Thursday, 28 November 2013

तेजपाल और केजरीवाल





"संसार
 में सबसे अधिक दंडनीय वह व्यक्ति है जिसने यथार्थ के कुत्सित पक्ष को एकत्र कर नरक का आविष्कार कर डाला, क्योंकि उस चित्र ने मनुष्य की सारी बर्बरता को चुन-चुनकर ऐसे ब्यौरेवार प्रदर्शित किया है कि जीवन के कोने-कोने में नरक गढ़ा जाने लगा।  इसके उपरांत उसे यथार्थ के अकेले सुखपक्ष को पुंजीभूत कर इस तरह सजाना पड़ा कि मनुष्य उसे खोजने के लिए जीवन को छिन्न-भिन्न करने लगा।''

भारत की अग्रणी लेखिका महादेवी वर्मा ने आज से लगभग अस्सी वर्ष पूर्व अपने कविता संकलन दीपशिखा में आत्मकथ्य लिखते हुए उपरोक्त विचार प्रकट किए थे। उन्होंने भले ही अपनी बात साहित्य और कला के संदर्भ में की हो, लेकिन आज भारत का मीडिया चुन-चुनकर जिस तरह की खबरें परोस रहा है, उसमें इन विचारों की प्रासंगिकता अपने आप स्पष्ट हो जाती है।

पिछले आठ-दस दिन से मीडिया पर एक तरफ तरुण तेजपाल और दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल और उनकी 'आम आदमी पार्टी' से संबंधित खबरें छायी हुई हैं। इनके बारे में सोचते हुए एकाएक मेरा ध्यान महादेवीजी के कथन की ओर तो गया ही, कोई आठ-नौ वर्ष पहले मैंने स्वयं भंडाफोड़ करने वाली पत्रकारिता पर जो दो लेख लिखे थे उनका भी स्मरण हो आया। याद करें कि वर्तमान समय में इस तरह की पत्रकारिता तरुण तेजपाल ने ही तहलका के माध्यम से प्रारंभ की थी। उन्होंने बंगारू लक्ष्मण व जार्ज फर्नाडीज आदि को लेकर जो स्टिंग ऑपरेशन किए थे उनकी खूब चर्चा हुई थी और देश में उन्हें बड़े पैमाने पर वाहवाही हासिल हुई थी। लेकिन मेरा तब भी मानना था कि यह तौर-तरीका पत्रकारिता के लिए ठीक नहीं है। दोनों लेखों- ''बिच्छू का डंक मार्का पत्रकारिता'' (विदुर अप्रैल-जून 2005 में प्रकाशित) तथा ''पत्रकारिता में बिच्छू, मकड़ी और ततैया'' (देशबन्धु में 22 दिसंबर 2005 को प्रकाशित) में बिना किसी लाग-लपेट के यह बात कही थी। जाहिर है कि मैं उस समय अल्पमत में था और शायद आज भी हूं।

मेरी कुछ ऐसी ही राय अरविंद केजरीवाल की राजनीति के बारे में है। यदि तरुण तेजपाल का दावा पत्रकारिता के माध्यम से सार्वजनिक जीवन में व्याप्त मलिनता को दूर करने का था तो श्री केजरीवाल देश की राजनीति को साफ-स्वच्छ करने का बीड़ा उठाकर मैदान में उतरे थे। उन्होंने पहले अन्ना हजारे एवं अन्य कई लोगों के साथ मिलकर आंदोलन  किया और फिर बाहर से सफाई करते-करते सक्रिय राजनीति में प्रवेश कर अपने आपको विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर दिया। एक समय था जब अन्ना और अरविंद की जोड़ी पर देश का एक वर्ग मुग्ध हो उठा था। अन्ना के नेपथ्य में चले जाने के बाद अरविंद केजरीवाल को प्रकाश स्तंभ के रूप में देखने वालों की कमी नहीं थी। लेकिन हमें न तो उनके लोकपाल आंदोलन से कोई आशा थी और न उनकी आज की राजनीति से। हमारी राय में वे तब भी जन-भावनाओं से खेल रहे थे और आज भी उनकी यही स्थिति है।

तरुण तेजपाल की पत्रकारिता और अरविंद केजरीवाल की राजनीति दोनों का आधार, दिशा और मंतव्य एक जैसे ही थे। उनका मकसद ऐसे लोगों पर कीचड़ उछालना और आरोप लगाना था जो सार्वजनिक जीवन में किसी महत्वपूर्ण स्थान पर हों। यह पूरी तरह से व्यक्ति केन्द्रित कार्रवाई थी और सिध्दांत के नाम पर यत्र-तत्र भ्रष्टाचार उजागर करने तक सीमित थी। उन्होंने  अपनी ओर से जो बातें उजागर कीं उनमें सत्य का अंश रहा होगा, लेकिन जिस तरह दीवाली की रात फुलझड़ी जलाने से सारी रातें रोशन नहीं हो जातीं, उसी तरह ऐसे चुन-चुनकर लगाए गए आरोपों से भी सार्वजनिक जीवन में स्थायी रूप से शुचिता नहीं लाई जा सकती। होता है तो सिर्फ इतना कि कुछ लोगों का सार्वजनिक जीवन ऐसे आरोपों के घेरे में आकर समाप्त हो जाता है। इसके आगे उनकी कोई उपयोगिता नहीं है।

दरअसल भारत का सुविधाभोगी समाज ऐसी प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है। यह वह वर्ग है जिसे अपने लिए जीवन की सारी नेमतें चाहिए। इसके लिए वह समझौते भी करता है। इस वर्ग को बीच-बीच में प्रायश्चित बोध होता है तब वह किसी मसीहा  की तलाश करता है, जो एक ऐसी नई व्यवस्था लागू कर दे जिसमें सुविधाभोगी समाज को बिना समझौते किए, बिना अपने मन पर बोझ लादे, आराम से वह सब कुछ हासिल हो सके जिसकी उसने ख्वाहिश की हो। भारत में आर्थिक उदारवाद आने के बाद से यह भावना कुछ यादा ही तेजी से पनपी। ऐसा शायद माना जा सकता है कि टी.एन. शेषन इन तथाकथित मसीहाओं के आदि देव थे। किन्तु एक समय आता है जब ये खुद अपने ही बनाए हुए जाल में फंस जाते हैं और इनकी प्रतिमा खंडित हो जाती है। टी.एन. शेषन से लेकर तेजपाल और केजरीवाल तक यही हुआ है।

फिलहाल श्री केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी ''मीडिया सरकार'' नामक पोर्टल के द्वारा किए गए स्टिंग ऑपरेशन के चलते कुछ परेशानी में पड़ गई है। अब वे और उनके साथी खुद ही अपनी जांच कर खुद को पाक-साफ होने का प्रमाणपत्र दे रहे हैं। वे इसके लिए अन्य राजनीतिक दलों को जिम्मेदार भी ठहरा रहे हैं। देखा जा सकता है कि जो कडवी दवा वे दूसरों को पिलाना चाहते थे अब उनके हलक में आकर बेचैनी पैदा कर रही है। उधर तरुण तेजपाल अपने पहले स्टिंग ऑपरेशन के बाद कुछ समय के लिए दृश्य से ओझल हो गए थे। लेकिन देखते न देखते वे वापिस लौटे और मीडिया में एक बड़ी ताकत बनकर उभरे। राष्ट्रीय स्तर पर श्री तेजपाल की छवि उदारवादी विचारधारा के एक दु:साहसी प्रवक्ता के रूप में बनी। आश्चर्यजनक रूप से यह सवाल किसी ने नहीं उठाया कि इतने कम समय में इतने बड़े पैमाने पर उद्यम खड़ा करने के लिए उन्हें धनराशि कहां से मुहैया हुई! आज जब उनका निजी जीवन शोचनीय विवादों के घेरे में है, तब उनके धन के स्रोतों व व्यवसायिक  गतिविधियों के बारे में नए-नए खुलासे हो रहे हैं। एक तरफ जहां देश में उन्हें उदारवादी माना जाता है, वहीं छत्तीसगढ़ में उन्होंने जिनको तहलका की फ्रेंचाइजी दी है उनका संबंध भाजपा से होने की चर्चा यहां के मीडियाकर्मियों में हुई है।

इससे हमें फिलहाल सरोकार नहीं है कि श्री केजरीवाल और उनकी पार्टी का चुनावों में क्या हश्र होता है। श्री तेजपाल के अपनी महिला सहकर्मी के साथ यौन प्रताड़ना के मामले में अंतत: क्या होगा, इसके बारे में भी हम कोई अनुमान नहीं लगाना चाहते। लेकिन इन दोनाें प्रकरणों को लेकर कुछ बुनियादी सवाल उठाना जरूरी हैं। इन दिनों कुछ ऐसा माहौल बन गया हैं मानो देश में घोटालों और स्कैण्डलों के अलावा कुछ होता ही नहीं है। राजनीति को देखें तो वहां विचारों को जैसे भुला ही दिया गया है; अब बात होती है तो सिर्फ व्यक्तियों की और उसमें भी किसी भी तरह की मर्यादा का पालन करना जरूरी नहीं समझा जाता। पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनावों के इस दौर में यह प्रवृत्ति बार-बार देखने आई है। इसमें वह पार्टी सबसे आगे है जो कल तक चाल, चेहरा और चरित्र की बात करती थी। सोचकर ही दहशत होती है कि अभी यह हाल है तो लोकसभा चुनावों के समय क्या नजारा बनेगा!

अफवाहों, अर्ध्दसत्यों एवं गैरजरूरी  मुद्दों को खबरों व बहसों के केन्द्र में लाकर मीडिया अपनी पीठ थपथपा सकता है, थपथपा रहा है, लेकिन उसे इस सच्चाई का अहसास नहीं है कि इस रास्ते पर चलकर वह खुद अपनी विश्वसनीयता किस तरह खो रहा है। एक दौर था जब अखबारों को उनके संपादकों के नाम से जाना जाता था और वे स्वयं अखबार में जो लिखते थे उसे पाठक गंभीरतापूर्वक पढ़ते थे।  अब कुछेक अपवादों को छोड़कर संपादक नाम की संस्था ही विलुप्त हो चुकी है। चैनलों के जो संपादक हैं उनके विचारों का उथलापन तो तुरंत ही प्रकट हो जाता है। पूंजीमुखी राजनीति से संचालित मीडिया और पूंजीवादी मीडिया से संचालित राजनीति- यह आज की पीड़ादायक वास्तविकता है।

 देशबंधु में 28 नवंबर 2013 को प्रकाशित 

Wednesday, 20 November 2013

अब नतीजों का इंतजार




छत्तीसगढ़ में 19 नवंबर को दूसरे चरण की 72 सीटों पर मतदान के साथ विधानसभा चुनाव का बड़ा हिस्सा सम्पन्न हो गया। अब इंतजार है अन्य चार राज्यों  में मतदान का और फिर 8 दिसंबर को नतीजों का। अंतत: परिणाम क्या निकलते हैं, इसे लेकर 11 तारीख को हुए पहले चरण के मतदान के साथ ही कयास लगना प्रारंभ हो गए हैं।  यह उधेड़बुन  चलती रहेगी। अभी शायद इस बात पर गौर किया जा सकता है कि छत्तीसगढ़ में चुनावी माहौल कुल मिलाकर कैसा था। सबसे पहले ख्याल आता है कि 2013 के चुनाव न सिर्फ शांतिपूर्वक सम्पन्न हुए बल्कि चुनाव आयोग का काम भी बीते अवसरों की अपेक्षा कहीं ज्यादा सुचारु व व्यवस्थित था। भारत निर्वाचन आयोग ने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई है।  छत्तीसगढ़ के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी सुनील कुजूर एवं उनके साथ चुनाव कार्य में लगे तमाम लोग मतदाताओं से बधाई पाने के हकदार हैं।

इस बार जनता ने मतदान में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया है। पहले चरण में बस्तर व राजनांदगांव में जो भारी मतदान हुआ वह चकित करता है। ऐसा बहुत लोगों का मानना है कि चुनाव आयोग ने जिस मेहनत से घर-घर तक मतदाता पर्चियां पहुंचाईं व मतदाताओं को जागरूक करने के लिए नए-नए उपाय किए उसका अनुकूल प्रभाव हुआ है। इसके अलावा यह भी लगता है कि स्वयं मतदाताओं में किसी न किसी कारण से चुनावी प्रक्रिया के प्रति एक नए उत्साह का संचार हुआ है।  इसका विश्लेषण राजनीति के पंडित आगे-पीछे करेंगे ही। बस्तर में हो सकता है कि एक अन्य कारण से भी भारी मतदान हुआ हो। पिछले दो-तीन चुनावों में नक्सलियों ने चुनाव बहिष्कार का ऐलान किया था, जिसे मानने के अलावा और कोई विकल्प एक बड़े इलाके में नहीं था। इस  बार नक्सलियों ने एक सीमित क्षेत्र में ही मतदान का बहिष्कार करवाया और कहीं यह संभावना उभरती है कि नक्सलियों की अनुमति से ही आदिवासी मतदाता अपने अधिकार का इस्तेमाल करने का अवसर पा सके । यह विश्लेषण का विषय है कि नक्सलियों ने अपनी नीति में परिवर्तन क्यों किया!

यह वर्ष छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के लिए तूफानी यात्राओं का साल रहा है। छत्तीसगढ़ में भाजपा के पास उनका कोई विकल्प नहीं है। मुख्यमंत्री होने के नाते उन पर जिम्मेदारी भी भारी है। पहले वे ग्राम स्वराज में भरी गर्मी में पूरे प्रदेश में घूमे और फिर चुनाव प्रचार में भी उन्हें चारों तरफ दौड़ लगानी पड़ी। अपने निर्वाचन क्षेत्र राजनांदगांव में भी वे वोटिंग के दिन पूरा समय नहीं दे सके। यह रोचक तथ्य है कि भाजपा ने जब चुनाव प्रचार शुरू किया तो शुरूआत में सिर्फ रमन सिंह की तस्वीर सामने थी। कुछ दिनों बाद एकाएक नरेन्द्र मोदी को भी प्रचार सामग्री में उनके बराबर महत्व देने की जरूरत जाने क्यों आन पड़ी!  शुरुआती रिपोर्टों में स्वतंत्र पर्यवेक्षकों का मानना था कि यहां मोदी को कोई नहीं जानता। इसके बाद भी श्री मोदी का रोपा लगाने के यत्न यहां किए गए। क्या इसलिए कि लोकसभा चुनावों तक फसल कटने लायक हो जाएगी?

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष चरणदास महंत ने भी मेहनत करने में कोई कमी नहीं की।  वे जब पहली बार अध्यक्ष बने थे तभी इतनी स्फूर्ति दिखलाते तो यह उनके और कांग्रेस दोनों के हित में होता। बहरहाल नंदकुमार पटेल की शहादत के बाद उन्हें जब जिम्मेदारी मिली तो आधे अधूरे मन से काम शुरू कर धीरे-धीरे उन्होंने स्वयं को चुनावी चुनौती झेलने के लिए तैयार किया। उन्होंने दौरे कितने किए, यह तो मुझे ठीक से पता नहीं, किन्तु अपनी पत्रवार्ताओं में उन्होंने बीजेपी पर काफी प्रभावी ढंग से तथ्यों और तर्कों के साथ आक्रमण किए। यह नोट किया जाना चाहिए कि उनके बहुत से वरिष्ठ साथी चुनावी लड़ाई में फंसे हुए थे और वे अपना चुनाव क्षेत्र छोड़कर श्री महंत का साथ देने की स्थिति में नहीं थे।

ऐसे में कांग्रेस के चुनाव अभियान को गति देने में श्री महंत का साथ दिया पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने। अगर भाजपा सिर्फ डॉ. रमन सिंह से आस लगाए बैठी थी तो कांग्रेस को एक तरफ से महंत और दूसरी तरफ से जोगी संभाल रहे थे। मजे की बात यह है कि भाजपा के चुनावी संचालकों ने श्री महंत के बजाय श्री जोगी पर ही निशाना साधने की रणनीति पर काम किया। मतदाताओं के मन में श्री जोगी के खिलाफ खौफ पैदा करने के हर संभव प्रयत्न किए गए। ऐसी चर्चाएं आम तौर पर हुईं कि कांग्रेस जीती तो वे मुख्यमंत्री बनेंगे और आतंक का राज आ जाएगा। बहुत से जोगी विरोधी कांग्रेसियों ने भी इस तरह के अफवाहों को फैलाने में अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। यह शोध का विषय हो सकता है कि दस साल सत्ता से बाहर व व्हील चेयर पर रहने के बावजूद श्री जोगी का ऐसा दबदबा कैसे कायम है!

जैसा कि दस्तूर है चुनाव प्रचार करने के लिए प्रदेश के बाहर से बड़े-बड़े लोग यहां आए। कांग्रेस की ओर से डॉ. मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी व राहुल गांधी तो भाजपा से लालकृष्ण आडवानी, राजनाथ सिंह व नरेन्द्र मोदी। श्री मोदी ने पहले चक्कर में तीन जगह सभाएं लीं। कांकेर की सभा में बमुश्किल तमाम ढाई हजार लोग थे और जगदलपुर में छह हजार। उसी दिन कोण्डागांव में सोनिया गांधी की सभा में पच्चीस हजार से अधिक की उपस्थिति थी। श्री मोदी के दूसरे चक्कर में ताबड़तोड़ नौ सभाएं थीं जिसमें दुर्ग, रायपुर व रायगढ़ में उपस्थिति उत्साहजनक थी, लेकिन अगले दिन राहुल गांधी के सभाओं के आगे मोदीजी फीके पड़ गए। ऐसा क्यों हुआ? क्या इसलिए कि मोदीजी की जुमलेबाजी को लोग अब पसंद नहीं कर रहे हैं? क्या इसलिए कि छत्तीसगढ़ में वाकई उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं है? क्या इसलिए कि जीरम घाटी की शहादत को प्रदेश की जनता भूली नहीं है? बहरहाल, इनके अलावा और जो भी बाहरी नेता यहां आए उनके प्रति जनता में कोई आकर्षण नहीं था। राजनाथ सिंह, दिग्विजय सिंह, हेमा मालिनी, राजब्बर, यहां तक कि लालकृष्ण आडवानी की सभाएं बहुत छोटी और फीकी रहीं।

इन दिनों एक नया चलन चला है कि मुद्दों की बात करके नहीं, बल्कि खैरात बांटकर जनता को खुश करो। कांग्रेस व भाजपा दोनों के घोषणा पत्रों में मोटे तौर पर यही बात देखने में आई। सरकार विपन्न लोगों को मुफ्त में अनाज दे बात समझ में आती है, लेकिन क्या कोई भी सरकार अनंत काल तक पचहत्तर प्रतिशत आबादी को मुफ्त अनाज, बिजली, पानी इत्यादि दे सकती है? यह एक अहम् सैध्दांतिक मसला है, जिस पर आगे बात करना जरूरी है। फिलहाल हमारा मानना है कि दोनों बड़ी पार्टियों के घोषणा पत्र में शायद ही ऐसा कुछ है जो प्रदेश को प्रगति की नई मंजिल की ओर ले जाने में सहायक हो। नक्सल समस्या, बेरोजगारी, जंगलों की कटाई, खनिजों का दोहन, लघु वनोपज का प्रसंस्करण, बेहतर शिक्षा, बेहतर चिकित्सा, प्रदूषण से बचाव इत्यादि गंभीर मुद्दों पर सिर्फ ऊपरी-ऊपरी बातें की गईं। इससे यह आशंका उत्पन्न होती है कि सरकार चाहे जिसकी आए, मामला वही ढाक के तीन पात वाला रह जाएगा।

हर बार की तरह इस बार भी मतदाताओं को भांति-भांति के प्रलोभन देने के किस्से लगातार सामने आए। चुनाव आयोग ने अपनी ओर से काफी सावधानी बरती, काफी कड़े उपाय किए। रुपयों से भरे बैग, कंबल, क्रिकेट किट, शराब की पेटियां आदि सामान बड़ी मात्रा में जब्त हुए। किन्तु आयोग को इस दिशा में पूरी तौर पर सफलता नहीं मिल पाई। आखिरी रात तक पैसा-शराब बंटने का काम चलता रहा। इसमें कई जगह पुलिस या अन्य एजेंसियों की भूमिका पर संदेह भी किया गया। हमें लगता है कि मतदाता बहती गंगा में हाथ धोने में कोई बुराई नहीं देखता, लेकिन ऐसा भी नहीं कि वह अपना वोट इस तरह से बेच देता हो। यह अकाटय सत्य है भारत के मतदाता ने प्रलोभनों के बावजूद अतीत में बार-बार सरकारों को बदला है। विश्वास है कि चुनावी नतीजे एक बार फिर मतदाता के विवेक को प्रमाणित करेंगे।



देशबंधु में 21 नवम्बर 2013 को प्रकाशित








Wednesday, 13 November 2013

स्वच्छ प्रशासन की चिंता-2



सर्वोच्च न्यायालय ने अभी हाल में टीएसआर सुब्रह्मण्यम और 83 अन्य की जनहित याचिका पर प्रशासनिक सेवाओं के बारे में जो निर्देश दिए हैं उनमें एक यह भी है कि  प्रशासनिक अधिकारी मंत्री के मौखिक आदेश पर कोई काम न करें। इस निर्देश की जरूरत क्यों पड़ी? इससे यह प्रतिध्वनित होता है कि मंत्रीगण मनमाने आदेश करते हैं और अधिकारी आंख मूंदकर उनका पालन करते हैं। यह कोई राजशाही या तानाशाही का जमाना तो है नहीं कि अधिकारी सिर झुकाकर राजनेता की हर बात मान ले। मंत्री अगर अधिकारी से नाखुश है तो वह मुख्यमंत्री से शिकायत कर सकता है और मुख्यमंत्री के पास ज्यादा से ज्यादा ऐसे अधिकारी के तबादला करने का  ही अधिकार  है। बीच-बीच में अधिकारियों के निलंबित करने के प्रकरण भी हुए हैं, लेकिन वैसा सामान्यत: नहीं होता।  ध्यान रहे कि हम यह चर्चा उच्च प्रशासनिक अधिकारियों विशेषकर आईएएस इत्यादि के संबंध में कर रहे हैं।  जिनका चयन संघ लोक सेवा आयोग द्वारा किया जाता है। कुछ माह पूर्व ही उत्तर प्रदेश की आईएएस अधिकारी दुर्गाशक्ति नागपाल के प्रकरण में हमने देखा कि अखिलेश सरकार को निलंबन आदेश वापिस लेना पड़ा।

राज्य सेवा के कर्मचारियों की स्थिति इतनी सुरक्षित नहीं है।  उनकी नियुक्ति पदस्थापना और तबादले आदि में लेन-देन का जो खेल चलता है उससे सब वाकिफ हैं।  इसके बावजूद ऐसा कम ही देखने में आया है कि  शक्ति-सम्पन्न अधिकारी ने अपने किसी मातहत पर होने वाले अन्याय या अत्याचार को रोकने में कभी कोई रुचि दिखाई हो।  यहां तक कि राज्य सेवा के जो अधिकारी प्रमोशन पाकर आईएएस संवर्ग में आ जाते हैं उन्हें भी अपनी बिरादरी का नहीं समझा जाता। एक तरह की वर्णव्यवस्था देश के प्रशासन तंत्र में प्रारंभ से ही चली आ रही है। इसे दूर करने में किसी की भी दिलचस्पी नहीं है। इस दृष्टि से देखें तो श्री सुब्रह्मण्यम की याचिका भी शक्ति-सम्पन्न अधिकारियों के लिए कवच की मांग है। जो अधीनस्थ कर्मचारी हैं उनका जो होना हो सो हो। अब यह इन ऊंचे लोगों को ही सोचना चाहिए कि अपने लिए एक ''गेटेड कम्युनिटी'' बनाकर वे कब तक सुरक्षित रह सकते हैं।


फिलहाल हम याचिका के संदर्भ में दिए गए निर्णय की बात करें तो यह बात अटपटी लगती है कि सर्वोच्च न्यायालय को कार्यपालिका के आंतरिक तंत्र में हस्तक्षेप करने की जरूरत पड़े। मंत्री और उसके सचिव के बीच में ऐसा द्वंद्व उपस्थित ही क्यों होना चाहिए? जैसा कि हम समझते हैं, जनतांत्रिक व्यवस्था में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार मंत्री के पास है, क्योंकि वह जनता का चुना हुआ प्रतिनिधि है।  सिध्दांत रूप में माना जा सकता है कि उसके निर्णयों में जनाकांक्षा प्रतिबिंबित होती है। सचिव की नियुक्ति निर्वाचित सरकार करती है, वह एक वेतनभोगी कर्मचारी है। उसका दायित्व है कि अपने ज्ञान, अनुभव व विशेषज्ञता के आधार पर वह समीचीन राय दे ताकि मंत्री युक्तियुक्त निर्णय ले सके।  ऐसा होने में क्या अड़चन पेश आ रही है?


मैं आज फिर दो किस्से सुनाकर अपनी बात स्पष्ट करना चाहता हूं।  अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उनके समय में एक जुमला खासा प्रचलित हो गया था- ''समस्त नियमों को शिथिल करते हुए''। यह उनके काम करने का अपना अंदाज था।  कोई भी प्रकरण हो, सचिव को पूरी छूट थी कि वह बेबाकी से अपनी राय रखे।  श्री सिंह जब सचिव की राय या स्थापित नियमों के खिलाफ जाकर निर्णय लेते थे तो फाइल में अपने हाथों से लिख देते थे कि यह काम किया जाना है।  इसका अर्थ यह हुआ कि वे मुख्यमंत्री होने के नाते अपनी निजी जिम्मेदारी पर निर्णय लेते थे।  अधिकारी के कंधे पर रखकर बंदूक उन्होंने कभी नहीं चलाई।  उन्हीं से जुड़ा एक अन्य प्रसंग है। दुर्ग जिले के एक प्रभावी नेता के कहने  से उन्होंने तत्कालीन जिलाधीश हर्षमंदर का तबादला कर दिया। मैंने उनसे पूछा कि ऐसे  लोकप्रिय और स्वच्छ छवि के अधिकारी को उन्हें क्यों हटाया। उन्होंने बड़ी सरलता से उत्तर दिया- ''वे जनप्रतिनिधियों के खिलाफ कार्रवाई कर रहे थे। मुझे काँफिडेंस में लेकर काम करते तो यह स्थिति नहीं आती।'' बात समझ में आई कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि का सम्मान बरकरार रखकर ही निर्णय लेना चाहिए था।


एक अन्य प्रसंग 1967-68 के मध्यप्रदेश का है। गोविन्द नारायण सिंह संविद सरकार के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने डॉ. रामचंद्र सिंहदेव को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया तथा कोई सत्रह-अठारह विभाग उन्हें सौंप दिए।  सिंहदेवजी ने कहा कि इतना सारा काम मैं कैसे संभालूं। मुख्यमंत्री का जवाब था कि आपके पास अच्छे अधिकारी हैं। उनकी बात सुनिए, समझिए और आपको भरोसा हो तो उनकी लाई फाइल पर दस्तखत कर दीजिए।''  इसके साथ उन्होंने अपने  युवा (तब) मंत्री को आगाह भी किया कि कभी भी सचिव पर अपनी मनमर्जी की टीप लिखने का दबाव मत डालिए।  सचिव का काम सलाह देना और मंत्री का काम फैसला लेना है।  उपरोक्त प्रसंगों का आकलन करें तो समझ आ जाता है कि देश के प्रशासन तंत्र में गिरावट क्यों आई है।


सर्वश्री सुब्रह्मण्यम, प्रकाश सिंह आदि अनेक सेवानिवृत्त आला अफसर आए दिन टीवी पर दिखाई देते हैं। हम मानते हैं कि प्रशासनतंत्र में आई गिरावट को लेकर इनके मन में जो चिंता है वह वास्तविक है, लेकिन टीवी पर होने वाली छुटपुट बहसों से या अदालती आदेशों से व्यवस्था में कोई बड़ा  सुधार आ जाएगा, ऐसा हमें नहीं लगता।  इन अनुभवी व्यक्तियों को इस सच्चाई का भी संज्ञान लेना चाहिए कि संघ लोकसेवा आयोग के माध्यम से जो अधिकारी चुने जा रहे हैं उनमें कितना नैतिक बल है। हमने सुना और देखा भी है कि कुछ साल पहले तक युवा अधिकारियों की मैदानी ट्रेनिंग कैसे होती थी, कैसे वे पटवारी से लेकर सिपाही तक से ज्ञान हासिल करते थे, छोटे-मोटे कस्बों में किस तरह वे अपने दिन बिताते थे।  वह सब शायद आज भी होता हो, लेकिन ऐसा लगता है कि नवसाम्राज्यवाद के इस दौर में जो इंद्रजाल फैला है उसमें फंसने से ये अपने आपको नहीं बचा पा रहे हैं। अखिल भारतीय सेवा के किसी भी अधिकारी के पास दो बातें होती हैं- गर्व और दंभ।  वह या तो गर्व कर सकता है कि उसे समाज की सेवा करने का एक बहुमूल्य अवसर मिला है इसके विपरीत वह इस दंभ में रह सकता है कि उसका जन्म लोगों पर राज करने के लिए हुआ है। 


एक समय था जब नए-नए आईएएस के बारे में आमतौर पर माना जाता था कि वह पांच-सात साल तो बिना पैसा खाए काम करेगा। पिछले बीस साल में यह धारणा पूरी तरह बदल गई। यही वजह है कि अब अधिकारी अपनी राय लिखने के बजाय मौखिक आदेश पर काम करते हैं। शायद ऐसा भी है कि बहुत से लोग अपने मंत्री को ही बताते हैं कि सर ऐसा करने से आपको फायदा होगा। और अगले चुनाव की चिंता में डूबा मंत्री ऐसे चतुर अधिकारी की बात मान लेता है। संभवत: इसी का परिणाम है कि छत्तीसगढ़ जैसे नए राज्य में जहां कार्य संस्कृति का विकास होना बाकी है वहां मंत्री चीफ सेक्रेटरी तक को हटाने की मांग करने लगते हैं।  जहां भविष्य का कोई सपना न हो, दूर तक देख पाने की न तो क्षमता हो न इच्छा और सारा ध्यान तुरंत लाभ पर केन्द्रित हो, उस वातावरण में सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश कितने कारगर हो पाएंगे, कहना कठिन है।


देशबंधु में 14 नवम्बर 2013 को प्रकाशित

Thursday, 7 November 2013

स्वच्छ प्रशासन की चिंता

आज एक किस्से से बात शुरू करते हैं। यह कोई चालीस साल पुरानी बात है। एक राज्य के मुख्यमंत्री की पत्नी तिरुपति बालाजी के दर्शन के लिए गईं। प्रचलित परंपरा व निज श्रध्दा के चलते उन्होंने अपना मुंडन करवाया। लौटकर आईं तो पूरे समय सिर पर पल्ला रखने लगीं कि मुंडा हुआ सिर दिखाई न दे। कुछ दिनों बाद उनके गृह जिले के कलेक्टर, एसपी, अधीक्षण यंत्री, वन अधिकारी इत्यादि की पत्नियां भी तिरुपति जाकर अपनी केशराशि समर्पित कर आईं। वे लौटीं और देखते ही देखते उस जिले में संभ्रांत समाज की महिलाओं के बीच सिर पर पल्ला रखने का रिवाज चालू हो गया व दो-एक साल तक चलता रहा। ये किस प्रदेश की, किस जिले की बात है, यह जानकर क्या करेंगे? शायद आपने भी अपने आसपास ऐसा कोई प्रसंग देखा होगा!

एक और किस्सा अनायास ध्यान आ रहा है। एक जिले के जिलाधीश महोदय को किसी सामाजिक संस्था ने भाषण देने बुलाया। अपने व्याख्यान में उन्होंने बड़े प्रभावशाली तरीके से अपनी बात सामने रखी कि भारत में तीन ओहदे सबसे यादा महत्व रखते हैं- पीएम याने प्रधानमंत्री, सीएम याने मुख्यमंत्री और डीएम याने डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट अथवा कलेक्टर। कालांतर में इस आला अफसर ने सरकारी नौकरी छोड़ राजनीति में प्रवेश किया और यथासमय एक ऊंचे ओहदे पर पहुंचने में सफलता पाई। जनसेवा का एक क्षेत्र छोड़कर दूसरे क्षेत्र में आने वाले न तो ये पहले व्यक्ति थे और न अंतिम। इसमें कोई बुराई भी शायद नहीं है। हमारा मकसद इस बारे में कोई टिप्पणी करना भी नहीं है बल्कि इन दोनों प्रसंगों के माध्यम से यह स्पष्ट करना है कि भारत की अफसरशाही, नौकरशाही, बाबूतंत्र या प्रशासनतंत्र पिछले कई दशकों से किस मानसिकता से काम कर रहा है। 


 यूं देश में ऐसे अफसरों की कमी नहीं है, जिन्होंने अपने सरकारी कार्यकाल के अनुभव लिखे हैं।  इनमें सबसे पहला नाम तो आर.एस. वी.पी. नरोन्हा का है जो मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव थे। सत्तर के दशक में प्रकाशित उनकी आत्मकथा का शीर्षक है- 'अ टेल टोल्ड बाइ एन इडियट।' इसमें उन्होंने बेहद रोचक शैली में निर्वाचित सरकार तथा अफसरशाही के आपसी व्यवहार को चित्रित किया है। श्री नरोन्हा की ख्याति एक बेहद सुलझे हुए ईमानदार, कर्मठ व कुशल अफसर की थी। वे चीफ सेक्रेटरी थे तब लूना या ऐसी किसी मोपेड से अपने घर से वल्लभ भवन आया करते थे। कहना होगा कि अपने समय में ऐसे गुणों वाले वे अकेले अधिकारी नहीं थे। यह बात और है कि वे अपने अनुभवों को लिपिबध्द कर गए।

मध्यप्रदेश में ही उनके बाद एक और मुख्य सचिव हुए श्री सुशीलचंद्र वर्मा। वे 1960 की शुरुआत में रायपुर में कलेक्टर थे। श्री वर्मा ने 1984-85 के आसपास 'एक कलेक्टर की डायरी' शीर्षक से अपने अनुभव लिखे जो उन दिनों देशबन्धु में धारावाहिक रूप से प्रकाशित भी हुए। श्री वर्मा की शैली भी बहुत रोचक और किस्सागोई थी। नरोन्हाजी की ही तरह वर्माजी ने भी रेखांकित किया कि अगर अधिकारी ठान ले तो वह भय अथवा राग से मुक्त होकर कैसे काम कर सकता है, और साथ ही साथ अपने अधीनस्थों को भी स्वच्छ वातावरण में काम करने के लिए प्रेरणा दे सकता है। मैंने और भी बहुत से अधिकारियों की आत्मकथाएं पढ़ी हैं। यूं तो और भी बहुत से बड़े आला अफसरों ने इस तरह पुस्तकें लिखी हैं, लेकिन मुझे उनमें अपने काम की एक ही पुस्तक ध्यान आ रही है, वह है गुजरात कैडर के जाविद चौधरी की जो आगे चलकर केन्द्रीय स्वास्थ्य सचिव के पद से रिटायर हुए।


अभी कुछ दिन पहले भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अधिकारियों की पोस्टिंग व तबादलों के बारे में तीखी टिप्पणियों के साथ जो दिशानिर्देश दिए हैं उसकी खबर को पढ़कर ये सारे प्रसंग अचानक ही याद आ गए। सर्वोच्च न्यायालय ने एक तो यह निर्दिष्ट किया है कि अधिकारी को एक पद पर एक निश्चित कार्यकाल मिलना चाहिए जो दो साल से कम का न हो। दूसरे उसने कहा है कि सेवाओं के नियमन के लिए एक बोर्ड बनाया जाना चाहिए। तीसरे अदालत ने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि वे कोई मौखिक आदेश न मानें और लिखित आदेश पर ही कार्रवाई करें। इन दिनों देखने में आ रहा है कि समाज के सभी वर्गों ने सर्वोच्च न्यायालय पर ही देश की व्यवस्था को सुधारने की जिम्मेदारी डाल रखी है। गोया उनकी अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती।  देश की अदालतें भी, कभी-कभी ऐसा लगता है कि, अपने बारे में ऐसा ही कुछ मान बैठी हैं कि उनके अलावा देश को और कोई नहीं बचा सकता। इस क्षणिक उत्तेजना में व्यवहारिक स्थितियां भुला दी गई हैं।


हम जानते हैं कि पुलिस के एक आला अफसर प्रकाश सिंह की जनहित याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने  हर प्रदेश में पुलिस स्थापना बोर्ड बनाने और व कुछ अन्य निर्देश दिए थे। इन निर्देशों का पालन कम, उल्लंघन यादा हुआ। श्री सिंह अब टीवी पर कई बार चिंता प्रकट करते नजर आते हैं कि राज्य सरकारें सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों का पालन नहीं कर रही हैं। इसी तर्ज पर प्रशासनतंत्र में सुधार लाने की जनहित याचिका पूर्व केबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रह्मण्यम ने दायर की थी, जिस पर उपरोक्त निर्देश जारी हुए। उनका पालन होगा या उल्लंघन, यह समझाने की जरूरत नहीं है।


दरअसल इस देश का कुलीन वर्ग हर समय किसी तरह की दैवी शक्ति से अपना मनचाहा हासिल करने की उम्मीद बांधे रहता है। भारत का मध्यवर्ग कुलीनों का अंधानुसरण करता है। आप देख सकते हैं कि कितने ही बड़े अफसर अपने दफ्तर में किसी देवी-देवता की या फिर किसी तथाकथित गुरु की फोटो लगाए रहते हैं। वे तंत्र-मंत्र में भी विश्वास रखते हैं और चमत्कार में भी, इसीलिए बाबाओं के आश्रम इतने फल-फूल रहे हैं। यही वर्ग सारे समय किसी देवदूत के प्रकट होने की प्रतीक्षा करते नजर आता है। टीएन शेषन से लेकर अन्ना हजारे तक यह सिलसिला चला आ रहा है। यही कुलीन वर्ग अब नरेन्द्र मोदी पर दांव लगा रहा है। मजे की बात है कि प्रशासनतंत्र में गिरावट का रोना रोने वाले यही प्रभुता-सम्पन्न लोग अपने बेटों की शादी में करोड़ों का दहेज लेते हैं और अक्सर ऐसे अन्य काम करते हैं जिनकी इजाजत देश का कानून नहीं देता या जो सामाजिक मर्यादाओं के परे हैं।


देश की जनता को अपने अफसरों से यह सवाल करना चाहिए कि आप तो लोक सेवक हैं; जो भी सरकारी संस्थाएं हैं वे ठीक से काम करें यह देखना आपकी अपनी जिम्मेदारी है। फिर ऐसा क्यों है कि आप अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ने नहीं भेजते; आपके घर में कोई बीमार पड़ता है तो आप सरकारी अस्पताल नहीं जाते, आप सार्वजनिक यातायात का कभी उपयोग नहीं करते; फिर अगर ये संस्थाएं ठीक से काम न करें तो इसमें दोष किसका है? सर्वोच्च न्यायालय के दिशानिर्देश के पीछे भावना सही हो सकती है, लेकिन अगर एक अफसर एक ही जगह पर दो साल से तैनात है तो इस बात की क्या गारंटी है कि वह ईमानदारी के साथ अपना काम करेगा। अगर वह भ्रष्ट और अक्षम है तो क्या उसे दो साल तक अपनी गलतियां दोहराते जाने का अवसर दिया जाना चाहिए? दरअसल इस पूरे मामले को एक दूसरे धरातल पर देखने की जरूरत है।


देश की चुनावी राजनीति में अभिजात समाज का दबदबा कम हुआ है और वे साधारण लोग तेजी से सामने आए हैं तो कल तक सिपाही व पटवारी से भी डरते थे। इन्हें प्रशासन का वांछित अनुभव नहीं है, जबकि अधिकारी अभी भी यादातर अभिजात समाज से आते हैं। वे अक्सर अपने चुने हुए नेताओं को नीची निगाह से देखते हैं और उन्हें पथभ्रष्ट करने के उपाय खोजते रहते हैं। लेकिन यह संक्रमण काल है और अधिक दिन नहीं चलेगा। जिस दिन किसान और कारीगर अपनी राजनीतिक ताकत को सही रूप में समझ जाएंगे उस दिन प्रशासनतंत्र भी बिना सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों या अन्य किसी विधि के अपने आप सही रास्ते पर आ जाएगा।


देशबंधु में  7 नवम्बर 2013 को प्रकाशित