Wednesday 12 November 2014

यह तो पहिला फेरबदल है


 प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बीते रविवार अपने मंत्रिमंडल का विस्तार कर पांच माह से रुका हुआ एक जरूरी काम पूरा कर लिया है। छोटा मंत्रिमंडल, सीमित सरकार, लैस गवर्मेंट, जैसे नारे कर्णप्रिय हो सकते हैं लेकिन सरकार चलाना है तो व्यवहारिक आधार पर निर्णय लेना ही पड़ते हैं। इस नाते कहना होगा कि मंत्रिमंडल का विस्तार उचित ही हुआ है। हमारा ख्याल है कि यह पहला फेरबदल अंतिम नहीं है और निकट भविष्य में ही कुछ और परिवर्तनों की संभावना बनी हुई है। प्रधानमंत्री ने अपने सबसे विश्वस्त सहयोगी अरुण जेटली को यद्यपि रक्षामंत्री के प्रभार से मुक्त कर दिया है, लेकिन इसके स्थान पर उन्हें दो अन्य विभाग दे दिए गए हैं- कारपोरेट मामले तथा सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय। वित्त मंत्रालय का अपना काम इतना विस्तृत है कि वित्तमंत्री को दूसरे विभागों के लिए पर्याप्त समय निकालना संभव नहीं होगा। श्री जेटली वैसे चाहे जितने मेहनती हों, उन्हें अपने स्वास्थ्य का ध्यान भी रखना होगा। यूं तो भारत का तीन चौथाई मीडिया इस वक्त कारपोरेट के शिकंजे में है, लेकिन सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का कार्य अखबारों व चैनलों पर नियंत्रण रखने से कहीं आगे का है।

यदि अरुण जेटली को आगे-पीछे वित्त मंत्रालय के अलावा अन्य प्रभार छोडऩे की नौबत आई तो उसके पहले प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है कि डॉ. हर्षवर्द्धन केन्द्रीय मंत्रिमंडल में कब तक बने रहेंगे।  राष्ट्रपति भवन से जारी सूची में कैबिनेट मंत्रियों में उनका नाम सबसे नीचे रखा गया है, जबकि वे पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं। ऐसी चर्चा है कि गुजरात की तम्बाखू लॉबी के दबाव में उनसे स्वास्थ्य मंत्रालय छीना गया है। डॉ. हर्षवर्द्धन एक लोकप्रिय जननेता हैं, उनकी छवि साफ-सुथरी है तथा दिल्ली प्रदेश में उन्होंने स्वास्थ्य मंत्री के रूप में वर्षों पूर्व कुशलतापूर्वक कार्य किया था। गत वर्ष विधानसभा चुनाव के समय श्री मोदी के पसंदीदा उम्मीदवार विजय गोयल का नाम भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री पद के लिए उछाला गया था, लेकिन हर्षवर्द्धन को संघ की पसंद होने की वजह से आगे किया गया था। संभव है कि ये बात श्री मोदी को नागवार गुजरी हो! इसका दूसरा पक्ष यह है कि अगर दिल्ली के आसन्न चुनावों में भाजपा जीतती है तो उन्हें मुख्यमंत्री पद के लिए मुक्त कर दिया जाए।

श्री मोदी ने मनोहर पार्रिकर एवं सुरेश प्रभु का चयन कर सही संदेश दिया है। ये दोनों मंत्री सुयोग्य, कर्मठ एवं अपेक्षाकृत युवा हैं। श्री पार्रिकर ने मुख्यमंंत्री रहते हुए और श्री प्रभु ने वाजपेयी सरकार के मंत्री के रूप में पर्याप्त प्रशंसा अर्जित की थी। वर्तमान सरकार का काफी जोर अधोसंरचना विकास पर है एवं भारतीय रेलवे का उसमें अच्छा खासा योगदान होगा। इसी तरह प्रतिरक्षा के मामले में भी बदलती वैश्विक परिस्थितियों के अनुरूप नीतियां बनाने और उन्हें त्वरित गति से लागू करने की आवश्यकता पड़ेगी। इन दोनों विभागों में वर्तमान सरकार का जोर निजीकरण एवं विदेशी निवेश पर भी है। प्रधानमंत्री संभवत: उम्मीद रखते हैं कि उनके ये दोनों ऊर्जावान सहयोगी इस दिशा में उनकी सोच के अनुसार तत्परतापूर्वक कार्य करेंगे।

मंत्रिमंडल पुनर्गठन के पहले यह अफवाह चल रही थी कि कैबिनेट की सबसे उम्रदराज सदस्य नजमा हेपतुल्ला को हटा दिया जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक ध्यान देने योग्य फेरबदल रविशंकर प्रसाद का है। उनसे विधि विभाग एवं स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री प्रकाश जावड़ेकर से सूचना प्रसारण मंत्रालय वापिस ले लिया गया है। श्री प्रसाद एनडीए-एक में विधि मंत्री रह चुके थे। उनको इस प्रभार से क्यों हटाया गया समझ नहीं आया। जे.पी. नड्डा पहले हिमाचल में स्वास्थ्य मंत्री थे शायद इसलिए उन्हें केन्द्र का स्वास्थ्य मंत्री बना दिया गया। केबिनेट में अभी एक मंत्री का भविष्य अनिश्चित है।  वे हैं शिवसेना के अनंत गीते। शिवसेना अध्यक्ष ने उन्हें अभी तक इस्तीफा देने क्यों नहीं कहा, यह भी फिलहाल एक पहेली है।

जनरल वी.के. सिंह ने दूसरे क्रम पर सर्वोच्च मतों से जीत दर्ज की थी। उन्हें अपेक्षानुरूप कैबिनेट स्तर न देकर राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार बनाया गया था। यह पूर्व सेनाध्यक्ष का एक तरह से अवमूल्यन ही था। वे अभी अपनी श्रेणी में प्रथम क्रम पर ही हैं, लेकिन उनसे पूर्वोत्तर विकास का प्रभार वापिस ले लिया गया। यह उनका दूसरी बार अवमूल्यन हुआ है। इसके अलावा स्वतंत्र प्रभार के राज्यमंत्रियों के स्तर पर कोई विशेष फेरबदल नहीं हुआ है। दिलचस्प तथ्य यह है कि मंत्रिमंडल में तीन डॉक्टर हैं, लेकिन स्वास्थ्य विभाग की जिम्मेदारी एक गैर-डॉक्टर को दी गई है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि कोई विषय विशेषज्ञ अपने ही विषय का मंत्री बन जाए तो उसके पूर्वाग्रह कामकाज पर हावी होने की आशंका बनी रहती है।

यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि प्रधानमंत्री ने इस पुनर्गठन में बिहार और झारखंड में आसन्न विधान सभा चुनावों को ध्यान में रखा है। बिहार में यद्यपि चुनाव होने में कुछ माह बाकी हैं, लेकिन वह राजनीतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण प्रदेश है। रविशंकर प्रसाद और राधामोहन सिंह तो पहले से ही मंत्री थे, अब एक तरफ राजीव प्रताप रूडी जैसे अभिजात छवि के युवा और दूसरी तरफ गिरिराज सिंह जैसे दबंग छवि के नेता प्रदेश के चुनावी समीकरणों को भाजपा के पक्ष में किस तरह से कर पाएंगे, यह भविष्य ही बताएगा। श्री मोदी ने झारखंड से जयंत सिन्हा को मंत्री बनाकर एक तरह से यशवंत सिन्हा को संतुष्ट किया है, वहीं उनके कारपोरेट ज्ञान का उपयोग करने की बात भी शायद सोची हो! श्री सिन्हा के मंत्री बनने से शायद सबसे ज्यादा तकलीफ वसुंधरा राजे को हुई होगी, जिनके पुत्र दुष्यंत सिंह राजस्थान से सबसे वरिष्ठ सांसद होने के बावजूद मंत्री पद से वंचित रह गए हैं।

एक तरफ बिहार और झारखंड पर प्रधानमंत्री की निगाह है, तो दूसरी तरफ असंदिग्ध विजय से उपजा आत्मविश्वास उन्हें एनडीए के घटक दलों से किनाराकशी करने के लिए संभवत: प्रेरित कर रहा है। उनसे और शिवसेना के बीच तो संबंध विच्छेद हो ही चुका है, अब अगली बारी शायद अकाली दल की हो सकती है। होशियारपुर के दलित सांसद विजय सांपला को मंत्री बनाने से यही संकेत मिलता है। वे इसके पूर्व हरियाणा के विधानसभा चुनावों में डेरा सच्चा सौदा के गुरु का साथ ले ही चुके हैं, जिनका शिरोमणि अकाली दल से बैर सर्वविदित है। भाजपा संविद के दिनों से ही धीरे-धीरे कर गठबंधन सहयोगियों को खत्म करते आई है। इसलिए कल को यदि वह अकाली दल से भी नाता तोड़ लें तो आश्चर्य नहीं होगा।

श्री मोदी के मंत्रिमंडल में अधिकतर लोग नए और अनुभवहीन हैं। कुछेक मंत्री आवश्यकता से अधिक वाचाल भी हैं। कुछेक बड़े छोटे आरोपों के घेरे में भी हैं। अनुभवहीनता पर परिश्रम और लगन से विजय पाई जा सकती है। कुल मिलाकर इस मंत्रिमंडल में ऐसा कुछ नहीं है जिसे लेकर कोई बड़ा प्रवाद खड़ा किया जा सके। कांग्रेस प्रवक्ता अजय माकन ने जो आरोप लगाए हैं, उसमें परिपक्व सोच का परिचय नहीं मिला। कांग्रेस के लिए यह उचित है कि सरकार के कामकाज पर निगाह रखे और जहां गड़बड़ी दिखे उसकी आलोचना करे, लेकिन बिना सही अवसर के विवादों में उलझना स्वयं कांग्रेस के हित में नहीं है। एक और बात, कुछ ही दिनों में भाजपा संगठन में भी फेरबदल होने की अपेक्षा रखनी चाहिए। जो पार्टी पदाधिकारी मंत्री बन गए उनके रिक्त स्थानों पर भाजपा को नए लोगों को लाना ही होगा।

अंत में, छत्तीसगढ़ निवासी होने के कारण मुझे दु:ख है कि सात बार चुनाव जीतने के बाद भी रमेश बैस को मंत्री पद नहीं मिल सका।
 देशबन्धु में 13 नवंबर 2014 को प्रकाशित 

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