Saturday 20 June 2015

यात्रा वृत्तान्त : खैरागढ़ के रास्ते पर


रायपुर से भिलाई। फिर चिखली, नगपुरा, जालबांधा होकर खैरागढ़। अभी और आगे जाना था- ईटार तक। एक लंबा समय बीत गया। मित्र रमाकांत श्रीवास्तव ने राष्ट्रीय सेवा योजना (एनएसएस) के एक शिविर की कुछ तस्वीरों के साथ रिपोर्ट भेजी थी। इंदिरा कला संगीत वि.वि. के छात्र कैडेट गांव की दीवारों पर चित्र उकेर रहे हैं। अपनी प्रतिभा से गांव की गलियों को एक नए आकर्षण से भर रहे हैं। कैंप ईटार गांव में लगा था, वहीं की तस्वीरें थीं। इसलिए जब गांव में एक साहित्यिक कार्यक्रम में आने का न्यौता मिला तो स्वीकार करने में देरी नहीं की। अपनी स्मृति में अनायास बस गए एक नितांत अपरिचित ग्राम को देखने का अवसर जो मिल रहा था। बाहर से ईटार वैसा ही औसत गांव है जैसे देश के बाकी सात लाख गांव हैं, लेकिन पास जाकर देखने से पता लगता है कि हर स्थान की अपने-आप में कोई खूबी होती है। ईटार में हमारी मुलाकात हुई पलटन दाऊ से। 80-85 उम्र के दाऊजी ब्रह्म मुहूर्त से भी पहिले उठ जाते हैं और सुबह चार बजे अपने घर में स्थापित लाउडस्पीकर से ग्रामवासियों को न सिर्फ जगाते हैं, बल्कि उन्हें गांव से संबंधित नई-पुरानी खबरें सुनाते हैं। हम वहां 3 जून की शाम पहुंचने वाले थे, उसकी घोषणा सुबह कर दी गई थी। सो कहना चाहिए कि दाऊ गांव का चलता-फिरता अखबार हैं, शायद आकाशवाणी कहना अधिक सटीक होगा!

जगजाहिर है कि छत्तीसगढ़ तालाबों का प्रदेश है। यह बात अलग है कि तेजी से तालाब पट रहे हैं और सरकारी अमला उन्हें पाटने के लिए धन लेकर तन-मन से सहयोग भी कर रहा है। फिर भी जो जनमान्यता है, उसे सही सिद्ध करने के लिए ईटार में झा परिवार का अपना 12 एकड़ का तालाब है। ऐसे पुराने निजी तालाब प्रदेश में मैंने अन्यत्र भी देखे हैं। ईटार में भी और तालाब शायद होंगे। तालाब है तो मछलियां भी होना ही हैं। उनसे पौष्टिक आहार की व्यवस्था है, ग्रामीण अर्थव्यवस्था में योगदान है और खैरागढ़ की हाट में व्यापार का विकास भी है। छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की पाठक मंच योजना की इकाई खैरागढ़ में है, जिसके संयोजक डॉ. प्रशांत झा हैं। उन्होंने अपने गांव में साहित्य चर्चा एवं कवि सम्मेलन का कार्यक्रम रखा जो रात आठ बजे प्रारंभ हुआ तो सुबह एक बजे तक चला। कविताएं पहिले, चर्चा गोष्ठी बाद में। उसका भी प्रसारण लाउडस्पीकर से गांव में होता रहा। इस कवि सम्मेलन में न तो लतीफेबाजी थी और किसी अन्य प्रकार का भौंडापन। सारा गांव सांस्कृतिक मंच के इर्दगिर्द उमड़ आया था। कविगण श्रोताओं की समझ और संवेदनशीलता को सराह रहे थे और श्रोता कवियों पर अपना प्रेम निछावर कर रहे थे। गांव के सारे टीवी सैट उस रात बंद थे।

ईटार की इस यात्रा को लेकर मेरे मन में अनेक लालच थे। कई बरसों से खैरागढ़ नहीं गया था। वहां मित्रों से मिलना चाहता था, इंदिरा कला-संगीत वि.वि. की बदलती तस्वीर भी देखने का मोह था और जालबांधा की सडक़ से एक बार फिर गुजरने का मन भी। कोई चालीस बरस पहिले जब पहिली बार खैरागढ़ गया था तब एक ही रास्ता मालूम था-व्हाया राजनांदगांव। उस रास्ते रायपुर-खैरागढ़ के बीच की दूरी लगभग 120 किमी थी। दुर्ग-पुराना शिवनाथ पुल-नगपुरा होकर पक्की सडक़ बनना प्रारंभ हुई तो दूरी घटकर कोई 100 किमी रह गई। इस बनती हुई सडक़ से ही मैंने अनेक यात्राएं कीं, कभी खैरागढ़ वि.वि. की परिषद बैठक में भाग लेने तो कभी किसी अन्य कार्यक्रम में। इस मार्ग पर पडऩे वाले छोटे से गांव जालबांधा का नाम मुझे न जाने क्यों शुरु से आकर्षित करता रहा! शायद इस नाम में किसी रचना की संभावना छुपी हो! इस पथ पर ही नगपुरा का जैन तीर्थ मेरे देखते-देखते विकसित हुआ। आज वह धर्मप्राण जैनियों का एक प्रमुख तीर्थ बन चुका है। उसके आगे एक समय सडक़ के दोनों ओर काफी दूरी तक मुख्यत: सुबबूल का वृक्षारोपण हुआ करता था। यह सरकारी सामाजिक वानिकी या सोशल फॉरेस्ट्री की योजना का अंग था, जिसका भरपूर लाभ अनेक व्यवसाय-प्रवीण व्यक्तियों ने उठाया।

खैर, इस ताज़ा यात्रा पर निकलने के पूर्व खैरागढ़ के साथी गोरेलाल चंदेल से मार्गदर्शन मिला कि भिलाई बाईपास से चिखली-नगपुरा होकर आऊं तो दूरी और समय की बचत होगी और सडक़ भी बेहतर मिलेगी। मैंने उनकी बात मान ली कि एक और नया रास्ता देखने मिलेगा। पत्रकार और लेखक को तो राहों का अन्वेषी होना ही चाहिए न! इस नए मार्ग से मात्र 90 किमी की दूरी कोई पौने दो घंटे में तय हो गई। रायपुर से भिलाई तो फोर-लेन है ही, बाईपास पर एक किमी चलने के बाद दुर्ग-धमधा मार्ग पर चिखली गांव आता है, वहां से मुडक़र नगपुरा और फिर जाना- पहचाना रास्ता। चिखली-नगपुरा के बीच शिवनाथ नदी के किनारे पर एक बड़ा भारी रिसोर्ट सा कुछ बनते देखा। जानकारी मिली कि यहां एक गोल्फ कोर्स बन रहा है। हमारे नया रायपुर में गोल्फ कोर्स बना कि नहीं, मुझे ज्ञात नहीं, किंतु चलिए अच्छा है किसी उद्यमी ने अपनी कल्पनाशीलता का परिचय देते हुए निजी गोल्फ कोर्स बना दिया। भारत को शंघाई एवं सिंगापुर का मुकाबला करना है तो यह सब तो होना ही चाहिए! (बशर्ते भूमि अधिग्रहण और उचित मुआवजे को लेकर कोई संघर्ष की स्थिति निर्मित न हो)।

इस नई सडक़ से आने पर नगपुरा गांव को पहिली बार ठीक से देखा। पुरातत्ववेत्ता बताते हैं कि इस ग्राम के आसपास खेतों में प्राचीन मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। नगपुरा के भव्य जैन मंदिर में जो प्रतिमाएं स्थापित हैं, उनके अलावा गांव के अन्य मंदिरों में भी वे संरक्षित हैं। सोचता हूं कि दुबारा अवसर मिले तो गांव के दूसरे मंदिर भी देखूंगा। नगपुरा ने अब एक कस्बे की शक्ल ले ली है। तीर्थ के साथ व्यापार का चोली-दामन का साथ होने के कारण यह विकास स्वाभाविक है। किंतु मुझे अनुमान नहीं था कि जालबांधा भी इतना बढ़ जाएगा। शायद कुछ तो आबादी बढ़ जाने के कारण और कुछ पक्की सडक़ के कारण आवागमन में वृद्धि के चलते! जालबांधा में गांव से लगकर ही पुलिस थाने की जो नई इमारत बनी है, वह यात्रियों का ध्यान अनायास अपनी ओर खींचती है। दुमंजिला भवन जिसके चारों कोनों पर छोटी-छोटी मीनारें खड़ी करने से एहसास होता है मानों किसी गढ़ी को देख रहे हों। सडक़ बहुत उम्दा बनी है, विकास की प्रक्रिया में गांव शनै: शनै: भीतर से उठकर बाहर सडक़ किनारे बसने लगे हैं। एक जगह राजनैतिक छत्रछाया पाकर चंडी मंदिर लगभग सडक़ पर ही आ गया है और गांव-गांव में वीरांगना अवंतिबाई की प्रतिमाएं स्थापित हो गई हैं। वैसे इस सडक़ पर मैंने जितने मंदिर-मढिय़ां देखे, वह भी शायद एक रिकॉर्ड ही हो। रास्ते में दो गांवों ने मुझे फिर अपने नाम से आकर्षित किया-एक जोगीगुफा, दूसरा शेरगढ़। क्या जोगीगुफा में कभी कोई जोगी रमता था? और शेरगढ़? हमारे-प्रदेश में अमूमन ऐसे नाम नहीं होते।

अब हम खैरागढ़ पहुंच चुके हैं। जंगल के मुहाने पर बसा नगर न तो भारतीय रेलवे के मानचित्र पर है और न किसी राजमार्ग पर। हां, अतीत में एक देशी रियासत अवश्य थी, किंतु तब ऐसी साढ़े पांच सौ रियासतें और भी थीं। फिर भी खैरागढ़ छत्तीसगढ़ का एक महत्वपूर्ण स्थान है, जिसका नाम चर्चा में आने पर प्रदेशवासियों को गौरव अनुभव होता है, और वह भी किसी एक वजह से नहीं। खैरागढ़ आया तो इतिहास, भूगोल और संस्कृति के कितने ही चित्र आंखों के सामने झिलमिलाने लगे। छत्तीसगढ़ या तत्कालीन मध्यप्रदेश ही नहीं, भारत के सांस्कृतिक नक्शे पर इस जगह को महत्व मिलाने का सर्वप्रथम श्रेय मूर्धन्य लेखक-संपादक पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी को जाता है। इतना कहना पर्याप्त होगा कि खैरागढ़ की यात्रा करना एक साहित्य तीर्थ की यात्रा करना होता है। साहित्य की दुनिया से आगे बढक़र खैरागढ़ को व्यापक ख्याति व प्रतिष्ठा मिली-इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय से। सीपी एंड बरार प्रांत में नागपुर व सागर के बाद खुलने वाला यह तीसरा विश्वविद्यालय था। खैरागढ़ से ही अपने कर्म जीवन का प्रारंभ करने वाले पं. रविशंकर शुक्ल की प्रेरणा से खैरागढ़ के राजपरिवार ने 1954 में दिवंगत राजकुमारी इंदिरा की स्मृति में वि.वि. स्थापित करने के लिए राजमहल इत्यादि का दान किया था। खैरागढ़ राजवंश में संगीत के प्रति अनुराग की सुदीर्घ परंपरा थी, एक राजा ने तो संगीत पर ग्रंथ भी रचे, इसीलिए यह उचित ही था कि नया विश्वविद्यालय ललित कला व संगीत के उच्च अध्ययन का केंद्र बनकर विकसित हो। आज खैरागढ़ की ही बेटी एवं देश की जानी-मानी नृत्यांगना डॉ. मांडवी सिंह इस विश्वविद्यालय की कुलपति हैं। पिछले दस वर्षों में वि.वि. ने प्रगति की नई मंजिलें तय की हैं, जिसका श्रेय युवा कुलपति की कल्पनाशीलता एवं ध्येयनिष्ठता  को भी जाता है। वि.वि. के पुराने परिसर का विस्तार होने के साथ-साथ नया परिसर भी आकार ले रहा है जिसे देखकर भविष्य के प्रति आश्वस्ति होती है।

सिर्फ एक शाम और देर रात के कुछ घंटे बिताने के बाद रायपुर लौटना था। तीन नदियों- पिपरिया, मुस्का और आमनेर से घिरे खैरागढ़ में साहित्य, ललित कला व सौहार्द्र की नदियां भी बहती हैं और प्रवासी के मन को घेर लेती हैं। प्रदेश के जनकवि खैरागढ़वासी जीवन यदु ने इस आयाम पर कोई गीत न रचा हो तो अब लिख लेना चाहिए।
देशबन्धु में 18 जून 2015 को प्रकाशित

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