Wednesday, 20 November 2013

अब नतीजों का इंतजार




छत्तीसगढ़ में 19 नवंबर को दूसरे चरण की 72 सीटों पर मतदान के साथ विधानसभा चुनाव का बड़ा हिस्सा सम्पन्न हो गया। अब इंतजार है अन्य चार राज्यों  में मतदान का और फिर 8 दिसंबर को नतीजों का। अंतत: परिणाम क्या निकलते हैं, इसे लेकर 11 तारीख को हुए पहले चरण के मतदान के साथ ही कयास लगना प्रारंभ हो गए हैं।  यह उधेड़बुन  चलती रहेगी। अभी शायद इस बात पर गौर किया जा सकता है कि छत्तीसगढ़ में चुनावी माहौल कुल मिलाकर कैसा था। सबसे पहले ख्याल आता है कि 2013 के चुनाव न सिर्फ शांतिपूर्वक सम्पन्न हुए बल्कि चुनाव आयोग का काम भी बीते अवसरों की अपेक्षा कहीं ज्यादा सुचारु व व्यवस्थित था। भारत निर्वाचन आयोग ने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई है।  छत्तीसगढ़ के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी सुनील कुजूर एवं उनके साथ चुनाव कार्य में लगे तमाम लोग मतदाताओं से बधाई पाने के हकदार हैं।

इस बार जनता ने मतदान में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया है। पहले चरण में बस्तर व राजनांदगांव में जो भारी मतदान हुआ वह चकित करता है। ऐसा बहुत लोगों का मानना है कि चुनाव आयोग ने जिस मेहनत से घर-घर तक मतदाता पर्चियां पहुंचाईं व मतदाताओं को जागरूक करने के लिए नए-नए उपाय किए उसका अनुकूल प्रभाव हुआ है। इसके अलावा यह भी लगता है कि स्वयं मतदाताओं में किसी न किसी कारण से चुनावी प्रक्रिया के प्रति एक नए उत्साह का संचार हुआ है।  इसका विश्लेषण राजनीति के पंडित आगे-पीछे करेंगे ही। बस्तर में हो सकता है कि एक अन्य कारण से भी भारी मतदान हुआ हो। पिछले दो-तीन चुनावों में नक्सलियों ने चुनाव बहिष्कार का ऐलान किया था, जिसे मानने के अलावा और कोई विकल्प एक बड़े इलाके में नहीं था। इस  बार नक्सलियों ने एक सीमित क्षेत्र में ही मतदान का बहिष्कार करवाया और कहीं यह संभावना उभरती है कि नक्सलियों की अनुमति से ही आदिवासी मतदाता अपने अधिकार का इस्तेमाल करने का अवसर पा सके । यह विश्लेषण का विषय है कि नक्सलियों ने अपनी नीति में परिवर्तन क्यों किया!

यह वर्ष छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के लिए तूफानी यात्राओं का साल रहा है। छत्तीसगढ़ में भाजपा के पास उनका कोई विकल्प नहीं है। मुख्यमंत्री होने के नाते उन पर जिम्मेदारी भी भारी है। पहले वे ग्राम स्वराज में भरी गर्मी में पूरे प्रदेश में घूमे और फिर चुनाव प्रचार में भी उन्हें चारों तरफ दौड़ लगानी पड़ी। अपने निर्वाचन क्षेत्र राजनांदगांव में भी वे वोटिंग के दिन पूरा समय नहीं दे सके। यह रोचक तथ्य है कि भाजपा ने जब चुनाव प्रचार शुरू किया तो शुरूआत में सिर्फ रमन सिंह की तस्वीर सामने थी। कुछ दिनों बाद एकाएक नरेन्द्र मोदी को भी प्रचार सामग्री में उनके बराबर महत्व देने की जरूरत जाने क्यों आन पड़ी!  शुरुआती रिपोर्टों में स्वतंत्र पर्यवेक्षकों का मानना था कि यहां मोदी को कोई नहीं जानता। इसके बाद भी श्री मोदी का रोपा लगाने के यत्न यहां किए गए। क्या इसलिए कि लोकसभा चुनावों तक फसल कटने लायक हो जाएगी?

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष चरणदास महंत ने भी मेहनत करने में कोई कमी नहीं की।  वे जब पहली बार अध्यक्ष बने थे तभी इतनी स्फूर्ति दिखलाते तो यह उनके और कांग्रेस दोनों के हित में होता। बहरहाल नंदकुमार पटेल की शहादत के बाद उन्हें जब जिम्मेदारी मिली तो आधे अधूरे मन से काम शुरू कर धीरे-धीरे उन्होंने स्वयं को चुनावी चुनौती झेलने के लिए तैयार किया। उन्होंने दौरे कितने किए, यह तो मुझे ठीक से पता नहीं, किन्तु अपनी पत्रवार्ताओं में उन्होंने बीजेपी पर काफी प्रभावी ढंग से तथ्यों और तर्कों के साथ आक्रमण किए। यह नोट किया जाना चाहिए कि उनके बहुत से वरिष्ठ साथी चुनावी लड़ाई में फंसे हुए थे और वे अपना चुनाव क्षेत्र छोड़कर श्री महंत का साथ देने की स्थिति में नहीं थे।

ऐसे में कांग्रेस के चुनाव अभियान को गति देने में श्री महंत का साथ दिया पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने। अगर भाजपा सिर्फ डॉ. रमन सिंह से आस लगाए बैठी थी तो कांग्रेस को एक तरफ से महंत और दूसरी तरफ से जोगी संभाल रहे थे। मजे की बात यह है कि भाजपा के चुनावी संचालकों ने श्री महंत के बजाय श्री जोगी पर ही निशाना साधने की रणनीति पर काम किया। मतदाताओं के मन में श्री जोगी के खिलाफ खौफ पैदा करने के हर संभव प्रयत्न किए गए। ऐसी चर्चाएं आम तौर पर हुईं कि कांग्रेस जीती तो वे मुख्यमंत्री बनेंगे और आतंक का राज आ जाएगा। बहुत से जोगी विरोधी कांग्रेसियों ने भी इस तरह के अफवाहों को फैलाने में अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। यह शोध का विषय हो सकता है कि दस साल सत्ता से बाहर व व्हील चेयर पर रहने के बावजूद श्री जोगी का ऐसा दबदबा कैसे कायम है!

जैसा कि दस्तूर है चुनाव प्रचार करने के लिए प्रदेश के बाहर से बड़े-बड़े लोग यहां आए। कांग्रेस की ओर से डॉ. मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी व राहुल गांधी तो भाजपा से लालकृष्ण आडवानी, राजनाथ सिंह व नरेन्द्र मोदी। श्री मोदी ने पहले चक्कर में तीन जगह सभाएं लीं। कांकेर की सभा में बमुश्किल तमाम ढाई हजार लोग थे और जगदलपुर में छह हजार। उसी दिन कोण्डागांव में सोनिया गांधी की सभा में पच्चीस हजार से अधिक की उपस्थिति थी। श्री मोदी के दूसरे चक्कर में ताबड़तोड़ नौ सभाएं थीं जिसमें दुर्ग, रायपुर व रायगढ़ में उपस्थिति उत्साहजनक थी, लेकिन अगले दिन राहुल गांधी के सभाओं के आगे मोदीजी फीके पड़ गए। ऐसा क्यों हुआ? क्या इसलिए कि मोदीजी की जुमलेबाजी को लोग अब पसंद नहीं कर रहे हैं? क्या इसलिए कि छत्तीसगढ़ में वाकई उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं है? क्या इसलिए कि जीरम घाटी की शहादत को प्रदेश की जनता भूली नहीं है? बहरहाल, इनके अलावा और जो भी बाहरी नेता यहां आए उनके प्रति जनता में कोई आकर्षण नहीं था। राजनाथ सिंह, दिग्विजय सिंह, हेमा मालिनी, राजब्बर, यहां तक कि लालकृष्ण आडवानी की सभाएं बहुत छोटी और फीकी रहीं।

इन दिनों एक नया चलन चला है कि मुद्दों की बात करके नहीं, बल्कि खैरात बांटकर जनता को खुश करो। कांग्रेस व भाजपा दोनों के घोषणा पत्रों में मोटे तौर पर यही बात देखने में आई। सरकार विपन्न लोगों को मुफ्त में अनाज दे बात समझ में आती है, लेकिन क्या कोई भी सरकार अनंत काल तक पचहत्तर प्रतिशत आबादी को मुफ्त अनाज, बिजली, पानी इत्यादि दे सकती है? यह एक अहम् सैध्दांतिक मसला है, जिस पर आगे बात करना जरूरी है। फिलहाल हमारा मानना है कि दोनों बड़ी पार्टियों के घोषणा पत्र में शायद ही ऐसा कुछ है जो प्रदेश को प्रगति की नई मंजिल की ओर ले जाने में सहायक हो। नक्सल समस्या, बेरोजगारी, जंगलों की कटाई, खनिजों का दोहन, लघु वनोपज का प्रसंस्करण, बेहतर शिक्षा, बेहतर चिकित्सा, प्रदूषण से बचाव इत्यादि गंभीर मुद्दों पर सिर्फ ऊपरी-ऊपरी बातें की गईं। इससे यह आशंका उत्पन्न होती है कि सरकार चाहे जिसकी आए, मामला वही ढाक के तीन पात वाला रह जाएगा।

हर बार की तरह इस बार भी मतदाताओं को भांति-भांति के प्रलोभन देने के किस्से लगातार सामने आए। चुनाव आयोग ने अपनी ओर से काफी सावधानी बरती, काफी कड़े उपाय किए। रुपयों से भरे बैग, कंबल, क्रिकेट किट, शराब की पेटियां आदि सामान बड़ी मात्रा में जब्त हुए। किन्तु आयोग को इस दिशा में पूरी तौर पर सफलता नहीं मिल पाई। आखिरी रात तक पैसा-शराब बंटने का काम चलता रहा। इसमें कई जगह पुलिस या अन्य एजेंसियों की भूमिका पर संदेह भी किया गया। हमें लगता है कि मतदाता बहती गंगा में हाथ धोने में कोई बुराई नहीं देखता, लेकिन ऐसा भी नहीं कि वह अपना वोट इस तरह से बेच देता हो। यह अकाटय सत्य है भारत के मतदाता ने प्रलोभनों के बावजूद अतीत में बार-बार सरकारों को बदला है। विश्वास है कि चुनावी नतीजे एक बार फिर मतदाता के विवेक को प्रमाणित करेंगे।



देशबंधु में 21 नवम्बर 2013 को प्रकाशित








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