Thursday 7 November 2013

स्वच्छ प्रशासन की चिंता

आज एक किस्से से बात शुरू करते हैं। यह कोई चालीस साल पुरानी बात है। एक राज्य के मुख्यमंत्री की पत्नी तिरुपति बालाजी के दर्शन के लिए गईं। प्रचलित परंपरा व निज श्रध्दा के चलते उन्होंने अपना मुंडन करवाया। लौटकर आईं तो पूरे समय सिर पर पल्ला रखने लगीं कि मुंडा हुआ सिर दिखाई न दे। कुछ दिनों बाद उनके गृह जिले के कलेक्टर, एसपी, अधीक्षण यंत्री, वन अधिकारी इत्यादि की पत्नियां भी तिरुपति जाकर अपनी केशराशि समर्पित कर आईं। वे लौटीं और देखते ही देखते उस जिले में संभ्रांत समाज की महिलाओं के बीच सिर पर पल्ला रखने का रिवाज चालू हो गया व दो-एक साल तक चलता रहा। ये किस प्रदेश की, किस जिले की बात है, यह जानकर क्या करेंगे? शायद आपने भी अपने आसपास ऐसा कोई प्रसंग देखा होगा!

एक और किस्सा अनायास ध्यान आ रहा है। एक जिले के जिलाधीश महोदय को किसी सामाजिक संस्था ने भाषण देने बुलाया। अपने व्याख्यान में उन्होंने बड़े प्रभावशाली तरीके से अपनी बात सामने रखी कि भारत में तीन ओहदे सबसे यादा महत्व रखते हैं- पीएम याने प्रधानमंत्री, सीएम याने मुख्यमंत्री और डीएम याने डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट अथवा कलेक्टर। कालांतर में इस आला अफसर ने सरकारी नौकरी छोड़ राजनीति में प्रवेश किया और यथासमय एक ऊंचे ओहदे पर पहुंचने में सफलता पाई। जनसेवा का एक क्षेत्र छोड़कर दूसरे क्षेत्र में आने वाले न तो ये पहले व्यक्ति थे और न अंतिम। इसमें कोई बुराई भी शायद नहीं है। हमारा मकसद इस बारे में कोई टिप्पणी करना भी नहीं है बल्कि इन दोनों प्रसंगों के माध्यम से यह स्पष्ट करना है कि भारत की अफसरशाही, नौकरशाही, बाबूतंत्र या प्रशासनतंत्र पिछले कई दशकों से किस मानसिकता से काम कर रहा है। 


 यूं देश में ऐसे अफसरों की कमी नहीं है, जिन्होंने अपने सरकारी कार्यकाल के अनुभव लिखे हैं।  इनमें सबसे पहला नाम तो आर.एस. वी.पी. नरोन्हा का है जो मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव थे। सत्तर के दशक में प्रकाशित उनकी आत्मकथा का शीर्षक है- 'अ टेल टोल्ड बाइ एन इडियट।' इसमें उन्होंने बेहद रोचक शैली में निर्वाचित सरकार तथा अफसरशाही के आपसी व्यवहार को चित्रित किया है। श्री नरोन्हा की ख्याति एक बेहद सुलझे हुए ईमानदार, कर्मठ व कुशल अफसर की थी। वे चीफ सेक्रेटरी थे तब लूना या ऐसी किसी मोपेड से अपने घर से वल्लभ भवन आया करते थे। कहना होगा कि अपने समय में ऐसे गुणों वाले वे अकेले अधिकारी नहीं थे। यह बात और है कि वे अपने अनुभवों को लिपिबध्द कर गए।

मध्यप्रदेश में ही उनके बाद एक और मुख्य सचिव हुए श्री सुशीलचंद्र वर्मा। वे 1960 की शुरुआत में रायपुर में कलेक्टर थे। श्री वर्मा ने 1984-85 के आसपास 'एक कलेक्टर की डायरी' शीर्षक से अपने अनुभव लिखे जो उन दिनों देशबन्धु में धारावाहिक रूप से प्रकाशित भी हुए। श्री वर्मा की शैली भी बहुत रोचक और किस्सागोई थी। नरोन्हाजी की ही तरह वर्माजी ने भी रेखांकित किया कि अगर अधिकारी ठान ले तो वह भय अथवा राग से मुक्त होकर कैसे काम कर सकता है, और साथ ही साथ अपने अधीनस्थों को भी स्वच्छ वातावरण में काम करने के लिए प्रेरणा दे सकता है। मैंने और भी बहुत से अधिकारियों की आत्मकथाएं पढ़ी हैं। यूं तो और भी बहुत से बड़े आला अफसरों ने इस तरह पुस्तकें लिखी हैं, लेकिन मुझे उनमें अपने काम की एक ही पुस्तक ध्यान आ रही है, वह है गुजरात कैडर के जाविद चौधरी की जो आगे चलकर केन्द्रीय स्वास्थ्य सचिव के पद से रिटायर हुए।


अभी कुछ दिन पहले भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अधिकारियों की पोस्टिंग व तबादलों के बारे में तीखी टिप्पणियों के साथ जो दिशानिर्देश दिए हैं उसकी खबर को पढ़कर ये सारे प्रसंग अचानक ही याद आ गए। सर्वोच्च न्यायालय ने एक तो यह निर्दिष्ट किया है कि अधिकारी को एक पद पर एक निश्चित कार्यकाल मिलना चाहिए जो दो साल से कम का न हो। दूसरे उसने कहा है कि सेवाओं के नियमन के लिए एक बोर्ड बनाया जाना चाहिए। तीसरे अदालत ने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि वे कोई मौखिक आदेश न मानें और लिखित आदेश पर ही कार्रवाई करें। इन दिनों देखने में आ रहा है कि समाज के सभी वर्गों ने सर्वोच्च न्यायालय पर ही देश की व्यवस्था को सुधारने की जिम्मेदारी डाल रखी है। गोया उनकी अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती।  देश की अदालतें भी, कभी-कभी ऐसा लगता है कि, अपने बारे में ऐसा ही कुछ मान बैठी हैं कि उनके अलावा देश को और कोई नहीं बचा सकता। इस क्षणिक उत्तेजना में व्यवहारिक स्थितियां भुला दी गई हैं।


हम जानते हैं कि पुलिस के एक आला अफसर प्रकाश सिंह की जनहित याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने  हर प्रदेश में पुलिस स्थापना बोर्ड बनाने और व कुछ अन्य निर्देश दिए थे। इन निर्देशों का पालन कम, उल्लंघन यादा हुआ। श्री सिंह अब टीवी पर कई बार चिंता प्रकट करते नजर आते हैं कि राज्य सरकारें सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों का पालन नहीं कर रही हैं। इसी तर्ज पर प्रशासनतंत्र में सुधार लाने की जनहित याचिका पूर्व केबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रह्मण्यम ने दायर की थी, जिस पर उपरोक्त निर्देश जारी हुए। उनका पालन होगा या उल्लंघन, यह समझाने की जरूरत नहीं है।


दरअसल इस देश का कुलीन वर्ग हर समय किसी तरह की दैवी शक्ति से अपना मनचाहा हासिल करने की उम्मीद बांधे रहता है। भारत का मध्यवर्ग कुलीनों का अंधानुसरण करता है। आप देख सकते हैं कि कितने ही बड़े अफसर अपने दफ्तर में किसी देवी-देवता की या फिर किसी तथाकथित गुरु की फोटो लगाए रहते हैं। वे तंत्र-मंत्र में भी विश्वास रखते हैं और चमत्कार में भी, इसीलिए बाबाओं के आश्रम इतने फल-फूल रहे हैं। यही वर्ग सारे समय किसी देवदूत के प्रकट होने की प्रतीक्षा करते नजर आता है। टीएन शेषन से लेकर अन्ना हजारे तक यह सिलसिला चला आ रहा है। यही कुलीन वर्ग अब नरेन्द्र मोदी पर दांव लगा रहा है। मजे की बात है कि प्रशासनतंत्र में गिरावट का रोना रोने वाले यही प्रभुता-सम्पन्न लोग अपने बेटों की शादी में करोड़ों का दहेज लेते हैं और अक्सर ऐसे अन्य काम करते हैं जिनकी इजाजत देश का कानून नहीं देता या जो सामाजिक मर्यादाओं के परे हैं।


देश की जनता को अपने अफसरों से यह सवाल करना चाहिए कि आप तो लोक सेवक हैं; जो भी सरकारी संस्थाएं हैं वे ठीक से काम करें यह देखना आपकी अपनी जिम्मेदारी है। फिर ऐसा क्यों है कि आप अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ने नहीं भेजते; आपके घर में कोई बीमार पड़ता है तो आप सरकारी अस्पताल नहीं जाते, आप सार्वजनिक यातायात का कभी उपयोग नहीं करते; फिर अगर ये संस्थाएं ठीक से काम न करें तो इसमें दोष किसका है? सर्वोच्च न्यायालय के दिशानिर्देश के पीछे भावना सही हो सकती है, लेकिन अगर एक अफसर एक ही जगह पर दो साल से तैनात है तो इस बात की क्या गारंटी है कि वह ईमानदारी के साथ अपना काम करेगा। अगर वह भ्रष्ट और अक्षम है तो क्या उसे दो साल तक अपनी गलतियां दोहराते जाने का अवसर दिया जाना चाहिए? दरअसल इस पूरे मामले को एक दूसरे धरातल पर देखने की जरूरत है।


देश की चुनावी राजनीति में अभिजात समाज का दबदबा कम हुआ है और वे साधारण लोग तेजी से सामने आए हैं तो कल तक सिपाही व पटवारी से भी डरते थे। इन्हें प्रशासन का वांछित अनुभव नहीं है, जबकि अधिकारी अभी भी यादातर अभिजात समाज से आते हैं। वे अक्सर अपने चुने हुए नेताओं को नीची निगाह से देखते हैं और उन्हें पथभ्रष्ट करने के उपाय खोजते रहते हैं। लेकिन यह संक्रमण काल है और अधिक दिन नहीं चलेगा। जिस दिन किसान और कारीगर अपनी राजनीतिक ताकत को सही रूप में समझ जाएंगे उस दिन प्रशासनतंत्र भी बिना सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों या अन्य किसी विधि के अपने आप सही रास्ते पर आ जाएगा।


देशबंधु में  7 नवम्बर 2013 को प्रकाशित

No comments:

Post a Comment