यह एक विडंबना ही मानी जाएगी कि इन दिनों जब चालीस साल पहिले लगे आपातकाल का स्मरण अपने-अपने ढंग से किया जा रहा है, तब देश में इस समय अघोषित आपातकाल लागू होने की बात भी चर्चाओं में उभरने लगी है। मैं मानता हूं कि 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद यदि श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस्तीफा दे दिया होता तो मात्र दो सप्ताह बाद उन्हें आपातकाल लगाने जैसा अतिरेकी कदम उठाने की आवश्यकता न पड़ती। अदालत का फैसला सही था या गलत, देश की आंतरिक स्थिति उस समय कैसी थी, इत्यादि प्रश्न हैं जिन पर अलग से चर्चा की जा सकती है, किंतु यह तय है कि इंदिराजी ने तत्काल इस्तीफा न देकर नैतिक दुर्बलता का परिचय दिया था, जिससे उनकी प्रतिष्ठा का ह्रास हुआ। वे अपने किसी विश्वस्त सहयोगी को प्रधानमंत्री की कुर्सी सौंप देतीं तो कुछ समय बाद सर्वोच्च न्यायालय से निर्दोष सिद्ध होने पर वापिस पदासीन हो सकती थीं। यही गलती राजीव गांधी ने दोहराई, जब बोफोर्स की आंच उन तक पहुंचने के बाद वे त्यागपत्र देने का नैतिक साहस नहीं जुटा पाए। इसके तुरंत बाद हरियाणा विधानसभा आदि में पराजय के बावजूद वे अपने पद पर बने रहे, जिसकी दु:खद परिणति 1989 की पराजय में हुई। अगर वे 1987 में मध्यावधि चुनाव में चले जाते तो अपनी खोई प्रतिष्ठा को वापिस पा सकते थे।
हमें ध्यान रखना चाहिए कि देश ही नहीं, दुनिया के तमाम जनतांत्रिक देशों में जनता अपने चुने हुए नेताओं से कतिपय नैतिक मूल्यों एवं आदर्शों के पालन की उम्मीद रखती है। इंग्लैंड-अमेरिका जैसे देशों में, जिनके बारे में हमारी सामान्य धारणा है कि वहां स्त्री-पुरुष संबंधों में बहुत खुलापन है, वहां भी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के एकपत्नीव्रती होने की अपेक्षा की जाती है। इंग्लैंड में जॉन प्रोफ्यूमो-क्रिस्टीन कीलर कांड से लेकर अमेरिका में बिल क्लिंटन-मोनिका लेविंस्की प्रकरण तक ऐसे अनेक उदाहरण पश्चिमी देशों में हैं। इसी तरह नेताओं की वित्तीय गड़बडिय़ों, रिश्वतखोरी, माफिया-मैत्री आदि का जब भी खुलासा होता है, जापान से लेकर अमेरिका तक नेताओं से उम्मीद की जाती है कि वे तत्काल अपने पद से इस्तीफा दें और वैसा ही होता है। यह एक स्वस्थ परिपाटी है और इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि पार्टी दागदार होने से बच जाती है। राजनेता पर से भी जनता का ध्यान हट जाता है। वरना आज के समय में चौबीस घंटे चलने वाले चैनलों पर अपनी थुक्का-फजीहत करवाने में कौन सी बड़ाई है?
जहां तक अपने देश का सवाल है, हमने अपने जनतंत्र के शैशवकाल से ही एक चमकदार मानक राजनेताओं के लिए बना रखा है। जो उस कसौटी पर खरा उतरे, वही सोना, बाकी पत्थर तो सब तरफ बिखरे मिलते हैं। आप जान रहे हैं कि मैं सन् 1954 में आपको ले जा रहा हूं, जब तत्कालीन रेलमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने एक रेल दुर्घटना होने पर नैतिक दायित्व लेते हुए अपना पद छोड़ दिया था। ऐसा उन्होंने स्वयं किया, प्रधानमंत्री को विश्वास में लेकर किया या प्रधानमंत्री की सलाह से किया, यह महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन यह स्वयंसिद्ध है कि भारतीय लोकतंत्र में अपनी तरह के इस पहिले दृष्टांत के चलते लालबहादुर शास्त्री की जो निर्मल-उज्जवल छवि निर्मित हुई, वह आज तक कायम है। यदि पं. नेहरू के जीवनकाल में ही उनके उत्तराधिकारी के रूप में शास्त्रीजी का नाम अव्वल लिया जाता था तो उसके पीछे उनकी यही अप्रतिम छवि थी। प्रधानमंत्री बनने के बाद एवं 1965 युद्ध के समय जब उन्होंने देशवासियों से सप्ताह में एक समय उपवास रख अन्न बचाने की अपील की तो करोड़ों लोगों ने उसे एक तरह से आदेश मानकर तत्काल स्वीकार कर लिया। मैं ऐसे मित्रों को जानता हूं जो आज भी सोमवार की शाम शास्त्रीजी को श्रृद्धांजलि के रूप में उपवास रखते हैं। क्या आज ऐसे दृष्टांत की कोई प्रासंगिकता या उपयोगिता है?
पं. नेहरू के प्रधानमंत्री काल में शास्त्रीजी का उदाहरण बेमिसाल है किंतु उस अवधि में पंडितजी के कतिपय अन्य सहयोगियों ने भी अपनी छवि पर आंच आने पर इस्तीफे दे दिए थे। टी.टी. कृष्णमाचारी ने हरिदास मूंधड़ा कांड में व केशवदेव मालवीय ने सिराजुद्दीन कांड में नाम आने पर मंत्रीपद छोड़ दिया था। इन प्रकरणों में उनकी कोई सीधी संलिप्तता सिद्ध नहीं हुई, याने इनके त्यागपत्र भी नैतिक आधार पर ही लिए गए थे। काफी आगे चलकर शास्त्रीजी का अनुकरण करते हुए माधवराव सिंधिया ने दुर्घटना का दायित्व लेते हुए मंत्रीपद से तत्काल इस्तीफा दे दिया था। कांग्रेस पार्टी में एक और उदाहरण ध्यान आता है, जब लाभ का पद मामले में सोनिया गांधी ने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एएनसी) व लोकसभा से इस्तीफा दिया तथा उपचुनाव में विजयी होकर दुबारा सदन में लौटीं। दुर्भाग्य से इस परिपाटी का पालन यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों ने नहीं किया। दो-तीन अपवाद छोड़कर बाकी सब रास्ता देखते रहे कि जब मोदी सरकार निकालेगी, तभी घर जाएंगे। लेकिन इस दल में भी ऐेसे दो राज्यपाल निकल आए जो जितने यूपीए को प्यारे थे, उतने ही बीजेपी को भी। इनके नाम सब जानते हैं- नजीब जंग तथा रामनरेश यादव। यादवजी तो कमाल के आदमी हैं। वे शायद राजनेताओं की वर्तमान पीढ़ी के लिए अनुकरणीय आदर्श हो सकते हैं।
चूंकि आपातकाल का जिक्र आ गया है तो यह उल्लेख अवश्य किया जाना चाहिए कि 1976 में जब इंदिराजी ने लोकसभा का कार्यकाल एक साल बढ़ाया तब उसे अनैतिक एवं असंवैधानिक करार देते हुए दो संसद सदस्यों ने बिना समय गंवाए लोकसभा की सदस्यता त्याग दी थी। एक थे- मधु लिमए और दूसरे शरद यादव। मधुजी दुर्भाग्य से हमारे बीच नहीं हैं, किंतु शरद यादव वर्तमान में वरिष्ठतम सांसदों में से एक हैं। वे देश में संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार के नाते 1975 में जबलपुर से चुने गए थे। उन्होंने पचास साल सांसद रहे सेठ गोविंददास की मृत्यु के बाद संपन्न उपचुनाव में उनके पौत्र रविमोहन को पराजित किया था। एक युवानेता के रूप में शरद के मन में लालच हो सकता था कि एक साल का बढ़ा हुआ कार्यकाल सेंत-मेंत में मिल रहा है, इसे क्यों छोड़ा जाए, किंतु उन्होंने संसदीय व्यवहार व परंपरा को निजी लाभ से ऊपर रखकर एक आदर्श प्रस्तुत किया। आगे शरद यादव वाजपेयी सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री भी बने। लेकिन उन्होंने विदेशयात्रा का मोह कभी नहीं पाला। अभी हाल में शायद वे मात्र एक बार चीन की संक्षिप्त यात्रा पर गए। इसी तरह जैन हवाला केस में नाम आया तो शरद यादव ने निर्भीकतापूर्वक स्वीकार लिया कि हां, उन्होंने चंदा लिया था।
देशबन्धु में 16 जुलाई 2015 को प्रकाशित
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