संसद के वर्तमान सत्र में अभी तक चार
महत्वपूर्ण प्रसंग घटित हुए। पहला- राष्ट्रपति का अभिभाषण, दूसरा- रेल बजट,
तीसरा- अभिभाषण पर प्रधानमंत्री का धन्यवाद ज्ञापन, चौथा और अंतिम वार्षिक
बजट। ये सभी ऐसे अवसर थे जब मोदी सरकार देश की जनता के सामने आने वाले समय
के लिए अपनी नीतियों और कार्यक्रमों का खुलासा करती। आजकल की भाषा में
कहें तो सरकार का रोड मैप जनता के सामने पेश किया जाता। यह विडंबना है कि
उपरोक्त चार में से एक भी अवसर का केन्द्र सरकार ने लाभ नहीं उठाया।
विडंबना यह सोचकर और बढ़ जाती है कि तीस वर्ष बाद केन्द्र में स्पष्ट बहुमत
से कोई सरकार बनी है। जिसके पास स्पष्ट बहुमत है उसे अपने विचारों का
खुलासा करने से भला संकोच क्यों होना चाहिए? इस कारण शंका उपजती है कि क्या
सरकार जानबूझ कर कुहासा बनाए रखना चाहती है या फिर वह स्वयं अपना रास्ता
निर्धारित नहीं कर सकी है?
राष्ट्रपति के अभिभाषण में कोई खास बात नहीं थी। सुनने वालों को यह जरूर अटपटा लगा कि प्रणव मुखर्जी मेरी सरकार, मेरी सरकार कहते समय श्यामाप्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय को उद्धृत कर रहे थे, लेकिन यह तो होना ही था। राष्ट्रपति का अपने अभिभाषण पर स्वयं कोई वश नहीं होता। केन्द्र सरकार से जैसा मसौदा उनके सामने आता है उसे ही उन्हें पढऩा होता है थोड़ा बहुत हेरफेर भले ही कर लें। यह एक ऐसी स्थिति है जिस पर संविधान के ज्ञाता आगे-पीछे चर्चा अवश्य करेंगे। राष्ट्रपति वैसे तो दलगत राजनीति से ऊपर होता है, लेकिन उसका चुनाव तो किसी न किसी दल के समर्थन पर ही निर्भर करता है। ऐसे में जब विरोध करने वाली पार्टी केन्द्र सरकार में आ जाए तब असमंजस की स्थिति बन ही जाती है। हमारा ख्याल है कि केन्द्र सरकार ने जो ताबड़तोड़ अध्यादेश जो पिछले माह में जारी किए, उन पर हस्ताक्षर करते समय भी राष्ट्रपति के सामने द्विविधापूर्ण स्थिति निर्मित हुई होगी! कुल मिलाकर यह अकादमिक बहस का विषय है।
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर 27 फरवरी को प्रधानमंत्री ने अपनी बात रखी। उन्होंने लगभग सत्तर मिनट तक भाषण दिया। अपेक्षा की जाती थी कि इस महत्वपूर्ण अवसर का उपयोग प्रधानमंत्री देश के सामने कुछ ठोस बातें रखने के लिए करेंगे। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि श्री मोदी अब तक चुनावी माहौल से बाहर नहीं निकल पाए हैं या शायद यही उनकी अदा है कि वे हर सभा को चुनावी रैली समझ बैठते हैं। 27 फरवरी को भी उनके वक्तव्य में लच्छेदार बातें तो बहुत थीं, लेकिन उन्हें सुनकर किसी निष्कर्ष तक पहुंचना मुश्किल था। उन्होंने इस भाषण में विपक्ष पर भी बार-बार तंज कसे जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। मनरेगा को लेकर उन्होंने जो कुछ कहा उसकी अपेक्षा प्रधानमंत्री से बिल्कुल ही नहीं की जाती थी। उन्होंने विदेश यात्राओं के बारे में भी अपनी सफाई दी और यह साबित करने का प्रयत्न किया कि विदेश यात्राएं देशहित में आवश्यक थीं।
श्री मोदी ने बताया कि वे विदेशों में वैज्ञानिकों से मिले और नयी-नयी तकनीकों के बारे में जानकारी हासिल की जिससे आगे चलकर भारत का भला होगा। हम प्रधानमंत्री से जानना चाहेंगे कि भारत में जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक हैं मसलन एम. स्वामीनाथन या जयंत नार्लीकर या पुष्प भार्गव, कभी उनके घर जाकर मिलने की बात उनके मन में क्यों नहीं आई? हमें यह भी ध्यान आता है कि छह माह पूर्व भारतीय विदेश सेवा के नवनियुक्त अधिकारियों को उन्होंने सलाह दी थी कि विदेश जाकर वहां की संस्कृति से प्रभावित मत होना। कहने का आशय यह है कि यदि भारत विश्वगुरु है तो फिर हमारे प्रधानमंत्री को विदेशी तकनीक यहां लाने के बारे में सोचना भी क्यों चाहिए? इस सुदीर्घ भाषण में उन्होंने जो अन्य बातें कीं उनमें भी कोई नयी बात न होकर पुराने वायदों का दोहराव ही था।
इसके एक दिन पूर्व 26 फरवरी को रेलमंत्री सुरेश प्रभु ने आगामी वर्ष के लिए रेल बजट पेश किया। श्री प्रभु की छवि एक कर्मठ और कुशल राजनेता की है। उम्मीद की जा रही थी कि वे ऐसा रेल बजट पेश करेंगे जो लीक से हटकर होगा। उन्होंने देशवासियों को निराश करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। यदि सामान्य नागरिक को यह जानकर कुछ क्षण की तसल्ली हुई कि इस वर्ष रेल भाड़ा नहीं बढ़ेगा तो कुछ देर बाद ही उसकी खुशी यह जानकर काफूर हो गई कि मालभाड़े में बिना किसी अपवाद के सीधे दस प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी गई है। एक रेल यात्री साल में दस-बीस रुपया किराया बढ़ जाए तो उसे मन मारकर स्वीकार कर लेता है, लेकिन मालभाड़ा बढऩे का विपरीत असर तो देश के हर घर को झेलना पड़ेगा। अन्य सामग्रियों के अलावा नमक, तेल और अनाज भी थोड़े तो महंगे हो ही जाएंगे।
चुनावों के पहले नरेन्द्र मोदी ने बुलेट ट्रेन का खूब सपना दिखाया था। रेल मंत्री के बजट में बुलेट ट्रेन का कोई अता-पता ही नहीं है। अब कहा जा रहा है कि कुछ ऐसी ट्रेनें चलेंगी जिसकी रफ्तार शताब्दी एक्सप्रेस से ज्यादा और बुलेट ट्रेन से कम होगी। ये भी कब चलेंगी, पता नहीं। हर साल रेल बजट में कुछ नई ट्रेनों की घोषणा की जाती है, कुछ ट्रेनों के फेरे बढ़ते हैं, कुछ की दूरी बढ़ती है, इस बजट में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है। रेल यात्रा को सुविधाजनक बनाने के लिए अवश्य बहुत सी घोषणाएं की गई हैं, लेकिन इसमें भी क्या नया है। एक समय तीसरे दर्जे में लकड़ी की बर्थ होती थी, अब हर बोगी में फोम के गद्दे होते ही हैं। मोबाइल का चार्जर पाइंट और इस तरह की अन्य सुविधाएं निरंतर बढ़ रही हैं। सुरेश प्रभु ने ऐसी कोई बात नहीं कही है, जिसके लिए उन्हें या उनके बजट को याद रखा जाए। इसके अलावा अभी तो उन्हें यह भी देखना है कि जो घाटा उन्होंने दर्शाया है उसे पूरा करने के लिए रकम कहां से आएगी?
रेल बजट तो रेल बजट। आम बजट ने उससे भी ज्यादा निराश किया है। करेले पर नीम चढ़ा इस तरह कि दिन में बजट पेश हुआ और शाम को पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ा दी गईं। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वेतनभोगी वर्ग को कोई राहत तो खैर नहीं दी, जले पर नमक छिड़कने वाली कहावत उन्होंने यह कहकर चरितार्थ कर दी कि मध्यम वर्ग अपनी फिकर खुद करे। ऐसा कहने का क्या मतलब है, किसी की समझ नहीं आया। एक विडंबना यहां भी देखने मिली कि श्री जेटली ने जहां जन सामान्य को कोई राहत देने से स्पष्ट इंकार कर दिया, वहीं उन्होंने कारपोरेट के आयकर में पांच प्रतिशत की कमी करने की घोषणा कर दी। रेल बजट में माल भाड़ा दस प्रतिशत बढ़ जाने का प्रतिकूल असर आम जनता पर पडऩा ही था। अब आम बजट में सेवा कर 12.36 से बढ़ाकर चौदह प्रतिशत कर देने का बोझ भी हर व्यक्ति को उठाना पड़ेगा।
जिस तरह से रेल बजट से बुलेट ट्रेन गायब है उसी तरह आम बजट से स्मार्ट सिटी भी नदारद है। दोनों मंत्रियों ने अपने-अपने बजट में जिस एक बिन्दु पर जोर दिया है वह है प्रधानमंत्री का अतिप्रिय स्वच्छता अभियान। हमें समझ नहीं आता कि इस एक बिन्दु पर सरकार इतनी चिंतित क्यों है? देश के सामने इससे भी बड़ी चिंताएं हैं उनको तो लगातार किनारे किया जा रहा है। इस बजट को ही देखें तो शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास और लोक कल्याण से सीधी जुड़ी ढेर सारी मदों में पिछले साल के मुकाबले कटौती कर दी गई है। क्या सरकार समझती है कि इन सारे मुद्दों पर ध्यान दिए बिना स्वच्छता अभियान सफल हो सकता है? हमारे देश में बहुत सारे कार्यक्रम, अभियान, आंदोलन, मिशन इसलिए असफल हो जाते हैं कि उन्हें समग्रता में देखने के बजाय खंडों में काम किया जाता है। ऐसे में दरारें उभरना लाजिमी है और देर-अबेर दरार फैलकर खाई बन जाना भी।
मैं सरकार को संदेह का लाभ देना चाहता हूं। इस सरकार के अधिकतर लोगों को शासन करने का अनुभव भले ही सीमित या न्यून हो, किन्तु प्रधानमंत्री सहित उनकी टीम के साथी लंबे समय से सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहे हैं और मानना चाहिए कि वे सहज बुद्धि या कि कॉमनसेंस के धनी हैं। इसके बावजूद आज यदि एक निराशाजनक चित्र उभर रहा है तो इसका एक ही कारण समझ आता है कि सरकार अपने इरादों को खुलकर प्रकट करने से बचना चाहती है। यह सरकार देश को पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की ओर ले जाने के लिए कटिबद्ध है, किन्तु जनता को अप्रसन्न करने का खतरा उठाने के लिए वह तैयार नहीं है। चूंकि सालाना बजट से जनता आशा लगाए रखती है तो बेहतर है कि उस आशा को ही तोड़ दिया जाए और जब जनता गाफिल हो तब सरकार मनमर्जी निर्णय लागू कर दे। ऐसे समय जब जनता में गुस्सा फैलने की आशंका कम से कम हो! एक ज्वलंत उदाहरण शनिवार की शाम देखने मिल ही गया। जनता बजट पर चर्चा करने मशगूल रही और पेट्रोल की बढ़ी कीमतों पर कहीं कोई बात ही न हो सकी। कल को जब कारपोरेट हित में बड़े निर्णय लिए जाएंगे तब क्या उन्हें लागू करने के लिए ऐसे ही अवसरों की तलाश सरकार को रहेगी?
राष्ट्रपति के अभिभाषण में कोई खास बात नहीं थी। सुनने वालों को यह जरूर अटपटा लगा कि प्रणव मुखर्जी मेरी सरकार, मेरी सरकार कहते समय श्यामाप्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय को उद्धृत कर रहे थे, लेकिन यह तो होना ही था। राष्ट्रपति का अपने अभिभाषण पर स्वयं कोई वश नहीं होता। केन्द्र सरकार से जैसा मसौदा उनके सामने आता है उसे ही उन्हें पढऩा होता है थोड़ा बहुत हेरफेर भले ही कर लें। यह एक ऐसी स्थिति है जिस पर संविधान के ज्ञाता आगे-पीछे चर्चा अवश्य करेंगे। राष्ट्रपति वैसे तो दलगत राजनीति से ऊपर होता है, लेकिन उसका चुनाव तो किसी न किसी दल के समर्थन पर ही निर्भर करता है। ऐसे में जब विरोध करने वाली पार्टी केन्द्र सरकार में आ जाए तब असमंजस की स्थिति बन ही जाती है। हमारा ख्याल है कि केन्द्र सरकार ने जो ताबड़तोड़ अध्यादेश जो पिछले माह में जारी किए, उन पर हस्ताक्षर करते समय भी राष्ट्रपति के सामने द्विविधापूर्ण स्थिति निर्मित हुई होगी! कुल मिलाकर यह अकादमिक बहस का विषय है।
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर 27 फरवरी को प्रधानमंत्री ने अपनी बात रखी। उन्होंने लगभग सत्तर मिनट तक भाषण दिया। अपेक्षा की जाती थी कि इस महत्वपूर्ण अवसर का उपयोग प्रधानमंत्री देश के सामने कुछ ठोस बातें रखने के लिए करेंगे। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि श्री मोदी अब तक चुनावी माहौल से बाहर नहीं निकल पाए हैं या शायद यही उनकी अदा है कि वे हर सभा को चुनावी रैली समझ बैठते हैं। 27 फरवरी को भी उनके वक्तव्य में लच्छेदार बातें तो बहुत थीं, लेकिन उन्हें सुनकर किसी निष्कर्ष तक पहुंचना मुश्किल था। उन्होंने इस भाषण में विपक्ष पर भी बार-बार तंज कसे जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। मनरेगा को लेकर उन्होंने जो कुछ कहा उसकी अपेक्षा प्रधानमंत्री से बिल्कुल ही नहीं की जाती थी। उन्होंने विदेश यात्राओं के बारे में भी अपनी सफाई दी और यह साबित करने का प्रयत्न किया कि विदेश यात्राएं देशहित में आवश्यक थीं।
श्री मोदी ने बताया कि वे विदेशों में वैज्ञानिकों से मिले और नयी-नयी तकनीकों के बारे में जानकारी हासिल की जिससे आगे चलकर भारत का भला होगा। हम प्रधानमंत्री से जानना चाहेंगे कि भारत में जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक हैं मसलन एम. स्वामीनाथन या जयंत नार्लीकर या पुष्प भार्गव, कभी उनके घर जाकर मिलने की बात उनके मन में क्यों नहीं आई? हमें यह भी ध्यान आता है कि छह माह पूर्व भारतीय विदेश सेवा के नवनियुक्त अधिकारियों को उन्होंने सलाह दी थी कि विदेश जाकर वहां की संस्कृति से प्रभावित मत होना। कहने का आशय यह है कि यदि भारत विश्वगुरु है तो फिर हमारे प्रधानमंत्री को विदेशी तकनीक यहां लाने के बारे में सोचना भी क्यों चाहिए? इस सुदीर्घ भाषण में उन्होंने जो अन्य बातें कीं उनमें भी कोई नयी बात न होकर पुराने वायदों का दोहराव ही था।
इसके एक दिन पूर्व 26 फरवरी को रेलमंत्री सुरेश प्रभु ने आगामी वर्ष के लिए रेल बजट पेश किया। श्री प्रभु की छवि एक कर्मठ और कुशल राजनेता की है। उम्मीद की जा रही थी कि वे ऐसा रेल बजट पेश करेंगे जो लीक से हटकर होगा। उन्होंने देशवासियों को निराश करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। यदि सामान्य नागरिक को यह जानकर कुछ क्षण की तसल्ली हुई कि इस वर्ष रेल भाड़ा नहीं बढ़ेगा तो कुछ देर बाद ही उसकी खुशी यह जानकर काफूर हो गई कि मालभाड़े में बिना किसी अपवाद के सीधे दस प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी गई है। एक रेल यात्री साल में दस-बीस रुपया किराया बढ़ जाए तो उसे मन मारकर स्वीकार कर लेता है, लेकिन मालभाड़ा बढऩे का विपरीत असर तो देश के हर घर को झेलना पड़ेगा। अन्य सामग्रियों के अलावा नमक, तेल और अनाज भी थोड़े तो महंगे हो ही जाएंगे।
चुनावों के पहले नरेन्द्र मोदी ने बुलेट ट्रेन का खूब सपना दिखाया था। रेल मंत्री के बजट में बुलेट ट्रेन का कोई अता-पता ही नहीं है। अब कहा जा रहा है कि कुछ ऐसी ट्रेनें चलेंगी जिसकी रफ्तार शताब्दी एक्सप्रेस से ज्यादा और बुलेट ट्रेन से कम होगी। ये भी कब चलेंगी, पता नहीं। हर साल रेल बजट में कुछ नई ट्रेनों की घोषणा की जाती है, कुछ ट्रेनों के फेरे बढ़ते हैं, कुछ की दूरी बढ़ती है, इस बजट में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है। रेल यात्रा को सुविधाजनक बनाने के लिए अवश्य बहुत सी घोषणाएं की गई हैं, लेकिन इसमें भी क्या नया है। एक समय तीसरे दर्जे में लकड़ी की बर्थ होती थी, अब हर बोगी में फोम के गद्दे होते ही हैं। मोबाइल का चार्जर पाइंट और इस तरह की अन्य सुविधाएं निरंतर बढ़ रही हैं। सुरेश प्रभु ने ऐसी कोई बात नहीं कही है, जिसके लिए उन्हें या उनके बजट को याद रखा जाए। इसके अलावा अभी तो उन्हें यह भी देखना है कि जो घाटा उन्होंने दर्शाया है उसे पूरा करने के लिए रकम कहां से आएगी?
रेल बजट तो रेल बजट। आम बजट ने उससे भी ज्यादा निराश किया है। करेले पर नीम चढ़ा इस तरह कि दिन में बजट पेश हुआ और शाम को पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ा दी गईं। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वेतनभोगी वर्ग को कोई राहत तो खैर नहीं दी, जले पर नमक छिड़कने वाली कहावत उन्होंने यह कहकर चरितार्थ कर दी कि मध्यम वर्ग अपनी फिकर खुद करे। ऐसा कहने का क्या मतलब है, किसी की समझ नहीं आया। एक विडंबना यहां भी देखने मिली कि श्री जेटली ने जहां जन सामान्य को कोई राहत देने से स्पष्ट इंकार कर दिया, वहीं उन्होंने कारपोरेट के आयकर में पांच प्रतिशत की कमी करने की घोषणा कर दी। रेल बजट में माल भाड़ा दस प्रतिशत बढ़ जाने का प्रतिकूल असर आम जनता पर पडऩा ही था। अब आम बजट में सेवा कर 12.36 से बढ़ाकर चौदह प्रतिशत कर देने का बोझ भी हर व्यक्ति को उठाना पड़ेगा।
जिस तरह से रेल बजट से बुलेट ट्रेन गायब है उसी तरह आम बजट से स्मार्ट सिटी भी नदारद है। दोनों मंत्रियों ने अपने-अपने बजट में जिस एक बिन्दु पर जोर दिया है वह है प्रधानमंत्री का अतिप्रिय स्वच्छता अभियान। हमें समझ नहीं आता कि इस एक बिन्दु पर सरकार इतनी चिंतित क्यों है? देश के सामने इससे भी बड़ी चिंताएं हैं उनको तो लगातार किनारे किया जा रहा है। इस बजट को ही देखें तो शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास और लोक कल्याण से सीधी जुड़ी ढेर सारी मदों में पिछले साल के मुकाबले कटौती कर दी गई है। क्या सरकार समझती है कि इन सारे मुद्दों पर ध्यान दिए बिना स्वच्छता अभियान सफल हो सकता है? हमारे देश में बहुत सारे कार्यक्रम, अभियान, आंदोलन, मिशन इसलिए असफल हो जाते हैं कि उन्हें समग्रता में देखने के बजाय खंडों में काम किया जाता है। ऐसे में दरारें उभरना लाजिमी है और देर-अबेर दरार फैलकर खाई बन जाना भी।
मैं सरकार को संदेह का लाभ देना चाहता हूं। इस सरकार के अधिकतर लोगों को शासन करने का अनुभव भले ही सीमित या न्यून हो, किन्तु प्रधानमंत्री सहित उनकी टीम के साथी लंबे समय से सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहे हैं और मानना चाहिए कि वे सहज बुद्धि या कि कॉमनसेंस के धनी हैं। इसके बावजूद आज यदि एक निराशाजनक चित्र उभर रहा है तो इसका एक ही कारण समझ आता है कि सरकार अपने इरादों को खुलकर प्रकट करने से बचना चाहती है। यह सरकार देश को पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की ओर ले जाने के लिए कटिबद्ध है, किन्तु जनता को अप्रसन्न करने का खतरा उठाने के लिए वह तैयार नहीं है। चूंकि सालाना बजट से जनता आशा लगाए रखती है तो बेहतर है कि उस आशा को ही तोड़ दिया जाए और जब जनता गाफिल हो तब सरकार मनमर्जी निर्णय लागू कर दे। ऐसे समय जब जनता में गुस्सा फैलने की आशंका कम से कम हो! एक ज्वलंत उदाहरण शनिवार की शाम देखने मिल ही गया। जनता बजट पर चर्चा करने मशगूल रही और पेट्रोल की बढ़ी कीमतों पर कहीं कोई बात ही न हो सकी। कल को जब कारपोरेट हित में बड़े निर्णय लिए जाएंगे तब क्या उन्हें लागू करने के लिए ऐसे ही अवसरों की तलाश सरकार को रहेगी?
देशबन्धु में 05 मार्च 2015 को प्रकाशित
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