इस पृष्ठभूमि को देखते हुए सरसंघचालक मोहन भागवत व अन्य शीर्ष नेताओं का भाजपा के पक्ष में सीधे-सीधे खड़े हो जाना व उसकी चुनावी रणनीति में सीधी व सक्रिय भूमिका निभाने का एक अर्थ तो शायद यही निकलता है कि पिछले साठ-सत्तर साल में संघ ने बड़ी मेहनत से राजनीति के दलदल से ऊपर रहने की अपनी जो छवि बनाने की एक हद तक सफल कोशिश की थी वह एक झटके में निष्फल हो गई है। आज की तारीख में संघ और भाजपा अब इस तरह गड्ड-मड्ड हो गए हैं कि उन्हें अलग करके नहीं देखा जा सकता। जो कांग्रेसी और लोहिया समाजवादी आज तक संघ को गैर-राजनीतिक होने का प्रमाणपत्र देते आए हैं, उनके विचार इस नई स्थिति में बदलेंगे या नहीं, कहना कठिन है। हमें यह भी ध्यान आता है कि भारत के बहुत से कारपोरेट घराने संघ के आनुषंगिक संगठनों के विभिन्न प्रकल्पों को मुक्तहस्त से दान देते आए हैं। उनमें बहुत से तो संघ की विचारधारा से प्रेरित हैं, लेकिन वे घराने जिनका दृष्टिकोण उदारवादी माना जाता रहा है, उन्हें शायद अब कहीं पुनर्विचार करने की आवश्यकता होगी!
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी का प्रायोजन और सक्रिय समर्थन इस ओर इशारा करता है कि संघ भाजपा को एक आधुनिक, अनुदार, पूंजीवादी राजनीतिक दल के रूप में विकसित होते देखने की बजाय उसके मूल चरित्र की ओर वापिस ले जाना चाहता है, जिसकी नींव 1952 में श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने रखी थी। इसका यह संदेश भी है कि संघ और भाजपा के भीतर एक नए आत्मविश्वास का संचार हुआ है। इतिहास और भूगोल के किसी अध्याय में हम नरभक्षी कबीलों के किस्से सुनते थे। आज कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी के इस दौर में भी ''कैनिबॉलिज् म'' संज्ञा प्रचलित है। एक मशीन का कोई पुर्जा खराब हो जाए तो दूसरी मशीन का पुर्जा निकाल कर पहली मशीन को ठीक कर लिया जाता है और अंतत: दूसरी मशीन धीरे-धीरे ठिकाने लग जाती है। डॉ. लोहिया ने जब गैरकांग्रेसवाद का नारा दिया था, तब मालूम नहीं उन्होंने इस बारे में सोचा था कि नहीं कि कांग्रेस-विरोध के नाम पर जनसंघ नामक पार्टी धीरे-धीरे बाकी पार्टियों के कलपुर्जों को चतुराई से छीन लेगी और वे पार्टियां नष्ट होने के लिए अपने हाल पर छोड़ दी जाएंगी। 1967 में संविद सरकारों के दौर में यही हुआ, 1977 में जनता पार्टी के राज में भी यही देखने मिला और 1996 के बाद भी यही सब चलता रहा। डॉ. लोहिया ने अपने समय में स्वयं पार्टियां बनाईं और बिगाड़ीं, लेकिन उनके वारिसों की पार्टियों का हाल और भी बुरा हुआ। सब के सब छोटे-मोटे समझौते कर अपने आपको अप्रासंगिक होने से बचाते फिर रहे हैं।
जॉर्ज फर्नांडीज्, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, लालूप्रसाद, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार, अजीत सिंह इनके बारे में क्या कहा जाए, इन सबका इतिहास जनता के सामने है। इनके संगी- साथी ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, जयललिता आदि हैं: इन्हें भी अपनी या अपनी रियासतों की चिंता है। कुल मिलाकर पिछले पचास साल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी राजनीतिक भुजा याने भाजपा को धीरे-धीरे कर दूसरों की कीमत पर इस तरह पुष्ट किया है कि अब वह किसी भी दिन भारत के संविधान को धता बताते हुए अपने तीन सूत्रीय कार्यक्रम पर अमल करने के मंतव्य को खुलेआम घोषित कर सकती है। जो राजनीतिक अध्येता अंधकांग्रेस-विरोधी नहीं हैं वे इस बात को शुरू से जानते रहे हैं कि भाजपा ने अपने एजेंडा में धारा-370 समाप्त करने, समान कोड बिल लाने और अयोध्या में राममंदिर बनाने के जिन तीन बिंदुओं को स्थगित कर रखा है, वह सिर्फ उस दिन तक के लिए जब तक कि केन्द्र में उनकी अपनी सरकार नहीं बन जाती। यह भारतीय राजनीति की विडंबना है कि भाजपा के इस मनोगत की कांग्रेस-विरोधी दलों ने जानबूझ कर क्षणिक सत्तासुख के लिए अनदेखी की। वे अपने आपको भरमाते रहे कि भाजपा का शासन में आना या बने रहना उनकी दया पर निर्भर है। आज भी उनका यह भ्रम पूरी तरह से टूटा है कहा नहीं जा सकता। आशय यह कि संघ ने मोदी के माध्यम से यह दांव लगाया है कि अबकी अगर भाजपा सरकार में आती है तो रुके हुए एजेंडे को लागू करने में उसे सफलता मिल जाएगी।
मेरे मन में एक और विचार यहां उठता है। विगत दो वर्षों से देश का इलेक्ट्रानिक मीडिया बार-बार यूपीए-2 में व्याप्त भ्रष्टाचार का मुद्दा इस तरह से उठाते रहा है, जैसे कि देश के सामने अन्य कोई मुद्दा है ही नहीं। जब 1989 में वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री बने थे तब उनका भी मूलमंत्र यही था। यह हमने देखा कि अपनी स्वच्छ छवि के बावजूद श्री सिंह इस बारे में कोई भी प्रभावी कदम नहीं उठा सके। सार्वजनिक जीवन में शुचिता राजनीति के लिए एक अनिवार्य शर्त होना चाहिए। यह एक आदर्श स्थिति होगी। इसका व्यवहारिक पक्ष यह है कि राजनेता पक्ष में हों या विपक्ष में, उन्हें धनराशि की आवश्यकता पड़ती ही पड़ती है। इसमें ईमानदार वही है जो प्राप्त धनराशि का इस्तेमाल खुद के लिए न कर पार्टी फंड और चुनाव फंड के लिए करता है तथा बेईमान वह है जो नौकरशाही के जरिए वसूली करता है एवं पार्टी फंड में पैसा जमा करने के बजाय उससे अपना घर भरता है। छत्तीसगढ़ के एक अत्यन्त सम्मानीय वरिष्ठ राजनेता ने एक बार मुझे कहा- ''मैं साधु नहीं हूं, साधु होता तो हिमालय में जाकर तपस्या करता, चुनाव नहीं लडता।'' हमारे इस राजनेता की व्यक्तिगत छवि पर कहीं रत्तीभर भी दाग नहीं है। आशय यह कि पिछले दिनों जो भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए, उनका उद्देश्य जनता का ध्यान मुख्य मुद्दों से भटकाना था। जिन कारपोरेट घराने का इस देश में मीडिया पर लगभग अस्सी प्रतिशत नियंत्रण हैं और जो स्वयं सत्ताधीशों को थैलियां देने के दोषी हैं वे ही देश में कांग्रेस को हटाकर एक नई व्यवस्था लाना चाहते हैं। जिन्होंने इतिहास पढ़ा है वे जानते हैं कि हिटलर के अभ्युदय में जर्मनी के औद्योगिक घरानों का बहुत बड़ा योगदान था। यह पूंजीवाद की फितरत है कि उसे तानाशाह, निरंकुश शासन और एकचालकानुवर्ति व्यवस्था ही मुफीद आती है।
देशबंधु में 19 सितम्बर 2013 को प्रकाशित
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