Wednesday 22 July 2015

व्यापम : कड़वे सच की परतें


 मध्यप्रदेश के व्यवसायिक परीक्षा मंडल या कि व्यापम महाघोटाले की जांच सीबीआई के सुपुर्द  कर दिए जाने के बाद बहुत लोगों ने चैन की सांस ली होगी। जिन राज्यपाल रामनरेश यादव के अब-तब में इस्तीफा देने या पदमुक्त किए जाने की चर्चाएं चल रही थीं उनके बारे में कहा जा रहा है वे शायद जांच पूरी होने या अपना कार्यकाल समाप्त होने तक अपनी जगह पर बने रहेंगे। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तो स्पष्ट कहा है कि उनके सिर से भारी बोझ उतर गया है। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस को शायद इस बात की खुशी हो कि उनके दबाव बनाने के कारण ही मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और जांच का काम राज्य सरकार की एजेंसी से लेकर केंद्रीय एजेंसी को दे दिया गया। इस अभूतपूर्व षड़ंयत्र का पर्दाफाश जाने-अनजाने में जिन्होंने किया, वे भी अपनी सुरक्षा के प्रति अब आश्वस्त होंगे! आम जनता को भी संभवत: लग रहा हो कि अब न्याय होकर रहेगा। दूसरी ओर ऐसा सोचने वालों की भी कमी नहीं कि सीबीआई तो पिंजरे में कैद तोता है और जैसा केंद्र सरकार चाहेगी, उसकी जांच उसी दिशा में जाएगी। इस सिलसिले में भाई लोग याद भी दिलाते हैं कि एक समय शिवराज सिंह चौहान प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे, इसलिए उन्हें नरेंद्र मोदी सरकार से किसी सहानुभूति की अपेक्षा नहीं रखना चाहिए। कुछेक जन इसके आगे बढ़कर टीका करते हैं कि सुषमा, वसुंधरा, शिवराज सबके सब मोदी-विरोधी हैं। फिलहाल, हमें इतनी दूर जाने की आवश्यकता नहीं है।

व्यापम में पिछले एक दशक में या शायद उसके भी पहिले जो कुछ हुआ है, उसकी अनेक परतें हमारे सामने खुलती हैं। शिवराज सरकार से पहिले की चर्चा करें तो ध्यान आता है कि व्यापम में धांधली की शिकायतें आज से बीस साल पूर्व भी सुनने मिलती थीं। अलबत्ता उनका स्वरूप इतना विकराल नहीं था। धनी-धोरी लोग अपने पाल्यों को डॉक्टर, इंजीनियर बनाने के लिए परीक्षकों को अथवा अन्य अधिकारियों को घूस देकर अंकसूची में हेरफेर करवाते हैं, ऐसी चर्चाएं तब होती थीं। लेकिन इनमें राजनेताओं के नाम कभी नहीं लिए गए। कुल मिलाकर जैसे बारहवीं बोर्ड या बी.ए./एम.ए. में नंबर बढ़वाने की जो प्रथा प्रचलित थी, वही व्यापम में भी लागू हो गई थी। सुनते हैं कि अपनी संतान को मेडिकल कॉलेज में दाखिले की व्यवस्था करने के लिए पालक उस समय तीन-चार लाख रुपए तक की रिश्वत दे देते थे। ऐसे कुछ प्रकरण पकड़े भी गए थे। उन पर क्या कार्रवाई हुई, यह पता नहीं चला। किंतु यदि तत्कालीन सरकारों ने इस ओर पर्याप्त ध्यान दिया होता तो उसी समय बेहतर विकल्पों पर विचार किया जा सकता था।

बहरहाल, शिवराज सरकार के दौरान जो भयावह स्थिति बनी है, उसमें तीन पक्ष साफ देखे जा सकते हैं। पहिला पक्ष तो राजनेताओं व अफसरों का है जिन्होंने इस महाघोटाले का लाभ दो तरह से उठाया। एक तो अपने चहेतों को उपकृत करके और दूसरे करोड़ों-अरबों के लेन-देन में अपना हिस्सा लेकर। ध्यातव्य है कि जो व्यापम पूर्व में सिर्फ व्यवसायिक पाठ्यक्रमों की परीक्षाएं संचालित करता था, कालांतर में वह राज्य सरकार के कतिपय निम्न श्रेणी पदों पर भरती करने का अभिकरण भी बन गया था। याने सरकारी नौकरी लगाने के लिए जो घूस ली जाती है, वह व्यापम के माध्यम से होने लगी। क्या शासक दल का कोई भी जिम्मेदार व्यक्ति इस प्रक्रिया में बेदाग बच गया होगा? पाठक अपनी बुद्धि से  निर्णय ले सकते हैं। दूसरा पक्ष उन व्यक्तियों का है जिन्होंने या तो नौकरी पाने के लिए या मेडिकल आदि में दाखिले के लिए रिश्वत दी। छोटी नौकरियों के लिए चढ़ावे की रकम भी छोटी ही रही होगी। फिर भी न जाने कितने परिवारों ने अपनी जेवर-ज़मीन-घर बेचकर अथवा रेहन रखकर इसकी व्यवस्था की होगी,  इसकी कल्पना ही की जा सकती है। जब मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में तबादला करने-रुकवाने के लिए पचास-पचास हजार रुपए की बोली होती हो तो नौकरी लगने के लिए दो लाख रुपया तो सामान्य बात होगी!

इसमें सबसे अधिक लेन-देन मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए हुआ होगा। अगर इस हेतु प्रति छात्र पंद्रह लाख रुपया भी लिया गया हो तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए। सब जानते हैं कि कर्नाटक में जब निजी मेडिकल कॉलेजों में कैपिटेशन फीस देकर प्रवेश की परंपरा प्रारंभ हुई तो उसके लिए तीस लाख रुपए तक देना होते थे। बाद में महाराष्ट्र आदि प्रदेशों ने भी इस परंपरा को प्रसन्न भाव से ग्रहण कर लिया। अब सुनते हैं कि स्नातकोत्तर याने पी.जी. पाठ्यक्रमों के लिए तो एक करोड़ से भी अधिक की मांग की जाती है। इस दूसरे पक्ष में दो तरह के पात्र सामने आए-पहिले- पालक/अभिभावक और दूसरे-उनके पाल्य। माँ-बाप को लगता है कि बेटा-बेटी डॉक्टर बन जाएंगे तो उसका जीवन बन जाएगा। आज जैसा सामाजिक परिवेश है उसमें बच्चों को भी लगता है कि सफल जीवन का मंत्र बेतहाशा धनार्जन करना ही है। जिन व्यवसायों में आर्थिक सुरक्षा व प्रगति की संभावनाएं हैं, उनमें इस दौर में डॉक्टरी पेशा मानो सोने के अंडे देने वाली मुर्गी है। अभियांत्रिकी, वकालत आदि में भी ऐसी अपार गुंजाइश नहीं है, गो कि बहुत से विद्यार्थी उस दिशा में जाते ही हैं।

तीसरा पक्ष उन गिरोहों व व्यक्तियों का है जो सामने न आकर परदे के पीछे से सारी कूटरचना करते हैं। व्यापम जैसी परीक्षाओं में ये परचे आउट करवाते हैं, नंबर बढ़वाते हैं, कोरी उत्तर-पुस्तिकाएं भरवाते हैं, छद्म विद्यार्थियों से परीक्षा दिलवाते हैं और इसके लिए मेहनताना वसूल करते हैं? पालक/विद्यार्थी, व्यापम, राजनेता के बीच की कड़ी ये ही होते हैं। इनके लिए माफिया संज्ञा बिल्कुल फिट बैठती है। जब इन्हें अपने ऊपर आँच आने का अंदेशा हो तब ये माफिया शैली में डराने-धमकाने से लेकर हत्या करने तक से नहीं हिचकते। व्यापम में जो संदिग्ध मौतें सड़क दुर्घटनाओंं आदि में हुई हैं, उनके पीछे इनका ही हाथ होगा। यह एक तरह से लोगों को अपनी जुबान बंद रखने की चेतावनी थी। इसीलिए बाद में कुछ लोग दहशत में ही मर गए होंगे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। कहना न होगा कि ये माफिया गिरोह राजनैतिक संरक्षण में ही फलते-फूलते हैं। मेरा अनुमान है कि ये गिरोह मध्यप्रदेश में ही नहीं, अनेक अन्य प्रदेशों में भी सक्रिय हैं तथा इन्हें सदैव व्यापम जैसी संभावनाओं की तलाश रहती है। छत्तीसगढ़ में भी पीएमटी परचे फूटने के जो केस सामने आए हैं, उसमें भी यही लोग लिप्त रहे होंगे। सीबीआई की जांच जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी, नए-नए खुलासे होंगे, तभी हम वस्तुस्थिति जान सकेंगे।

मध्यप्रदेश का व्यापम हो या डीमैट महाघोटाला या फिर छत्तीसगढ़ का पीएमटी पर्चा फूट कांड, इनके एक अत्यन्त गंभीर एवं शोचनीय पक्ष पर अभी तक पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। व्यापम के बारे में जैसा कि हमें पता है, लगभग दो हजार व्यक्तियों पर फौजदारी प्रकरण दर्ज किए गए हैं। लगभग इतने लोगों की गिरफ्तारी हुई, उनमें से अनेक जेल में हैं,  अनेक जमानत पर। इनमें बड़ी संख्या उन युवजनों की है, जिनकी आयु व्यापम परीक्षा में बैठते वक्त अठारह या उन्नीस साल रही होगी। छत्तीसगढ़ में भी इसी तरह सैकड़ों नौजवानों को गिरफ्तार किया गया। इन्होंने अपराध तो निश्चित रूप से किया है, इसलिए इन्हें दंड भी मिलना चाहिए, किंतु क्या बात यहीं खत्म कर देना ठीक होगा? क्या हमें उन सामाजिक स्थितियों का विश्लेषण नहीं करना चाहिए, जिनके चलते ये युवजन एक स्वर्णमृग के पीछे भागने लगते हैं? इन्हें गिरफ्तार कर, जेल भेजकर, साल-दो साल की कारावास देकर हम इनके भविष्य के बारे में क्या सोचते हैं? इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी क्या पीईटी और पीएमटी जैसी परीक्षाएं जारी रहना चाहिए? क्या केंद्रीकृत परीक्षा होने से यह बुराई समाप्त हो जाएगी? मेडिकल की बात खास तौर पर करें तो सरकार बड़े पैमाने पर आवश्यकतानुसार मेडिकल कॉलेज शुरु क्यों नहीं करती? डॉक्टरी पेशा एक लालची पेशे में इस तरह तब्दील क्यों हो गया? ऐसे और भी बहुत से सवाल जेहन में उठते हैं, किंतु मुझे यह सोचकर बेहद तकलीफ होती है कि 18-20 साल के नौजवान इस व्यवस्था में किस तरह पथभ्रष्ट हो रहे हैं, उन्हें अपराध के रास्ते पर ढकेला जा रहा है, इसमें उनके अपने सगे प्रेरणा दे रहे हैं और इस बुनियादी मुद्दे पर कहीं कोई बात नहीं होती।
देशबन्धु में 23 जुलाई 2015 को प्रकाशित

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