रायपुर से यदि आप सराईपाली-सारंगढ़ होकर रायगढ़ जा रहे हैं तो चंद्रपुर से गुजरेंगे। सारंगढ़-रायगढ़ के लगभग बीचोंबीच बसा एक छोटा कस्बा जो हाल के वर्षों में चंद्रहासिनी मंदिर के कारण खासा लोकप्रिय हो गया है। यह स्थान वैसे अपने कोसा वस्त्रों के लिए मशहूर रहा है। चंद्रपुर एक द्वीप की तरह है, दक्षिण में महानदी और उत्तर में मांड। पूर्व में दोनों नदियों का संगम। रायगढ़ की ओर बढ़ते हुए मांड का पुल पार करते साथ एक ग्रामीण सडक़ पूर्व दिशा में बालपुर की ओर चलती है। पक्की लेकिन संकरी सडक़। दोनों तरफ तालाब जिनमें सुंदर कमल खिलते हैं। इस रास्ते के दाहिनी ओर महानदी आपके साथ-साथ हो लेती है। धान के खेतों के बीच बगुले तो बेशुमार मिलते हैं लेकिन शायद प्रवासी पक्षी यहां का रास्ता भूल चुके हैं। हां, हिमालय की ओर से शीतकाल में आने वाले वही प्रवासी जिन्हें देखकर मुकुटधर पांडेय ने ‘कुररी के प्रति’’ कविता लिखी थी और जिसे हिंदी कविता में छायावाद की प्रथम रचना माना जाता है। मुकुटधर पांडेय इस बालपुर गाँव के ही थे। एक ऐसे साहित्यानुरागी परिवार से जिसने एक ही पीढ़ी में तीन लेखक दिए। बड़े भाई लोचन प्रसाद पांडेय कवि से अधिक पुरातत्ववेत्ता के रूप में प्रसिद्ध हुए, एक अन्य अग्रज बंसीधर पांडेय को छत्तीसगढ़ी का पहिला उपन्यास लिखने का श्रेय दिया जाता है।
हमारे प्रदेश में ऐसे अनेक स्थान हैं जिन्हें उचित ही साहित्य तीर्थ की संज्ञा दी जाती है। बालपुर उनमें से एक है। लेकिन सरकार के लोक निर्माण विभाग को इतनी समझ होती तो सारंगढ़-रायगढ़ राजपथ पर शायद एक बोर्ड लगवा देती- यहां से मुकुटधर पांडेय के गाँव बालपुर के लिए मुडि़ए। गाँव के रास्ते पर और प्रवेश द्वार पर शायद ऐसा बोर्ड लग जाता तो कितना अच्छा होता। गाँव की एक खासियत है कि यह जांजगीर-चांपा जिले का अंतिम गाँव है और विडंबना यह कि महानदी धीरे-धीरे गाँव की जमीन को काटती जा रही है। पांडेयजी का पैतृक बाड़ा नदी की भेंट चढ़ चुका है। नदी के तीर पर खड़े हों तो ग्रामवासी सतर्क करते हैं- पीछे हटिए, धरती पोली है, कभी भी धसक सकती है। इस स्थिति के चलते एक नया बालपुर खड़ा हो रहा है, नदी से दूर, वर्तमान गाँव से बाँई ओर हटकर। हमें गाँव में बंसीधरजी के पौत्र रवींद्र पांडे एवं प्रपौत्र मिले। रवींद्रजी ने अपने दादाजी की पुस्तक दिखलाई ‘‘हीरू की कहिनी’’, नब्बे साल पहिले 1926 में छपी। मैंने सुझाव दिया कि इसे इंटरनेट पर डाल दें। एक ऐतिहासिक थाती सुरक्षित रही आएगी। बालपुर में जिंदल पॉवर एंड स्टील ने अपने कारखाने में जलापूर्ति के लिए यहां इनटेकवैल बनाया है। नवीन जिंदल ने राष्ट्रध्वज के लिए सर्वोच्च न्यायालय तक लड़ाई लड़ी और जीते। कितना अच्छा हो कि वे बालपुर की तरफ ध्यान दें। आखिर वे यहां का पानी जो पी रहे हैं! क्या वे मुकुटधर पांडेय की स्मृति में कोई स्थायी आयोजन नहीं कर सकते? मसलन एक सालाना व्याख्यान माला, रायगढ़-बालपुर में उनके नाम पर कोई सांस्कृतिक भवन या ऐसा ही कुछ और?
मेरी बालपुर की यह दूसरी यात्रा है। छ.ग. प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के हम अनेक साथी दो वर्ष पूर्व भी यहां आए थे- सारंगढ़ के मित्र डॉ. परिवेश मित्र के प्रबंध और मार्गदर्शन में। तब से मन में यह बात बनी हुई है कि रायगढ़-बालपुर दोनों को एक साथ केंद्र में रखकर कोई स्थायी कार्यक्रम होना चाहिए। क्या ऐसा हो सकता है कि रायगढ़ में एक वार्षिक स्मृति व्याख्यान हो और उसमें शामिल सभी लोग फिर बालपुर के भ्रमण पर आएं? क्या रायगढ़ का प्रबुद्ध समाज ऐसी किसी योजना पर विचार करेगा? इस पर बातचीत हो, इस बीच हम डभरा लौटते हैं जहां से हमारा दल 19 जून को बालपुर दर्शन पर गया था। डभरा-चंद्रपुर के बीच किरारी नामक गाँव की ओर फूटती सडक़ देखी तो अनायास ध्यान आया कि अरे, यह तो वही किरारी हैै, जिसके हीराबंद तालाब से मिला काष्ठ स्तंभ रायपुर के महंत घासीदास संग्रहालय में संरक्षित है। शिलालेख की भांति यह एक काष्ठ लेख है, जिस पर किसी राजसत्ता के अधिकारियों के नाम-काम-धाम उत्कीर्ण हैं। पहिली या दूसरी सदी का यह काष्ठ स्तंभ विश्व का सबसे प्राचीन उपलब्ध काष्ठ स्तंभ है और इस नाते एक अनमोल पुरातात्विक धरोहर मानी जाती है। डभरा वैसे तो जांजगीर जिले का एक महत्वपूर्ण कस्बा है, लेकिन रेल लाइन से पच्चीस किमी दूर होने के कारण अपने आप में सिमटा हुआ है। इसके पास ही महानदी पर साराडीह बैराज बन रहा है, जहां हाल में पदयात्रा करने कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गाँधी आए थे। डभरा में हमारे एक युवा मित्र मुरलीधर चंद्रम इलाके के उत्साही सामाजिक कार्यकर्ता हैं और उनके आमंत्रण पर ही हमने सम्मेलन का चार दिवसीय युवा रचना शिविर वहां करने का निर्णय लिया था।
हमारे साथियों के मन में शंका थी कि इतने छोटे स्थान पर एक बड़ा और लंबा कार्यक्रम कैसे सध पाएगा। मैं स्वयं भी चिंतित हो उठा था कि मालूम नहीं प्रतिभागी इस दूर-दराज के गाँव तक आएंगे भी या नहीं। लेकिन दूसरी ओर मुझे साथी चंद्रम पर भरोसा था कि वे प्रबंध करने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे। और यह भरोसा सही सिद्ध हुआ। डभरा में यूँ तो अग्रवाल समाज के दस-बीस ही घर हैं, लेकिन इन्होंने अपनी हिम्मत और संपर्कों के बल पर यहां एक अग्रसेन भवन खड़ा कर दिया है, जो पूरे समाज के काम आ रहा है। यह कल्पना हमने नहीं की थी कि अपने कार्यक्रम स्थल पर इतनी सुचारु व्यवस्था देखने मिलेगी। इसका श्रेय भवन समिति के अध्यक्ष नानकचंद अग्रवाल को जाता है जो अपना पूरा समय भवन के रख-रखाव को देते हैं। डभरा में दो-तीन अन्य विशेषताएं, जो वहां पहुंचने के बाद मालूम पड़ीं, उनका जिक्र अवश्य करना होगा। एक तो गाँव में सौ एकड़ से भी ज्यादा क्षेत्रफल का एक पुराना तालाब है- जो देश की गौरवशाली परंपरा के अनुरूप अवैध कब्जों व कचरे का शिकार होकर धीरे-धीरे सिकुड़ता जा रहा है। दिलचस्प तथ्य यह है कि तालाब के एक हिस्से को पाटकर बाज़ार निर्मित करने का काम नगर पंचायत ने किया है, किसी चतुर व्यापारी ने नहीं।
दूसरे, यहां स्थापित संबलपुरहिन दाई के मंदिर के साथ जुड़ी है एक रोचक और मार्मिक किंवदंती। कहते हैं कि बहुत पहिले जब डभरा मालगुजारी संबलपुर राज (ओडिशा) के अंतर्गत थी, तब यहां के आदिवासी राजा (मालगुजार) का संबलपुर आते-जाते किसी सारथी कन्या से प्रेम हो गया। एक बार राजा डभरा वापिस आ रहा था तो सारथी बाला उसके पीछे-पीछे आने लगी। राजा ने बीच रास्ते में कहीं लोक-लाज के भय से उसे मार डाला, लेकिन जब वह घर पहुंचा तो आंगन में सारथी बाला को खड़े देखा। तब उसके लिए राजा ने गाँव के बाहर एक स्थान नियत कर दिया। आज वह स्थान बस्ती के भीतर आ गया है और वहां एक मंदिर बन गया है, जिसमें पूजा आदिवासी बैगा ही करता है, कोई कर्मकांडी पंडित नहीं। दाई की पूजा ग्रामदेवी के रूप में होती है तथा कोई भी शुभकार्य उसकी देहरी पर धोक देकर करने की मान्यता प्रचलित हो गई है। सारी दुनिया में जगह-जगह पर प्रेम की ऐसी दु:खांत गाथाएं सुनने मिलती हैं, कई के दृष्टांत दिए जाते हैं, कई पर नाटक और कविताएं लिखी गई हैं; एक सत्य लगभग सबमें उपस्थित है कि अंतत: स्त्री को ही त्याग और उत्सर्ग करना पड़ता है। सोचा नहीं था कि डभरा में भी यही कथा सुनने मिलेगी।
रायपुर से डभरा जाने के लिए रास्ते अनेक हैं। बिलासपुर-जांजगीर-खरसिया होकर जाएं तो सघन यातायात के कारण परेशानी होना ही होना है। बलौदाबाजार मार्ग से गिधौरी पहुंचकर फिर या तो शिवरीनारायण होकर या फिर बिलाईगढ़ होकर भी जा सकते हैं, लेकिन बलौदाबाजार के बाद सडक़ की हालत ऐसी कि वाहन और सवारी दोनों के अस्थिपंजर ढीले कर दे। सडक़ का बड़ा भाग कसडोल विधानसभा क्षेत्र में आता है। पहिले ऐसा होता था कि सरकार कांगे्रस की, विधायक भाजपा का अथवा सरकार भाजपा की, विधायक कांग्रेस में। आपसी रस्साकशी और संकीर्ण राजनीति के चलते यह सडक़ कभी ठीक से नहीं बनी, किंतु अब तो दो साल से सरकार भाजपा की है, विधायक भी भाजपा के, वे विधानसभा अध्यक्ष भी हैं, परंतु सडक़ बन जाए इसमें शायद वे असमर्थ हैं तो इस रास्ते पर यात्री मजबूरी में ही चलते हैं। रायपुर से सराईपाली-सारंगढ़-चंद्रपुर होकर जाना ही इन सब में बेहतर विकल्प था, लेकिन हमारे हक में यह अच्छा हुआ कि बसना से सरसींवा होकर एक नई सडक़ बन गई है, जिससे समय भी बचा और दूरी भी। पता चला कि यह सडक़ कुछ समय पूर्व ही बनी है सो मानना चाहिए कि अगले तीन-चार साल तक तो दुरुस्त बनी रहेगी। इस मार्ग पर यातायात का दबाव भी कम है और सरसींवा के अलावा कोई अन्य बड़ी बस्ती भी नहीं है। इस तरह एक नए पथ का अन्वेषण इस यात्रा में हो गया।
एक समय था जब महानदी पर एक भी पुल नहीं था और छत्तीसगढ़ के अनेक इलाकों में लोग बहुत घूम-फिर कर अपने गंतव्य तक पहुंच पाते थे। 1956 में आरंग के पास महानदी पर पहिला पुल बना। वह अब जीर्ण-शीर्ण हो गया है और नये पुल का निर्माण बाजू में चल रहा है। बाद में धमतरी के पास अछोटा घाट, नयापारा-राजिम के बीच शास्त्री पुल, कसडोल, फिर शिवरीनारायण, आगे चंद्रपुर, इस तरह एक के बाद एक 7-8 पुल बने तो नदी के दोनों तटों के बीच आवागमन सुलभ हुआ। अभी जिस नए पथ से हम गुजरे उसमें भी सरसींवा-हसौद के बीच एक और पुल बन चुका है। जानकारों ने बताया कि इसके अलावा दो-तीन अन्य स्थानों में महानदी पर बैराज निर्माण के साथ पुल बन गए हैं, यद्यपि उनके कारण एक नई चिंता व्याप्त हो गई है। जांजगीर-चांपा जिले में हसदेव एवं महानदी का जल अब तक खेती के काम आता था, किंतु तेजी से हो रहे औद्योगीकरण के चलते खेती की जमीनों का अधिग्रहण हो रहा है और ग्रामीण समाज चिंतित है कि उनके जीवन यापन के लिए आगे क्या साधन बचेगा। यह एक ऐसा प्रश्न है जिसके चलते प्रदेश के किसान और ग्रामजन उद्वेलित हैं लेकिन संवेदनशील सरकार में समाधान खोजने की फुर्सत किसे है?
क्या ऐसा हो सकता है कि रायगढ़ में एक वार्षिक स्मृति व्याख्यान हो और उसमें शामिल सभी लोग फिर बालपुर के भ्रमण पर आएं? यह एक अच्छा विचार है। और यह एक स्वागतेय प्रस्ताव भी है। मैं साहित्य सम्मलेन का सदस्य तो नहीं हूँ, लेकिन बालपुर की परम्परा से परिचित हूँ इसलिए मैं भी बालपुर के इस प्रस्तावित भ्रमण में शामिल होना चाहूंगा। कुछ वर्षों पूर्व कुछ साथियों के साथ हमने बालपुर में एक साहित्यिक शिविर का आयोजन भी किया था। सारंगढ़ के डॉ० परिवेश मिश्र को याद होगा कि उस ''बालपुर'' शिविर में उनकी भी उपस्थिति थी।
ReplyDelete