लिए पार्टी से निलंबित भी किए गए। वे एक लोकप्रिय और मिलनसार जनप्रतिनिधि हैं और मौका मिलने पर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की स्वाभाविक इच्छा रखते हैं। इसका परिचय उनके साथ चल रहे गाड़ियों के काफिले से मिल जाता है। 

बहरहाल हमारा मकसद इन दोनों व्यक्तित्वों का चरित्र-चित्रण करना नहीं, बल्कि इस प्रसंग से उपजे प्रश्नों पर विचार करना है। सवालों की एक लंबी श्रृंखला है मसलन-
(1) छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार कैसी चल रही है (2) मंत्रियों और जनप्रतिनिधियों का आचरण कैसा है (3) राज्य की प्रशासनिक मशीनरी कितनी चुस्त-दुरूस्त है (4) प्रशासन तंत्र किसके प्रति जवाबदेह है और किस हद तक (5) प्रशासनिक अधिकारियों के मनोबल का स्तर क्या है (6) मुख्यसचिव याने प्रशासन तंत्र के मुखिया पर भ्रष्टाचार के आरोप लगना क्या मायने रखता है (7) प्रदेश के मुख्यमंत्री का कितना नियंत्रण अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों पर है (8) इसी तरह स्वयं मुख्यमंत्री की प्रदेश की प्रशासन पर कितनी पकड़ है (9)क्या इस प्रसंग और उत्तर प्रदेश के दुर्गाशक्ति नागपाल बनाम अखिलेश सरकार के बीच कोई तुलना संभव है इत्यादि इत्यादि।

अमेरिकी राजनीति में एक कहावत प्रसिध्द है 'द बक स्टॉप्स हीयर' याने  अंतिम जिम्मेदारी व्हाइट हाउस के ओवल ऑफिस में बैठने वाले राष्ट्रपति की ही है, क्योंकि जनता ने उसे चुना ही इसलिए है। यह कहावत छत्तीसगढ़ प्रदेश के मुख्यमंत्री पर भी लागू होती है। वे प्रदेश के मुखिया हैं और उन्हें ही सोचना है कि उनके सबसे बड़े अफसर और उनके सबसे वरिष्ठ मंत्री के बीच चल रहे इस द्वंद्व का निराकरण कैसे हो। यहां हमें ध्यान आता है कि डॉ. रमन सिंह के सत्ता संभालने के कुछ समय बाद ही श्री कुमार स्वेच्छा से केन्द्र में प्रतिनियुक्ति पर चले गए थे। वहां उन्होंने सामान्य पांच वर्ष के बजाय सात वर्ष का समय बिताया और कठोर सेवा शर्तों के चलते अनिच्छा के बावजूद छत्तीसगढ़ लौटे। हमें यह भी ध्यान आता है कि प्रदेश के कुछ अन्य काबिल अफसर इसी तरह स्वेच्छा से प्रतिनियुक्ति पर चले गए थे। इससे एक सवाल यह भी उठता है कि क्या इस प्रदेश की राजनीतिक आबोहवा ईमानदार और काबिल अफसरों की सेहत के लिए ठीक नहीं है!

छत्तीसगढ़ में विधानसभा के लिए आम चुनाव अगले कुछ हफ्तों में सम्पन्न होना है। डॉ. रमन सिंह तीसरी बार जीतने के लिए अपनी ओर से भरपूर कोशिश में लगे हुए हैं। ऐसे मौके पर सुनिल कुमार प्रसंग उनके अपने विचार के लिए यह सवाल उठाता है कि उनके नेतृत्व में इस प्रकार की अवांछित स्थिति क्यों कर उत्पन्न हुई! हमारी सीमित जानकारी के अनुसार मुख्यमंत्री अपने मुख्य सचिव पर पूरी तरह ऐतबार करते हैं। ऐसे व्यक्ति को कमजोर करने या उसका मनोबल गिराने की कोई दुरभिसंधि होती है तो क्या ऐसा इसलिए कि मुख्य सचिव को प्रशासनतंत्र चलाने के लिए जो स्वतंत्रता मिलना चाहिए थी वह उन्हें शायद पूरी तरह नहीं मिल पाई! लेकिन फिर बात यहीं तक सीमित नहीं रह जाती। मुख्यमंत्री को आज नहीं तो कल, इस बारे में विचार करना ही पड़ेगा कि उनके शासनकाल में इस राज्य का प्रशासनतंत्र एक उत्तरदायी कार्यसंस्कृति को अपनाने से कैसे चूक गया।

यह उल्लेख करना आवश्यक है कि श्री कुमार के विरूध्द श्री अग्रवाल ने सीधे-सीधे कोई शिकायत दर्ज नहीं की है। जो कुछ है वह जनचर्चा है, लेकिन जनता यह भी देख रही है कि मुख्यमंत्री का अपने मंत्रिमंडल सहयोगियों पर नियंत्रण या तो शिथिल है या उन्होंने स्वयं होकर अपने साथियों को मनमर्जी काम करने की छूट दे रखी है। उनके एक अन्य वरिष्ठ साथी ननकीराम कंवर के जो बयान आए दिन आते हैं, वे क्या संदेश देते हैं? श्री कंवर गृहमंत्री हैं लेकिन यह विचित्र है कि उनके और पुलिस विभाग के बीच किसी न किसी कारण से तालमेल बिगड़ते रहता है। यही बात अन्य मंत्रियों और उनके विभागों के बारे में कही जा सकती है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है जैसे प्रदेश का सरकारी अमला सिवाय कदमताल के और कुछ नहीं कर रहा है।

एक ओर मुख्यमंत्री भरी धूप में प्रदेश में घूम-घूम कर जनता का विश्वास जीतने में लगे हुए हैं, तो दूसरी ओर उनके मंत्री और विधायक मानो इस मुहिम को असफल करने की ठान रखे हैं। मुझे आश्चर्य होता है कि जो मुख्यमंत्री विपक्ष का विश्वास जीतने में समर्थ हैं वह अपने ही साथियों के बीच शिथिल कैसे पड़ जाता है! इन दिनों प्रदेश में जहां भी जाओ एक मजेदार बात सुनने मिलती है। आम चर्चा में लोग कहते हैं कि डॉ. रमन सिंह को फिर से मुख्यमंत्री बनना चाहिए, लेकिन वहीं वे अपने स्थानीय भाजपा विधायक या मंत्री की पराजय की कामना करते हैं। डॉ. रमन सिंह की दूसरी पारी में इस तरह के अर्न्तविरोध उभरेंगे, कुछ समय पहले तक इसकी कल्पना शायद किसी ने न की होगी। हमने जहां से बात उठाई उसे वहीं जाकर खत्म करेंगे। यदि सुनिल कुमार जैसे व्यक्ति पर लांछन लगाए जा सकते हैं तो फिर इस राज्य का प्रशासन चलाने के लिए हमें किसी देवदूत के आने का इंतजार करना पड़ेगा।

देशबंधु में 26 सितम्बर 2013 को प्रकाशित 




 

Wednesday, 18 September 2013

मोदी की उम्मीदवारी - 2



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लालकृष्ण अडवानी व उनके समर्थकों, शुभचिंतकों की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए नरेन्द्र मोदी को भाजपा की ओर से 2014 के चुनाव में प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करके ही दम लिया। इस प्रक्रिया ने संघ की अपनी पहचान पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। संघ एक लंबे समय से स्वयं को एक सांस्कृतिक संगठन घोषित करते आया है। आज से कोई पच्चीस-तीस साल पहले जब आयकर विभाग ने उसे एक राजनीतिक संगठन मानते हुए उस पर आयकर आरोपित किया था, तब संघ ने अपने सांस्कृतिक संगठन होने की दलील पेश की थी। यह सही है कि संघ का प्रारंभ से झुकाव जनसंघ अथवा भाजपा की ओर रहा है। भाजपा के तमाम बड़े-छोटे नेता बाकायदा संघ में दीक्षित स्वयंसेवक रहे हैं, इसके बावजूद एक गौण तथ्य यह है कि वक्त-वक्त पर संघ ने चुनावों के समय कांग्रेस पार्टी की भी मदद की है तथा नेहरू-विरोधी कांग्रेसी और समाजवादी किसी हद तक संघ से प्रेरित भी रहे हैं। विवेकानंद शिला स्मारक जैसे उपक्रमों को खड़ा करने में कितनी ही कांग्रेसी सरकारों और नेताओं ने संघ को खुलेआम आर्थिक सहयोग भी किया है। 

इस पृष्ठभूमि को देखते हुए सरसंघचालक मोहन भागवत व अन्य शीर्ष नेताओं का भाजपा के पक्ष में सीधे-सीधे खड़े हो जाना व उसकी चुनावी रणनीति में सीधी व सक्रिय भूमिका निभाने का एक अर्थ तो शायद यही निकलता है कि पिछले साठ-सत्तर साल में संघ ने बड़ी मेहनत से राजनीति के दलदल से ऊपर रहने की अपनी जो छवि बनाने की एक हद तक सफल कोशिश की थी वह एक झटके में निष्फल हो गई है। आज की तारीख में संघ और भाजपा अब इस तरह गड्ड-मड्ड हो गए हैं कि उन्हें अलग करके नहीं देखा जा सकता। जो कांग्रेसी और लोहिया समाजवादी आज तक संघ को गैर-राजनीतिक होने का प्रमाणपत्र देते आए हैं, उनके विचार इस नई स्थिति में बदलेंगे या नहीं, कहना कठिन है।  हमें यह भी ध्यान आता है कि भारत के बहुत से कारपोरेट घराने संघ के आनुषंगिक संगठनों के विभिन्न प्रकल्पों को मुक्तहस्त से दान देते आए हैं। उनमें बहुत से तो संघ की विचारधारा से प्रेरित हैं, लेकिन वे घराने जिनका दृष्टिकोण उदारवादी माना जाता रहा है, उन्हें शायद अब कहीं पुनर्विचार  करने की आवश्यकता होगी!

राष्ट्रीय स्वयंसेवक  संघ द्वारा प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी का प्रायोजन और सक्रिय समर्थन इस ओर इशारा करता है कि संघ भाजपा को एक आधुनिक, अनुदार, पूंजीवादी राजनीतिक दल के रूप में विकसित होते देखने की बजाय उसके मूल चरित्र की ओर वापिस ले जाना चाहता है, जिसकी नींव 1952 में श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने रखी थी। इसका यह संदेश भी है कि संघ और भाजपा के भीतर एक नए आत्मविश्वास का संचार हुआ है। इतिहास और भूगोल के किसी अध्याय में हम नरभक्षी कबीलों के किस्से सुनते थे। आज कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी के इस दौर में भी ''कैनिबॉलिज् म'' संज्ञा प्रचलित है। एक मशीन का कोई पुर्जा खराब हो जाए तो दूसरी मशीन का पुर्जा निकाल कर पहली मशीन को ठीक कर लिया जाता है और अंतत: दूसरी मशीन धीरे-धीरे ठिकाने लग जाती है। डॉ. लोहिया ने जब गैरकांग्रेसवाद का नारा दिया था, तब मालूम नहीं उन्होंने इस बारे में सोचा था कि नहीं कि कांग्रेस-विरोध के नाम पर जनसंघ नामक पार्टी धीरे-धीरे बाकी पार्टियों के कलपुर्जों को चतुराई से छीन लेगी और वे पार्टियां नष्ट होने के लिए अपने हाल पर छोड़ दी जाएंगी। 1967 में संविद सरकारों के दौर में यही हुआ, 1977 में जनता पार्टी के राज में भी यही देखने मिला और 1996 के बाद  भी यही सब चलता रहा। डॉ. लोहिया ने अपने समय में स्वयं पार्टियां बनाईं और बिगाड़ीं, लेकिन उनके वारिसों की पार्टियों का हाल और भी बुरा हुआ। सब के सब छोटे-मोटे समझौते कर अपने आपको अप्रासंगिक होने से बचाते फिर रहे हैं।

जॉर्ज फर्नांडीज्, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, लालूप्रसाद, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार, अजीत सिंह इनके बारे में क्या कहा जाए, इन सबका इतिहास जनता के सामने है। इनके संगी- साथी ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, जयललिता आदि हैं: इन्हें भी अपनी या अपनी रियासतों की चिंता है। कुल मिलाकर पिछले पचास साल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक  संघ ने अपनी राजनीतिक भुजा याने भाजपा को धीरे-धीरे कर दूसरों की कीमत पर इस तरह पुष्ट किया है कि अब वह किसी भी दिन भारत के संविधान को धता बताते हुए अपने तीन सूत्रीय कार्यक्रम पर अमल करने के मंतव्य को खुलेआम घोषित कर सकती है। जो राजनीतिक अध्येता अंधकांग्रेस-विरोधी नहीं हैं वे इस बात को शुरू से जानते रहे हैं कि भाजपा ने अपने एजेंडा में धारा-370 समाप्त करने, समान कोड बिल लाने और अयोध्या में राममंदिर बनाने के जिन तीन बिंदुओं को स्थगित कर रखा है, वह सिर्फ उस दिन तक के लिए जब तक कि केन्द्र में उनकी अपनी सरकार नहीं बन जाती। यह भारतीय राजनीति की विडंबना है कि भाजपा के इस मनोगत की कांग्रेस-विरोधी दलों ने जानबूझ कर क्षणिक सत्तासुख के लिए अनदेखी की। वे अपने आपको भरमाते रहे कि भाजपा का शासन में आना या बने रहना उनकी दया पर निर्भर है। आज भी उनका यह भ्रम पूरी तरह से टूटा है कहा नहीं जा सकता। आशय यह कि संघ ने मोदी के माध्यम से यह दांव लगाया है कि अबकी अगर भाजपा सरकार में आती है तो रुके हुए एजेंडे को लागू करने में उसे सफलता मिल जाएगी।

मेरे मन में एक और विचार यहां उठता है। विगत दो वर्षों से देश का इलेक्ट्रानिक मीडिया बार-बार यूपीए-2 में व्याप्त भ्रष्टाचार का मुद्दा इस तरह से उठाते रहा है, जैसे कि देश के सामने अन्य कोई मुद्दा है ही नहीं। जब 1989 में वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री बने थे तब उनका भी मूलमंत्र यही था। यह हमने देखा कि अपनी स्वच्छ छवि के बावजूद श्री सिंह इस बारे में कोई भी प्रभावी कदम नहीं उठा सके। सार्वजनिक जीवन में शुचिता राजनीति के लिए एक अनिवार्य शर्त होना चाहिए। यह एक आदर्श स्थिति होगी। इसका व्यवहारिक पक्ष यह है कि राजनेता पक्ष में हों या विपक्ष में, उन्हें धनराशि की आवश्यकता पड़ती ही पड़ती है। इसमें ईमानदार वही है जो प्राप्त धनराशि का इस्तेमाल खुद के लिए न कर पार्टी फंड और चुनाव फंड के लिए करता है तथा बेईमान वह है जो नौकरशाही के जरिए वसूली करता है एवं पार्टी फंड में पैसा जमा करने के बजाय उससे अपना घर भरता है। छत्तीसगढ़ के एक अत्यन्त सम्मानीय वरिष्ठ राजनेता ने एक बार मुझे कहा- ''मैं साधु नहीं हूं, साधु होता तो हिमालय में जाकर तपस्या करता, चुनाव नहीं लडता।'' हमारे इस राजनेता की व्यक्तिगत छवि पर कहीं रत्तीभर भी दाग नहीं है। आशय यह कि पिछले दिनों जो भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए, उनका उद्देश्य जनता का ध्यान मुख्य मुद्दों से भटकाना था। जिन कारपोरेट घराने का इस देश में मीडिया पर लगभग अस्सी प्रतिशत नियंत्रण हैं और जो स्वयं सत्ताधीशों को थैलियां देने के दोषी हैं वे ही देश में कांग्रेस को हटाकर एक नई व्यवस्था लाना चाहते हैं। जिन्होंने इतिहास पढ़ा है वे जानते हैं कि हिटलर के अभ्युदय में जर्मनी के औद्योगिक घरानों का बहुत बड़ा योगदान था। यह पूंजीवाद की फितरत है कि उसे तानाशाह, निरंकुश शासन और एकचालकानुवर्ति व्यवस्था ही मुफीद आती है।

देशबंधु में 19 सितम्बर 2013 को प्रकाशित 
 

Wednesday, 11 September 2013

सुई की नोंक, हल की मूठ



मध्यभारत में आदिवासी अशांति- यही विषय था महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी का जो पिछली 26-27 अगस्त को सम्पन्न हुई। इस कार्यक्रम के  आयोजन में विश्वविद्यालय के कुलपति एवं चर्चित लेखक विभूति नारायण राय ने निजी दिलचस्पी ली गो कि आयोजन विश्वविद्यालय के मानव विज्ञान विभाग द्वारा किया गया था। संगोष्ठी का विषय ऐसा था जिसमें शासन और समाज के विभिन्न पक्षों की दिलचस्पी लंबे समय से बनी हुई है और आगे भी बनी रहने की संभावना है। कहने की आवश्यकता नहीं कि मध्यभारत में आदिवासी अशांति से सीधा-सीधा आशय भारत के आदिवासी बहुल प्रदेशों में व्याप्त नक्सलवाद अथवा माओवाद से है। कुछ के लिए यह समस्या है तो कुछ इसमें ही समाधान भी देखते हैं। 

वर्धा के आयोजन में अगर कोई बात विशेष थी तो यह कि देश के किसी अन्य विश्वविद्यालय में लंबे समय से इस विषय पर चर्चा की गई हो ऐसा याद नहीं पड़ता। छत्तीसगढ़ में तो इस पर सोचने की जिम्मेदारी सरकार और राजनीतिक तंत्र पर ही डाल दी गई है। अगर मेरी याददाश्त सही है तो 2007 में जामिया मिलिया में इस विषय पर एक राष्ट्रीय परिसंवाद आयोजित किया गया था। उसे आप चाहे तो दिल्ली का कार्यक्रम मान सकते हैं, क्योंकि वहां तो ऐसे प्रश्नों पर कहीं न कहीं परिचर्चाएं होती ही रहती हैं। वर्धा के कार्यक्रम की दूसरी विशेषता थी कि इसमें  प्रशासन, सशस्त्र बल, शिक्षा जगत, सिविल सोसायटी तथा मीडिया को एक मंच पर लाने का उपक्रम किया गया था, यद्यपि इसमें किन्हीं कारणों से कसर रह गई। इस दृष्टि से जनवरी 2007 में भोपाल में राज्य आदिवासी शोध संस्थान द्वारा आयोजित परिचर्चा कहीं ज्यादा कसी हुई थी। उसके आयोजक अकादमी के तत्कालीन निदेशक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी रणबीर सिंह थे।
 
वर्धा में सबसे अच्छी बात यह हुई कि दो दिवसीय कार्यक्रम का आरंभ नृतत्वशास्त्री प्रोफेसर नदीम हसनैन के बीज वक्तव्य के साथ हुआ। उनका व्याख्यान अत्यंत विचारोत्तेजक व सारगर्भित था। उन्होंने कहा कि सत्तातंत्र के लिए यह आंतरिक सुरक्षा का मुद्दा है तो आदिवासी समाज के लिए यह सामाजिक न्याय की लड़ाई है। दो सौ साल से चली आ रही औपनवेशिक मानसिकता आज भी बदली नहीं है; कल्याणकारी राज्य की छत्रछाया में ऋणग्रस्तता, शोषण व बेदखली बदस्तूर जारी हैं। उन्होंने एक लोकगीत का हवाला देते हुए कहा कि बाहरी लोग जब आए थे तो सुई की नोक की तरह पतले थे, वे अब हल की मूठ की तरह मोटे हो गए हैं।  इसे साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा कि लोकगीत झूठ नहीं बोलते। प्रोफेसर हसनैन ने कहा कि अस्सी के दशक में वन कानूनों में परिवर्तन होना तो शुरू हुए, लेकिन उन पर अमल नहीं हुआ। विस्थापन आज के आदिवासियों के लिए सबसे बड़ी समस्या है और विकास एक डरावना सच। पनबिजली, अभ्यारण्य,  रेलवे, कल-कारखाने आदि से कोई पांच करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं, जिनमें से सिर्फ बीस प्रतिशत लोगों का पुर्नवास हो सका है,  लेकिन सिर्फ पुर्नवास होने से बात नहीं बनती, विस्थापन से आदिवासी की रचनात्मक क्षमता समाप्त हो जाती है और परस्पर सहयोग का तंत्र बिखर जाता है।

प्रोफेसर हसनैन ने कहा कि आदिवासी तीन तरह की हिंसाओं से जूझ रहा है - राज्य द्वारा की गई हिंसा, माओवादियों की हिंसा और सलवा जुड़ूम जैसे गिरोहों की हिंसा। अपने लंबे व्याख्यान का समापन करते हुए प्रोफेसर हसनैन ने कहा कि यह सिर्फ आंतरिक सुरक्षा का मामला नहीं है और समस्या के समाधान के लिए सिविल सोसायटी जो भूमिका निभाना चाहिए थी वह उसमें असफल रही है। केन्द्रीय गृह मंत्रालय के सलाहकार और सीआरपीएफ के पूर्व महानिदेशक के. विजय कुमार ने यह माना कि नक्सलवाद या माओवाद का मुकाबला पुलिस कार्रवाई से नहीं किया जा सकता, जरूरत इस बात की है कि सरकार समाज केन्द्रित विकास की अवधारणा पर ठीक से चले। उन्होंने कहा कि सलवा जुडूम एकदम प्रारंभ में स्वस्फूर्त था, लेकिन आगे इसका स्वरूप कैसे बदल गया, यह एक अलग कहानी है। उनके वक्तव्य का अभिप्राय शायद यही था कि समस्या के निवारण के लिए जो राजनीतिक पहल होना चाहिए वह नहीं हो रही है, लेकिन जब राज्य के विरूध्द हथियार उठाए जाएंगे तो सरकार किसी की भी हो वह उसे बर्दाश्त नहीं करेगी।

उसके बाद विभिन्न सत्रों में बहुत सारी बातें उठीं, बहुत से विचार सामने आए। नागपुर के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता सुरेश खैरनार और भुवनेश्वर के प्रफुल्ल सामंत राय ने लगभग एक जैसी बातें कही। उन्होंने मुख्य तौर पर यही कहा कि नागरिक अशांति को दूर करने में सुरक्षातंत्र कभी भी कामयाब नहीं हो सकता, लेकिन सत्ता के मद में डूबी अफसरशाही इसके आगे सोच नहीं पाती। देश के अलग-अलग इलाकों से आए प्राध्यापकों की बातों में भी एक हद तक समानता थी। उन सबका मानना था कि विकास और विस्थापन जुड़वा भाई की तरह हैं, दोनों एक साथ आते हैं इनके कारण आदिवासियों का ज्ञान, संसाधन, परंपराएं, संस्कार, विश्वास, उत्सव आदि समाप्त होते जा रहे हैं। इनके अनुसार जमीन से बेदखली ही अशांति का मूल कारण है। ध्यान रहे कि ये निष्कर्ष इन विद्वानों के आदिवासी अंचलों में किए गए शोध पर आधारित है।

सुपरिचित कवि और समाज चिंतक महेन्द्र कुमार मिश्र ने कहा कि सरकार एक तरफ दमन का इस्तेमाल करती है और दूसरी तरफ वह सुधार की प्रक्रिया भी चलाती है, लेकिन उसे समझना चाहिए कि आदिवासी विस्थापन व निष्कासन के विरूध्द लड़ रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि किसी लड़ाई में सफलता या असफलता मायने नहीं रखती: आने वाले समय के लिए वह क्या संदेश दे पाती है, यह समझने की बात है। सीआईएसएफ के पूर्व विशेष महानिदेशक और कभी रायपुर में एसपी रहे विजय रमन ने माना कि नक्सल समस्या खुद हमारे द्वारा पैदा की गई है। कोई भी शासन सशस्त्र विद्रोह बर्दाश्त नहीं करेगा, लेकिन दोनों पक्ष अहंकार छोड़कर बातचीत करें तो रास्ता निकलना कठिन नहीं है।

दो दिवसीय संगोष्ठी में अनेक शोधार्थियों ने भी अपने पर्चे पढ़े। इनकी संख्या सौ से ऊपर ही थी। इनमें कुछ नई या कमज्ञात जानकारियां सामने आईं । रायपुर के जितेन्द्र कुमार प्रेमी का आलेख अपने आप संपूर्ण व सटीक था (उसे अलग से प्रकाशित करेंगे)। अन्य प्रस्तुतियों से जो बातें उभरीं उनमें से कुछ इस तरह हैं- (1) खूंटी, सिमडेगा (झारखंड) से भारी संख्या में मानव तस्करी हो रही है। माओवाद के बिना भी यहां दारुण स्थिति है (2) ग्राम सभा के प्रति न जागरूकता है न माहौल (3) बाहरी लोग सृष्टिपूजक आदिवासी और ईसाई आदिवासी में फर्क पैदा कर रहे हैं (4) मीडिया सरकारी दमनचक्र का समर्थन कर रहा है (5) प्रोजेक्ट टाइगर आदि के कारण आदिवासी विस्थापित हो रहे हैं (6) झारखंड में युवा आदिवासी मनोरोग का शिकार हो रहे हैं (7) मध्यप्रदेश में कोरकू आदिवासी कुपोषण का शिकार हैं (8) छत्तीसगढ़ के कंवर रक्ताल्पता के रोगी हैं (9) 1998 के भूमि अधिग्रहण अधिनियम संशोधित में आपत्ति की अवधि तीस दिन से घटाकर छह दिन कर दी गई और गांव में मुनादी करना बंद हो गया (10) झारखंड के आदिवासी को कोयला चोर बनने मजबूर होना पड़ा (11) छत्तीसगढ़ में आदिवासी मतदान केन्द्र दूर होने के कारण वोट नहीं डाल पाते (12) महाराष्ट्र के मेलघाट में आदिवासी साहूकार के शोषण का शिकार हैं (13) जादूगुड़ा यूरेनियम खदान से तीस हजार लोग विकिरण के शिकार हुए हैं (14) मध्यप्रदेश में बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां अपने टीकों और दवाईयों का  प्रायोगिक परीक्षण आदिवासियों पर कर रही हैं (15) मध्यप्रदेश में ही आदिवासी औरतें बड़ी संख्या में सरोगेट मांएं बनाई जा रही हैं।

मेरे विचार पाठक समय-समय पर पढ़ते ही रहे हैं, इसलिए उनकी चर्चा फिलहाल नहीं। बेहतर होता कि कार्यक्रम दो दिन की बजाय तीन दिन का होता। शोधार्थियों के वक्तव्य पहले सुने जाते और फिर हम जो दस-बारह लोग विषय विशेषज्ञ के रूप में आमंत्रित थे उनके बीच एक गोलमेज संवाद जैसी कोई व्यवस्था होती तो कार्यक्रम को एक दिशा मिलती और संयुक्त वक्तव्य जैसी कोई पहल संभव हो पाती।

देशबंधु में 12 सितम्बर 2013 को प्रकाशित 




 

Wednesday, 4 September 2013

मोदी की उम्मीदवारी



किसी तयशुदा नीति  के तहत लगभग प्रतिदिन ऐसी खबरें प्रसारित हो रही हैं कि नरेन्द्र मोदी को शीघ्र ही भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया जाएगा! एक ताजा समाचार के अनुसार यह शुभ कार्य 7 सितंबर को हो जाएगा। यदि भारतीय जनता पार्टी सचमुच इस बारे में कोई निर्णय लेती है तो यह उसका आंतरिक मसला है। अगर इस मुद्दे पर पार्टी के भीतर कोई मतभेद हैं तो उन्हें सुलझाना भी पार्टी का अपना सिरदर्द है। भाजपा को प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते यह सोचने का भी पूरा अख्तियार है कि 2014 में उसके नेतृत्व में ही नई सरकार बनेगी। एक बात जरूर समझ नहीं आती कि जब पार्टी अपनी विजय को लेकर इतनी आशावान है तो फिर उसे और उसके संभावित सहयोगियों को समय पूर्व चुनाव करवाने की इतनी हड़बड़ी क्यों है। लालकृष्ण आडवानी 2004 में समय पूर्व चुनाव करवाकर अपने सपने को टूटता हुआ देख चुके हैं, फिर भी वे यह मांग बार-बार उठाने से खुद को रोक नहीं पाते हैं। संभावित सहयोगी दल याने तृणमूल और बीजू जनता दल भी उनके सुर में सुर मिला रहे हैं।

खैर! भाजपा का जो तबका नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारी घोषित करने की आवाज उठा रहा है उसका सोचना है कि पांच राज्यों में आसन्न विधानसभा चुनावों में इसका लाभ पार्टी को मिलेगा। संभव है कि इन समर्थकों के मन में यह आशंका हो कि यदि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में पार्टी जीत जाती है तो फिर श्री चौहान श्री मोदी के विरोध में ताकत के साथ खड़े हो सकते हैं। उन्हें तब लालकृष्ण आडवानी और सुषमा स्वराज का भी समर्थन मिल जाएगा। सुषमाजी अभी मध्यप्रदेश से ही सांसद हैं और उनके वहीं से दुबारा चुनाव लड़ने की संभावना है। संभव है कि श्री आडवानी भी गुजरात की गांधीनगर सीट छोड़कर अगला चुनाव शिवराज सिंह चौहान के सदाशय से लड़ना चाहते हों! यही नहीं, यदि छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा जीतती है तो यह उनकी लगातार तीसरी विजय होगी और वे नरेन्द्र मोदी के समकक्ष खड़े हो जाएंगे।

मान लीजिए कि लोकसभा चुनाव (जब भी हों) में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरती है और चुनाव पूर्व अथवा चुनाव बाद के गठबंधन का नेतृत्व करने के कारण भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाता है। ऐसे में यह सवाल भी उपस्थित होगा कि भाजपा के सहयोगी दल कौन हैं। दो कट्टरपंथी दक्षिण दल तो उसके साथ शुरू से ही हैं याने शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल। सरकार बनाने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। इस स्थिति में सपा, अन्नाद्रमुक, बीजद और तृणमूल कांग्रेस पर भाजपा की निगाहें रहेंगी। अगर नरेन्द्र मोदी को उम्मीदवार बनाने से पार्टी की सीटों में अपेक्षानुकूल बढ़ोतरी होती है तब ये सारे दल धर्म निरपेक्षता के सारे ढोंग के बावजूद अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने और सत्ता की मलाई में अपना हिस्सा झपट लेने के लिए भाजपा का साथ देने मजबूर हो जाएंगे। शायद यह विचार भी कहीं हो। लगता है कि इस तरह के गुणा-भाग पार्टी के भीतर चल रहे हैं!

हम इस पूरे प्रसंग को एक अलग नजरिए से देखते हैं। आज के परिदृश्य में भारत के सामने घर- बाहर जो भी चुनौतियां हैं क्या भारतीय जनता पार्टी सत्तारूढ़ दल होने के नाते उनका मुकाबला करने में कामयाब हो सकेगी? एक विपक्षी दल के नाते विगत दस वर्षों में भाजपा ने जो भूमिका निभाई है वह हमें इस बारे में बहुत आश्वस्त नहीं करती। यूं तो भाजपा के पास प्रदेश सरकार चलाने का पर्याप्त अनुभव है, लेकिन देश की सरकार चलाना और प्रदेश में राज करने के बीच बहुत बड़ा अंतर है। दोनों की जरूरतें एकदम अलग हैं। दोनों का मिजाज़ एकदम अलग है और दोनों में अलग-अलग तरह  की नेतृत्व क्षमता चाहिए। एक राज्य में यदि कुशासन हो तो वह एक सीमित दायरे में ही होता है और पूरा देश उससे प्रभावित नहीं होता। यदि सुशासन है तब भी यही बात लागू होती है। इसे ध्यान में रखकर भाजपा को यदि एक अनुभवहीन पार्टी कहा जाए तो कोई गलत बात नहीं होगी।

इस संदर्भ में कुछ पुराने दृष्टांत ध्यान आ जाते हैं। पूर्ववर्ती केन्द्र सरकारों में ऐसे कई अवसर आए जब राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सरकार में शामिल किया गया। यशवंत राव चौहान, वीरेन्द्र पाटिल, के. हनुमंतैय्या, शरद पवार, बीजू पटनायक, मुलायम सिंह यादव, ए.के. एंटनी, अर्जुन सिंह, लालू प्रसाद, फारूख अब्दुल्ला आदि। ये कुछेक ऐसे नाम हैं जिनके पास पर्याप्त प्रशासनिक अनुभव था, जिसका लाभ केन्द्र सरकार को मिला। दूसरी तरफ महत्वपूर्ण विभागों की जिम्मेदारियां ऐसे संसद सदस्यों को भी दी गईं जिन्हें संसदीय परंपराओं, विधियों तथा सरकारी कामकाज के बारे में भरपूर ज्ञान था। ऐसे लोग जब मंत्री बने तो उन्हें अपना दायित्व निभाने में कोई खास अडचन नहीं हुई। सवाल उठता है कि वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी इस कसौटी पर कहां तक खरी उतरती है।

यूं तो सरकार का हर विभाग महत्वपूर्ण होता है (अन्यथा विभाग की जरूरत ही क्या है) फिर भी हम सबसे पहले विदेश मंत्रालय की बात करते हैं। यह ऐसा विभाग है जिसमें नीति निर्धारण में बहुत बड़ी भूमिका प्रधानमंत्री की होती है। आज के दौर में यह महत्व और भी बढ़ गया है। भारतीय जनता पार्टी में अटल बिहारी वाजपेयी संभवत: एकमात्र नेता हैं जो अंतरराष्ट्रीय मसलों को अच्छी तरह जानते- समझते थे। अपने प्रधानमंत्री काल में बृजेश मिश्र जैसे विश्वस्त कूटनयिक की सेवाएं भी उन्हें प्राप्त थीं। उनके अलावा लालकृष्ण आडवानी, यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह- ये तीन वरिष्ठ नेता विदेश नीति को समझने में समर्थ थे। दुर्भाग्य से ये तीनों इस समय हाशिए पर हैं और इन्हें मोदी विरोधी के रूप में देखा जाता है। पार्टी के भीतर जो रिटायर्ड राजदूत आदि विदेश नीति प्रकोष्ठ वगैरह देख रहे हैं वे सब एक तरह से अतिवादी विचारक हैं। वे या तो अंध अमेरिका-भक्त हैं या अंध पाकिस्तान-विरोधी। मैं नहीं समझता कि ऐसे लोगों से भारत की विदेश नीति को सही दिशा में ले चलने की कोई आशा रखनी चाहिए।

जैसा कि हम जान रहे हैं देश की अर्थव्यवस्था पर इस समय आशंका के बादल छाए हुए हैं। देश को अपनी जरूरत का अस्सी प्रतिशत तेल आयात करना पड़ता है  जिसके लिए हम मुख्यरूप से मध्यपूर्व या कि पश्चिम एशिया के देशों पर निर्भर हैं। इनमें वे देश भी हैं जो हमारी डालर कमाई का भी मुख्य स्रोत हैं। पंडित नेहरू के जमाने से इन देशों के साथ हमारे सौहार्द्रपूर्ण और मैत्रीपूर्ण संबंध रहे। इजराइल को मान्यता देने पर इसमें एक अस्थायी दरार पड़ी, लेकिन अफगानिस्तान और इराक में हमारी नीति बहुत आश्वस्तकारी नहीं रही। बाबरी मस्जिद ढहाने और गुजरात के दंगों का असर भी इन संबंधों पर पड़ा। अभी ईरान और सीरिया के मामले में भारत बहुत नापतौल कर अपनी भूमिका निभा रहा है। यह कल्पना ही की जा सकती है कि यदि भाजपा का प्रधानमंत्री बना और उसका नाम नरेन्द्र मोदी हुआ तो इन देशों के साथ हमारे संबंधों की नई तस्वीर क्या बनेगी!

इस तरह की शंका भारत की प्रतिरक्षा नीति के बारे में भी उठती है। अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में भारत ने 11 मई, 1998 को परमाणु परीक्षण किया। लाठी लेकर जुलूस में चलने वाले स्वयंसेवक गर्व से फूले नहीं समाए कि अब हमारे पास एटम बम आ गया है। लेकिन इससे आखिरकार क्या हासिल हुआ? एक हफ्ता बीतते न बीतते पाकिस्तान ने भी परमाणु परीक्षण कर बता दिया कि वह दबने वाला नहीं है। इसके बाद कारगिल युध्द हुआ और शुक्र है कि अणुबम अपने तहखानों में बंद रहे आए। 13 दिसंबर, 2001 को भारतीय संसद पर हमले के बाद वाजपेयी सरकार ने ऑपरेशन पराक्रम चालू किया। एक साल तक लगभग एक लाख सैनिक उत्तर से दक्षिण तक पश्चिमी सीमांत पर तैनात रहे आए। एक डर बना रहा कि कहीं युध्द न हो जाए। श्री वाजपेयी के कार्यकाल के ये दो प्रसंग प्रतिपादित करते हैं कि बाहरी आक्रमण से देश को बचाना एक नाजुक संतुलन की मांग करता है न कि उन्माद की। एक क्षण के लिए सोचिए कि ममता बनर्जी बंगलादेश के साथ संबंध मधुर बनाने में जो बाधा डाल रही हैं उससे शेख हसीना जैसे भारत मित्र नेता के साथ-साथ स्वयं हमारे देश को क्या नुकसान हो सकता है। अर्थनीति, गृहनीति, शिक्षानीति आदि के बारे में भी अभी बहुत सी बातें कहना बाकी हैं। अपने पाठकों को मैं इतना ही स्मरण कराना चाहता हूं कि आम चुनाव इस या उस पार्टी को जिताने अथवा इस या उस नेता को प्रधानमंत्री बनाने के लिए नहीं, बल्कि देश को आगे ले जाने के लिए किए जाते हैं।

देशबंधु में 5 अप्रैल 2013 को प्रकाशित