भूमि अधिग्रहण विधेयक की ही बात लें। सन् 2013 में संसद में जब यह कानून बना तब मुख्य विपक्षी दल के रूप में भारतीय जनता पार्टी ने भी इसे अपना पूर्ण समर्थन दिया था। संसद की लगभग आम सहमति से यदि कोई कानून बना था तो उसमें मात्र एक साल के भीतर परिवर्तन करने की कोई आवश्यकता सरकार को नहीं पडऩा चाहिए थी। मोदी सरकार के पास चुनकर आने के बाद और भी बहुत से काम थे, उन्हें छोड़कर एक व्यापक सहमति से बने कानून को बदलने का निर्णय उसने क्यों लिया? आम जनता का मानना है कि यह निर्णय अडानी-अम्बानी जैसे कारपोरेट घरानों के दबाव में लिया गया है। इस आम धारणा की पुष्टि उस वक्त हुई जब संशोधन विधेयक को बजट सत्र में लाने के बजाय उसे अध्यादेश की शक्ल दे दी गई। ऐसा न जाने क्या सोचकर किया गया! नया कानून बनने से जिन्हें भी फायदा होना है वे भी तो देश की राजनीति जानते हैं।
कारपोरेट घरानों को जमीन हड़पना है तो वे उसके लिए चार-छह माह प्रतीक्षा कर सकते थे। ऐसा तो नहीं था कि अध्यादेश आ जाने से वे जमीन खरीदने लपक पड़ेंगे। यह भी सरकार को पता था कि संसद के दोनों सदनों का संयुक्त सत्र बुलाकर ही वह बिल को पारित करवा सकती थी जो कि एक असामान्य स्थिति होती, लेकिन मोदीजी ने इन वास्तविकताओं की अनदेखी कर दी। इसका परिणाम है कि देश में चारों तरफ इस मुद्दे पर जनता में आक्रोश है। लोकसभा में भी सरकार को बिल पारित करवाने के लिए नौ संशोधन करना पड़े, फिर भी बात नहीं बनी। कांग्रेस, समाजवादी और वामदलों की तो बात छोडि़ए, भाजपा के सहयोगी याने एनडीए के घटक दल भी इस पर राजी नहीं हुए। अकाली दल ने तो इस प्रश्न पर भाजपा का खुलकर विरोध किया। कुल मिलाकर सरकार के इस एक कदम से विपक्ष को एकजुट होने का मौका मिला और सरकार के हिस्से आई शर्मिंदगी।
एक तरफ भूमि अधिग्रहण विधेयक जैसा अहम् मुद्दा, दूसरी ओर राहुल गांधी के घर पुलिस की पूछताछ जैसी एक छोटी सी कार्रवाई। कल तक सत्तापक्ष पूछ रहा था कि राहुल गांधी कहां हैं। आज राहुल गांधी की पार्टी पूछ रही है कि उनके घर पुलिस गई तो क्यों गई। कांग्रेस मोदी सरकार पर राहुल गांधी की जासूसी करने का आरोप लगा रही है और आज सोमवार को इस मुद्दे पर उसने सदन का बहिष्कार भी किया। दिल्ली के पुलिस प्रमुख एवं भाजपा के प्रवक्ता सफाई दे रहे हैं कि यह पूछताछ एक सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा थी, लेकिन इस सफाई को मानने कोई तैयार नहीं है। जिस व्यक्ति को एसपीजी की सुरक्षा उपलब्ध हो उसकी तो पल-पल की खबर सरकार के पास होना चाहिए तथा होती भी होगी। ऐसे में उस व्यक्ति से साधारण पूछताछ करने में क्या तुक थी? यदि पुलिस प्रमुख श्री बस्सी इतना भर कह देते कि थाना प्रभारी के अति उत्साह में या असावधानी में ऐसा हो गया तो शायद बात वहां खत्म हो जाती, किन्तु जब सरकार इस कार्रवाई का औचित्य सिद्ध करने लगी तो मामले ने तूल पकड़ लिया।
बहरहाल कांग्रेस को नई ऊर्जा देने का काम किया दिल्ली में सीबीआई की विशेष अदालत ने। तथाकथित कोयला घोटाले की जांच कर रही अदालत ने पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को भी इस बहुचर्चित प्रकरण में आरोपी बना दिया है। यह नि:संदेह एक बड़ी घटना है। इसके दूरगामी परिणाम भी होंगे एवं तात्कालिक प्रतिक्रिया तो होना ही था। सीबीआई इस प्रकरण में डॉ. सिंह से पहले पूछताछ कर चुकी है। उसने अपनी रिपोर्ट भी अदालत को दे दी है कि पूर्व प्रधानमंत्री पर प्रकरण नहीं बनेगा। अदालत ने जांच एजेंसी के इस कथन को स्वीकार नहीं किया है। डॉ. सिंह पर आरोप दर्ज होने की खबर जैसे ही सामने आई सबसे पहले प्रतिक्रिया संभवत: केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने यह कहकर दी कि कांग्रेस के पापों का परिणाम डॉ. सिंह को भुगतना पड़ रहा है। यह श्री जावड़ेकर ने आग में घी डालने का काम किया। प्रकाश जावड़ेकर मंत्री बनने के पूर्व भारतीय जनता पार्टी के एक प्रभावी प्रवक्ता थे। उन्हें सामने कर पार्टी और सरकार दोनों ने शायद यह कोशिश की थी कि कांग्रेस पार्टी और डॉ. मनमोहन सिंह या यूं कहें कि सोनिया गांधी और डॉ. सिंह के बीच में तनाव या दूरी है, ऐसा संदेश दिया जाए। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। कांग्रेस अध्यक्ष ने अपनी रणनीति बनाने में जरा भी वक्त नहीं गंवाया। उसी शाम खबर आ गई कि दूसरे दिन सुबह संसद जाने के पूर्व कांग्रेस मुख्यालय में बैठक होगी और पार्टी के तमाम नेता डॉ. मनमोहन सिंह के निवास उनके साथ एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए जाएंगे। इस कार्रवाई से एक साथ दो-तीन काम साध लिए गए। एक तो यह स्पष्ट संदेश दिया गया कि पार्टी हाईकमान और पूर्व प्रधानमंत्री के बीच कोई दूरी नहीं है। दूसरा यह कि पार्टी अपने पूर्व प्रधानमंत्री के साथ पूरी ताकत के साथ खड़ी रहेगी। तीसरे और सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह कि पार्टी आवश्यकता पडऩे पर सड़क पर आने से नहीं हिचकेगी।
सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस मुख्यालय से पूर्व प्रधानमंत्री के आवास तक जो पैदल मार्च हुआ उसने अनेक उत्साही प्रेक्षकों, पत्रकारों को 1978 में इंदिरा गांधी की बेलछी यात्रा की याद दिला दी। यह तो अतिशयोक्ति हो गई लेकिन इतना तो मानना ही होगा कि ऐसा करके सोनियाजी ने एक बार फिर राजनीतिक कौशल और साहस का परिचय दिया। हां, उन्हें बेलछी के पुनर्मंचन का अवसर इसके पहिले मिला था जो उन्होंने गंवा दिया। यह अवसर छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में नसबंदी शिविर में हुई महिलाओं की मौत के समय था। जो बीत गई सो बीत गई। श्रीमती गांधी ने अपने जीवन में बहुत सी चुनौतियों का सफलतापूर्वक मुकाबला किया है। अब देखना यह है कि यह जो एक अवसर प्राप्त हुआ है वे उसका किस हद तक लाभ उठा पाती हैं।
सीबीआई की विशेष आदालत ने जो कार्रवाई की है वह तो कानून के जानकारों के बीच बहस का विषय है। लेकिन इससे डॉ. सिंह के पक्ष में सहानुभूति का वातावरण अवश्य बन गया है। कांग्रेस पार्टी का एकजुटता प्रदर्शन इस मौके पर स्वाभाविक भी था और आवश्यक भी। लेकिन इसके परे आम जनता भी यह मानने को तैयार नहीं है कि डॉ. सिंह किसी तरह से दोषी हैं। भारतीय जानता पार्टी के नेता भी उनकी सत्यनिष्ठा को बेहिचक स्वीकार करते हैं। यहां एक और तथ्य गौरतलब है। डॉ. मनमोहन सिंह भारत में आर्थिक उदारवाद के प्रणेता हैं। वे कारपोरेट घरानों को मनचाही छूट भले ही न दे पाए हों, किन्तु उनके हित साधन में अपना वश चलते उन्होंने कोई कमी नहीं की, इसलिए उनको आरोपी बनाए जाने से कारपोरेट जगत भी एकाएक विचलित हो उठा है। न्यायालय की स्वतंत्रता अपनी जगह पर है, लेकिन यह भय कारपोरेट घरानों को सताने लगा है कि क्या मोदी सरकार में उनके हित सुरक्षित रह पाएंगे?
डॉ. मनमोहन सिंह को आरोपी बनाए जाने की खबर पर कारपोरेट दिग्गजों ने जो प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं वे इसी ओर संकेत करते हैं। यह भी ध्यान देना चाहिए कि मोदी सरकार बनने के कुछ हफ्तों के भीतर ही स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने अडानी ग्रुप को एक बिलियन डालर याने छ: हजार करोड़ रुपए ऋण देना स्वीकार कर लिया था। वह निर्णय बैंक ने वापिस ले लिया है। क्या इसीलिए तो नहीं कि कौन जाने कब किस पर क्या कार्रवाई हो जाए? कुल मिलाकर मोदीजी के लिए संदेश है कि भाषणों से देश नहीं चलता।
देशबन्धु में 19 मार्च 2015 को प्रकाशित
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