छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव सुनिल कुमार (वे अपने नाम के हिज्जे इसी तरह करते हैं) एक ईमानदार, तेज-तर्रार, कड़क और बेमुरव्वत अधिकारी के रूप में जाने जाते हैं। वे रायपुर के कलेक्टर रहे हों या मुख्यमंत्री के सचिव या अब मुख्य सचिव, उनकी यह छवि पिछले पच्चीस साल से बरकरार है। इसके चलते एक तरफ उन्हें सम्मान की निगाह से देखा जाता है, तो दूसरी तरफ लोग-बाग उनसे सहमते भी हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि उन्हें गुस्सा जल्दी आता है। अपनों से वरिष्ठों के सामने वे बेबाकी से राय रखते हैं और अधीनस्थों की लापरवाही या प्रमाद को बर्दाश्त भी नहीं करते। मिलनसारिता भी उनका गुण नहीं है। जो कोई भी उनके निकट होने का दावा रखते हैं, उनका उपयोग वे अपने शासकीय कार्य के निर्वहन में सूचनाएं एकत्र करने के लिए करते हैं, ऐसी भी बात उनके बारे में सुनी जाती है।
श्री कुमार ने अपनी इस छवि को बहुत सहेज कर रखा है। विगत 25 मई को जीरमघाटी त्रासदी के बाद जब उनसे पूछा गया (संभवत: प्रधानमंत्री द्वारा) कि इस घटना की जिम्मेदारी किसकी है तो उन्होंने राज्य के प्रशासनिक तंत्र का मुखिया होने के नाते अपने ऊपर जिम्मेदारी ले ली, बजाय पुलिस महानिदेशक या अन्य किसी को दोषी ठहराने के। उनके इस स्वभाव का एक और उदाहरण अभी चार दिन पहले सामने आया। शिक्षा विभाग में फर्नीचर खरीदी में भ्रष्टाचार को लेकर उनके खिलाफ कोई बेनामी शिकायत मुख्यमंत्री से की गई। श्री कुमार ने इसे गंभीरता से लेते हुए मुख्यमंत्री से मांग कर डाली कि यह प्रकरण सीबीआई को सौंप दिया जाए। उन्होंने एक सही बिन्दु उठाया कि मुख्य सचिव के विरूध्द कोई छोटा अधिकारी स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच नहीं कर सकता। सोमवार को यह कॉलम लिखे जाने तक मुख्यमंत्री ने मुख्य सचिव की इस अभूतपूर्व पहल पर कोई निर्णय नहीं लिया था।
आम चर्चा है कि सुनिल कुमार के खिलाफ यह शिकायत मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य बृजमोहन अग्रवाल की प्रेरणा से की गई है। जब श्री कुमार रायपुर में जिलाधीश थे तब श्री अग्रवाल एक युवा राजनेता के तौर पर अपनी छवि बनाने के बिल्कुल प्रारंभिक चरण में थे। श्री अग्रवाल 1990 में पहली बार विधायक बने। पहली बार में ही उन्हें पटवा सरकार में राज्यमंत्री का पद मिला। इसके बाद वे सन् 1993, 98, 2003 और 2008 में लगातार विधायक निर्वाचित होते रहे। जब छत्तीसगढ़ राज्य बना तब श्री अग्रवाल की दिली ख्वाहिश विपक्ष का नेता बनने की थी। अपनी इच्छा पूरी न होने पर उन्होंने पार्टी से खुला विद्रोह भी किया और परिणाम स्वरूप कुछ समय के लिए पार्टी से निलंबित भी किए गए। वे एक लोकप्रिय और मिलनसार जनप्रतिनिधि हैं और मौका मिलने पर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की स्वाभाविक इच्छा रखते हैं। इसका परिचय उनके साथ चल रहे गाड़ियों के काफिले से मिल जाता है।
बहरहाल हमारा मकसद इन दोनों व्यक्तित्वों का चरित्र-चित्रण करना नहीं, बल्कि इस प्रसंग से उपजे प्रश्नों पर विचार करना है। सवालों की एक लंबी श्रृंखला है मसलन-
(1) छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार कैसी चल रही है (2) मंत्रियों और जनप्रतिनिधियों का आचरण कैसा है (3) राज्य की प्रशासनिक मशीनरी कितनी चुस्त-दुरूस्त है (4) प्रशासन तंत्र किसके प्रति जवाबदेह है और किस हद तक (5) प्रशासनिक अधिकारियों के मनोबल का स्तर क्या है (6) मुख्यसचिव याने प्रशासन तंत्र के मुखिया पर भ्रष्टाचार के आरोप लगना क्या मायने रखता है (7) प्रदेश के मुख्यमंत्री का कितना नियंत्रण अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों पर है (8) इसी तरह स्वयं मुख्यमंत्री की प्रदेश की प्रशासन पर कितनी पकड़ है (9)क्या इस प्रसंग और उत्तर प्रदेश के दुर्गाशक्ति नागपाल बनाम अखिलेश सरकार के बीच कोई तुलना संभव है इत्यादि इत्यादि।
अमेरिकी राजनीति में एक कहावत प्रसिध्द है 'द बक स्टॉप्स हीयर' याने अंतिम जिम्मेदारी व्हाइट हाउस के ओवल ऑफिस में बैठने वाले राष्ट्रपति की ही है, क्योंकि जनता ने उसे चुना ही इसलिए है। यह कहावत छत्तीसगढ़ प्रदेश के मुख्यमंत्री पर भी लागू होती है। वे प्रदेश के मुखिया हैं और उन्हें ही सोचना है कि उनके सबसे बड़े अफसर और उनके सबसे वरिष्ठ मंत्री के बीच चल रहे इस द्वंद्व का निराकरण कैसे हो। यहां हमें ध्यान आता है कि डॉ. रमन सिंह के सत्ता संभालने के कुछ समय बाद ही श्री कुमार स्वेच्छा से केन्द्र में प्रतिनियुक्ति पर चले गए थे। वहां उन्होंने सामान्य पांच वर्ष के बजाय सात वर्ष का समय बिताया और कठोर सेवा शर्तों के चलते अनिच्छा के बावजूद छत्तीसगढ़ लौटे। हमें यह भी ध्यान आता है कि प्रदेश के कुछ अन्य काबिल अफसर इसी तरह स्वेच्छा से प्रतिनियुक्ति पर चले गए थे। इससे एक सवाल यह भी उठता है कि क्या इस प्रदेश की राजनीतिक आबोहवा ईमानदार और काबिल अफसरों की सेहत के लिए ठीक नहीं है!
छत्तीसगढ़ में विधानसभा के लिए आम चुनाव अगले कुछ हफ्तों में सम्पन्न होना है। डॉ. रमन सिंह तीसरी बार जीतने के लिए अपनी ओर से भरपूर कोशिश में लगे हुए हैं। ऐसे मौके पर सुनिल कुमार प्रसंग उनके अपने विचार के लिए यह सवाल उठाता है कि उनके नेतृत्व में इस प्रकार की अवांछित स्थिति क्यों कर उत्पन्न हुई! हमारी सीमित जानकारी के अनुसार मुख्यमंत्री अपने मुख्य सचिव पर पूरी तरह ऐतबार करते हैं। ऐसे व्यक्ति को कमजोर करने या उसका मनोबल गिराने की कोई दुरभिसंधि होती है तो क्या ऐसा इसलिए कि मुख्य सचिव को प्रशासनतंत्र चलाने के लिए जो स्वतंत्रता मिलना चाहिए थी वह उन्हें शायद पूरी तरह नहीं मिल पाई! लेकिन फिर बात यहीं तक सीमित नहीं रह जाती। मुख्यमंत्री को आज नहीं तो कल, इस बारे में विचार करना ही पड़ेगा कि उनके शासनकाल में इस राज्य का प्रशासनतंत्र एक उत्तरदायी कार्यसंस्कृति को अपनाने से कैसे चूक गया।
यह उल्लेख करना आवश्यक है कि श्री कुमार के विरूध्द श्री अग्रवाल ने सीधे-सीधे कोई शिकायत दर्ज नहीं की है। जो कुछ है वह जनचर्चा है, लेकिन जनता यह भी देख रही है कि मुख्यमंत्री का अपने मंत्रिमंडल सहयोगियों पर नियंत्रण या तो शिथिल है या उन्होंने स्वयं होकर अपने साथियों को मनमर्जी काम करने की छूट दे रखी है। उनके एक अन्य वरिष्ठ साथी ननकीराम कंवर के जो बयान आए दिन आते हैं, वे क्या संदेश देते हैं? श्री कंवर गृहमंत्री हैं लेकिन यह विचित्र है कि उनके और पुलिस विभाग के बीच किसी न किसी कारण से तालमेल बिगड़ते रहता है। यही बात अन्य मंत्रियों और उनके विभागों के बारे में कही जा सकती है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है जैसे प्रदेश का सरकारी अमला सिवाय कदमताल के और कुछ नहीं कर रहा है।
एक ओर मुख्यमंत्री भरी धूप में प्रदेश में घूम-घूम कर जनता का विश्वास जीतने में लगे हुए हैं, तो दूसरी ओर उनके मंत्री और विधायक मानो इस मुहिम को असफल करने की ठान रखे हैं। मुझे आश्चर्य होता है कि जो मुख्यमंत्री विपक्ष का विश्वास जीतने में समर्थ हैं वह अपने ही साथियों के बीच शिथिल कैसे पड़ जाता है! इन दिनों प्रदेश में जहां भी जाओ एक मजेदार बात सुनने मिलती है। आम चर्चा में लोग कहते हैं कि डॉ. रमन सिंह को फिर से मुख्यमंत्री बनना चाहिए, लेकिन वहीं वे अपने स्थानीय भाजपा विधायक या मंत्री की पराजय की कामना करते हैं। डॉ. रमन सिंह की दूसरी पारी में इस तरह के अर्न्तविरोध उभरेंगे, कुछ समय पहले तक इसकी कल्पना शायद किसी ने न की होगी। हमने जहां से बात उठाई उसे वहीं जाकर खत्म करेंगे। यदि सुनिल कुमार जैसे व्यक्ति पर लांछन लगाए जा सकते हैं तो फिर इस राज्य का प्रशासन चलाने के लिए हमें किसी देवदूत के आने का इंतजार करना पड़ेगा।
देशबंधु में 26 सितम्बर 2013 को प्रकाशित
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