Friday 6 March 2015

अंतिम सच का सामना कैसे करें


 भारत में वरिष्ठ नागरिकों या यूं कहें वृद्धजनों की संख्या लगातार बढ़ रही है। एक समय था जब साठ वर्ष आयु के व्यक्ति को वृद्ध ही माना जाता था। इधर यह स्थिति बदल गई है, यद्यपि सेवानिवृत्ति की आयु औसतन साठ वर्ष की ही है। रेल किराया, आयकर, बीमा आदि में भी साठ वर्ष को एक तरह से वृद्ध हो जाने का कानूनी दर्जा दिया जाता है। फिर आज के सामाजिक वातावरण में इस आयु समूह के लोग वरिष्ठ नागरिक ही कहलाया जाना पसंद करते हैं। वे वृद्धता का बोझ अपने ऊपर नहीं लादना चाहते और यह बड़ी हद तक उचित भी है। भारत वर्ष में आजादी के बाद से सामाजिक परिस्थितियों में बेहतरी के लिए जो बदलाव आए हैं उनमें से एक यह भी है कि 1947 में जहां एक भारतीय की औसत आयु 26-27 वर्ष होती थी वह बढ़ते-बढ़ते अब 57-58 साल के आसपास पहुंच चुकी है। इसमें चिकित्सा विज्ञान का काफी योगदान है यह मानना होगा। एक अनुमान है कि देश में अभी दस करोड़ से कुछ ज्यादा व्यक्ति हैं जो साठ की दहलीज लांघ चुके हैं। यह संख्या निकट भविष्य में बढऩा ही है। एक तरफ युवा जनसंख्या में वृद्धि हो रही है और दूसरी ओर वरिष्ठ जनों की। गौरतलब है कि इन दस-ग्यारह करोड़ में कोई चार करोड़ लोग अकेले हैं।

स्पष्ट है कि इनकी यह बढ़ती संख्या अनेक स्तरों पर नीतिगत पुनर्विचार की मांग करती है। भारत, चीन और जापान में स्थिति कुछ अधिक जटिल है, लेकिन विश्व के अन्यान्य देश भी इस वास्तविकता से रूबरू हो रहे हैं। एक समय था जब वयप्राप्त जनों के बारे में बहुत ज्यादा सोचने की आवश्यकता नहीं समझी जाती थी। भारत जैसे पारंपरिक समाज में तो लगभग बिल्कुल नहीं। भारत और एशिया के अनेक देशों में संयुक्त परिवार व्यवस्था कमोबेश आज भी चली आ रही है। यह सामान्य तौर पर माना जाता है कि परिवार के युवतर सदस्य अपने बड़े-बूढ़े की फिक्र कर ही लेते होंगे, किन्तु सच्चाई इतनी सरल नहीं है। काशी और वृंदावन की विधवाएं तस्वीर का दूसरा पहलू पेश करती हैं। प्रेमचंद की 'बेटों वाली विधवा' से लेकर रमेश याज्ञिक की 'दादा जी तुम कब जाओगे' जैसी कहानियों में भी सत्य का दूसरा पक्ष उभरकर आता है। उषा प्रियंवदा की 'वापसी' कहानी को तो मैं भुला ही नहीं पाता। 'बागबान' जैसी फिल्म की कहानी भी तो यही है।

आज देश में सरकारी और गैर सरकारी- दोनों क्षेत्रों में वृद्धाश्रम चल रहे हैं। सरकार के वृद्धाश्रम में यदि पूरी तरह से नि:सहाय, निर्बल वृद्धों को आश्रय मिल रहा है तो अपेक्षाकृत साधन-सम्पन्न जनों के लिए उनके ओहदे और रुचि के अनुरूप ओल्ड एज होम, सीनियर सिटीजन होम, गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा बनाए जा रहे हैं। यही नहीं, अब तो यह संतानों की कानूनी जिम्मेदारी है कि वे अपने वृद्ध अभिभावकों का समुचित भरण-पोषण करें अन्यथा उन्हें अदालत से सजा भी हो सकती है। इस बात का महत्व यह जानकर और बढ़ जाता है कि फिलहाल ऐसे आठ-नौ करोड़ वृद्ध हैं जिन्हें अपने जीवनयापन की व्यवस्था खुद करना होती है। इस वृद्ध आबादी की अपनी आशा, आकांक्षाएं हैं, आवश्यकताएं हैं, लेकिन इसके साथ वृद्धावस्था से जुड़ी शारीरिक और मानसिक परिस्थितियां भी हैं। इस परिदृश्य का समूचेपन में आकलन करें तो बहुत से प्रश्न खड़े होते हैं।

अतुल गवांडे ने हाल में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'बीइंग मॉर्टल'  (Being Mortal : Medicine and what matters in the end)  में वृद्धावस्था से जुड़ी परिस्थितियों का विश्लेषण करने का प्रयत्न किया है।  शीर्षक का हिन्दी में अनुवाद करें तो ''नश्वरता : चिकित्सा एवं अंतिम परिणति" जैसा कुछ शीर्षक बनेगा। लेखक एक चिकित्सक है जिसकी रुचि वृद्धजनों की समस्याओं की ओर जागृत हुई। इसके बाद उसने यह तलाशने की कोशिश की कि नश्वर जीवन में वृद्धावस्था के सोपान पर पहुंचकर चिकित्सा विज्ञान उसके कितने काम आ सकता है तथा अंतत: क्या होना है। यह अतुल की चौथी पुस्तक है। इसके पहले भी वे चिकित्सा विज्ञान पर तीन लोकप्रिय पुस्तकें लिख चुके हैं। अतुल भारतवंशी हैं, लेकिन उनका जन्म अमेरिका में ही हुआ है और इस पुस्तक में उनका अध्ययन अमेरिकी परिस्थितियों पर ही आधारित है। तथापि उन्होंने जो मूल बिन्दु उठाए हैं, वे जागतिक स्तर पर लागू होते हैं। वे पुस्तक का प्रारंभ टॉलस्टाय की सुप्रसिद्ध कथा 'इवान इलिच की मौत' के उल्लेख से करते हैं। इवान इलिच 45 वर्ष की आयु का न्यायाधीश है। वह एक दिन सीढ़ी से गिरता है और दर्द के कारण बिस्तर पकडऩे पर मजबूर होता है। पत्नी, परिजन, मित्र, डॉक्टर सब उसका इलाज करने की कोशिश करते हैं। सब अपने आपको बहलाते हैं कि इलिच सिर्फ बीमार है मर नहीं रहा है इसलिए उसका इलाज चलते रहता है। एक झूठ को जीवित रखा जाता है। यह कोई स्वीकार नहीं करना चाहता कि वह मृत्यु के द्वार पर खड़ा है और यही वेदना है जो इलिच के हृदय को लगातार आघात पहुंचाती है। वह जानता है कि उसकी मृत्यु सन्निकट है। वह अपने प्रियजनों से इस बात को समझने की मन ही मन आशा  रखता है, लेकिन ऐसा नहीं हो पाता। आज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व महान लेखक टॉलस्टाय ने यह जो मनोवैज्ञानिक चित्रण किया था वह आज भी उतना ही सच है।

एक सर्जन के रूप में पहले प्रशिक्षण, फिर सेवा करते हुए अतुल अपने वयप्राप्त मरीजों का एक नए दृष्टिकोण से एक नई सहानुभूति के साथ अध्ययन करना प्रारंभ करते हैं। उनका सामना भांति-भांति के मरीजों से पड़ता है। किसी का विश्वास है कि शरीर कितना भी व्याधिग्रस्त क्यों न हो वह ऑपरेशन से स्वस्थ हो जाएगा; तो कोई जल्दी ही जीवन की आशा छोड़ देता है। डॉक्टर के सामने एक नैतिक प्रश्न उपस्थित होता है कि उसे क्या करना चाहिए। यदि ऑपरेशन के बाद भी मरीज न बच पाए तो क्या यह नहीं मानना होगा कि उसने चिकित्सा विज्ञान से झूठी उम्मीद लगा रखी थी? दूसरी ओर कोई ऐसा मरीज भी है जो कहता है कि मुझे जीवनरक्षक प्रणाली पर मत रखो, शांति से मरने दो। लेकिन क्या डॉक्टर ऐसा कर सकता है?

अतुल गवांडे रेखांकित करते हैं कि चिकित्सा विज्ञान ने अद्भुत प्रगति की है। अमेरिका में सन् 1945 तक ज्यादातर लोग घर पर ही मरते थे, लेकिन अब अस्पतालों की उपलब्धता बढऩे के बाद घर पर ही शांतिपूर्वक आखिरी सांस लेने की संख्या 17 प्रतिशत तक सिमट गई है। यही नहीं, एक समय पूरे विश्व में मनुष्य की औसत आयु तीस वर्ष थी जो अब दुगुनी से ज्यादा बढ़ गई है, फिर भी हर डॉक्टर और हर नर्स यह जानती है कि मृत्यु तो एक दिन आना ही है। अतुल एक अन्य डॉक्टर द्वारा लिखी 'हाउ वी डाइ' पुस्तक से उद्धृत करते हैं कि- ''पिछली पीढ़ी के डॉक्टरों को अपने शास्त्र और ज्ञान पर इतना अभिमान नहीं था। वे मृत्यु के लक्षणों को आता देख स्वीकार करने के लिए तैयार रहते थे बजाय झुठलाने के।" मृत्यु का यह दर्शन यूं तो किसी भी आयु पर लागू हो सकता है, लेकिन बढ़ती उम्र विशेषकर वृद्धावस्था में इस पर गौर करना अब पहले की अपेक्षा अधिक आवश्यक हो गया है।

लेखक यहां हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं कि बाजार में बढ़ती आयु का सामना कैसे करें या चिरयुवा कैसे बने रहें जैसे विषयों पर सैकड़ों पुस्तकें आ चुकी हैं। इन्हें पढ़कर लोग सच्चाई से बच निकलने की कोशिश करते हैं जबकि बात समझने की यह है कि किसी भी सामान्य व्यक्ति के जीवन में वृद्धावस्था के बाद एक दिन मृत्यु आना ही है और उसका वरण करने के लिए सबको तैयार रहना चाहिए। लेखक का मानना है कि समाज में ऐसा वातावरण और व्यवस्थाएं निर्मित करने की आवश्यकताएं हैं जिसमें कोई भी वृद्ध व्यक्ति अपने जीवन के अंतिम वर्षों को अपनी आंतरिक इच्छाओं के साथ जीते हुए शांति और संतोष के साथ अंतिम पल की प्रतीक्षा कर सके।

अतुल गवांडे ने इस विषय का अमेरिकी पृष्ठभूमि में गहरा अध्ययन किया है। इसमें ऐसे कुछ बिन्दु उभरकर आते हैं जो व्यावहारिक तौर पर किसी भी देश के नीति निर्माताओं के लिए विचारणीय हो सकते हैं। वे उन वृद्धाश्रमों की आलोचना करते हैं जहां व्यक्ति की निजता उससे पूरी तरह छिन जाती है। ऐसे स्थान किसी मिलिट्री कैम्प जैसे अनुशासन में चलते हैं जहां एक वृद्ध के जीवन का अकेलापन और नीरसता और बढ़ जाती है। एक कमरे में पांच, दस, पन्द्रह लोग एक साथ रह रहे हैं, एक जैसा खाना खा रहे हैं, मनोरंजन के साधन सीमित हैं, सहायता कर्मियों के व्यवहार में भी एक रूखी औपचारिकता है, ऐसी जगह आकर बुजुर्ग न जाने कितनी बातों के लिए तरस जाते हैं। सोचकर देखिएगा क्या यही स्थिति भारत के वृद्धाश्रमों की नहीं है! अतुल सवाल उठाते हैं कि जीवन के अंतिम वर्षों में एक व्यक्ति को उसकी इच्छा के अनुसार जीने का हक क्यों न मिले!

वे फिर अमेरिका में नर्सिंग होम की मूल अवधारणा की चर्चा करते हैं। नर्सिंग होम याने वास्तव में वह स्थान जहां अशक्त व्यक्ति की देखभाल हो सके। यह अस्पताल नहीं है जहां किसी व्यक्ति को इलाज के लिए लाया जाए, यद्यपि एक नर्सिंग होम किसी अस्पताल का एक हिस्सा हो सकता है। वे समाजशास्त्रियों के हवाले से कहते हैं कि नर्सिंग होम भी अनाथालय और जेल से बहुत ज्यादा अलग नहीं है। नर्सिंग होम के संचालक खुश हो लेते हैं कि वे एक पवित्र उद्देश्य को पूरा कर रहे हैं, लेकिन सच पूछिए तो यहां आए व्यक्ति की आत्मा जैसे कुंठित हो जाती है। एक व्यक्ति का घर अपने पलंग और उससे सटकर रखी एक अलमारी में सिमटकर रह जाता है। इस वास्तविकता को कुछ लोगों ने समझा और एक नया प्रयोग अस्तित्व में आया।

एक कल्पनाशील सेवाभावी महिला ने ऐसी आवासीय कॉलोनी की कल्पना की जहां वृद्ध लोगों के अपने स्वतंत्र घर या फ्लैट हों, जिसमें वे अपनी इच्छानुसार जीवन संध्या बीता सकें। वे जो चाहें खाएं, जब चाहें सोएं, जो चाहें सो पहनें, जो चाहें सो टीवी पर देखें, मर्जी हो तो सिनेमा या थियेटर भी चले जाएं। कॉलोनी में चिकित्सक और सहायक स्टाफ रहे जो यथासमय उनकी सेवा कर सके। यह प्रयोग सफल हुआ, चर्चित भी, इसका अनुकरण भी किया गया; लेकिन फिर चतुर व्यापारी इसमें कूद पड़े और उन्होंने ऐसी कॉलोनियों के नाम पर मुनाफा तो कमाया, लेकिन जो आवश्यक व्यवस्थाएं थीं उनकी ओर दुर्लक्ष्य ही किया। इस सिलसिले में एक अद्भुत प्रयोग का जिक्र अतुल अपनी पुस्तक में करते हैं। यह प्रयोग एक अस्पताल से जुड़े नर्सिंग होम में किया गया। जहां डॉक्टरों ने सौ तोते, चार बिल्लियां और दो कुत्ते बुलाए। हरेक वृद्ध को एक-एक तोता दे दिया गया। कुत्ते और बिल्ली सबके हो गए। एक बगीचा तैयार किया गया जिसके साज-संवार का दायित्व रहवासियों पर ही छोड़ दिया गया। इससे उन वृद्धजनों के जीवन में एक नयापन आया, एक नया उल्लास आया। उन्हें जीने का एक नया मकसद मिल गया। इस पुस्तक में काफी विस्तार से वृद्धावस्था की स्थितियों व परिचर्या पर बात की गई है, किन्तु जिस बिन्दु पर लेखक ध्यान केन्द्रित करना चाहते हैं वह है कि मनुष्य अपनी अवश्यंभावी नश्वरता के सच का सामना कैसे करे। वे कहते हैं कि इसके लिए दो तरह के सत्य का साक्षात्कार करना होगा। पहले कि मृत्यु अंतिम सत्य है और दूसरा इस सत्य को जानकर स्वयं को मानसिक रूप से तैयार करना है। इसमें एक चिकित्सक की क्या भूमिका हो सकती है? वे कहते हैं कि एक चिकित्सक को भी यह स्वीकार करना चाहिए कि उसकी शक्ति अनंत नहीं है। डॉक्टर सोचते हैं कि उनका काम स्वास्थ्य और जीवन देना है, लेकिन सच्चाई इसके आगे है कि जितना भी जीवन है वह सुखद रूप से कैसे जिया जाए! यदि सुख नहीं है तो जीवन का आधार क्या है? यह ऐसा प्रश्न है जिससे डॉक्टरों को लगातार जूझना है।

अतुल गवांडे की यह पुस्तक अपने किस्म की एक अनूठी किताब है। यह सिर्फ वृद्धजनों और बीमारों के बारे में नहीं है बल्कि मनुष्य के अपने अस्तित्व को लेकर दार्शनिक धरातल पर एक नए ढंग से सोचने के लिए प्रेरित करती है। मुझे लेखक की जो उक्ति सबसे अच्छी लगी वह यह कि मनुष्य के जीवन में संयुक्त परिवार का खासा महत्व है और वृद्धजनों की आश्वस्ति तब बढ़ जाती है जब उनकी फिक्र करने के लिए कम से कम एक बेटी जरूर हो।
अक्षर पर्व मार्च 2015 अंक की प्रस्तावना  

1 comment:

  1. बढिया जानकारी। परिवारों के विघटन के कारण वृद्धों की देखभाल में कमी आयी है। वरना हमारी संस्कृति में संयुक्त परिवार का मुखिया वृद्ध को माना जाता था। भौतिक युग में समय के बदलाव के साथ उसके दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। अब किसी को समाई नहीं रह गई।

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