Wednesday 19 November 2014

रायपुर में रंगशाला?




रायपुर
के रंगकर्मी लंबे समय से एक सर्वसुविधायुक्त आधुनिक प्रेक्षागृह की मांग उठा रहे हैं। अपने आप में यह मांग उचित है। जिस देश में आज से कोई दो हजार वर्ष पूर्व भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र लिख दिया हो और जो प्रदेश विश्व की सबसे प्राचीन रंगशाला अपने यहां होने का दावा करता हो वहां राजधानी बन गए एक नगर में, जो हबीब तनवीर की जन्मस्थली भी हो, कलापे्रमियों को एक अच्छा प्रेक्षागृह उपलब्ध न हो तो यह उस नगर के साथ अन्याय ही कहा जाएगा। मैं इसलिए सैद्धांतिक तौर पर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक रंगशाला, प्रेक्षागृह या ऑडिटोरियम स्थापित करने के प्रस्ताव का समर्थन करता हूं, लेकिन साथ ही साथ मेरा मानना है कि इस मुद्दे को रायपुर के नागरिक जीवन के अन्य आयामों से काटकर नहीं देखा जा सकता। अपितु उस विशाल संदर्भ में ही तलाश करना होगा कि इस मांग पर आज तक कोई सकारात्मक विचार प्रदेश सरकार या नगर निगम ने क्यों नहीं किया और यह भी कि इसे राजधानी की जनता का समर्थन क्यों नहीं मिला?

यह कहना गलत नहीं होगा कि सभ्यता के विकासक्रम में शहरीकरण एक महत्वपूर्ण और अनिवार्य चरण है। जिस दिन मनुष्य जाति ने घूमंतु जीवन त्यागकर स्थायी आश्रय निर्मित करने की ठानी और जिसके चलते बस्तियों का निर्माण प्रारंभ हुआ उसके तुरंत बाद ही मनुष्य को शहरों की जरूरत आन पड़ी। शहर याने सभ्यता का केन्द्र। एक ऐसी जगह जहां वे सारी सुविधाएं उपलब्ध हों जो दूरदराज तक फैली छोटी-छोटी रिहायशी बस्तियों में उपलब्ध होना संभव नहीं थीं जैसे बाजार, पाठशालाएं चिकित्सालय, मनोरंजनगृह, सत्तापीठ, कारखाने इत्यादि। शायद पहली जरूरत तो बाजार की ही थी। पुराने समय में गांव-गांव में साप्ताहिक बाजार लगते थे और यह परंपरा आज भी चली आ रही है, लेकिन शायद इनका होना पर्याप्त नहीं था। इसीलिए स्थायी बाजार बनना शुरू हुए। बाजार चलते-फिरते रहे हों या एक जगह पर स्थापित, मनोरंजन शालाएं भी उसका एक स्थायी अंग रही है। पुराने समय के बहुरूपिये, नट, मदारी, जादूगर से लेकर सर्कस, टूरिंग टॉकीज और आज के सिनेमा, थिएटर तक इसे देखा जा सकता है।

एक तरह से गांव यदि कृषि उत्पादन का केन्द्र थे, तो नगर व्यवसाय और विपणन के केन्द्र के रूप में उभरे। गांव में रहकर उत्पादन करने वाले की आवश्यकताएं सीमित थीं, लेकिन नागर श्रेष्ठि वर्ग की स्थिति ठीक इसके विपरीत थी। उसे अधिकतम सुविधाएं चाहिए थीं। वही स्थिति आज भी है। इस तरह से नगर एक चुंबक में तब्दील हो गए जिसकी चकाचौंध दूर-पास के ग्रामवासियों को अपनी तरफ खींचने लगी। भव्य अट्टालिकाएं, राज-प्रासाद, सुन्दर उपवन और इनके साथ-साथ बेहतर स्कूल, बेहतर चिकित्सा सुविधाएं और ऐसी अन्य व्यवस्थाएं जो ग्रामीण समाज के लिए आकाश-कुसुम ही रही आईं।
रायपुर नगर को इस सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि में देखना आवश्यक है। एक समय यहां छत्तीसगढ़ के गांवों से विद्यार्थी पढ़ाई करने के लिए आते थे, वहीं सिनेमा, रथयात्रा और गणेशोत्सव की झांकियां देखने के लिए आए ग्रामवासियों का आना भी एक नियम की ही तरह था। उस दौर में नगर के जो समर्थ लोग थे वे अपने बच्चों को पढऩे के लिए जबलपुर, नागपुर, सागर और इलाहाबाद तक भेजते थे।
 
कालांतर में नगर का विकास हुआ और एक दिन यहां राजधानी भी बन गई। चौड़ी-चौड़ी सड़कें, चौराहों पर विद्युत सिग्नल, भव्य अस्पताल, पांच सितारा होटल, चमकते-दमकते शो रूम, मॉल और मल्टीप्लेक्स, अंग्रेजी मीडियम स्कूलों की वातानुकूलित इमारतें, सड़कों पर दौड़तीं मंत्रियों, अफसरों और नवधनाढ्यों की गाडिय़ां- क्या नहीं है इस शहर में? शायद सिर्फ एक प्रेक्षागृह जहां देश-विदेश की नाटक मंडलियां आकर अपना प्रदर्शन कर सकें और उन्हें देख कर अभिजात समाज स्वयं को सुरुचि-सम्पन्न होने का प्रमाण पत्र दे सके! लेकिन क्या बात सिर्फ इतनी ही है? राजधानी में स्वाभाविक ही प्रदेश का पहला मेडिकल कॉलेज और सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल है, किन्तु जिन्हें नाटक देखने के लिए प्रेक्षागृह चाहिए क्या वे उस अस्पताल में जाकर इलाज करने की हिम्मत जुटा पाते हैं? प्रदेश का सबसे पुराना विश्वविद्यालय भी यहीं है और अब तो पांच-छह विश्वविद्यालय हो गए हंै, किन्तु क्या किसी ने पूछा कि इन्हें कितनी स्वायत्तता प्राप्त है? इनका काम-काज कैसा चल रहा है? इनकी कौन सी आवश्यकताएं हैं जिनकी ओर सरकार ध्यान न देना ही मुनासिब समझती है? यहां जो बाग-बगीचे बनाए गए थे उनके क्या हाल-चाल है? इस बात में क्या बुद्धिमानी थी कि अनुपम उद्यान और सौरभ उद्यान के नाम बदलकर धर्मगुरुओं के नाम पर रख दिए जाएं?

मैं कहना चाहता हूं कि जब प्रेक्षागृह की मांग हो रही है, तो इसका सीधा सरोकार हमारी सांस्कृतिक परंपरा से है। तथापि इस शहर की सांस्कृतिक धरोहर को बचाने के लिए हमने आज तक क्या किया है? और क्या उत्साही रंगकर्मियों ने इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता कभी समझी है? मिसाल के तौर पर रायपुर में शासकीय विज्ञान महाविद्यालय, शासकीय संस्कृत महाविद्यालय, सवा सौ साल पुराने गवर्मेंट हाईस्कूल और उससे कुछ कम पुराने माधवराव सप्रे विद्यालय के अपने-अपने विस्तृत परिसर थे। ये सारे परिसर एक के बाद एक नवनिर्माण के नाम पर तहस-नहस कर दिए गए। इसी शहर में लगभग दो सौ साल पुराने कंपनी गार्डन या मोतीबाग है। आज उसका तीन चौथाई हिस्सा बाजार या अन्य कामों की भेंट चढ़ गया है। इसी उद्यान में रवीन्द्रनाथ की जन्मशताब्दी पर जो रवीन्द्र नाट्य मंच बना वह आज कहां है? रंगमंच की मांग का समर्थन तो शहर के प्रेस क्लब के सदस्य भी करते हैं, लेकिन क्या उन्हें इस बात की ग्लानि है कि वे ही रवीन्द्र नाट्य मंच को हड़पने के दोषी हैं?

इस रायपुर में एक से एक पुराने भवन हैं। जयस्तंभ से लगा हुआ कैसर-ए-हिन्द दरवाजा है, जो मलिका विक्टोरिया ने हम पर अपनी हुकूमत की याद दिलाने के लिए तामीर करवाया था। इस ऐतिहासिक द्वार को रवि भवन ने खा लिया। कोई दो सौ-ढाई सौ साल पुराना गोलबाजार उसी सड़क पर आगे है। हमने तो उसे सहेजने के लिए भी कुछ नहीं किया। भारत के प्राचीनतम संग्रहालयों में एक घासीदास म्यूजियम को बने भी सवा सौ साल हो चुके हैं। आज उसका पुराना भवन एक स्थानीय संस्था के हाथों में है। ऐसी तमाम इमारतें हमें अपने इतिहास से जोड़ती हैं, अतीत से सबक लेने के लिए प्रेरित करती हैं, किन्तु उन्हें ठीक-ठिकाने से रखा जाए, यह समझने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है।

राजधानी में गांधी मैदान पर रंगमंदिर नाम की एक जगह हुआ करती है या थी। गांधी मैदान अब पार्किंग के काम आ रहा है और केन्द्र सरकार के अनुदान से बना रंगमंदिर कानूनी उलझनों में फंसा है क्योंकि कुछ लालची तत्व वहां मॉल बनाना चाहते हैं। बड़े-छोटे लालची लोगों ने ही इस शहर के तालाब पाट दिए। जगह-जगह पर चाट भंडार खुल गए। बूढ़ातालाब का नाम बदलकर विवेकानन्द सरोवर करने में हमें न जाने क्या सुख मिलता है, यह भूलकर कि यह नया नाम प्राचीन इतिहास से हमारा संबंध तोड़ता है। हमने शहर में स्टेडियम भी बनाए, लेकिन किसी ने उनमें खेलों का आयोजन होते कितनी बार देखा है? यह इल्जाम इस नगर के संस्कृतिकर्मियों पर भी है कि शहीद-ए-आजम भगतसिंह की टोपधारी प्रतिमा का सिर काट दिया जाता है और बंद सभागारों में प्रयाण गीत गाने वाले क्रांतिकारी चुप बैठे रह जाते हैं।

मित्रो! प्रेक्षागृह की मांग जरूर कीजिए परन्तु यह भी तो सोचिए कि उसमें नाटकों का मंचन कितने दिन होगा और कितने दिन फूहड़ फिल्मी अंदाज के कार्यक्रम होंगे? नाटक खेलने के लिए जो बड़ी-बड़ी मंडलियां आएंगी उनको देने के लिए लाखों रुपया कहां से लाएंगे? सरकार के आगे हाथ पसारेंगे या उन व्यापारियों अथवा अफसरों के आगे जिनकी सांस्कृतिक समझ के बारे में कुछ न कहना ही बेहतर है। और जब उन्हें आप कार्यक्रम में मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि का सम्मान दे कर बुलाएंगे तो उनके सामने आपकी हैसियत क्या रह जाएगी?
 
देशबन्धु में 20 नवंबर 2014 को प्रकाशित

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