सर्वोच्च न्यायालय ने अभी हाल में टीएसआर सुब्रह्मण्यम और 83 अन्य की जनहित याचिका पर प्रशासनिक सेवाओं के बारे में जो निर्देश दिए हैं उनमें एक यह भी है कि प्रशासनिक अधिकारी मंत्री के मौखिक आदेश पर कोई काम न करें। इस निर्देश की जरूरत क्यों पड़ी? इससे यह प्रतिध्वनित होता है कि मंत्रीगण मनमाने आदेश करते हैं और अधिकारी आंख मूंदकर उनका पालन करते हैं। यह कोई राजशाही या तानाशाही का जमाना तो है नहीं कि अधिकारी सिर झुकाकर राजनेता की हर बात मान ले। मंत्री अगर अधिकारी से नाखुश है तो वह मुख्यमंत्री से शिकायत कर सकता है और मुख्यमंत्री के पास ज्यादा से ज्यादा ऐसे अधिकारी के तबादला करने का ही अधिकार है। बीच-बीच में अधिकारियों के निलंबित करने के प्रकरण भी हुए हैं, लेकिन वैसा सामान्यत: नहीं होता। ध्यान रहे कि हम यह चर्चा उच्च प्रशासनिक अधिकारियों विशेषकर आईएएस इत्यादि के संबंध में कर रहे हैं। जिनका चयन संघ लोक सेवा आयोग द्वारा किया जाता है। कुछ माह पूर्व ही उत्तर प्रदेश की आईएएस अधिकारी दुर्गाशक्ति नागपाल के प्रकरण में हमने देखा कि अखिलेश सरकार को निलंबन आदेश वापिस लेना पड़ा।
राज्य सेवा के कर्मचारियों की स्थिति इतनी सुरक्षित नहीं है। उनकी नियुक्ति पदस्थापना और तबादले आदि में लेन-देन का जो खेल चलता है उससे सब वाकिफ हैं। इसके बावजूद ऐसा कम ही देखने में आया है कि शक्ति-सम्पन्न अधिकारी ने अपने किसी मातहत पर होने वाले अन्याय या अत्याचार को रोकने में कभी कोई रुचि दिखाई हो। यहां तक कि राज्य सेवा के जो अधिकारी प्रमोशन पाकर आईएएस संवर्ग में आ जाते हैं उन्हें भी अपनी बिरादरी का नहीं समझा जाता। एक तरह की वर्णव्यवस्था देश के प्रशासन तंत्र में प्रारंभ से ही चली आ रही है। इसे दूर करने में किसी की भी दिलचस्पी नहीं है। इस दृष्टि से देखें तो श्री सुब्रह्मण्यम की याचिका भी शक्ति-सम्पन्न अधिकारियों के लिए कवच की मांग है। जो अधीनस्थ कर्मचारी हैं उनका जो होना हो सो हो। अब यह इन ऊंचे लोगों को ही सोचना चाहिए कि अपने लिए एक ''गेटेड कम्युनिटी'' बनाकर वे कब तक सुरक्षित रह सकते हैं।
फिलहाल हम याचिका के संदर्भ में दिए गए निर्णय की बात करें तो यह बात अटपटी लगती है कि सर्वोच्च न्यायालय को कार्यपालिका के आंतरिक तंत्र में हस्तक्षेप करने की जरूरत पड़े। मंत्री और उसके सचिव के बीच में ऐसा द्वंद्व उपस्थित ही क्यों होना चाहिए? जैसा कि हम समझते हैं, जनतांत्रिक व्यवस्था में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार मंत्री के पास है, क्योंकि वह जनता का चुना हुआ प्रतिनिधि है। सिध्दांत रूप में माना जा सकता है कि उसके निर्णयों में जनाकांक्षा प्रतिबिंबित होती है। सचिव की नियुक्ति निर्वाचित सरकार करती है, वह एक वेतनभोगी कर्मचारी है। उसका दायित्व है कि अपने ज्ञान, अनुभव व विशेषज्ञता के आधार पर वह समीचीन राय दे ताकि मंत्री युक्तियुक्त निर्णय ले सके। ऐसा होने में क्या अड़चन पेश आ रही है?
मैं आज फिर दो किस्से सुनाकर अपनी बात स्पष्ट करना चाहता हूं। अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उनके समय में एक जुमला खासा प्रचलित हो गया था- ''समस्त नियमों को शिथिल करते हुए''। यह उनके काम करने का अपना अंदाज था। कोई भी प्रकरण हो, सचिव को पूरी छूट थी कि वह बेबाकी से अपनी राय रखे। श्री सिंह जब सचिव की राय या स्थापित नियमों के खिलाफ जाकर निर्णय लेते थे तो फाइल में अपने हाथों से लिख देते थे कि यह काम किया जाना है। इसका अर्थ यह हुआ कि वे मुख्यमंत्री होने के नाते अपनी निजी जिम्मेदारी पर निर्णय लेते थे। अधिकारी के कंधे पर रखकर बंदूक उन्होंने कभी नहीं चलाई। उन्हीं से जुड़ा एक अन्य प्रसंग है। दुर्ग जिले के एक प्रभावी नेता के कहने से उन्होंने तत्कालीन जिलाधीश हर्षमंदर का तबादला कर दिया। मैंने उनसे पूछा कि ऐसे लोकप्रिय और स्वच्छ छवि के अधिकारी को उन्हें क्यों हटाया। उन्होंने बड़ी सरलता से उत्तर दिया- ''वे जनप्रतिनिधियों के खिलाफ कार्रवाई कर रहे थे। मुझे काँफिडेंस में लेकर काम करते तो यह स्थिति नहीं आती।'' बात समझ में आई कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि का सम्मान बरकरार रखकर ही निर्णय लेना चाहिए था।
एक अन्य प्रसंग 1967-68 के मध्यप्रदेश का है। गोविन्द नारायण सिंह संविद सरकार के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने डॉ. रामचंद्र सिंहदेव को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया तथा कोई सत्रह-अठारह विभाग उन्हें सौंप दिए। सिंहदेवजी ने कहा कि इतना सारा काम मैं कैसे संभालूं। मुख्यमंत्री का जवाब था कि आपके पास अच्छे अधिकारी हैं। उनकी बात सुनिए, समझिए और आपको भरोसा हो तो उनकी लाई फाइल पर दस्तखत कर दीजिए।'' इसके साथ उन्होंने अपने युवा (तब) मंत्री को आगाह भी किया कि कभी भी सचिव पर अपनी मनमर्जी की टीप लिखने का दबाव मत डालिए। सचिव का काम सलाह देना और मंत्री का काम फैसला लेना है। उपरोक्त प्रसंगों का आकलन करें तो समझ आ जाता है कि देश के प्रशासन तंत्र में गिरावट क्यों आई है।
सर्वश्री सुब्रह्मण्यम, प्रकाश सिंह आदि अनेक सेवानिवृत्त आला अफसर आए दिन टीवी पर दिखाई देते हैं। हम मानते हैं कि प्रशासनतंत्र में आई गिरावट को लेकर इनके मन में जो चिंता है वह वास्तविक है, लेकिन टीवी पर होने वाली छुटपुट बहसों से या अदालती आदेशों से व्यवस्था में कोई बड़ा सुधार आ जाएगा, ऐसा हमें नहीं लगता। इन अनुभवी व्यक्तियों को इस सच्चाई का भी संज्ञान लेना चाहिए कि संघ लोकसेवा आयोग के माध्यम से जो अधिकारी चुने जा रहे हैं उनमें कितना नैतिक बल है। हमने सुना और देखा भी है कि कुछ साल पहले तक युवा अधिकारियों की मैदानी ट्रेनिंग कैसे होती थी, कैसे वे पटवारी से लेकर सिपाही तक से ज्ञान हासिल करते थे, छोटे-मोटे कस्बों में किस तरह वे अपने दिन बिताते थे। वह सब शायद आज भी होता हो, लेकिन ऐसा लगता है कि नवसाम्राज्यवाद के इस दौर में जो इंद्रजाल फैला है उसमें फंसने से ये अपने आपको नहीं बचा पा रहे हैं। अखिल भारतीय सेवा के किसी भी अधिकारी के पास दो बातें होती हैं- गर्व और दंभ। वह या तो गर्व कर सकता है कि उसे समाज की सेवा करने का एक बहुमूल्य अवसर मिला है इसके विपरीत वह इस दंभ में रह सकता है कि उसका जन्म लोगों पर राज करने के लिए हुआ है।
एक समय था जब नए-नए आईएएस के बारे में आमतौर पर माना जाता था कि वह पांच-सात साल तो बिना पैसा खाए काम करेगा। पिछले बीस साल में यह धारणा पूरी तरह बदल गई। यही वजह है कि अब अधिकारी अपनी राय लिखने के बजाय मौखिक आदेश पर काम करते हैं। शायद ऐसा भी है कि बहुत से लोग अपने मंत्री को ही बताते हैं कि सर ऐसा करने से आपको फायदा होगा। और अगले चुनाव की चिंता में डूबा मंत्री ऐसे चतुर अधिकारी की बात मान लेता है। संभवत: इसी का परिणाम है कि छत्तीसगढ़ जैसे नए राज्य में जहां कार्य संस्कृति का विकास होना बाकी है वहां मंत्री चीफ सेक्रेटरी तक को हटाने की मांग करने लगते हैं। जहां भविष्य का कोई सपना न हो, दूर तक देख पाने की न तो क्षमता हो न इच्छा और सारा ध्यान तुरंत लाभ पर केन्द्रित हो, उस वातावरण में सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश कितने कारगर हो पाएंगे, कहना कठिन है।
देशबंधु में 14 नवम्बर 2013 को प्रकाशित
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