छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक परिदृश्य की चर्चा करते हुए कुछ बिन्दु स्पष्टता के साथ उभरते हैं-
1. यह प्रदेश एक लंबे समय से संस्कृति की विभिन्न विधाओं का धनी रहा है। विगत अनेक शताब्दियों के दौरान समय-समय पर यहां रचनाशीलता का जैसा उन्मेष हुआ और जिसकी परंपरा आज तक चली आ रही है, वह किसी भी अन्य प्रदेश से कम नहीं है।
2. इस सांस्कृतिक वैभव की जो पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बनना चाहिए थी, वह नहीं बन पाई है।
3. प्रदेश में इस संबंध में जिस व्यवस्थित तरीके से अध्ययन, शोध व प्रसार होना चाहिए था, वह भी नहीं हो सका है।
4. मध्यप्रदेश से पृथक हो एक स्वतंत्र इकाई बन जाने के बाद प्रदेश की रचनाशीलता पर एक तरफ शासकीय संरक्षण की अभिलाषा व दूसरी ओर उपभोक्ता संस्कृति का प्रभाव- इस तरह राहू-केतु की छाया पड़ गई है। अगले अनुच्छेदों में हम इन बिन्दुओं की विस्तार से व्याख्या करने का प्रयत्न करेंगे।
छत्तीसगढ़ का चालीस प्रतिशत से अधिक भूभाग यद्यपि वनों से आच्छादित है, किन्तु यहां विकसित नागर सभ्यता होने के चिन्ह लगभग दो हजार वर्ष पूर्व से मिलते हैं। सर्वविदित है कि मल्हार में प्राप्त विष्णु प्रतिमा लगभग इतनी ही पुरानी है। इसके बाद सिरपुर, रतनपुर, बारसूर आदि स्थान हैं, जो छत्तीसगढ़ के प्राचीन सांस्कृतिक वैभव के साक्ष्य हैं। यहां हम सिर्फ उदाहरण के लिए कुछ नाम दे रहे हैं ताकि पाठकों के सामने एक रूपरेखा रखी जा सके। ये प्राचीन मंदिर किस राजा ने बनवाए थे, इनके स्थपति कौन थे, इन मूर्तियों को किन्होंने गढ़ा था, यह सब विशद विवेचन का विषय है। फिलहाल इतना जान लेना रोचक है कि दो हजार वर्ष से छत्तीसगढ़ में सभ्यता का विकास व प्रकृति का संरक्षण समानांतर होते आया है। इस मायने में छत्तीसगढ़ की स्थिति अन्य प्रदेशों से भिन्न कही जा सकती है।
यह अनुभव अपने आप में मुग्ध कर देने वाला है कि आप प्रदेश के उत्तरी भाग में याने सरगुजा अंचल में घने जंगलों के बीच किसी निर्जन सी सड़क पर प्रकृति की शोभा निहारते चले जा रहे हैं और अचानक आपके सामने कहीं महेशपुर तो कहीं डीपाडीह के ध्वंसावशेष सामने आ गए हैं। ऐसा अनुभव आपको बस्तर में भी हो सकता है या कवर्धा, राजनांदगांव, महासमुंद, सारंगढ़, धमतरी या गरियाबंद में भी। फिंगेश्वर के प्राचीन फणेश्वर महादेव मंदिर को देखकर मेरे मित्र त्रिभुवन पांडेय ने अनुमान लगाया था कि प्राचीन समय में मंदिर शिल्पियों का कोई बड़ा कुनबा रहा होगा, जिसने देशाटन करते हुए राजाओं के आदेश-अनुग्रह से इन मंदिरों का निर्माण किया होगा। बड़े राजा के यहां बड़ा मंदिर, छोटे राजा के यहां छोटा। भाई त्रिभुवन के अनुसार ये उस समय के मंदिर ''कांट्रेक्टर" रहे होंगे। है न बात विचार करने योग्य!
जाहिर है कि यह सांस्कृतिक वैभव सिर्फ मंदिर निर्माण तक सीमित नहीं रहा होगा। उसके साथ-साथ रचनाशीलता के नए आयामों को प्रस्फुटित होने का अवसर मिला ही होगा। यह भी मानना चाहिए कि जैसे-जैसे यात्राएं सुगम हुई होंगी, विभिन्न प्रदेशों के बीच संपर्कों में भी वृद्धि हुई होगी तथा आज छत्तीसगढ़ के जिन कलारूपों को हम देख रहे हैं वे बाह्य प्रभाव से मुक्त नहीं रहे होंगे। इसी तरह छत्तीसगढ़ की रचनाशीलता ने अन्य प्रदेशों को भी प्रभावित किया होगा। मुझे लगता है कि छत्तीसगढ़ के कथागीत इसका प्रमाण हैं। मसलन, गुजरात में ''जसमा-ओढन" की कथा व छत्तीसगढ़ में ''दसमत-कैना" की कथा में अद्भुत साम्य है। डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव ने छत्तीसगढ़ के कथागीतों पर जो गंभीर शोध कार्य किया है वह इस बारे में अधिक जानकारी के लिए पठनीय है। शास्त्रीय नृत्य में कत्थक के रायगढ़ घराने से भी कलावंत परिचित हैं। ऐसे सांस्कृतिक विनिमय को विजयदान देथा की राजस्थानी लोककथा तथा हबीब तनवीर की नाट्यकृति ''चरणदास चोर" में भी देखा जा सकता है।
मैं दाऊ रामचंद्र देशमुख की रंगमंचीय प्रस्तुति ''चंदैनी गोंदा" का विशेष रूप से जिक्र करना चाहूंगा। 1970 के दशक में लोकमंच पर प्रस्तुत इस कृति ने समूचे छत्तीसगढ़ को एक तरह से झकझोर दिया था। उस दौर में जब डॉ. खूबचंद बघेल के छत्तीसगढ़ भ्रातृसंघ के माध्यम से प्रदेश की स्वतंत्र राजनीतिक पहचान अंकित करने का प्रयत्न हो रहा था उस समय चंदैनी गोंदा ने स्थानीय समाज को अपनी जीवन परिस्थितियों का पुनरावलोकन करने के लिए उत्तेजित किया था। चंदैनी गोंदा से प्रेरित होकर आगे और भी मंचीय उपक्रम हुए लेकिन दाऊ जी अपनी एकांतिक निष्ठा के बल पर जो जादू जगा सके थे वैसा वे दूसरे लोग नहीं कर पाए, जिनके लिए लोकमंच निजी ख्याति मात्र पाने का माध्यम था।
हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल माने जाने वाले समय में भी छत्तीसगढ़ का जो योगदान है वह इतिहास में दर्ज है। मुकुटधर पांडेय की कविता ''कुररी के प्रति" को छायावाद की पहली कविता माना जाता है। इस नाते पांडेय जी को छायावाद का प्रणेता भी कहा गया है। यद्यपि पांडेय जी स्वयं श्रेय न लेते हुए महाकवि जयशंकर प्रसाद को इसका अधिकारी मानते हैं। ठाकुर जगमोहन सिंह की कृति ''श्यामा स्वप्न" को राज्य बनने के बाद हिन्दी का पहला उपन्यास सिद्घ करने के स्वार्थ-प्रेरित किन्तु असफल प्रयत्न हुए। इसी तरह माधवराव सप्रे की ''टोकरी भर मिट्टी" को एक बड़े तबके में हिन्दी की पहली कहानी मान लिया गया है यद्यपि वह एक लोककथा है। जो भी हो, ये दोनों रचनाएं आधुनिक हिन्दी के प्रारंभकाल में छत्तीसगढ़ की उपस्थिति को दर्ज कराती हैं। एक स्मरणीय तथ्य यह भी है कि पदुमलाल-पुन्नालाल बख्शी को ''सरस्वती" का संपादन करने का सम्मान मिला। माखनलाल चतुर्वेदी ने ''पुष्प की अभिलाषा" जैसी अमर कविता बिलासपुर जेल की कोठरी में बैठकर लिखी व गजानन माधव मुक्तिबोध के अंतिम वर्ष यहीं बीते।
भारतीय रंगमंच को जिन प्रतिभाओं ने समृद्ध किया, उनमें से दो प्रमुख नाम हबीब तनवीर व सत्यदेव दुबे छत्तीसगढ़ के हैं ही। इसके अलावा अन्य विधाओं में भी देवदास बंजारे, तीजन बाई, झाड़ूराम देवांगन, जयदेव बघेल, गोविंदराम झारा, सोनाबाई जैसे कितने ही नाम उल्लेखनीय हैं। लेखकों की तो एक सुदीर्घ सूची है ही जिससे पाठकगण परिचित हैं। भारतीय सिनेमा में भी छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण योगदान है। सुप्रसिद्ध फिल्म निदेशक एवं अभिनेता किशोर साहू इसी प्रदेश के थे। आगे चलकर रायपुर के कांतिलाल पटेल ने अपनी गुजराती में बनी फिल्म "कंकू" के लिए वर्ष की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार हासिल किया। उन्होंने "परिणय" आदि अन्य स्मरणीय फिल्में भी बनाईं। इसी तरह रायपुर के दयाराम चावड़ा ने फोटोग्राफी के क्षेत्र में महारत हासिल की। छत्तीसगढ़ की संस्कृति की चर्चा के संदर्भ में ये सारे तथ्य ध्यान रखने योग्य है।
यह स्मरण कराने की आवश्यकता नहीं कि किसी भी समाज की संस्कृति शून्य में विकसित नहीं होती। भूगोल, इतिहास, अर्थशास्त्र, पर्यावरण, सामाजिक परंपराएं इत्यादि का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव कला सर्जना पर पड़ता है। इस प्रभाव से ही प्रारंभ में लोक संस्कृति का निर्माण होता है एवं कालांतर में उसका ही एक अंश शास्त्रीय रूप में ढल जाता है। यहां मैं विशेषकर छत्तीसगढ़ की एक सामाजिक परंपरा की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। छत्तीसगढ़ को यदि तालाबों का प्रदेश कहा जाए तो किंचित भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज भी प्रदेश में ऐसे तालाब विद्यमान हैं जिनकी आयु हजार-आठ सौ वर्ष की है। ये तालाब, इनकी पार पर लगे आम, अर्जुन, गूलर आदि वृक्षों की छाया में ही यहां संस्कृति का बीजारोपण हुआ होगा। ध्यान रहे कि ये तालाब हमारे सयानों ने बनवाए थे इसलिए जिस विषय पर आज हम चर्चा कर रहे हैं इसमें इस तथ्य को नहीं भुलाना चाहिए।
यह कटु सत्य है कि इतना सब कुछ होने के बावजूद देश के सांस्कृतिक नक्शे पर छत्तीसगढ़ की विशिष्ट छवि आज तक नहीं बन पाई है। इसका एक प्रबल कारण तो शायद यह है कि प्रदेश के बाहर का समाज हमेशा से छत्तीसगढ़ को एक पिछड़ा प्रदेश मानते आया है। 1956 में जब छत्तीसगढ़ नए मध्यप्रदेश का हिस्सा बना शायद तब से यह स्थिति चली आ रही है। मैं समझता हूं कि 1956 से पहले के सीपी एंड बरार राज्य की ऐसी स्थिति नहीं थी। उस समय छत्तीसगढ़, विदर्भ और महाकौशल इन तीनों में कोई बड़ा-छोटा नहीं था और न किसी तरह का भेदभाव होता था। नए मध्यप्रदेश के निर्माण के ठीक दो माह बाद 31 दिसंबर 1956 को प्रथम मुख्यमंत्री व कद्दावर नेता पंडित रविशंकर शुक्ल के निधन के साथ एक नया माहौल बनना शुरू हुआ, जिसमें महाकौशल, बुंदेलखंड व बघेलखंड के साथ-साथ छत्तीसगढ़ को भी हाशिए पर डाल दिया गया। छत्तीसगढ़ के साथ दूसरी विडंबना यह हुई कि नए प्रदेश के सत्ता केंद्र भोपाल से उसकी भौगोलिक दूरी भी काफी थी। इसमें करेला और नीम चढ़ा की कहावत तब चरितार्थ हुई जब छत्तीसगढ़ के प्रभावी राजनेताओं ने भी इस प्रदेश को अपना प्राप्य दिलवाने में जबानी जमाखर्च से ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखलाई। जब 1 नवंबर 2000 को नया छत्तीसगढ़ प्रदेश बना तब मोमबत्ती की लौ की तरह क्षणिक आशा जगी कि अब छत्तीसगढ़ की सही पहचान बन पाएगी लेकिन ऐसा नहीं हो सका। जो सत्ता में बैठे थे उनकी प्राथमिकताएं कुछ और थीं। कला, साहित्य व संस्कृति से उनका कोई खास लेना-देना नहीं था और न इस बारे में पिछले डेढ़ दशक में कोई सुविचारित पहल ही की गई। हमारे कलाकार और हुनरकार बीच-बीच में दिल्ली वगैरह बुलाए जाते हैं वे वहां जाकर कुछ फुलझडिय़ां बिखेर कर वापस अपने अंधेरे में लौट आते हैं।
मैं यह मानता हूं कि जनतांत्रिक व्यवस्था में जनकल्याणकारी राज्य का दायित्व है कि वह कला-साहित्य का संवर्धन व संरक्षण करें। इसके लिए अव्वल तो दृष्टि की जरूरत होती है, फिर राजनीतिक इच्छाशक्ति की। अगर छत्तीसगढ़ में इन बुनियादी शर्तों की ही पूर्ति होते दिखाई नहीं देती तो इसके लिए हम स्वयं को दोष दे सकते हैं। रचनाशीलता को लोक, आदिवासी, नागर आदि खांचों में न बांटकर समग्रता में देखते हुए यह जरूरी है कि राज्य में ऐसा वातावरण, ऐसी संस्थाएं व ऐसा विधान हो, जिसमें हर विधा, हर शैली में सृजनात्मकता का विकास होने के लिए अनुकूल वातावरण हो। छत्तीसगढ़ जैसे नए राज्य के लिए तो यह और भी ज्यादा जरूरी है, जबकि इस प्रदेश की छवि आंतरिक अशांति याने नक्सलवादी खून-खराबे से घायल स्थान की बन गई हो। दिल्ली में गणतंत्र दिवस की परेड में छत्तीसगढ़ की एकाध झांकी शामिल हो जाए, पुरस्कृत हो जाए, उस पर सत्ताधीश गर्व भी कर लें, लेकिन साल में तीन सौ चौसठ दिन तो दिल्ली में बात छत्तीसढ़ में नक्सल समस्या की ही होती है।
छत्तीसगढ़ में प्रदेश सरकार द्वारा स्थापित दस विश्वविद्यालय हैं। इनमें 1954 में स्थापित कला व संगीत विश्वविद्यालय भी है, लेकिन इनमें से एक में भी छत्तीसगढ़ की संस्कृति को लेकर कोई गंभीर काम नहीं होता। यह ऐसा प्रदेश है जहां छुटभैये नेता अपने ऊपर पीएचडी करवा लेते हैं। यहां के लेखक और कलाकार पद्मश्री पाने के लिए खुद होकर आवेदन करते हैं और सिफारिशी चिट्ठियां लिखवाते इस-उस की ड्योढ़ी पर माथा टेकते हैं। यहां साल के प्रत्येक दिन कोई न कोई उत्सव, कोई न कोई सांस्कृतिक आयोजन होते रहता है, लेकिन जब तक मंत्री न आ जाएं कार्यक्रम शुरू नहीं होता। उनके आने से आयोजक धन्य होते हैं। कार्यक्रम के बीच में उठकर चले जाएं तो भी कोई बुरा नहीं मानता।
यह मजे की बात है कि 1964 में रायपुर में रविशंकर वि.वि. स्थापित हुआ। इसमें हिन्दी विभाग नहीं है। ललित कलाओं के लिए भी कोई विभाग नहीं है। यहां अपने पैसे से दो-चार किताबें छपवा लेने वाले अधकचरे साहित्यकार भी अपने ऊपर शोध कार्य करवा लेते हैं। इनकी गुणवत्ता का परीक्षण करने की कोई व्यवस्था नहीं है। एक तरफ अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की संख्या लगातार बढ़ रही है, दूसरी ओर सरकारी गैर-सरकारी स्कूलों में ऐसे अध्यापक नहीं हैं जो बच्चों को शुद्ध हिन्दी लिखना सिखा सकें। नतीजतन जो हिन्दी में एम.ए., पी.एच.डी. कर लेते हैं उन्हें भी अच्छी हिन्दी लिखना नहीं आता। प्रदेश के संस्कृति विभाग के हाल बेढब हैं। विगत तेरह वर्षों में इस विभाग का ठीक से ढांचा नहीं बन पाया और विभाग की दिशा क्या होगी यह भी आज तक नहीं पता। इसीलिए बख्शीजी और मुक्तिबोध के नाम पर साहित्य के लिए नहीं, बल्कि शिक्षक पुरस्कार दिए जाते हैं।
प्रदेश में फिलहाल जो सांस्कृतिक परिदृश्य बना हुआ है, उसमें एक तो संस्कृति कर्मियों की लंबी कतार दिखाई देती है। इनमें से प्रत्येक को या तो कोई पुरस्कार चाहिए या पुस्तक प्रकाशन के लिए आर्थिक सहायता या फिर अपनी बनाई किसी जेबी संस्था के लिए सरकारी अनुदान। यह शायद इस प्रदेश में ही होता है कि सरकारी स्तर पर आयोजित कवि सम्मेलन में अपना नाम जुड़वाने के लिए कविगण आयोजक अधिकारी को पत्र-पुष्प देने के लिए तैयार रहते हैं। इसके चलते किसी महोत्सव में आप मंच पर सौ-सौ कवियों को बैठा देख सकते हैं। प्रदेश में जो सृजनपीठ हैं अथवा जो साहित्य अकादमी जैसी संस्था में प्रदेश का प्रतिनिधित्व करते हैं उनके नाम-काम मन में किसी प्रकार का उत्साह नहीं जगाते।
बात यहां समाप्त नहीं होती। प्रदेश तीजन बाई जैसे कलाकारों पर उचित ही गर्व करता है वहीं छत्तीसगढ़ की संस्कृति के नाम पर अब जो फूहड़पन परोसा जा रहा है वह असहनीय है। कुछ व्यापारी लोक कलाओं के स्वयंभू संरक्षक बन गए हैं। लोक गीतों के नाम पर अब अश्लील गीतों के कैसेट बाजार में बिक रहे हैं, भक्ति गीतों के नाम पर बहरा कर देने वाला शोर-शराबा है, सुआगीत आदि के नाम पर सिर्फ एक नकलीपन है, छत्तीसगढ़ी में बनने वाली फिल्मों में छत्तीसगढ़ कहीं नहीं है, आदिवासी कलाकारों के शिल्प से मौलिकता और उनके अपने जीवन अनुभव लगभग लुप्त हो चुके हैं। छत्तीसगढ़ में जो लोग साहित्य व कला में सक्रिय हैं, आज उनकी चिंता यही है कि कैसे अपनी सहज प्रेरणा को बचा कर रखें, कैसे अपनी कल्पनाशीलता को मरने से बचाएं और कैसे लोभ-लालच के इस वातावरण में अपने आपको सुरक्षित रख सकें।
नोट-प्रस्तुत आलेख कुछ माह पूर्व बिलासपुर से प्रकाशित वार्षिक पत्रिका मड़ई के लिए लिखा गया था एवं मड़ई अंक-2013 में ''छत्तीसगढ़ : वर्तमान सांस्कृतिक परिदृश्य'' शीर्षक से संकलित है। अक्षर पर्व के लोकसंस्कृति पर केन्द्रित उत्सव अंक के लिए अलग से प्रस्तावना न लिखकर यही लेख प्रसंगानुकूल समझकर पुनप्र्रकाशित किया जा रहा है।
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