Wednesday 11 March 2015

राजनीति के नए रंग


 भारतीय जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत के साथ केन्द्र में तथा आम आदमी पार्टी को अभूतपूर्व बहुमत के साथ दिल्ली में मतदाताओं ने इस भावना के साथ विजय दिलवाई थी कि ये सरकारें लोकहित में बिना किसी अनुचित दबाव के काम कर सकेंगी, किन्तु यह विश्वास बहुत जल्दी बिखरते नज़र आ रहा है। पिछले सात-आठ दिन में राजनीतिक मंच पर जो दृश्य देखने मिले हैं वे बढ़ती हुई निराशा और मोहभंग की ओर ही संकेत करते हैं। लगभग दस माह पूर्व केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी और उसके बाद भी जनता ने प्रदेश विधानसभाओं के चुनावों में भाजपा को शायद यही सोचकर समर्थन दिया था कि नरेन्द्र मोदी के हाथ जितने मजबूत होंगे उतनी ही गति से देश का विकास होगा, लेकिन अब लोग अपने ही फैसले पर शंका कर रहे हैं। ऐसी ही कुछ स्थिति दिल्ली के संदर्भ में आम आदमी पार्टी की भी बन गई है।

भारतीय जनता पार्टी ने जम्मू-काश्मीर प्रांत में पूर्ण बहुमत हासिल कर सरकार बनाने का सपना देखा था। यह एक नया इतिहास रचने का सपना था। इसे हासिल करने के लिए भाजपा ने हर संभव कोशिश की। जम्मू क्षेत्र में उसे आशानुरूप सफलता भी मिली, लेकिन जिस पीडीपी को जड़ से उखाड़ फेंकने का आह्वान नरेन्द्र मोदी कर रहे थे उसमें उन्हें रंचमात्र भी सफलता नहीं मिली और मुफ्ती परिवार की पार्टी 28 सीटें लेकर विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन गई। भाजपा और पीडीपी में वही रिश्ता था जो सांप और नेवले में होता है। दोनों के साथ मिलकर सरकार बनाने की कोई कल्पना भी नहीं करता था। आखिरकार ये मुफ्ती मोहम्मद सईद वही व्यक्ति हैं जो कभी भारत के गृहमंत्री थे और तब जिनकी बेटी के आतंकवादियों द्वारा अगुवा कर लिए जाने पर भाजपा ने तरह-तरह के सवाल उठाए थे। श्री मुफ्ती की देशनिष्ठा को लेकर सवाल तो आज भी उठ रहे हैं। संघ के मुखपत्र आर्गनाइज़र में प्रकाशित पूर्व सीबीआई डायरेक्टर जोगिन्दर सिंह का लेख यही तो कहता है।

इसके बावजूद चुनाव के बाद भाजपा ने पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने के लिए जो पैंतरेबाजी की वह आश्चर्यजनक ही कही जाएगी। सबसे बड़ा दल होने के नाते पीडीपी सरकार बना पाती या न बना पाती यह उसका सिरदर्द था। इसमें भारतीय जनता पार्टी को उलझने की क्या आवश्यकता थी? इसकेे लिए भाजपा ने अपने एक प्रभावशाली महासचिव राम माधव को मध्यस्थ बनाया। यह कोई साधारण निर्णय नहीं था क्योंकि राम माधव संघ से पार्टी में प्रतिनियुक्ति पर भेजे गए हैं। याने संघ भी यही चाहता था कि जम्मू-काश्मीर प्रांत में भाजपा येन केन प्रकारेण सत्ता में भागीदार बने! इसकी क्या वज़ह हो सकती थी? क्या यह सिर्फ एक झूठी आत्मसंतुष्टि का मामला था कि देखो भाजपा का राज काश्मीर में भी है या फिर इसके पीछे कोई गहरा मंतव्य था?

अब जब भाजपा और पीडीपी में संयुक्त साझा सरकार बनने के एक हफ्ते के भीतर ही दरारें पडऩी शुरू हो गईं हैं तब इस बारे में तरह-तरह के कयास लगने लगे हैं। राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले एक बुजुर्ग मित्र ने मुझसे कहा कि शायद मोदी सरकार जम्मू-काश्मीर का विभाजन करना चाहती है। जम्मू में भाजपा की सरकार बन जाए और काश्मीर घाटी में पीडीपी की। उन्होंने आशंका व्यक्त की कि आगे चलकर काश्मीर घाटी पाकिस्तान के हिस्से में न चली जाए। यह असंभव कल्पना नहीं है। ऐसे सुझाव समय-समय पर आ चुके हैं कि जम्मू, लद्दाख और काश्मीर अलग प्रांत बन जाएं; फिर देखा जाए कि क्या होता है। मुफ्ती साहब ने मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद पाकिस्तान, हुर्रियत और अलगाववादियों को जो धन्यवाद दिया उससे भी वही ध्वनि निकलती है कि काश्मीर घाटी की अपनी एक स्वायत्त स्थिति है या होना चाहिए।

अभी एक अलगाववादी मसरत आलम को आनन-फानन में जिस तरह से रिहा किया गया उसने भी एक बेचैनी को जन्म दिया है। जनता जानना चाह रही है कि मुख्यमंत्री मुफ्ती ने यह फैसला अपने तईं लिया है या इसमें गठबंधन सहयोगी भाजपा की भी सहमति रही है। इस कॉलम के लिखे जाने तक भाजपा की ओर से जो स्पष्टीकरण आए हैं वे किसी भी तरह आश्वस्त नहीं करते। शंका होती है कि साझा सरकार बनाने के लिए भाजपा ने कहीं पहले ही पीडीपी से गुप्त समझौता तो नहीं कर लिया था! सज्जाद लोन का भाजपा के कोटे से मंत्री बनना भी कम आश्चर्यजनक नहीं है। सफाई दी जा रही है कि श्री लोन नरमपंथी अलगाववादी हैं। इस व्याख्या पर आप क्या कहेंगे? काश्मीर के मसले पर केन्द्र सरकार और सत्तारूढ़ दल अलग-अलग माध्यमों से वार्ता करें यहां तक तो बात ठीक है, लेकिन प्रदेश सरकार में शरीक हो जाने के बाद भाजपा की स्थिति कमजोर हुई है यह एक सच है तथा उसके कट्टर समर्थकों को भी यह नया रंग समझ नहीं पड़ रहा है।

इधर आम आदमी पार्टी में जो खेल चल रहा है उससे भी लोग असमंजस में हैं। योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण पार्टी से लगभग बाहर हो गए हैं, ऐसा माना जाए तो गलत न होगा। ये वे दो लोग हैं जिन्होंने अरविन्द केजरीवाल के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया था तथा पार्टी का वैचारिक आधार तैयार करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। फिर ऐसा क्या हुआ कि इनके बीच मतभेद इस तरह खुलकर सामने आए और इतनी कटुता देखने मिली। शांतिभूषण ने चुनावों के बीच ही श्री केजरीवाल की आलोचना व किरण बेदी का समर्थन किया था। अब पता चल रहा है कि प्रशांतभूषण की बहन अमेरिका निवासी शालिनी गुप्ता ने जो कि आप के एनआरआई प्रकोष्ठ की संयोजक हैं ( या थीं) अपने एनआरआई समर्थकों को ई-मेल भेजकर पार्टी को चंदा न देने की अपील की थी। इससे इस आरोप को बल मिलता है कि भूषण परिवार चुनाव में पार्टी की हार देखना चाहता था। लेकिन इसकी वजह क्या है? जिस तरह से श्री केजरीवाल का शाजिया इल्मी आदि से विरोध हुआ, क्या कुछ वैसी ही स्थिति भूषण परिवार के साथ उत्पन्न हो गई थी? फिर योगेन्द्र यादव और मुंबई के मयंक गांधी जैसे नेता पार्टी से विमुख क्यों हुए? जिस तरह से दोनों पक्षों के बीच पत्राचार हुआ, मीडिया के माध्यम से एक-दूसरे पर आरोप लगाए गए उससे हर आप समर्थक व्यक्ति व्यथित ही हुआ है। अरविन्द केजरीवाल मीडिया के जरिए अपना दु:ख व्यक्त करते हैं और गंदगी में न पडऩे की बात कहकर स्वास्थ्य लाभ करने बंगलुरू चले जाते हैं, दूसरी तरफ उनके समर्थक योगेन्द्र यादव एंड कंपनी पर लगातार निशाना साधे रहते हैं और पार्टी कार्यकारिणी में उन्हें बहुमत के द्वारा बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। जो अरविन्द केजरीवाल मुख्यमंत्री रहते हुए रेल भवन के सामने धरने पर बैठने का कौतुक करते हैं वे अपने निकट मित्रों से खुलकर बात करने में कतराते हैं, यह एक नई और विचित्र स्थिति है।

अभी-अभी उनके एक अन्य समर्थक एवं आप नेता आशुतोष  द्वारा लिखी गई केजरीवाल की जीवनी प्रकाशित हुई है जिसका शीर्षक है- ''द क्राउन प्रिंस, द ग्लेडिएटर एंड द होप"। जैसा कि शीर्षक से अनुमान होता है कि लेखक अपने नायक को एक साथ युवराज और योद्धा के रूप में प्रस्तुत कर उसे आशा का प्रतीक मान रहा है। एक जनतांत्रिक राजनीति में अपने चरित्र नायक को युवराज का विशेषण देना कम से कम मुझे अटपटा लगा। क्या लेखक इसके लिए कोई बेहतर शब्द नहीं ढूंढ सकता था? 'आप' की जो स्थिति दिखाई दे रही है उसमें यह आशंका भी होती है कि कहीं यह योद्धा-युवराज अभिमन्यु की गति को प्राप्त न हो जाए और सारी आशाएं बिखर कर रह जाएं!

इससे बड़ा प्रश्न यह है कि आम आदमी पार्टी के बीच चल रहा संघर्ष क्या व्यक्तियों का संघर्ष है या विचारधाराओं का? यह तो सबको पता है कि चालू राजनीति से मोहभंग होकर अनेकानेक लोग 'आप' से इसलिए जुड़े थे कि यह नया दल राजनीति का एक नया मुहावरा गढ़ेगा। आम कार्यकर्ता की सोच तो यही थी, लेकिन क्या पार्टी नेतृत्व के इरादे भी इतने ही नेक थे? अभी से चर्चाएं होने लगी हैं कि इन नेताओं में से कौन भाजपा के करीब है और कौन कांग्रेस के। एक और बात उठ रही है कि इनमें से कौन पूंजीवाद के अमेरिकी मॉडल का प्रतिनिधि है और कौन यूरोपीय मॉडल का। कुल मिलाकर अगर आम आदमी पार्टी में यही चलता रहा तो एक बड़ा वर्ग अपने आपको छला गया महसूस करेगा। अंतत: यदि भाजपा ने विकास के नारे पर और 'आप' ने पारदर्शिता के नारे पर अमल नहीं किया तो इसके लिए जनता उन्हें माफ नहीं करेगी।
देशबन्धु में 12 मार्च 2015 को प्रकाशित

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