इसी तर्क से भाजपाइयों और भाजपा समर्थकों को भी शिकायत करने का कोई कारण नहीं बनता कि कांग्रेस पार्टी ने नेहरूजी की 125वीं जयंती पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में देश के प्रधानमंत्री को न्यौता क्यों नहीं दिया। जब दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं तो फिर उलाहना किस बात का? बहुत से विचारवान लोगों का मानना है कि नेहरूजी के नाम पर राजनीति नहीं होना चाहिए। इस विचार में एक भोलापन है जो व्यवहारिक राजनीति की जटिलताओं को जाने या अनजाने देख नहीं पा रहा है। खैर! हमारा अपना सोचना है कि पंडित नेहरू को याद करने के लिए और उनका मूल्यांकन करने के लिए इस तरह के औपचारिक आयोजन की अगर कोई भूमिका है तो वह सीमित है। क्योंकि हमारे उत्सवप्रिय देश में ऐसे आयोजन आडंबर में तब्दील हो जाते हैं जिसमें विषयवस्तु की गंभीरता गुम हो जाती है।
यूं तो कांग्रेस पार्टी ने 17-18 नवम्बर को दिल्ली में नेहरूजी पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया, लेकिन उससे कुल मिलाकर क्या हासिल हुआ? वहां जो पत्रकार उपस्थित थे उनकी दिलचस्पी इस बात में ज्यादा थी कि कांग्रेस के निमंत्रण पर गैर-भाजपाई दलों के कौन-कौन नेता सम्मेलन में शिरकत करते हैं। वहां ममता बनर्जी का आ जाना बड़ी खबर थी और मुलायम सिंह या लालू प्रसाद का न आना उससे कुछ छोटी खबर। सम्मेलन के अध्यक्ष पद से सोनिया गांधी ने जो भाषण दिया वह काफी सधा हुआ था, किन्तु ज्यादा चर्चा इस पर हुई कि भाषण के राजनीतिक निहितार्थ क्या थे। विदेशों से जो बड़े राजनेता आए, वे क्या कह रहे हैं उसे सुनने में शायद किसी की भी दिलचस्पी नहीं थी और विज्ञान भवन के सभागार में जो हजार लोग इकट्ठे थे उनमें से अधिकांश नेहरू के कारण आए थे या अपना चेहरा दिखाने के लिए, यह अनुमान लगाना कठिन नहीं था।
मैं 17 तारीख को सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में उपस्थित था। विदेश से आए विशिष्ट अतिथियों ने पंडित नेहरू को जिस भावुकता के साथ स्मरण किया उससे मैं प्रभावित हुआ। अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई ने याद किया कि उनके स्कूल की किताब में नेहरूजी का निबंध था तथा उस पाठ में नेहरूजी ने भारत माता को जिस तरह से परिभाषित किया था उसने उनके मन में एक गहरी छाप छोड़ी थी। नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री व कम्युनिस्ट नेता माधव नेपाल ने नेहरूजी की विश्वमंच पर प्रभावी भूमिका का जिक्र किया और यह भी बताया कि उनके द्वारा गठित योजना आयोग से किस तरह नेपाल को भी प्रेरणा मिली।
अरब लीग के अध्यक्ष और इजिप्त के पूर्व विदेशमंत्री अमरे मूसा ने गुट निरपेक्ष आंदोलन खड़ा करने में पंडित नेहरू की भूमिका का जिक्र किया तथा अरब मुल्कों (विशेष कर इजिप्त) के साथ नेहरू युग के समय विकसित और प्रगाढ़ हुए संबंधों को रेखांकित किया। घाना के पूर्व राष्ट्रपति जॉन कूफोर ने भी अफ्रीकी देशों के स्वाधीनता संग्राम को नेहरूजी से मिले समर्थन व सहयोग का उल्लेख अपने वक्तव्यों में किया। किन्तु इन सबसे ज्यादा प्रभावी व्याख्यान भूटान की राजमाता का था। उन्होंने बताया कि 1954 की गणतंत्र दिवस परेड में भूटान नरेश मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित थे और इस तरह दोनों पड़ोसी देशों के बीच प्रगाढ़ संबंधों की नींव पड़ी जो आज तक चली आ रही है। एक छोटे पड़ोसी देश को पंडितजी ने बराबरी का दर्जा दिया, यह भाव भी उनकी बात में था।
भूटान की राजमाता ने बताया कि पंडित नेहरू 1958 में उनके देश आए थे। किसी भी विदेशी राजप्रमुख की यह पहली भूटान यात्रा थी। पंडितजी के साथ इंदिराजी भी थीं। दोनों कठिन और दुर्गम रास्ते पर कई दिनों की यात्रा कर थिम्बू पहुंचे थे। इस रास्ते पर उन्हें याक की सवारी भी करनी पड़ी थी। पंडितजी की उम्र उस समय 67 वर्ष हो चुकी थी, फिर भी उन्होंने यह कष्ट भरी यात्रा करने से संकोच नहीं किया। उन्होंने आगे यह भी बताया कि 1961 में भूटान ने पहली पंचवर्षीय योजना लागू की। इसकी प्रेरणा भी भूटान को भारत से ही मिली। उद्घाटन सत्र के ये सारे व्याख्यान निश्चित रूप से प्रसंग के अनुकूल थे, लेकिन मुझे एक बात तो यह समझ नहीं आई कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह मंच पर तो थे, लेकिन उन्होंने सभा को संबोधित नहीं किया। दूसरे, आयोजन समिति के मुख्य कर्ता-धर्ता के रूप में आनंद शर्मा ने आरंभ में मंच संचालन किया, लेकिन सरकार में रहकर नेहरू की नीतियों पर चलने वाले पूर्व मंत्री मणिशंकर अय्यर मंच के दूसरे छोर पर पूरे समय चुपचाप बैठे रहे।
उद्घाटन सत्र के बाद समानांतर विचार सत्र होना थे। उनमें भाग लेने के लिए कुछेक जाने-माने विद्वान आमंत्रित किए गए थे, लेकिन उद्घाटन सत्र में एक तरह का ठंडापन व्याप्त था, जो आगे के कार्यक्रम में शरीक होने के लिए बहुत उत्साहदायक नहीं था। कांग्रेेस के कई बड़े नेता तो उद्घाटन का कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद ही वहां से रवाना हो गए थे। श्रोताओं की भी कोई दिलचस्पी गोष्ठियों में भाग लेने की होगी, ऐसा नहीं लगा। कुल मिलाकर मैं यह समझने में असमर्थ रहा कि कांग्रेस पार्टी ने क्या सोचकर यह आयोजन किया!
भारतीय राजनीति में रुचि रखने वाले जानते हैं कि इंदिराजी के समय में ही नेहरू के रास्ते से विचलन प्रारंभ हो गया था। पी.वी. नरसिम्हाराव के समय में नेहरू की आर्थिक नीतियों को तिलांजलि दे दी गई थी। इसमें अगर कोई कसर बाकी थी तो वह डॉ. मनमोहन सिंह के दस साल के कार्यकाल में पूरी हो गई। संभव है कि इसके पीछे उनके पास कोई ठोस तर्क रहे हों, लेकिन उनके बारे में जनता को कभी विश्वास में नहीं लिया गया। मैं सोनिया गांधी के जुझारूपन का कायल रहा हूं, लेकिन मुझे लगता है कि उनके पास जो राजनीतिक पूंजी है वह इंदिराजी मात्र से मिली है। नेहरू को उन्होंने कितना पढ़ा और समझा है, यह कह पाना कठिन है। शायद यही कारण है कि आनंद शर्मा आयोजन के कर्णधार थे और मणिशंकर अय्यर हाशिए पर!
सोनियाजी ने उद्घाटन सत्र में अध्यक्षीय वक्तव्य तो अच्छा दिया, लेकिन वह अधूरा था। जब पंडित नेहरू की 125वीं जयंती मन रही है तो इतना काफी नहीं है कि आप उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करें और संस्मरण साझा करें। इस अवसर पर यह बात भी होना चाहिए थी कि नेहरू की वैचारिक विरासत को कायम रखने के लिए उनके बताए रास्ते पर आगे बढऩे के लिए आप क्या करने जा रहे हैं। ऐसे कितने कांग्रेसी हैं जिन्होंने नेहरूजी द्वारा लिखी पुस्तकों में से एक पुस्तक भी पढ़ी है? क्या किसी कांग्रेसी नेता के बैठकखाने में ये पुस्तकेंआपको देखने मिलती हैं? राहुल गांधी, युवक कांग्रेस, और छात्र कांग्रेस की सदस्यता खोलते हैं उनमें चुनाव करवाते हैं, लेकिन क्या कहीं ऐसी व्यवस्था है कि ये नौजवान कांग्रेसी नेहरू के विचार से परिचित हो सकें?
मैं इस आयोजन की सार्थकता तब समझता जब कांग्रेस अध्यक्ष अपने उद्बोधन में पार्टीजनों को नेहरू साहित्य पढऩे के लिए पे्ररित करतीं, नेहरू के विचारों को समझने और आत्मसात करने के लिए कार्यशालाओं, शिविरों और विचार गोष्ठियों का कोई दीर्घकालीन कार्यक्रम प्रस्तावित करतीं और इस भव्य आयोजन में भी उन लोगों को बुलातीं जो नेहरू के योगदान का सम्यक मूल्यांकन करने में सक्षम हैं। मसलन नेहरूजी की भांजी और विजयलक्ष्मी पंडित की बेटी नयनतारा सहगल। उन्होंने ''सिविलाइजिंग अ सेवेज वर्ल्ड" शीर्षक पुस्तक में तर्कों और प्रमाणों के साथ नेहरू की नीतियों का विश्लेषण व उनके आलोचकों को उत्तर दिया है। अगर यही एक पुस्तक कांग्रेसी पढ़ लें तो अपना भला कर सकते हैं। सोनिया गांधी को हमारी बिन मांगी सलाह है कि ऐसी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद करवाएं व कांग्रेसजनों को पढ़वाएं। इससे बेहतर कोई श्रद्धांजलि पंडित नेहरू को नहीं हो सकती।
देशबन्धु में 27 नवंबर 2014 को प्रकाशित