खैर! भाजपा का जो तबका नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारी घोषित करने की आवाज उठा रहा है उसका सोचना है कि पांच राज्यों में आसन्न विधानसभा चुनावों में इसका लाभ पार्टी को मिलेगा। संभव है कि इन समर्थकों के मन में यह आशंका हो कि यदि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में पार्टी जीत जाती है तो फिर श्री चौहान श्री मोदी के विरोध में ताकत के साथ खड़े हो सकते हैं। उन्हें तब लालकृष्ण आडवानी और सुषमा स्वराज का भी समर्थन मिल जाएगा। सुषमाजी अभी मध्यप्रदेश से ही सांसद हैं और उनके वहीं से दुबारा चुनाव लड़ने की संभावना है। संभव है कि श्री आडवानी भी गुजरात की गांधीनगर सीट छोड़कर अगला चुनाव शिवराज सिंह चौहान के सदाशय से लड़ना चाहते हों! यही नहीं, यदि छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा जीतती है तो यह उनकी लगातार तीसरी विजय होगी और वे नरेन्द्र मोदी के समकक्ष खड़े हो जाएंगे।
मान लीजिए कि लोकसभा चुनाव (जब भी हों) में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरती है और चुनाव पूर्व अथवा चुनाव बाद के गठबंधन का नेतृत्व करने के कारण भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाता है। ऐसे में यह सवाल भी उपस्थित होगा कि भाजपा के सहयोगी दल कौन हैं। दो कट्टरपंथी दक्षिण दल तो उसके साथ शुरू से ही हैं याने शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल। सरकार बनाने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। इस स्थिति में सपा, अन्नाद्रमुक, बीजद और तृणमूल कांग्रेस पर भाजपा की निगाहें रहेंगी। अगर नरेन्द्र मोदी को उम्मीदवार बनाने से पार्टी की सीटों में अपेक्षानुकूल बढ़ोतरी होती है तब ये सारे दल धर्म निरपेक्षता के सारे ढोंग के बावजूद अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने और सत्ता की मलाई में अपना हिस्सा झपट लेने के लिए भाजपा का साथ देने मजबूर हो जाएंगे। शायद यह विचार भी कहीं हो। लगता है कि इस तरह के गुणा-भाग पार्टी के भीतर चल रहे हैं!
हम इस पूरे प्रसंग को एक अलग नजरिए से देखते हैं। आज के परिदृश्य में भारत के सामने घर- बाहर जो भी चुनौतियां हैं क्या भारतीय जनता पार्टी सत्तारूढ़ दल होने के नाते उनका मुकाबला करने में कामयाब हो सकेगी? एक विपक्षी दल के नाते विगत दस वर्षों में भाजपा ने जो भूमिका निभाई है वह हमें इस बारे में बहुत आश्वस्त नहीं करती। यूं तो भाजपा के पास प्रदेश सरकार चलाने का पर्याप्त अनुभव है, लेकिन देश की सरकार चलाना और प्रदेश में राज करने के बीच बहुत बड़ा अंतर है। दोनों की जरूरतें एकदम अलग हैं। दोनों का मिजाज़ एकदम अलग है और दोनों में अलग-अलग तरह की नेतृत्व क्षमता चाहिए। एक राज्य में यदि कुशासन हो तो वह एक सीमित दायरे में ही होता है और पूरा देश उससे प्रभावित नहीं होता। यदि सुशासन है तब भी यही बात लागू होती है। इसे ध्यान में रखकर भाजपा को यदि एक अनुभवहीन पार्टी कहा जाए तो कोई गलत बात नहीं होगी।
इस संदर्भ में कुछ पुराने दृष्टांत ध्यान आ जाते हैं। पूर्ववर्ती केन्द्र सरकारों में ऐसे कई अवसर आए जब राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सरकार में शामिल किया गया। यशवंत राव चौहान, वीरेन्द्र पाटिल, के. हनुमंतैय्या, शरद पवार, बीजू पटनायक, मुलायम सिंह यादव, ए.के. एंटनी, अर्जुन सिंह, लालू प्रसाद, फारूख अब्दुल्ला आदि। ये कुछेक ऐसे नाम हैं जिनके पास पर्याप्त प्रशासनिक अनुभव था, जिसका लाभ केन्द्र सरकार को मिला। दूसरी तरफ महत्वपूर्ण विभागों की जिम्मेदारियां ऐसे संसद सदस्यों को भी दी गईं जिन्हें संसदीय परंपराओं, विधियों तथा सरकारी कामकाज के बारे में भरपूर ज्ञान था। ऐसे लोग जब मंत्री बने तो उन्हें अपना दायित्व निभाने में कोई खास अडचन नहीं हुई। सवाल उठता है कि वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी इस कसौटी पर कहां तक खरी उतरती है।
यूं तो सरकार का हर विभाग महत्वपूर्ण होता है (अन्यथा विभाग की जरूरत ही क्या है) फिर भी हम सबसे पहले विदेश मंत्रालय की बात करते हैं। यह ऐसा विभाग है जिसमें नीति निर्धारण में बहुत बड़ी भूमिका प्रधानमंत्री की होती है। आज के दौर में यह महत्व और भी बढ़ गया है। भारतीय जनता पार्टी में अटल बिहारी वाजपेयी संभवत: एकमात्र नेता हैं जो अंतरराष्ट्रीय मसलों को अच्छी तरह जानते- समझते थे। अपने प्रधानमंत्री काल में बृजेश मिश्र जैसे विश्वस्त कूटनयिक की सेवाएं भी उन्हें प्राप्त थीं। उनके अलावा लालकृष्ण आडवानी, यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह- ये तीन वरिष्ठ नेता विदेश नीति को समझने में समर्थ थे। दुर्भाग्य से ये तीनों इस समय हाशिए पर हैं और इन्हें मोदी विरोधी के रूप में देखा जाता है। पार्टी के भीतर जो रिटायर्ड राजदूत आदि विदेश नीति प्रकोष्ठ वगैरह देख रहे हैं वे सब एक तरह से अतिवादी विचारक हैं। वे या तो अंध अमेरिका-भक्त हैं या अंध पाकिस्तान-विरोधी। मैं नहीं समझता कि ऐसे लोगों से भारत की विदेश नीति को सही दिशा में ले चलने की कोई आशा रखनी चाहिए।
जैसा कि हम जान रहे हैं देश की अर्थव्यवस्था पर इस समय आशंका के बादल छाए हुए हैं। देश को अपनी जरूरत का अस्सी प्रतिशत तेल आयात करना पड़ता है जिसके लिए हम मुख्यरूप से मध्यपूर्व या कि पश्चिम एशिया के देशों पर निर्भर हैं। इनमें वे देश भी हैं जो हमारी डालर कमाई का भी मुख्य स्रोत हैं। पंडित नेहरू के जमाने से इन देशों के साथ हमारे सौहार्द्रपूर्ण और मैत्रीपूर्ण संबंध रहे। इजराइल को मान्यता देने पर इसमें एक अस्थायी दरार पड़ी, लेकिन अफगानिस्तान और इराक में हमारी नीति बहुत आश्वस्तकारी नहीं रही। बाबरी मस्जिद ढहाने और गुजरात के दंगों का असर भी इन संबंधों पर पड़ा। अभी ईरान और सीरिया के मामले में भारत बहुत नापतौल कर अपनी भूमिका निभा रहा है। यह कल्पना ही की जा सकती है कि यदि भाजपा का प्रधानमंत्री बना और उसका नाम नरेन्द्र मोदी हुआ तो इन देशों के साथ हमारे संबंधों की नई तस्वीर क्या बनेगी!
इस तरह की शंका भारत की प्रतिरक्षा नीति के बारे में भी उठती है। अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में भारत ने 11 मई, 1998 को परमाणु परीक्षण किया। लाठी लेकर जुलूस में चलने वाले स्वयंसेवक गर्व से फूले नहीं समाए कि अब हमारे पास एटम बम आ गया है। लेकिन इससे आखिरकार क्या हासिल हुआ? एक हफ्ता बीतते न बीतते पाकिस्तान ने भी परमाणु परीक्षण कर बता दिया कि वह दबने वाला नहीं है। इसके बाद कारगिल युध्द हुआ और शुक्र है कि अणुबम अपने तहखानों में बंद रहे आए। 13 दिसंबर, 2001 को भारतीय संसद पर हमले के बाद वाजपेयी सरकार ने ऑपरेशन पराक्रम चालू किया। एक साल तक लगभग एक लाख सैनिक उत्तर से दक्षिण तक पश्चिमी सीमांत पर तैनात रहे आए। एक डर बना रहा कि कहीं युध्द न हो जाए। श्री वाजपेयी के कार्यकाल के ये दो प्रसंग प्रतिपादित करते हैं कि बाहरी आक्रमण से देश को बचाना एक नाजुक संतुलन की मांग करता है न कि उन्माद की। एक क्षण के लिए सोचिए कि ममता बनर्जी बंगलादेश के साथ संबंध मधुर बनाने में जो बाधा डाल रही हैं उससे शेख हसीना जैसे भारत मित्र नेता के साथ-साथ स्वयं हमारे देश को क्या नुकसान हो सकता है। अर्थनीति, गृहनीति, शिक्षानीति आदि के बारे में भी अभी बहुत सी बातें कहना बाकी हैं। अपने पाठकों को मैं इतना ही स्मरण कराना चाहता हूं कि आम चुनाव इस या उस पार्टी को जिताने अथवा इस या उस नेता को प्रधानमंत्री बनाने के लिए नहीं, बल्कि देश को आगे ले जाने के लिए किए जाते हैं।
देशबंधु में 5 अप्रैल 2013 को प्रकाशित
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