यह अनुभवसिद्ध सच्चाई है कि
योगासनों एवं यौगिक क्रियाओं का अभ्यास करने से मनुष्य को सेहतमंद बने
रहने में सहायता मिलती है। यह भी उतना ही सच है कि योगाभ्यास कोई रामबाण
नुस्खा नहीं है, जिससे हर बीमारी का उपचार हो जाए। आवश्यक पडऩे पर डॉक्टर
की सलाह और अस्पताल की सुश्रुषा का सहारा लेना ही पड़ता है। यदि कोई
व्यक्ति आंख मूंदकर सिर्फ योग चिकित्सा के भरोसे रहा आए तो उसे लाभ के बजाय
नुकसान होने की आशंका बनी रहेगी। वैसे एक वर्ग उन लोगों का भी है जो योग
पर बिल्कुल विश्वास नहीं रखते। पाठकों को शायद कोलकाता के उन बुजुर्ग महाशय
का स्मरण होगा जो अस्सी साल की वय में भी प्रतिदिन मीलों पैदल चलते हैं
किंतु योगासनों को अप्राकृतिक एवं शरीर पर अत्याचार मानते हैं। उनका
साक्षात्कार तीन-चार साल पूर्व टीवी पर आया था। खैर, दुनिया का ऐसा कौन सा
विषय है जिसमें पक्ष-विपक्ष दोनों न होते हों?
बहरहाल, संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर 21 जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की तो इससे एक प्राचीन एवं लाभकारी विद्या या अनुशासन को मान्यता मिली, जिसका मोटे तौर पर सब तरफ स्वागत ही हुआ है। हम संतोष कर सकते हैं कि भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता भले ही न मिल पाई हो, विश्व को भारत की देन की रूप में पहिले अहिंसा दिवस और अब योग दिवस को रेखांकित किया गया। ऐसे किसी भी दिवस की घोषणा से संबंधित व्यक्ति, वस्तु या विचार का महत्व प्रतिपादित होता है, जनता को प्रेरणा मिलती है कि साल में कम से कम एक दिन वह उस विषय पर ध्यान केंद्रित कर अपने जीवन में उसका लाभ उठाने का प्रयत्न करे। लेकिन सच कहें तो यह लाभ तभी मिल सकता है, जब बात सिर्फ एक दिन तक सीमित न रहे, बल्कि जीवन का स्थायी अंग बन जाए। मसलन अहिंसा दिवस की सार्थकता तभी है, जब मनुष्य हृदय से घृणा, वैमनस्य एवं प्रतिहिंसा के कुविचारों को पूरी तरह से छोड़ दे।
मैं उन करोड़ों जनों में से एक हूं जिसने योगाभ्यास का लाभ उठाया है। मेरे दादाजी ने मुझे मात्र 4-5 वर्ष की आयु में योगासन सिखलाना प्रारंभ कर दिया था। आगे चलकर स्काउट, फिर ए.सी.सी. (ऑक्ज़ीलरी कैडेट कोर) में भी मैंने योगाभ्यास किया। जब रायपुर में बिहार योग विद्यालय, मुंगेर की शाखा स्थापित हुई तो नियमित अभ्यास के लोभ में मैंने वहां जाना भी प्रारंभ किया। सुबह-सुबह ताज़ी, ठंडी हवा के बीच योगासन करने में उत्फुल्लता का अनुभव होता ही था। किंतु मैंने योग विद्यालय जाना उस दिन बंद कर दिया, जब वहां के स्वामीजी ने हम लोगों को कीर्तन एवं गुरुवंदना करने के लिए कहा। मैं वहां ‘‘गुरुदेव दया कर दीन जने’’ का गायन करने के लिए नहीं जा रहा था और न मेरी दृष्टि में योगाभ्यास से उसका कोई प्रत्यक्ष-परोक्ष संबंध था। मैंने महसूस किया कि स्वामीजी इस तरह अंधभक्तों की फौज खड़ी करने की चाल चल रहे थे।
मेरे ऐसे कुछ मित्र थे जो योग विद्यालय के न सिर्फ नियमित सदस्य थे, बल्कि उसका प्रचार करने में भी काफी उत्साह के साथ भाग लेते थे। इनमें से एक मित्र जो वकील थे, लंबे समय तक अपने दिल की बीमारी का इलाज योगाभ्यास से करने में लगे रहे, लेकिन एक दिन ऐसी स्थिति आई कि उन्हें सही उपचार के लिए ताबड़तोड़ बंबई भेजना पड़ा। उसके पहिले तक इन मित्र को भरोसा था कि कैंसर जैसे रोग का उपचार योग से हो सकता है। समय रहते उनका यह भ्रम टूट गया। मुझे भय है कि यह खतरा आज फिर मंडरा रहा है। आज प्रचारतंत्र पहिले की अपेक्षा कहीं अधिक मजबूत व प्रभावशाली है; प्रचार की तकनीकें भी नायाब हैं; आज योग गुरुओं को जो सरकारी मान्यता मिल रही है, वह भी अभूतपूर्व है। ऐसे वातावरण में आम जनता के बीच यह भ्रांति पनप सकती है कि योग से हर बीमारी का उपचार संभव है। हम समझते हैं कि भारत सरकार के आयुष विभाग को योग के लाभ एवं उसकी सीमाएं-दोनों के बारे में जनता को शिक्षित करना चाहिए।
अनुमान होता है कि स्वयं प्रधानमंत्री ने इस आसन्न खतरे को भांप लिया है। रविवार को राजपथ पर योग के सरकारी आयोजन के एक घंटे के भीतर ही प्रधानमंत्री का ट्वीट आ गया कि योग का व्यवसायीकरण करने वालों से सावधान रहें। यह कौन नहीं जानता कि बाबा रामदेव, श्रीश्री रविशंकर आदि आधुनिक संत दवा व प्रसाधन सामग्रियों का अच्छा खासा व्यापार करते हैं। इनके कारखानों में निर्मित सामान दूर-दराज तक जाकर बिकता है। ये संत अरबपति उद्यमी हैं। इनका सरकार में भी खासा दबदबा है। योग दिवस के ऐसे अद्भुत प्रचार से इनका मुनाफा बढऩे की संभावनाएं एकाएक कई गुना बढ़ गई हैं। ऐसे में इनका उत्साह छुपाए नहीं छुप रहा। दूसरी ओर योगासन के लिए रबर की दरी, यौगिक वेशभूषा आदि का भी एक नया बाकाार खड़ा हो गया है। कहते हैं चीन से ‘‘योगा मैट’’ आकर बिक रही हैं। याने आप अगर साधारण दरी या चादर पर योगासन करेंगे तो बेवकूफ कहलाएंगे। ये ‘‘योगा मैट’’ कौन बना और बेच रहा है? अभी यह संभावना भी दिख रही है कि जल्दी ही स्पोकन इंग्लिश क्लास, वेस्टर्न डांस क्लास और ब्यूटी पार्लर के साथ-साथ ‘‘योगा क्लासेज़’’ भी गली-गली में खुलने लगेंगी।
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा होने के साथ ही एक अनावश्यक बहस इसको लेकर छिड़ी कि योग का धार्मिक पक्ष क्या है। इस बहस पर आग में घी देने का काम दोनों तरफ के सांप्रदायिक तत्वों ने किया। बहस अनावश्यक इसलिए थी कि हिंदू और गैर हिंदू दोनों अपनी रुचि अथवा इच्छा के अनुरूप योगाभ्यास करते रहे हैं। दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग जब रायपुर में कलेक्टर थे तब वे अपने बंगले के सामने ही स्थित उपरोक्त योग विद्यालय में नियमित जाया करते थे। मज़े दार बात यह है, कि तब उन्हें योग सिखलाने वाले स्वामी ऑस्ट्रेलिया से आए एक ईसाई युवक थे। योग में धर्म आड़े नहीं आता, उसका इससे बेहतर प्रमाण भला और क्या हो सकता है? कहना होगा कि योग को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश के पीछे दो तरह की मंशाएं काम कर रही थीं। हिंदू पुनरुत्थानवादी भारत को शीघ्रातिशीघ्र एक हिंदू राष्ट्र बना देना चाहते हैं। दूसरी ओर, अल्पसंख्यक समुदाय के बीच ऐसे तत्व विद्यमान हैं जो आक्रामक हिंदुत्व का तार्किक विरोध करने के बजाय मुसलमानों के बीच खौफ पैदा कर अपना नेतृत्व सिद्ध करना चाहते हैं। यह अच्छी बात है कि भारतीय जनता ने इनको गंभीरता से नहीं लिया। इस प्रसंग में संघ से भाजपा में डेपुटेशन पर भेजे गए राम माधव की निंदा की जाना चाहिए जिन्होंने उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी पर अनर्गल आरोप मढ़े और बाद में ट्विटर पर अपनी टिप्पणियां हटा दीं। उन्हें ऐसी क्या हड़बड़ी थी?
अब सवाल उठता है कि सरकार प्रायोजित इस भव्य प्रस्तुति के बाद आगे क्या होगा। यह सवाल उठाना लाज़िमी है। हमें थोड़ा पीछे जाकर देखने की आवश्यकता है कि 2 अक्टूबर 2014 को अन्तरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस को किस रूप में मनाया गया। ऐसा क्यों हुआ कि अहिंसा का स्थान स्वच्छता ने ले लिया। और फिर स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा जोर-शोर से प्रारंभ स्वच्छता अभियान आज किस हालत में है। क्या योग दिवस को भी एक दिन के औपचारिक समारोह के बाद इसी तरह भुला दिया जाएगा? हमारे यहां नेक इरादों से प्रारंभ किया गया कोई भी अभियान अपनी स्वाभाविक परिणति तक पहुंचने के पहिले रास्ते में ही दम तोड़ देता है, क्या यह हमारी चिंता का विषय नहीं होना चाहिए? क्या इसकी वजह यह है कि हमारे नीति-निर्माता चुनाव जीतने के बाद अपनी सहजबुद्धि से काम लेना बंद कर देते हैं और इसके बजाय वे झूठी चमक-दमक का शिकार हो जाते हैं?
अब बात गिनीज़ बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड्स में नाम दर्ज कराने की। इंग्लैंड की एक शराब कंपनी द्वारा अपनी बिक्री बढ़ाने के उद्देश्य से प्रकाशित इस पुस्तक में 21 जून योग दिवस की प्रविष्टि हो जाने से क्या होगा? इसमें आए दिन तमाम ऊटपटांग हरकतों को उपलब्धि बताकर दर्ज किया जाता है। मोदी सरकार ने एक तरह से बचकानेपन का प्रमाण दिया है। इस क्षणिक ‘‘उपलब्धि’’ के मोह से यदि बचा जाता तो बेहतर होता। आशा की जाना चाहिए कि जनता इन प्रश्नों पर यथासमय अवश्य विचार करेगी।
बहरहाल, संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर 21 जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की तो इससे एक प्राचीन एवं लाभकारी विद्या या अनुशासन को मान्यता मिली, जिसका मोटे तौर पर सब तरफ स्वागत ही हुआ है। हम संतोष कर सकते हैं कि भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता भले ही न मिल पाई हो, विश्व को भारत की देन की रूप में पहिले अहिंसा दिवस और अब योग दिवस को रेखांकित किया गया। ऐसे किसी भी दिवस की घोषणा से संबंधित व्यक्ति, वस्तु या विचार का महत्व प्रतिपादित होता है, जनता को प्रेरणा मिलती है कि साल में कम से कम एक दिन वह उस विषय पर ध्यान केंद्रित कर अपने जीवन में उसका लाभ उठाने का प्रयत्न करे। लेकिन सच कहें तो यह लाभ तभी मिल सकता है, जब बात सिर्फ एक दिन तक सीमित न रहे, बल्कि जीवन का स्थायी अंग बन जाए। मसलन अहिंसा दिवस की सार्थकता तभी है, जब मनुष्य हृदय से घृणा, वैमनस्य एवं प्रतिहिंसा के कुविचारों को पूरी तरह से छोड़ दे।
मैं उन करोड़ों जनों में से एक हूं जिसने योगाभ्यास का लाभ उठाया है। मेरे दादाजी ने मुझे मात्र 4-5 वर्ष की आयु में योगासन सिखलाना प्रारंभ कर दिया था। आगे चलकर स्काउट, फिर ए.सी.सी. (ऑक्ज़ीलरी कैडेट कोर) में भी मैंने योगाभ्यास किया। जब रायपुर में बिहार योग विद्यालय, मुंगेर की शाखा स्थापित हुई तो नियमित अभ्यास के लोभ में मैंने वहां जाना भी प्रारंभ किया। सुबह-सुबह ताज़ी, ठंडी हवा के बीच योगासन करने में उत्फुल्लता का अनुभव होता ही था। किंतु मैंने योग विद्यालय जाना उस दिन बंद कर दिया, जब वहां के स्वामीजी ने हम लोगों को कीर्तन एवं गुरुवंदना करने के लिए कहा। मैं वहां ‘‘गुरुदेव दया कर दीन जने’’ का गायन करने के लिए नहीं जा रहा था और न मेरी दृष्टि में योगाभ्यास से उसका कोई प्रत्यक्ष-परोक्ष संबंध था। मैंने महसूस किया कि स्वामीजी इस तरह अंधभक्तों की फौज खड़ी करने की चाल चल रहे थे।
मेरे ऐसे कुछ मित्र थे जो योग विद्यालय के न सिर्फ नियमित सदस्य थे, बल्कि उसका प्रचार करने में भी काफी उत्साह के साथ भाग लेते थे। इनमें से एक मित्र जो वकील थे, लंबे समय तक अपने दिल की बीमारी का इलाज योगाभ्यास से करने में लगे रहे, लेकिन एक दिन ऐसी स्थिति आई कि उन्हें सही उपचार के लिए ताबड़तोड़ बंबई भेजना पड़ा। उसके पहिले तक इन मित्र को भरोसा था कि कैंसर जैसे रोग का उपचार योग से हो सकता है। समय रहते उनका यह भ्रम टूट गया। मुझे भय है कि यह खतरा आज फिर मंडरा रहा है। आज प्रचारतंत्र पहिले की अपेक्षा कहीं अधिक मजबूत व प्रभावशाली है; प्रचार की तकनीकें भी नायाब हैं; आज योग गुरुओं को जो सरकारी मान्यता मिल रही है, वह भी अभूतपूर्व है। ऐसे वातावरण में आम जनता के बीच यह भ्रांति पनप सकती है कि योग से हर बीमारी का उपचार संभव है। हम समझते हैं कि भारत सरकार के आयुष विभाग को योग के लाभ एवं उसकी सीमाएं-दोनों के बारे में जनता को शिक्षित करना चाहिए।
अनुमान होता है कि स्वयं प्रधानमंत्री ने इस आसन्न खतरे को भांप लिया है। रविवार को राजपथ पर योग के सरकारी आयोजन के एक घंटे के भीतर ही प्रधानमंत्री का ट्वीट आ गया कि योग का व्यवसायीकरण करने वालों से सावधान रहें। यह कौन नहीं जानता कि बाबा रामदेव, श्रीश्री रविशंकर आदि आधुनिक संत दवा व प्रसाधन सामग्रियों का अच्छा खासा व्यापार करते हैं। इनके कारखानों में निर्मित सामान दूर-दराज तक जाकर बिकता है। ये संत अरबपति उद्यमी हैं। इनका सरकार में भी खासा दबदबा है। योग दिवस के ऐसे अद्भुत प्रचार से इनका मुनाफा बढऩे की संभावनाएं एकाएक कई गुना बढ़ गई हैं। ऐसे में इनका उत्साह छुपाए नहीं छुप रहा। दूसरी ओर योगासन के लिए रबर की दरी, यौगिक वेशभूषा आदि का भी एक नया बाकाार खड़ा हो गया है। कहते हैं चीन से ‘‘योगा मैट’’ आकर बिक रही हैं। याने आप अगर साधारण दरी या चादर पर योगासन करेंगे तो बेवकूफ कहलाएंगे। ये ‘‘योगा मैट’’ कौन बना और बेच रहा है? अभी यह संभावना भी दिख रही है कि जल्दी ही स्पोकन इंग्लिश क्लास, वेस्टर्न डांस क्लास और ब्यूटी पार्लर के साथ-साथ ‘‘योगा क्लासेज़’’ भी गली-गली में खुलने लगेंगी।
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा होने के साथ ही एक अनावश्यक बहस इसको लेकर छिड़ी कि योग का धार्मिक पक्ष क्या है। इस बहस पर आग में घी देने का काम दोनों तरफ के सांप्रदायिक तत्वों ने किया। बहस अनावश्यक इसलिए थी कि हिंदू और गैर हिंदू दोनों अपनी रुचि अथवा इच्छा के अनुरूप योगाभ्यास करते रहे हैं। दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग जब रायपुर में कलेक्टर थे तब वे अपने बंगले के सामने ही स्थित उपरोक्त योग विद्यालय में नियमित जाया करते थे। मज़े दार बात यह है, कि तब उन्हें योग सिखलाने वाले स्वामी ऑस्ट्रेलिया से आए एक ईसाई युवक थे। योग में धर्म आड़े नहीं आता, उसका इससे बेहतर प्रमाण भला और क्या हो सकता है? कहना होगा कि योग को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश के पीछे दो तरह की मंशाएं काम कर रही थीं। हिंदू पुनरुत्थानवादी भारत को शीघ्रातिशीघ्र एक हिंदू राष्ट्र बना देना चाहते हैं। दूसरी ओर, अल्पसंख्यक समुदाय के बीच ऐसे तत्व विद्यमान हैं जो आक्रामक हिंदुत्व का तार्किक विरोध करने के बजाय मुसलमानों के बीच खौफ पैदा कर अपना नेतृत्व सिद्ध करना चाहते हैं। यह अच्छी बात है कि भारतीय जनता ने इनको गंभीरता से नहीं लिया। इस प्रसंग में संघ से भाजपा में डेपुटेशन पर भेजे गए राम माधव की निंदा की जाना चाहिए जिन्होंने उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी पर अनर्गल आरोप मढ़े और बाद में ट्विटर पर अपनी टिप्पणियां हटा दीं। उन्हें ऐसी क्या हड़बड़ी थी?
अब सवाल उठता है कि सरकार प्रायोजित इस भव्य प्रस्तुति के बाद आगे क्या होगा। यह सवाल उठाना लाज़िमी है। हमें थोड़ा पीछे जाकर देखने की आवश्यकता है कि 2 अक्टूबर 2014 को अन्तरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस को किस रूप में मनाया गया। ऐसा क्यों हुआ कि अहिंसा का स्थान स्वच्छता ने ले लिया। और फिर स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा जोर-शोर से प्रारंभ स्वच्छता अभियान आज किस हालत में है। क्या योग दिवस को भी एक दिन के औपचारिक समारोह के बाद इसी तरह भुला दिया जाएगा? हमारे यहां नेक इरादों से प्रारंभ किया गया कोई भी अभियान अपनी स्वाभाविक परिणति तक पहुंचने के पहिले रास्ते में ही दम तोड़ देता है, क्या यह हमारी चिंता का विषय नहीं होना चाहिए? क्या इसकी वजह यह है कि हमारे नीति-निर्माता चुनाव जीतने के बाद अपनी सहजबुद्धि से काम लेना बंद कर देते हैं और इसके बजाय वे झूठी चमक-दमक का शिकार हो जाते हैं?
अब बात गिनीज़ बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड्स में नाम दर्ज कराने की। इंग्लैंड की एक शराब कंपनी द्वारा अपनी बिक्री बढ़ाने के उद्देश्य से प्रकाशित इस पुस्तक में 21 जून योग दिवस की प्रविष्टि हो जाने से क्या होगा? इसमें आए दिन तमाम ऊटपटांग हरकतों को उपलब्धि बताकर दर्ज किया जाता है। मोदी सरकार ने एक तरह से बचकानेपन का प्रमाण दिया है। इस क्षणिक ‘‘उपलब्धि’’ के मोह से यदि बचा जाता तो बेहतर होता। आशा की जाना चाहिए कि जनता इन प्रश्नों पर यथासमय अवश्य विचार करेगी।
देशबन्धु में 25 जून 2015 को प्रकाशित
1
ReplyDelete