Friday, 27 March 2015

सोनिया, कांग्रेस और सोशल मीडिया




मैं
जब पिछले सप्ताह कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के नए तेवरों के बारे में लिख रहा था तब मुझे यह अनुमान नहीं था कि उनकी इस अचानक सक्रियता के कुछ और प्रसंग लगातार देखने मिलेंगे। यह जिक्र तो मैंने पिछले कॉलम में तो किया ही था कि वे कांग्रेसजनों को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के साथ एकजुटता दर्शाने उनके निवास तक गईं। इसके बाद उन्होंने लोकसभा में आंध्रप्रदेश के साथ हो रहे कथित अन्याय को लेकर सत्तापक्ष पर प्रहार किए, चौदह विपक्षी दलों का नेतृत्व करते हुए भूमि अधिग्रहण कानून पर राष्ट्रपति के पास अपना विरोध दर्ज कराने पहुंचीं, राजस्थान में जाकर किसानों से मिलीं, उसके बाद हरियाणा में किसानों से एकजुटता दिखाई और फिर रायबरेली रेल दुर्घटना के पीडि़तों से सहानुभूति व्यक्त करने अस्पताल भी पहुंचीं। यह जानने की उत्सुकता सबको है कि उनकी यह सक्रियता क्या रंग लाती है!

श्रीमती गांधी चूंकि आज देश की सर्वप्रमुख विपक्षी नेता हैं इसलिए वे सत्तारूढ़ दल के खिलाफ संसद में और संसद के बाहर अपना विरोध दर्ज कराएं तो इसमें सामान्य तौर पर आश्चर्य की कोई बात नहीं है। किन्तु बात इतनी सरल भी नहीं। यह सबने देखा है कि विगत तीन-चार वर्षों से सोनिया गांधी ने राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाना लगभग बंद कर दिया था। यह माना जा रहा था कि वे राहुल गांधी को अपनी जिम्मेदारी हस्तांतरित करने में लगी हुई थीं। जैसी कि आम धारणा बन चुकी है वे अपने इस प्रयत्न में सफल नहीं हो सकीं। राहुल गांधी को पार्टी में दूसरे नंबर का ओहदा दिया गया। उन्हें आगे बढऩे के लिए बार-बार मंच भी उपलब्ध कराया गया, लेकिन इनका कोई परिणाम नहीं निकला। इसे लेकर उनका बहुत उपहास भी किया गया, जो कि अभी तक चल रहा है। आम जनता समझ नहीं पा रही है कि राहुल गांधी की राजनीति में रुचि एवं क्षमता किस सीमा तक है।

जो भी हो, कांग्रेस में पिछले दिनों जो गिरावट आई है उसका दोष स्वयं कांग्रेसजन भी राहुल गांधी पर मढऩे लगे हैं। वर्तमान में राजनीतिक मंच से उनकी अनुपस्थिति ने भी लोगों को चक्कर में डाल रखा है। जिन्हें उनका पता-ठिकाना मालूम होगा उन्होंने भी फिलहाल चुप रहना बेहतर समझा है। इस स्थिति को देखकर यह कयास भी लगाया जा रहा है कि कांग्रेस के मौजूदा हालात देखकर सोनिया गांधी ने एक बार फिर खुद सामने आकर मोर्चा संभाल लिया है और जान-समझ कर ही राहुल गांधी को पृष्ठभूमि में भेज दिया गया है। अगर यह सच है तो इसमें हमें हैरानी नहीं है। राजीव गांधी की नृशंस हत्या के बाद सोनियाजी ने सात साल तक दलगत राजनीति से दूरी बनाए रखी थी। किन्तु जिस दिन उन्हें लगा कि कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए उनका सामने आना जरूरी है तो ऐसा करने में उन्होंने देरी नहीं की।

कांग्रेस के लिए 1997-98 एवं 2014-15 की स्थितियों में काफी समानताएं हैं। श्री नरसिम्हा राव और डॉ. मनमोहन सिंह की युति द्वारा नवउदारवादी आर्थिक एजेण्डा लागू करने के बावजूद 1996 और फिर 1997 में कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा था। श्री राव की जगह सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष बन गए थे, जिनकी पार्टी निष्ठा और वरिष्ठता दोनों ही पार्टी को पुनर्जीवित करने में नाकाम सिद्ध हो चुकी थी। सोनिया गांधी ने कठिन समय में पार्टी की बागडोर संभाली तब 2004 में जाकर उनकी अथक मेहनत का परिणाम सामने आया। आज फिर वैसी ही स्थिति है बल्कि तब के मुकाबले चुनौतियां अभी इस वक्त कहीं ज्यादा हैं। भारतीय जनता पार्टी के पास न सिर्फ स्पष्ट बहुमत है बल्कि नरेन्द्र मोदी के रूप में एकछत्र नेता भी है जबकि कांग्रेस के पास लोकसभा में दस प्रतिशत सीटें भी नहीं हैं।

हमारी निगाह इस ओर लगी रहेगी कि सोनिया गांधी इस पहले से ज्यादा मुश्किल समय में पार्टी का कायाकल्प किस तरह करेंगी! वे यदि राहुल गांधी को राजनीति की कठोर वास्तविकताओं से दूर रखना चाहती हैं तो अच्छी बात है, परन्तु यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आज के संग्राम में उनके सिपहसालार कौन हैं। कांग्रेस ने जब लोकसभा में मल्लिकार्जुन खडग़े को दलनेता बनाया था तो उसका हमने स्वागत किया है। श्री खडग़े ने पार्टी अध्यक्ष द्वारा उन पर किए विश्वास को प्रमाणित भी किया है। किन्तु क्या श्रीमती गांधी दक्षिण भारत के इस दलित नेता को और अधिक जिम्मेदारियां देने तैयार हैं? श्री खडग़े के अलावा के.सी. देव, पृथ्वीराज चह्वाण, सचिन पायलट, दीपा दासमुंशी जैसे अनेक नेता हैं जो विभिन्न प्रदेशों से आते हैं और अलग-अलग आयु समूहों व सामाजिक पृष्ठभूमियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। देखना होगा कि कांग्रेस अध्यक्ष आगे की लड़ाई में इनकी क्षमताओं का उपयोग किस रूप में करती हैं।

यह बात इसलिए उठती है क्योंकि कांग्रेस के पास वर्तमान में जो चर्चित चेहरे हैं वे अपनी प्रतिष्ठा तथा विश्वसनीयता काफी हद तक खो चुके हैं। यदि कहा जाए कि कांग्रेस की पराजय के पीछे ऐसे नेताओं का सत्तालोभ, धनलोभ और बड़बोलापन ही मुख्य कारण थे तो शायद गलत नहीं होगा। आज जब कांग्रेस पार्टी धर्मनिरपेक्षता के साथ-साथ सामाजिक न्याय की लड़ाई लडऩे की बात कर रही है, जब वह कारपोरेट बनाम किसान-मजदूर का मुद्दा उठा रही है, जब वह समाजवादी और साम्यवादी दलों के साथ मंच साझा कर रही है, तब यह आवश्यक है कि उसके पास नेतृत्व की पहली-दूसरी पंक्ति में ऐसे लोग हों जो जुझारू होने के साथ-साथ जनता के बीच में भी सम्मान के पात्र हों। मुझे लगता है कि जिस तरह छत्तीसगढ़ में टी.एस. सिंहदेव और भूपेश बघेल की जोड़ी डटकर काम कर रही है वैसा ही वातावरण कांग्रेस को पूरे देश में बनाने की आवश्यकता है।

कांग्रेस अध्यक्ष को मैदानी लड़ाई के साथ-साथ वैचारिक स्तर पर भी मोर्चा खोलने की आवश्यकता है। पी.वी. नरसिम्हा राव और डॉ. मनमोहन सिंह दोनों प्रकाण्ड पंडित थे, लेकिन उनकी दक्षिणपंथी वैचारिक रुझान कांग्रेस के लिए आत्मघाती सिद्ध हुई। अभी भी हमने देखा कि बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश पर कांग्रेस ने भाजपा का साथ देकर बिल पास करवा दिया। यद्यपि बाद में कोयला बिल और खनन बिल पर उसने अपना रुख बदल दिया। इससे पता चला कि कांग्रेस में वैचारिक स्पष्टता और प्रतिबद्धता का अभाव है। सोनियाजी को समझना होगा कि आनन्द शर्मा और मनीष तिवारी जैसे नेता इस लड़ाई में काम नहीं आएंगे। यह अब उनके ऊपर है कि वे अपनी टीम में किनको शामिल करती हैं।

इस बीच कांग्रेस के पक्ष में एक अच्छी बात हुई है। अभी हाल-हाल तक संघ और भाजपा के लोग सोशल मीडिया पर अत्यन्त सक्रिय थे और कांग्रेस उनके मुकाबले में दूर-दूर तक कहीं नहीं थीं। यह स्थिति बदलती नज़र आ रही है। मैं देख रहा हूं कि सोनिया गांधी की बढ़ती सक्रियता के साथ-साथ कांग्रेसजन भी सोशल मीडिया पर अचानक सक्रिय हो उठे हैं। वे संघ, भाजपा और नरेन्द्र मोदी के समर्थकों द्वारा उठाई गई बातों का तुर्की-ब-तुर्की जवाब देते हैं। प्रधानमंत्री के दस लाख के सूट से लेकर उनकी विदेशी यात्राओं पर तीन सौ करोड़ का खर्च तथा अन्य अनेक मुद्दे वे लगातार उठा रहे हैं। कोई दिन नहीं जाता जब गुजरात मॉडल की सप्रमाण धज्जियां न उड़ायी जाती हों। यह राजनीतिक दृष्टि से एक सही रणनीति है क्योंकि युवाओं के बीच पैठ बनाने के लिए सोशल मीडिया अनिवार्य हो चुका है। इसी मुद्दे पर चलते-चलते यह भी कह दूं कि कांग्रेसजन सोशल मीडिया पर भाजपाईयों के मुकाबले अधिक संयमपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं।
देशबन्धु में 26 मार्च 2015 को प्रकाशित

Wednesday, 18 March 2015

सोनिया के नए तेवर


एक ओर जब आम आदमी पार्टी अंतर्कलह से जूझ रही है और भारतीय जनता पार्टी को बार-बार बचाव की मुद्रा अख्तियार करने पर मजबूर होना पड़ रहा है, तब दूसरी ओर कांग्रेस अपनी शक्ति संचित कर आक्रामक शैली में आ रही प्रतीत हो रही है। वह भी ऐसे समय जब पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी संसद सत्र के दौरान लंबे अवकाश पर चले गए हैं एवं उनकी गैरहाजिरी को लेकर सत्तारूढ़ दल के नेता-कार्यकर्ता हर तरह से उनकी खिल्ली उड़ा रहे हैं। कांग्रेस के ये जो नए तेवर देखने मिल रहे हैं उसका कुछ श्रेय तो मोदी सरकार को ही मिलना चाहिए। सरकार को यह पता था कि लोकसभा में भले ही उसके पास स्पष्ट बहुत हो, राज्यसभा में उसकी राह तभी आसान हो सकती है जब वह विपक्ष को साथ लेकर चल सके। अपनी अहम्मन्यता में सरकार ने इस तथ्य की अवहेलना कर दी।

भूमि अधिग्रहण विधेयक की ही बात लें। सन् 2013 में संसद में जब यह कानून बना तब मुख्य विपक्षी दल के रूप में भारतीय जनता पार्टी ने भी इसे अपना पूर्ण समर्थन दिया था। संसद की लगभग आम सहमति से यदि कोई कानून बना था तो उसमें मात्र एक साल के भीतर परिवर्तन करने की कोई आवश्यकता सरकार को नहीं पडऩा चाहिए थी। मोदी सरकार के पास चुनकर आने के बाद और भी बहुत से काम थे, उन्हें छोड़कर एक व्यापक सहमति से बने कानून को बदलने का निर्णय उसने क्यों लिया? आम जनता का मानना है कि यह निर्णय अडानी-अम्बानी जैसे कारपोरेट घरानों के दबाव में लिया गया है। इस आम धारणा की पुष्टि उस वक्त हुई जब संशोधन विधेयक को बजट सत्र में लाने के बजाय उसे अध्यादेश की शक्ल दे दी गई। ऐसा न जाने क्या सोचकर किया गया! नया कानून बनने से जिन्हें भी फायदा होना है वे भी तो देश की राजनीति जानते हैं।

कारपोरेट घरानों को जमीन हड़पना है तो वे उसके लिए चार-छह माह प्रतीक्षा कर सकते थे। ऐसा तो नहीं था कि अध्यादेश आ जाने से वे जमीन खरीदने लपक पड़ेंगे। यह भी सरकार को पता था कि संसद के दोनों सदनों का संयुक्त सत्र बुलाकर ही वह बिल को पारित करवा सकती थी जो कि एक असामान्य स्थिति होती, लेकिन मोदीजी ने इन वास्तविकताओं की अनदेखी कर दी। इसका परिणाम है कि देश में चारों तरफ इस मुद्दे पर जनता में आक्रोश है। लोकसभा में भी सरकार को बिल पारित करवाने के लिए नौ संशोधन करना पड़े, फिर भी बात नहीं बनी। कांग्रेस, समाजवादी और वामदलों की तो बात छोडि़ए, भाजपा के सहयोगी याने एनडीए के घटक दल भी इस पर राजी नहीं हुए। अकाली दल ने तो इस प्रश्न पर भाजपा का खुलकर विरोध किया। कुल मिलाकर सरकार के इस एक कदम से विपक्ष को एकजुट होने का मौका मिला और सरकार के हिस्से आई शर्मिंदगी।

एक तरफ भूमि अधिग्रहण विधेयक जैसा अहम् मुद्दा, दूसरी ओर राहुल गांधी के घर पुलिस की पूछताछ जैसी एक छोटी सी कार्रवाई। कल तक सत्तापक्ष पूछ रहा था कि राहुल गांधी कहां हैं। आज राहुल गांधी की पार्टी पूछ रही है कि उनके घर पुलिस गई तो क्यों गई। कांग्रेस मोदी सरकार पर राहुल गांधी की जासूसी करने का आरोप लगा रही है और आज सोमवार को इस मुद्दे पर उसने सदन का बहिष्कार भी किया। दिल्ली के पुलिस प्रमुख एवं भाजपा के प्रवक्ता सफाई दे रहे हैं कि यह पूछताछ एक सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा थी, लेकिन इस सफाई को मानने कोई तैयार नहीं है। जिस व्यक्ति को एसपीजी की सुरक्षा उपलब्ध हो उसकी तो पल-पल की खबर सरकार के पास होना चाहिए तथा होती भी होगी। ऐसे में उस व्यक्ति से साधारण पूछताछ करने में क्या तुक थी? यदि पुलिस प्रमुख श्री बस्सी इतना भर कह देते कि थाना प्रभारी के अति उत्साह में या असावधानी में ऐसा हो गया तो शायद बात वहां खत्म हो जाती, किन्तु जब सरकार इस कार्रवाई का औचित्य सिद्ध करने लगी तो मामले ने तूल पकड़ लिया।

बहरहाल कांग्रेस को नई ऊर्जा देने का काम किया दिल्ली में सीबीआई की विशेष अदालत ने। तथाकथित कोयला घोटाले की जांच कर रही अदालत ने पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को भी इस बहुचर्चित प्रकरण में आरोपी बना दिया है। यह नि:संदेह एक बड़ी घटना है। इसके दूरगामी परिणाम भी होंगे एवं तात्कालिक प्रतिक्रिया तो होना ही था।  सीबीआई इस प्रकरण में डॉ. सिंह से पहले पूछताछ कर चुकी है। उसने अपनी रिपोर्ट भी अदालत को दे दी है कि पूर्व प्रधानमंत्री पर प्रकरण नहीं बनेगा। अदालत ने जांच एजेंसी के इस कथन को स्वीकार नहीं किया है। डॉ. सिंह पर आरोप दर्ज होने की खबर जैसे ही सामने आई सबसे पहले प्रतिक्रिया संभवत: केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने यह कहकर दी कि कांग्रेस के पापों का परिणाम डॉ. सिंह को भुगतना पड़ रहा है। यह श्री जावड़ेकर ने आग में घी डालने का काम किया। प्रकाश जावड़ेकर मंत्री बनने के पूर्व भारतीय जनता पार्टी के एक प्रभावी प्रवक्ता थे। उन्हें सामने कर पार्टी और सरकार दोनों ने शायद यह कोशिश की थी कि कांग्रेस पार्टी और डॉ. मनमोहन सिंह या यूं कहें कि सोनिया गांधी और डॉ. सिंह के बीच में तनाव या दूरी है, ऐसा संदेश दिया जाए। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। कांग्रेस अध्यक्ष ने अपनी रणनीति बनाने में जरा भी वक्त नहीं गंवाया। उसी शाम खबर आ गई कि दूसरे दिन सुबह संसद जाने के पूर्व कांग्रेस मुख्यालय में बैठक होगी और पार्टी के तमाम नेता डॉ. मनमोहन सिंह के निवास उनके साथ एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए जाएंगे। इस कार्रवाई से एक साथ दो-तीन काम साध लिए गए। एक तो यह स्पष्ट संदेश दिया गया कि पार्टी हाईकमान और पूर्व प्रधानमंत्री के बीच कोई दूरी नहीं है। दूसरा यह कि पार्टी अपने पूर्व प्रधानमंत्री के साथ पूरी ताकत के साथ खड़ी रहेगी। तीसरे और सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह कि पार्टी आवश्यकता पडऩे पर सड़क पर आने से नहीं हिचकेगी।

सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस मुख्यालय से पूर्व प्रधानमंत्री के आवास तक जो पैदल मार्च हुआ उसने अनेक उत्साही प्रेक्षकों, पत्रकारों को 1978 में इंदिरा गांधी की बेलछी यात्रा की याद दिला दी। यह तो अतिशयोक्ति हो गई लेकिन इतना तो मानना ही होगा कि ऐसा करके सोनियाजी ने एक बार फिर राजनीतिक कौशल और साहस का परिचय दिया। हां, उन्हें बेलछी के पुनर्मंचन का अवसर इसके पहिले मिला था जो उन्होंने गंवा दिया। यह अवसर छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में नसबंदी शिविर में हुई महिलाओं की मौत के समय था। जो बीत गई सो बीत गई। श्रीमती गांधी ने अपने जीवन में बहुत सी चुनौतियों का सफलतापूर्वक मुकाबला किया है। अब देखना यह है कि यह जो एक अवसर प्राप्त हुआ है वे उसका किस हद तक लाभ उठा पाती हैं।

सीबीआई की विशेष आदालत ने जो कार्रवाई की है वह तो कानून के जानकारों के बीच बहस का विषय है। लेकिन इससे डॉ. सिंह के पक्ष में सहानुभूति का वातावरण अवश्य बन गया है। कांग्रेस पार्टी का एकजुटता प्रदर्शन इस मौके पर स्वाभाविक भी था और आवश्यक भी। लेकिन इसके परे आम जनता भी यह मानने को तैयार नहीं है कि डॉ. सिंह किसी तरह से दोषी हैं। भारतीय जानता पार्टी के नेता भी उनकी सत्यनिष्ठा को बेहिचक स्वीकार करते हैं। यहां एक और तथ्य गौरतलब है। डॉ. मनमोहन सिंह भारत में आर्थिक उदारवाद के प्रणेता हैं। वे कारपोरेट घरानों को मनचाही छूट भले ही न दे पाए हों, किन्तु उनके हित साधन में अपना वश चलते उन्होंने कोई कमी नहीं की, इसलिए उनको आरोपी बनाए जाने से कारपोरेट जगत भी एकाएक विचलित हो उठा है। न्यायालय की स्वतंत्रता अपनी जगह पर है, लेकिन यह भय कारपोरेट घरानों को सताने लगा है कि क्या मोदी सरकार में उनके हित सुरक्षित रह पाएंगे?

डॉ. मनमोहन सिंह को आरोपी बनाए जाने की खबर पर कारपोरेट दिग्गजों ने जो प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं वे इसी ओर संकेत करते हैं। यह भी ध्यान देना चाहिए कि मोदी सरकार बनने के कुछ हफ्तों के भीतर ही स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने अडानी ग्रुप को एक बिलियन डालर याने छ: हजार करोड़ रुपए ऋण देना स्वीकार कर लिया था। वह निर्णय बैंक ने वापिस ले लिया है। क्या इसीलिए तो नहीं कि कौन जाने कब किस पर क्या कार्रवाई हो जाए? कुल मिलाकर मोदीजी के लिए संदेश है कि भाषणों से देश नहीं चलता।

देशबन्धु में 19 मार्च 2015 को प्रकाशित 

Wednesday, 11 March 2015

राजनीति के नए रंग


 भारतीय जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत के साथ केन्द्र में तथा आम आदमी पार्टी को अभूतपूर्व बहुमत के साथ दिल्ली में मतदाताओं ने इस भावना के साथ विजय दिलवाई थी कि ये सरकारें लोकहित में बिना किसी अनुचित दबाव के काम कर सकेंगी, किन्तु यह विश्वास बहुत जल्दी बिखरते नज़र आ रहा है। पिछले सात-आठ दिन में राजनीतिक मंच पर जो दृश्य देखने मिले हैं वे बढ़ती हुई निराशा और मोहभंग की ओर ही संकेत करते हैं। लगभग दस माह पूर्व केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी और उसके बाद भी जनता ने प्रदेश विधानसभाओं के चुनावों में भाजपा को शायद यही सोचकर समर्थन दिया था कि नरेन्द्र मोदी के हाथ जितने मजबूत होंगे उतनी ही गति से देश का विकास होगा, लेकिन अब लोग अपने ही फैसले पर शंका कर रहे हैं। ऐसी ही कुछ स्थिति दिल्ली के संदर्भ में आम आदमी पार्टी की भी बन गई है।

भारतीय जनता पार्टी ने जम्मू-काश्मीर प्रांत में पूर्ण बहुमत हासिल कर सरकार बनाने का सपना देखा था। यह एक नया इतिहास रचने का सपना था। इसे हासिल करने के लिए भाजपा ने हर संभव कोशिश की। जम्मू क्षेत्र में उसे आशानुरूप सफलता भी मिली, लेकिन जिस पीडीपी को जड़ से उखाड़ फेंकने का आह्वान नरेन्द्र मोदी कर रहे थे उसमें उन्हें रंचमात्र भी सफलता नहीं मिली और मुफ्ती परिवार की पार्टी 28 सीटें लेकर विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन गई। भाजपा और पीडीपी में वही रिश्ता था जो सांप और नेवले में होता है। दोनों के साथ मिलकर सरकार बनाने की कोई कल्पना भी नहीं करता था। आखिरकार ये मुफ्ती मोहम्मद सईद वही व्यक्ति हैं जो कभी भारत के गृहमंत्री थे और तब जिनकी बेटी के आतंकवादियों द्वारा अगुवा कर लिए जाने पर भाजपा ने तरह-तरह के सवाल उठाए थे। श्री मुफ्ती की देशनिष्ठा को लेकर सवाल तो आज भी उठ रहे हैं। संघ के मुखपत्र आर्गनाइज़र में प्रकाशित पूर्व सीबीआई डायरेक्टर जोगिन्दर सिंह का लेख यही तो कहता है।

इसके बावजूद चुनाव के बाद भाजपा ने पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने के लिए जो पैंतरेबाजी की वह आश्चर्यजनक ही कही जाएगी। सबसे बड़ा दल होने के नाते पीडीपी सरकार बना पाती या न बना पाती यह उसका सिरदर्द था। इसमें भारतीय जनता पार्टी को उलझने की क्या आवश्यकता थी? इसकेे लिए भाजपा ने अपने एक प्रभावशाली महासचिव राम माधव को मध्यस्थ बनाया। यह कोई साधारण निर्णय नहीं था क्योंकि राम माधव संघ से पार्टी में प्रतिनियुक्ति पर भेजे गए हैं। याने संघ भी यही चाहता था कि जम्मू-काश्मीर प्रांत में भाजपा येन केन प्रकारेण सत्ता में भागीदार बने! इसकी क्या वज़ह हो सकती थी? क्या यह सिर्फ एक झूठी आत्मसंतुष्टि का मामला था कि देखो भाजपा का राज काश्मीर में भी है या फिर इसके पीछे कोई गहरा मंतव्य था?

अब जब भाजपा और पीडीपी में संयुक्त साझा सरकार बनने के एक हफ्ते के भीतर ही दरारें पडऩी शुरू हो गईं हैं तब इस बारे में तरह-तरह के कयास लगने लगे हैं। राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले एक बुजुर्ग मित्र ने मुझसे कहा कि शायद मोदी सरकार जम्मू-काश्मीर का विभाजन करना चाहती है। जम्मू में भाजपा की सरकार बन जाए और काश्मीर घाटी में पीडीपी की। उन्होंने आशंका व्यक्त की कि आगे चलकर काश्मीर घाटी पाकिस्तान के हिस्से में न चली जाए। यह असंभव कल्पना नहीं है। ऐसे सुझाव समय-समय पर आ चुके हैं कि जम्मू, लद्दाख और काश्मीर अलग प्रांत बन जाएं; फिर देखा जाए कि क्या होता है। मुफ्ती साहब ने मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद पाकिस्तान, हुर्रियत और अलगाववादियों को जो धन्यवाद दिया उससे भी वही ध्वनि निकलती है कि काश्मीर घाटी की अपनी एक स्वायत्त स्थिति है या होना चाहिए।

अभी एक अलगाववादी मसरत आलम को आनन-फानन में जिस तरह से रिहा किया गया उसने भी एक बेचैनी को जन्म दिया है। जनता जानना चाह रही है कि मुख्यमंत्री मुफ्ती ने यह फैसला अपने तईं लिया है या इसमें गठबंधन सहयोगी भाजपा की भी सहमति रही है। इस कॉलम के लिखे जाने तक भाजपा की ओर से जो स्पष्टीकरण आए हैं वे किसी भी तरह आश्वस्त नहीं करते। शंका होती है कि साझा सरकार बनाने के लिए भाजपा ने कहीं पहले ही पीडीपी से गुप्त समझौता तो नहीं कर लिया था! सज्जाद लोन का भाजपा के कोटे से मंत्री बनना भी कम आश्चर्यजनक नहीं है। सफाई दी जा रही है कि श्री लोन नरमपंथी अलगाववादी हैं। इस व्याख्या पर आप क्या कहेंगे? काश्मीर के मसले पर केन्द्र सरकार और सत्तारूढ़ दल अलग-अलग माध्यमों से वार्ता करें यहां तक तो बात ठीक है, लेकिन प्रदेश सरकार में शरीक हो जाने के बाद भाजपा की स्थिति कमजोर हुई है यह एक सच है तथा उसके कट्टर समर्थकों को भी यह नया रंग समझ नहीं पड़ रहा है।

इधर आम आदमी पार्टी में जो खेल चल रहा है उससे भी लोग असमंजस में हैं। योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण पार्टी से लगभग बाहर हो गए हैं, ऐसा माना जाए तो गलत न होगा। ये वे दो लोग हैं जिन्होंने अरविन्द केजरीवाल के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया था तथा पार्टी का वैचारिक आधार तैयार करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। फिर ऐसा क्या हुआ कि इनके बीच मतभेद इस तरह खुलकर सामने आए और इतनी कटुता देखने मिली। शांतिभूषण ने चुनावों के बीच ही श्री केजरीवाल की आलोचना व किरण बेदी का समर्थन किया था। अब पता चल रहा है कि प्रशांतभूषण की बहन अमेरिका निवासी शालिनी गुप्ता ने जो कि आप के एनआरआई प्रकोष्ठ की संयोजक हैं ( या थीं) अपने एनआरआई समर्थकों को ई-मेल भेजकर पार्टी को चंदा न देने की अपील की थी। इससे इस आरोप को बल मिलता है कि भूषण परिवार चुनाव में पार्टी की हार देखना चाहता था। लेकिन इसकी वजह क्या है? जिस तरह से श्री केजरीवाल का शाजिया इल्मी आदि से विरोध हुआ, क्या कुछ वैसी ही स्थिति भूषण परिवार के साथ उत्पन्न हो गई थी? फिर योगेन्द्र यादव और मुंबई के मयंक गांधी जैसे नेता पार्टी से विमुख क्यों हुए? जिस तरह से दोनों पक्षों के बीच पत्राचार हुआ, मीडिया के माध्यम से एक-दूसरे पर आरोप लगाए गए उससे हर आप समर्थक व्यक्ति व्यथित ही हुआ है। अरविन्द केजरीवाल मीडिया के जरिए अपना दु:ख व्यक्त करते हैं और गंदगी में न पडऩे की बात कहकर स्वास्थ्य लाभ करने बंगलुरू चले जाते हैं, दूसरी तरफ उनके समर्थक योगेन्द्र यादव एंड कंपनी पर लगातार निशाना साधे रहते हैं और पार्टी कार्यकारिणी में उन्हें बहुमत के द्वारा बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। जो अरविन्द केजरीवाल मुख्यमंत्री रहते हुए रेल भवन के सामने धरने पर बैठने का कौतुक करते हैं वे अपने निकट मित्रों से खुलकर बात करने में कतराते हैं, यह एक नई और विचित्र स्थिति है।

अभी-अभी उनके एक अन्य समर्थक एवं आप नेता आशुतोष  द्वारा लिखी गई केजरीवाल की जीवनी प्रकाशित हुई है जिसका शीर्षक है- ''द क्राउन प्रिंस, द ग्लेडिएटर एंड द होप"। जैसा कि शीर्षक से अनुमान होता है कि लेखक अपने नायक को एक साथ युवराज और योद्धा के रूप में प्रस्तुत कर उसे आशा का प्रतीक मान रहा है। एक जनतांत्रिक राजनीति में अपने चरित्र नायक को युवराज का विशेषण देना कम से कम मुझे अटपटा लगा। क्या लेखक इसके लिए कोई बेहतर शब्द नहीं ढूंढ सकता था? 'आप' की जो स्थिति दिखाई दे रही है उसमें यह आशंका भी होती है कि कहीं यह योद्धा-युवराज अभिमन्यु की गति को प्राप्त न हो जाए और सारी आशाएं बिखर कर रह जाएं!

इससे बड़ा प्रश्न यह है कि आम आदमी पार्टी के बीच चल रहा संघर्ष क्या व्यक्तियों का संघर्ष है या विचारधाराओं का? यह तो सबको पता है कि चालू राजनीति से मोहभंग होकर अनेकानेक लोग 'आप' से इसलिए जुड़े थे कि यह नया दल राजनीति का एक नया मुहावरा गढ़ेगा। आम कार्यकर्ता की सोच तो यही थी, लेकिन क्या पार्टी नेतृत्व के इरादे भी इतने ही नेक थे? अभी से चर्चाएं होने लगी हैं कि इन नेताओं में से कौन भाजपा के करीब है और कौन कांग्रेस के। एक और बात उठ रही है कि इनमें से कौन पूंजीवाद के अमेरिकी मॉडल का प्रतिनिधि है और कौन यूरोपीय मॉडल का। कुल मिलाकर अगर आम आदमी पार्टी में यही चलता रहा तो एक बड़ा वर्ग अपने आपको छला गया महसूस करेगा। अंतत: यदि भाजपा ने विकास के नारे पर और 'आप' ने पारदर्शिता के नारे पर अमल नहीं किया तो इसके लिए जनता उन्हें माफ नहीं करेगी।
देशबन्धु में 12 मार्च 2015 को प्रकाशित

Friday, 6 March 2015

अंतिम सच का सामना कैसे करें


 भारत में वरिष्ठ नागरिकों या यूं कहें वृद्धजनों की संख्या लगातार बढ़ रही है। एक समय था जब साठ वर्ष आयु के व्यक्ति को वृद्ध ही माना जाता था। इधर यह स्थिति बदल गई है, यद्यपि सेवानिवृत्ति की आयु औसतन साठ वर्ष की ही है। रेल किराया, आयकर, बीमा आदि में भी साठ वर्ष को एक तरह से वृद्ध हो जाने का कानूनी दर्जा दिया जाता है। फिर आज के सामाजिक वातावरण में इस आयु समूह के लोग वरिष्ठ नागरिक ही कहलाया जाना पसंद करते हैं। वे वृद्धता का बोझ अपने ऊपर नहीं लादना चाहते और यह बड़ी हद तक उचित भी है। भारत वर्ष में आजादी के बाद से सामाजिक परिस्थितियों में बेहतरी के लिए जो बदलाव आए हैं उनमें से एक यह भी है कि 1947 में जहां एक भारतीय की औसत आयु 26-27 वर्ष होती थी वह बढ़ते-बढ़ते अब 57-58 साल के आसपास पहुंच चुकी है। इसमें चिकित्सा विज्ञान का काफी योगदान है यह मानना होगा। एक अनुमान है कि देश में अभी दस करोड़ से कुछ ज्यादा व्यक्ति हैं जो साठ की दहलीज लांघ चुके हैं। यह संख्या निकट भविष्य में बढऩा ही है। एक तरफ युवा जनसंख्या में वृद्धि हो रही है और दूसरी ओर वरिष्ठ जनों की। गौरतलब है कि इन दस-ग्यारह करोड़ में कोई चार करोड़ लोग अकेले हैं।

स्पष्ट है कि इनकी यह बढ़ती संख्या अनेक स्तरों पर नीतिगत पुनर्विचार की मांग करती है। भारत, चीन और जापान में स्थिति कुछ अधिक जटिल है, लेकिन विश्व के अन्यान्य देश भी इस वास्तविकता से रूबरू हो रहे हैं। एक समय था जब वयप्राप्त जनों के बारे में बहुत ज्यादा सोचने की आवश्यकता नहीं समझी जाती थी। भारत जैसे पारंपरिक समाज में तो लगभग बिल्कुल नहीं। भारत और एशिया के अनेक देशों में संयुक्त परिवार व्यवस्था कमोबेश आज भी चली आ रही है। यह सामान्य तौर पर माना जाता है कि परिवार के युवतर सदस्य अपने बड़े-बूढ़े की फिक्र कर ही लेते होंगे, किन्तु सच्चाई इतनी सरल नहीं है। काशी और वृंदावन की विधवाएं तस्वीर का दूसरा पहलू पेश करती हैं। प्रेमचंद की 'बेटों वाली विधवा' से लेकर रमेश याज्ञिक की 'दादा जी तुम कब जाओगे' जैसी कहानियों में भी सत्य का दूसरा पक्ष उभरकर आता है। उषा प्रियंवदा की 'वापसी' कहानी को तो मैं भुला ही नहीं पाता। 'बागबान' जैसी फिल्म की कहानी भी तो यही है।

आज देश में सरकारी और गैर सरकारी- दोनों क्षेत्रों में वृद्धाश्रम चल रहे हैं। सरकार के वृद्धाश्रम में यदि पूरी तरह से नि:सहाय, निर्बल वृद्धों को आश्रय मिल रहा है तो अपेक्षाकृत साधन-सम्पन्न जनों के लिए उनके ओहदे और रुचि के अनुरूप ओल्ड एज होम, सीनियर सिटीजन होम, गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा बनाए जा रहे हैं। यही नहीं, अब तो यह संतानों की कानूनी जिम्मेदारी है कि वे अपने वृद्ध अभिभावकों का समुचित भरण-पोषण करें अन्यथा उन्हें अदालत से सजा भी हो सकती है। इस बात का महत्व यह जानकर और बढ़ जाता है कि फिलहाल ऐसे आठ-नौ करोड़ वृद्ध हैं जिन्हें अपने जीवनयापन की व्यवस्था खुद करना होती है। इस वृद्ध आबादी की अपनी आशा, आकांक्षाएं हैं, आवश्यकताएं हैं, लेकिन इसके साथ वृद्धावस्था से जुड़ी शारीरिक और मानसिक परिस्थितियां भी हैं। इस परिदृश्य का समूचेपन में आकलन करें तो बहुत से प्रश्न खड़े होते हैं।

अतुल गवांडे ने हाल में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'बीइंग मॉर्टल'  (Being Mortal : Medicine and what matters in the end)  में वृद्धावस्था से जुड़ी परिस्थितियों का विश्लेषण करने का प्रयत्न किया है।  शीर्षक का हिन्दी में अनुवाद करें तो ''नश्वरता : चिकित्सा एवं अंतिम परिणति" जैसा कुछ शीर्षक बनेगा। लेखक एक चिकित्सक है जिसकी रुचि वृद्धजनों की समस्याओं की ओर जागृत हुई। इसके बाद उसने यह तलाशने की कोशिश की कि नश्वर जीवन में वृद्धावस्था के सोपान पर पहुंचकर चिकित्सा विज्ञान उसके कितने काम आ सकता है तथा अंतत: क्या होना है। यह अतुल की चौथी पुस्तक है। इसके पहले भी वे चिकित्सा विज्ञान पर तीन लोकप्रिय पुस्तकें लिख चुके हैं। अतुल भारतवंशी हैं, लेकिन उनका जन्म अमेरिका में ही हुआ है और इस पुस्तक में उनका अध्ययन अमेरिकी परिस्थितियों पर ही आधारित है। तथापि उन्होंने जो मूल बिन्दु उठाए हैं, वे जागतिक स्तर पर लागू होते हैं। वे पुस्तक का प्रारंभ टॉलस्टाय की सुप्रसिद्ध कथा 'इवान इलिच की मौत' के उल्लेख से करते हैं। इवान इलिच 45 वर्ष की आयु का न्यायाधीश है। वह एक दिन सीढ़ी से गिरता है और दर्द के कारण बिस्तर पकडऩे पर मजबूर होता है। पत्नी, परिजन, मित्र, डॉक्टर सब उसका इलाज करने की कोशिश करते हैं। सब अपने आपको बहलाते हैं कि इलिच सिर्फ बीमार है मर नहीं रहा है इसलिए उसका इलाज चलते रहता है। एक झूठ को जीवित रखा जाता है। यह कोई स्वीकार नहीं करना चाहता कि वह मृत्यु के द्वार पर खड़ा है और यही वेदना है जो इलिच के हृदय को लगातार आघात पहुंचाती है। वह जानता है कि उसकी मृत्यु सन्निकट है। वह अपने प्रियजनों से इस बात को समझने की मन ही मन आशा  रखता है, लेकिन ऐसा नहीं हो पाता। आज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व महान लेखक टॉलस्टाय ने यह जो मनोवैज्ञानिक चित्रण किया था वह आज भी उतना ही सच है।

एक सर्जन के रूप में पहले प्रशिक्षण, फिर सेवा करते हुए अतुल अपने वयप्राप्त मरीजों का एक नए दृष्टिकोण से एक नई सहानुभूति के साथ अध्ययन करना प्रारंभ करते हैं। उनका सामना भांति-भांति के मरीजों से पड़ता है। किसी का विश्वास है कि शरीर कितना भी व्याधिग्रस्त क्यों न हो वह ऑपरेशन से स्वस्थ हो जाएगा; तो कोई जल्दी ही जीवन की आशा छोड़ देता है। डॉक्टर के सामने एक नैतिक प्रश्न उपस्थित होता है कि उसे क्या करना चाहिए। यदि ऑपरेशन के बाद भी मरीज न बच पाए तो क्या यह नहीं मानना होगा कि उसने चिकित्सा विज्ञान से झूठी उम्मीद लगा रखी थी? दूसरी ओर कोई ऐसा मरीज भी है जो कहता है कि मुझे जीवनरक्षक प्रणाली पर मत रखो, शांति से मरने दो। लेकिन क्या डॉक्टर ऐसा कर सकता है?

अतुल गवांडे रेखांकित करते हैं कि चिकित्सा विज्ञान ने अद्भुत प्रगति की है। अमेरिका में सन् 1945 तक ज्यादातर लोग घर पर ही मरते थे, लेकिन अब अस्पतालों की उपलब्धता बढऩे के बाद घर पर ही शांतिपूर्वक आखिरी सांस लेने की संख्या 17 प्रतिशत तक सिमट गई है। यही नहीं, एक समय पूरे विश्व में मनुष्य की औसत आयु तीस वर्ष थी जो अब दुगुनी से ज्यादा बढ़ गई है, फिर भी हर डॉक्टर और हर नर्स यह जानती है कि मृत्यु तो एक दिन आना ही है। अतुल एक अन्य डॉक्टर द्वारा लिखी 'हाउ वी डाइ' पुस्तक से उद्धृत करते हैं कि- ''पिछली पीढ़ी के डॉक्टरों को अपने शास्त्र और ज्ञान पर इतना अभिमान नहीं था। वे मृत्यु के लक्षणों को आता देख स्वीकार करने के लिए तैयार रहते थे बजाय झुठलाने के।" मृत्यु का यह दर्शन यूं तो किसी भी आयु पर लागू हो सकता है, लेकिन बढ़ती उम्र विशेषकर वृद्धावस्था में इस पर गौर करना अब पहले की अपेक्षा अधिक आवश्यक हो गया है।

लेखक यहां हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं कि बाजार में बढ़ती आयु का सामना कैसे करें या चिरयुवा कैसे बने रहें जैसे विषयों पर सैकड़ों पुस्तकें आ चुकी हैं। इन्हें पढ़कर लोग सच्चाई से बच निकलने की कोशिश करते हैं जबकि बात समझने की यह है कि किसी भी सामान्य व्यक्ति के जीवन में वृद्धावस्था के बाद एक दिन मृत्यु आना ही है और उसका वरण करने के लिए सबको तैयार रहना चाहिए। लेखक का मानना है कि समाज में ऐसा वातावरण और व्यवस्थाएं निर्मित करने की आवश्यकताएं हैं जिसमें कोई भी वृद्ध व्यक्ति अपने जीवन के अंतिम वर्षों को अपनी आंतरिक इच्छाओं के साथ जीते हुए शांति और संतोष के साथ अंतिम पल की प्रतीक्षा कर सके।

अतुल गवांडे ने इस विषय का अमेरिकी पृष्ठभूमि में गहरा अध्ययन किया है। इसमें ऐसे कुछ बिन्दु उभरकर आते हैं जो व्यावहारिक तौर पर किसी भी देश के नीति निर्माताओं के लिए विचारणीय हो सकते हैं। वे उन वृद्धाश्रमों की आलोचना करते हैं जहां व्यक्ति की निजता उससे पूरी तरह छिन जाती है। ऐसे स्थान किसी मिलिट्री कैम्प जैसे अनुशासन में चलते हैं जहां एक वृद्ध के जीवन का अकेलापन और नीरसता और बढ़ जाती है। एक कमरे में पांच, दस, पन्द्रह लोग एक साथ रह रहे हैं, एक जैसा खाना खा रहे हैं, मनोरंजन के साधन सीमित हैं, सहायता कर्मियों के व्यवहार में भी एक रूखी औपचारिकता है, ऐसी जगह आकर बुजुर्ग न जाने कितनी बातों के लिए तरस जाते हैं। सोचकर देखिएगा क्या यही स्थिति भारत के वृद्धाश्रमों की नहीं है! अतुल सवाल उठाते हैं कि जीवन के अंतिम वर्षों में एक व्यक्ति को उसकी इच्छा के अनुसार जीने का हक क्यों न मिले!

वे फिर अमेरिका में नर्सिंग होम की मूल अवधारणा की चर्चा करते हैं। नर्सिंग होम याने वास्तव में वह स्थान जहां अशक्त व्यक्ति की देखभाल हो सके। यह अस्पताल नहीं है जहां किसी व्यक्ति को इलाज के लिए लाया जाए, यद्यपि एक नर्सिंग होम किसी अस्पताल का एक हिस्सा हो सकता है। वे समाजशास्त्रियों के हवाले से कहते हैं कि नर्सिंग होम भी अनाथालय और जेल से बहुत ज्यादा अलग नहीं है। नर्सिंग होम के संचालक खुश हो लेते हैं कि वे एक पवित्र उद्देश्य को पूरा कर रहे हैं, लेकिन सच पूछिए तो यहां आए व्यक्ति की आत्मा जैसे कुंठित हो जाती है। एक व्यक्ति का घर अपने पलंग और उससे सटकर रखी एक अलमारी में सिमटकर रह जाता है। इस वास्तविकता को कुछ लोगों ने समझा और एक नया प्रयोग अस्तित्व में आया।

एक कल्पनाशील सेवाभावी महिला ने ऐसी आवासीय कॉलोनी की कल्पना की जहां वृद्ध लोगों के अपने स्वतंत्र घर या फ्लैट हों, जिसमें वे अपनी इच्छानुसार जीवन संध्या बीता सकें। वे जो चाहें खाएं, जब चाहें सोएं, जो चाहें सो पहनें, जो चाहें सो टीवी पर देखें, मर्जी हो तो सिनेमा या थियेटर भी चले जाएं। कॉलोनी में चिकित्सक और सहायक स्टाफ रहे जो यथासमय उनकी सेवा कर सके। यह प्रयोग सफल हुआ, चर्चित भी, इसका अनुकरण भी किया गया; लेकिन फिर चतुर व्यापारी इसमें कूद पड़े और उन्होंने ऐसी कॉलोनियों के नाम पर मुनाफा तो कमाया, लेकिन जो आवश्यक व्यवस्थाएं थीं उनकी ओर दुर्लक्ष्य ही किया। इस सिलसिले में एक अद्भुत प्रयोग का जिक्र अतुल अपनी पुस्तक में करते हैं। यह प्रयोग एक अस्पताल से जुड़े नर्सिंग होम में किया गया। जहां डॉक्टरों ने सौ तोते, चार बिल्लियां और दो कुत्ते बुलाए। हरेक वृद्ध को एक-एक तोता दे दिया गया। कुत्ते और बिल्ली सबके हो गए। एक बगीचा तैयार किया गया जिसके साज-संवार का दायित्व रहवासियों पर ही छोड़ दिया गया। इससे उन वृद्धजनों के जीवन में एक नयापन आया, एक नया उल्लास आया। उन्हें जीने का एक नया मकसद मिल गया। इस पुस्तक में काफी विस्तार से वृद्धावस्था की स्थितियों व परिचर्या पर बात की गई है, किन्तु जिस बिन्दु पर लेखक ध्यान केन्द्रित करना चाहते हैं वह है कि मनुष्य अपनी अवश्यंभावी नश्वरता के सच का सामना कैसे करे। वे कहते हैं कि इसके लिए दो तरह के सत्य का साक्षात्कार करना होगा। पहले कि मृत्यु अंतिम सत्य है और दूसरा इस सत्य को जानकर स्वयं को मानसिक रूप से तैयार करना है। इसमें एक चिकित्सक की क्या भूमिका हो सकती है? वे कहते हैं कि एक चिकित्सक को भी यह स्वीकार करना चाहिए कि उसकी शक्ति अनंत नहीं है। डॉक्टर सोचते हैं कि उनका काम स्वास्थ्य और जीवन देना है, लेकिन सच्चाई इसके आगे है कि जितना भी जीवन है वह सुखद रूप से कैसे जिया जाए! यदि सुख नहीं है तो जीवन का आधार क्या है? यह ऐसा प्रश्न है जिससे डॉक्टरों को लगातार जूझना है।

अतुल गवांडे की यह पुस्तक अपने किस्म की एक अनूठी किताब है। यह सिर्फ वृद्धजनों और बीमारों के बारे में नहीं है बल्कि मनुष्य के अपने अस्तित्व को लेकर दार्शनिक धरातल पर एक नए ढंग से सोचने के लिए प्रेरित करती है। मुझे लेखक की जो उक्ति सबसे अच्छी लगी वह यह कि मनुष्य के जीवन में संयुक्त परिवार का खासा महत्व है और वृद्धजनों की आश्वस्ति तब बढ़ जाती है जब उनकी फिक्र करने के लिए कम से कम एक बेटी जरूर हो।
अक्षर पर्व मार्च 2015 अंक की प्रस्तावना  

Wednesday, 4 March 2015

सरकार ने मौके गंवाए


 संसद के वर्तमान सत्र में अभी तक चार महत्वपूर्ण प्रसंग घटित हुए। पहला- राष्ट्रपति का अभिभाषण, दूसरा- रेल बजट, तीसरा- अभिभाषण पर प्रधानमंत्री का धन्यवाद ज्ञापन, चौथा और अंतिम वार्षिक बजट। ये सभी ऐसे अवसर थे जब मोदी सरकार देश की जनता के सामने आने वाले समय के लिए अपनी नीतियों और कार्यक्रमों का खुलासा करती। आजकल की भाषा में कहें तो सरकार का रोड मैप जनता के सामने पेश किया जाता। यह विडंबना है कि उपरोक्त चार में से एक भी अवसर का केन्द्र सरकार ने लाभ नहीं उठाया। विडंबना यह सोचकर और बढ़ जाती है कि तीस वर्ष बाद केन्द्र में स्पष्ट बहुमत से कोई सरकार बनी है। जिसके पास स्पष्ट बहुमत है उसे अपने विचारों का खुलासा करने से भला संकोच क्यों होना चाहिए? इस कारण शंका उपजती है कि क्या सरकार जानबूझ कर कुहासा बनाए रखना चाहती है या फिर वह स्वयं अपना रास्ता निर्धारित नहीं कर सकी है?

राष्ट्रपति के अभिभाषण में कोई खास बात नहीं थी। सुनने वालों को यह जरूर अटपटा लगा कि प्रणव मुखर्जी मेरी सरकार, मेरी सरकार कहते समय श्यामाप्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय को उद्धृत कर रहे थे, लेकिन यह तो होना ही था। राष्ट्रपति का अपने अभिभाषण पर स्वयं कोई वश नहीं होता। केन्द्र सरकार से जैसा मसौदा उनके सामने आता है उसे ही उन्हें पढऩा होता है थोड़ा बहुत हेरफेर भले ही कर लें। यह एक ऐसी स्थिति है जिस पर संविधान के ज्ञाता आगे-पीछे चर्चा अवश्य करेंगे। राष्ट्रपति वैसे तो दलगत राजनीति से ऊपर होता है, लेकिन उसका चुनाव तो किसी न किसी दल के समर्थन पर ही निर्भर करता है। ऐसे में जब विरोध करने वाली पार्टी केन्द्र सरकार में आ जाए तब असमंजस की स्थिति बन ही जाती है। हमारा ख्याल है कि केन्द्र सरकार ने जो ताबड़तोड़ अध्यादेश जो पिछले माह में जारी किए, उन पर हस्ताक्षर करते समय भी राष्ट्रपति के सामने द्विविधापूर्ण स्थिति निर्मित हुई होगी! कुल मिलाकर यह अकादमिक बहस का विषय है।

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर 27 फरवरी को प्रधानमंत्री ने अपनी बात रखी। उन्होंने लगभग सत्तर मिनट तक भाषण दिया। अपेक्षा की जाती थी कि इस महत्वपूर्ण अवसर का उपयोग प्रधानमंत्री देश के सामने कुछ ठोस बातें रखने के लिए करेंगे। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि श्री मोदी अब तक चुनावी माहौल से बाहर नहीं निकल पाए हैं या शायद यही उनकी अदा है कि वे हर सभा को चुनावी रैली समझ बैठते हैं। 27 फरवरी को भी उनके वक्तव्य में लच्छेदार बातें तो बहुत थीं, लेकिन उन्हें सुनकर किसी निष्कर्ष तक पहुंचना मुश्किल था। उन्होंने इस भाषण में विपक्ष पर भी बार-बार तंज कसे जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। मनरेगा को लेकर उन्होंने जो कुछ कहा उसकी अपेक्षा प्रधानमंत्री से बिल्कुल ही नहीं की जाती थी। उन्होंने विदेश यात्राओं के बारे में भी अपनी सफाई दी और यह साबित करने का प्रयत्न किया कि विदेश यात्राएं देशहित में आवश्यक थीं।

श्री मोदी ने बताया कि वे विदेशों में वैज्ञानिकों से मिले और नयी-नयी तकनीकों के बारे में जानकारी हासिल की जिससे आगे चलकर भारत का भला होगा। हम प्रधानमंत्री से जानना चाहेंगे कि भारत में जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक हैं मसलन एम. स्वामीनाथन या जयंत नार्लीकर या पुष्प भार्गव, कभी उनके घर जाकर मिलने की बात उनके मन में क्यों नहीं आई? हमें यह भी ध्यान आता है कि छह माह पूर्व भारतीय विदेश सेवा के नवनियुक्त अधिकारियों को उन्होंने सलाह दी थी कि विदेश जाकर वहां की संस्कृति से प्रभावित मत होना। कहने का आशय यह है कि यदि भारत विश्वगुरु है तो फिर हमारे प्रधानमंत्री को विदेशी तकनीक यहां लाने के बारे में सोचना भी क्यों चाहिए? इस सुदीर्घ भाषण में उन्होंने जो अन्य बातें कीं उनमें भी कोई नयी बात न होकर पुराने वायदों का दोहराव ही था।

इसके एक दिन पूर्व 26 फरवरी को रेलमंत्री सुरेश प्रभु ने आगामी वर्ष के लिए रेल बजट पेश किया। श्री प्रभु की छवि एक कर्मठ और कुशल राजनेता की है। उम्मीद की जा रही थी कि वे ऐसा रेल बजट पेश करेंगे जो लीक से हटकर होगा। उन्होंने देशवासियों को निराश करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। यदि सामान्य नागरिक को यह जानकर कुछ क्षण की तसल्ली हुई कि इस वर्ष रेल भाड़ा नहीं बढ़ेगा तो कुछ देर बाद ही उसकी खुशी यह जानकर काफूर हो गई कि मालभाड़े में बिना किसी अपवाद के सीधे दस प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी गई है। एक रेल यात्री साल में दस-बीस रुपया किराया बढ़ जाए तो उसे मन मारकर स्वीकार कर लेता है, लेकिन मालभाड़ा बढऩे का विपरीत असर तो देश के हर घर को झेलना पड़ेगा। अन्य सामग्रियों के अलावा नमक, तेल और अनाज भी थोड़े तो महंगे हो ही जाएंगे।

चुनावों के पहले नरेन्द्र मोदी ने बुलेट ट्रेन का खूब सपना दिखाया था। रेल मंत्री के बजट में बुलेट ट्रेन का कोई अता-पता ही नहीं है। अब कहा जा रहा है कि कुछ ऐसी ट्रेनें चलेंगी जिसकी रफ्तार शताब्दी एक्सप्रेस से ज्यादा और बुलेट ट्रेन से कम होगी। ये भी कब चलेंगी, पता नहीं। हर साल रेल बजट में कुछ नई ट्रेनों की घोषणा की जाती है, कुछ ट्रेनों के फेरे बढ़ते हैं, कुछ की दूरी बढ़ती है, इस बजट में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है। रेल यात्रा को सुविधाजनक बनाने के लिए अवश्य बहुत सी घोषणाएं की गई हैं, लेकिन इसमें भी क्या नया है। एक समय तीसरे दर्जे में लकड़ी की बर्थ होती थी, अब हर बोगी में फोम के गद्दे होते ही हैं। मोबाइल का चार्जर पाइंट और इस तरह की अन्य सुविधाएं निरंतर बढ़ रही हैं। सुरेश प्रभु ने ऐसी कोई बात नहीं कही है, जिसके लिए उन्हें या उनके बजट को याद रखा जाए। इसके अलावा अभी तो उन्हें यह भी देखना है कि जो घाटा उन्होंने दर्शाया है उसे पूरा करने के लिए रकम कहां से आएगी?

रेल बजट तो रेल बजट। आम बजट ने उससे भी ज्यादा निराश किया है। करेले पर नीम चढ़ा इस तरह कि दिन में बजट पेश हुआ और शाम को पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ा दी गईं। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वेतनभोगी वर्ग को कोई राहत तो खैर नहीं दी, जले पर नमक छिड़कने वाली कहावत उन्होंने यह कहकर चरितार्थ कर दी कि मध्यम वर्ग अपनी फिकर खुद करे। ऐसा कहने का क्या मतलब है, किसी की समझ नहीं आया। एक विडंबना यहां भी देखने मिली कि श्री जेटली ने जहां जन सामान्य को कोई राहत देने से स्पष्ट इंकार कर दिया, वहीं उन्होंने कारपोरेट के आयकर में पांच प्रतिशत की कमी करने की घोषणा कर दी। रेल बजट में माल भाड़ा दस प्रतिशत बढ़ जाने का प्रतिकूल असर आम जनता पर पडऩा ही था। अब आम बजट में सेवा कर 12.36 से बढ़ाकर चौदह प्रतिशत कर देने का बोझ भी हर व्यक्ति को उठाना पड़ेगा।

जिस तरह से रेल बजट से बुलेट ट्रेन गायब है उसी तरह आम बजट से स्मार्ट सिटी भी नदारद है। दोनों मंत्रियों ने अपने-अपने बजट में जिस एक बिन्दु पर जोर दिया है वह है प्रधानमंत्री का अतिप्रिय स्वच्छता अभियान। हमें समझ नहीं आता कि इस एक बिन्दु पर सरकार इतनी चिंतित क्यों है? देश के सामने इससे भी बड़ी चिंताएं हैं उनको तो लगातार किनारे किया जा रहा है। इस बजट को ही देखें तो शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास और लोक कल्याण से सीधी जुड़ी ढेर सारी मदों में पिछले साल के मुकाबले कटौती कर दी गई है। क्या सरकार समझती है कि इन सारे मुद्दों पर ध्यान दिए बिना स्वच्छता अभियान सफल हो सकता है? हमारे देश में बहुत सारे कार्यक्रम, अभियान, आंदोलन, मिशन इसलिए असफल हो जाते हैं कि उन्हें समग्रता में देखने के बजाय खंडों में काम किया जाता है। ऐसे में दरारें उभरना लाजिमी है और देर-अबेर दरार फैलकर खाई बन जाना भी।

मैं सरकार को संदेह का लाभ देना चाहता हूं। इस सरकार के अधिकतर लोगों को शासन करने का अनुभव भले ही सीमित या न्यून हो, किन्तु प्रधानमंत्री सहित उनकी टीम के साथी लंबे समय से सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहे हैं और मानना चाहिए कि वे सहज बुद्धि या कि कॉमनसेंस के धनी हैं। इसके बावजूद आज यदि एक निराशाजनक चित्र उभर रहा है तो इसका एक ही कारण समझ आता है कि सरकार अपने इरादों को खुलकर प्रकट करने से बचना चाहती है। यह सरकार देश को पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की ओर ले जाने के लिए कटिबद्ध है, किन्तु जनता को अप्रसन्न करने का खतरा उठाने के लिए वह तैयार नहीं है। चूंकि सालाना बजट से जनता आशा लगाए रखती है तो बेहतर है कि उस आशा को ही तोड़ दिया जाए और जब जनता गाफिल हो तब सरकार मनमर्जी निर्णय लागू कर दे। ऐसे समय जब जनता में गुस्सा फैलने की आशंका कम से कम हो! एक ज्वलंत उदाहरण शनिवार की शाम देखने मिल ही गया। जनता बजट पर चर्चा करने मशगूल रही और पेट्रोल की बढ़ी कीमतों पर कहीं कोई बात ही न हो सकी। कल को जब कारपोरेट हित में बड़े निर्णय लिए जाएंगे तब क्या उन्हें लागू करने के लिए ऐसे ही अवसरों की तलाश सरकार को रहेगी?
देशबन्धु में 05 मार्च 2015 को प्रकाशित