Friday 10 July 2015

जनता के आँगन में कवि



सारे
अतिथि आ चुके हैं। जलपान के साथ स्वागत हो गया है। अब सभास्थल की ओर चलना है। लाउडस्पीकर से लगातार घोषणा हो रही है कि कार्यक्रम प्रारंभ होने ही वाला है। स्वागत गृह से सभास्थल दूर नहीं है, बस यही कोई दो-ढाई सौ मीटर या एक फर्लांग। आगे-आगे नवयुवाओं की टोली ढोल-नगाड़ा बजाते चल रही है। दस मिनट में दूरी तय हो जाती है। सामने चौपाल में दरियां बिछी हैं। अच्छी खासी संख्या में श्रोता आ भी चुके हैं। आने का क्रम जारी है। सरस्वती वंदना, अतिथियों की आरती, फूलमाला, टीके से स्वागत होते-होते तक पांचेक सौ जन तो आ ही गए हैं, लेकिन लोगों का आना अभी भी जारी है। इनमें एक तिहाई संख्या महिलाओं की होगी। वे घर का कामकाज निबटाकर आ रही हैं। अनेक की गोद में या फिर अंगुली पकड़े बच्चे भी हैं। पुरुष श्रोता भी फुर्सत के भाव में आए हैं। दरी पर जगह नहीं है तो कोई घर की दहलीज पर बैठा है, कोई चबूतरे पर, कोई खुली बैलगाड़ी पर और सामने छत पर भी तो 15-20 नौजवान डटे हुए हैं। समय रात आठ बजे का हो चुका है। दृश्य गांव का है। गांव में बिजली है, डीटीएच और बुद्धू बक्सा भी, किन्तु आज की रात टीवी सेट खामोश हैं। ये सब जन सामने गांव के सार्वजनिक सांस्कृतिक मंच पर विराजमान अतिथियों को सुनने के लिए आए हैं। मेला तो नहीं है, लेकिन चहल-पहल अच्छी-खासी है।
इस गांव का नाम है- ईटार। छत्तीसगढ़ के कस्बे खैरागढ़ से उत्तर-पश्चिम में कोई 13 किमी दूर। गांव के थोड़ा आगे ही जंगल का इलाका प्रारंभ हो जाता है। खैरागढ़ का नाम सुनकर शायद बहुत से पाठकों को याद आए कि एशिया का पहिला कला-संगीत विश्वविद्यालय इस नगर में स्थापित है। उसकी चर्चा बाद में कभी। फिलहाल हमारे सामने जो दृश्य है, उसकी बात। हम जो अतिथि यहां आए हैं सब छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन से जुड़े हुए हैं। संस्था की एक योजना ‘पाठक मंच’ के नाम से गत 13-14 वर्ष से संचालित हो रही है। एक पाठक मंच खैरागढ़ में भी है जिसके संयोजक डॉ. प्रशांत झा हैं। ईटार प्रशांतजी का गांव हैं और उनके निमंत्रण पर ही हम उपस्थित हैं। पेशे से भले ही डॉक्टर हों, किन्तु वे एक साहित्यिक अभिरुचि संपन्न व्यक्ति हैं। यह बात उनके मन में उठी कि शहरों में और बड़ी जगहों पर तो साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम आए दिन होते ही रहते हैं, संस्कृतिकर्मियों को, साहित्यकारों को उससे आगे बढक़र गांवों का रुख भी करना चाहिए। अन्य कोई संस्था ऐसा करे या न करे, जिस संस्था से वे जुड़े हुए हैं, वह तो ऐसा कर ही सकती है। फिर अगर प्रयोग ही करना है तो अपने निज गांव से बेहतर स्थान और कौन-सा हो सकता है?
बस यह बात उनके मन घर कर गई और उन्होंने ठान लिया कि पाठक मंच की खैरागढ़ इकाई का एक कार्यक्रम वे अपने गांव में करके ही रहेंगे। इसके लिए उन्होंने पाठक मंच की सामान्य गतिविधि से हटकर कार्यक्रम की रूपरेखा बनाई, ताकि ग्रामजनों की रुचि व सहभागिता उसमें हो सके। उन्होंने ‘‘चलो गांव की ओर’’ यह नाम भी अपने इस कार्यक्रम के लिए तय कर लिया। पाठक मंच में सामान्यत: पुस्तक चर्चा होती है, उन्होंने इसमें कवि सम्मेलन का भी समावेश कर लिया। इस तरह ईटार में 3 जून की रात साढ़े 7 बजे से 4 जून की सुबह 1 बजे तक यह अद्भुत कार्यक्रम सम्पन्न हुआ जिसकी संक्षिप्त झलक मैंने प्रारंभ में आपको दी। कवि सम्मेलन सुनकर जो तस्वीर आपके मन में उभरती है, यह कवि सम्मेलन वैसा बिलकुल भी नहीं था। आसंदी पर जो कविगण विराजमान थे, उनमें से 2 या 3 ऐसे अवश्य थे जो कवि सम्मेलनों के मंच पर जाते रहे हैं, किन्तु वे सब अपनी अर्थगंभीर रचनाशीलता के लिए जाने-जाते हैं। उनमें से एक भी तुक्कड़ नहीं था, जोकर नहीं था, हास्य रस या वीर रस की वर्षा करने वाला नहीं था। दो घंटे तक कवि सम्मेलन चला, नौ या दस साथियों ने कविताएं सुनाईं और श्रोतागण मुग्ध होकर पूरे समय उनको सुनते रहे।
ईटार के इतिहास में संभवत: यह पहिला ही कवि सम्मेलन होगा। इसके पूर्व हो सकता है कि कुछेक खैरागढ़ या अन्य कहीं कथित कवि सम्मेलनों में श्रोता के रूप में हाज़िर रहे हों; अनेक ने शायद टीवी पर वाह! वाह! जैसे कार्यक्रम देखे होंगे। कुल मिलाकर कवि सम्मेलन जैसे कार्यक्रम के बारे में ग्रामजनों की क्या अवधारणा अब तक रही है, यह हम नहीं कह सकते। किन्तु उस रात का जो वातावरण था, वह हम सबके लिए एक अविस्मरणीय अनुभव बन गया है। हम जान रहे थे कि श्रोता समादर के भाव के साथ अतिथि कवियों के गीत एवं कविताओं का आस्वाद ले रहे थे। रचनाओं में उन्हें शायद अपने जीवनानुभवों का प्रतिबिंब छलकता प्रतीत हो रहा होगा। शायद उन्हें अहसास हो रहा था कि ये कविताएं उनके लिए लिखी गई हैं; कि अगर वे भी कवि होते तो शायद अपने भावों को कुछ इसी तरह शब्दों में बांधते। साथी जीवन यदु छत्तीसगढ़ के चहेते जनकवि हैं। वे अपने गीतों में एक बेहतर दुनिया रचने का स्वप्न देखते हैं। जीवन जब सधे हुए कंठ से गीत गा रहे थे तो स्त्री-पुरुष सब उनकी स्वर-लहरियों पर झूमे जा रहे थे।
कवि सम्मेलन का समापन हुआ, रात्रि भोजन का समय हो चला था, सभा कुछ देर के लिए स्थगित की गई, रात 11 बजे के आसपास श्रीमती संतोष झांझी के कहानी संग्रह ‘पराए घर का दरवाजा’ पर पाठक मंच की गोष्ठी प्रारंभ हुई। अगर गांव में प्रथम कवि सम्मेलन आयोजित कर एक रिकॉर्ड बना था तो अब दूसरा कीर्तिमान स्थापित करने का वक्त आ गया था। इसके पहिले क्या आपने कभी सुना कि आधी रात को किसी पुस्तक पर चर्चा की गई हो, वह भी किसी गांव में, वह भी जहां न कोई कॉलेज हो और न हिन्दी साहित्य का कोई विद्वान प्रोफेसर आलोचक! तिस पर मज़ा यह कि लाउडस्पीकर अभी भी चल रहा था; जो लोग भोजन के बाद सभास्थल पर नहीं लौटे, वे अपने-अपने घर में बैठकर ही श्रवण लाभ लें, जानें कि कहानी की एक पुस्तक के बारे में क्या चर्चा हो रही है। यह चर्चा गोष्ठी भी दो घंटे तक चली, एक बजे रात तक, जिसमें कुल मिलाकर 19 या 20 लोगों ने अपने विचार प्रस्तुत किए। इनमें अतिथियों के अलावा गांव के वे प्रबुद्धजन भी थे, जिन्हें पाठक मंच के संयोजक ने कुछ कहानियों की फोटो प्रतियां दे दी थीं कि आप भी पढऩा और इन पर बात करना।
इस रिपोर्टिंग के बाद शायद यह प्रासंगिक व उपयुक्त होगा कि छ.ग. प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन की पाठक मंच योजना के बारे में संक्षिप्त जानकारी मैं पाठकों के साथ साझा करूं। यह योजना हमने कोई 13-14 साल पहिले प्रारंभ की थी। इसका मूल विचार मध्यप्रदेश साहित्य परिषद द्वारा तीन दशक पूर्व स्थापित पाठक मंच की योजना से ही हमने लिया था। किन्तु दोनों में एक बड़ा फर्क यह है कि म.प्र. साहित्य परिषद का पाठक मंच एक शासकीय अनुष्ठान है जबकि सम्मेलन की योजना पूरी तरह गैर-सरकारी। एक में मंच संयोजक को कुछ मानदेय दिए जाने की व्यवस्था है, इसमें बिलकुल भी नहीं। इसके अलावा सम्मेलन का पाठक मंच नाम के अनुरूप है अर्थात् इसके सदस्यों में बहुतायत पाठकों की है, न कि लेखकों की। आपको यह जानकर सुखद आश्चर्य हो सकता है कि क्रमश: रायपुर व भिलाई में दो पाठक मंच ऐसे भी हैं जिनकी सदस्याएं गृहणियां हैं और कामकाज के बीच पढऩे का समय निकालती हैं। अभी कोई 35-36 पाठक मंच स्थापित हैं, कुछ सक्रिय, कुछ निष्क्रिय। हरेक में औसतन 12 सदस्य हैं। किसी चुनी गई पुस्तक की दो प्रतियां मंच को भेजी जाती हैं, एक संयोजक के लिए, दूसरी आलेख लेखक के लिए। सारे सदस्य बारी-बारी से पुस्तक पढ़ते हैं, फिर एक दिन प्रारंभिक आलेख पाठ के बाद उस पर चर्चा हो जाती है। कार्रवाई की रिपोर्ट मिलने पर वह लेखक को भी भेज देते हैं। इस तरह अमूमन एक पुस्तक को प्रदेश के 200-250 पाठक पढ़ लेते हैं।
पाठक मंच में पुस्तकों के चयन में कथा संग्रह को प्राथमिकता दी जाती है। उपन्यास पढऩे में सबकी रुचि नहीं होती, समय भी नहीं मिल पाता। कविता की किताब में वैसे भी एक सामान्य पाठक की दिलचस्पी नहीं होती। कहानी के अलावा संस्मरण व यात्रा-वृत्तांत की पुस्तकें भी यथासमय मंच को भेजी जाती हैं। इस योजना में अब तक चालीस से अधिक पुस्तकें पाठक मंच के सदस्यों ने पढ़ ली हैं। लेखकों को जब पाठकों द्वारा ही लिखी गई समीक्षा एवं उनकी प्रतिक्रिया जानने मिलती है, तब उन्हें यह संतोष अवश्य होता होगा कि वे जो लिख रहे हैं वह दूर-दूर तक पहुंच रहा है और सराहा जा रहा है। इन समीक्षाओं में अकादमिक बहसें तो होती नहीं हैं और न ही किसी तरह का राग-द्वेष प्रकट करने का अवसर होता है। अभी एक प्रावधान यह है कि पाठक मंच अगर चाहे तो वह पुस्तक लेखक को अपने यहां आमंत्रित कर सकता है जिसका मार्गव्यय सम्मेलन वहन करेगा। इस तरह पाठकों को लेखक से रू-ब-रू होने का भी अवसर मिलेगा। खैरागढ़ के पाठक मंच ने नई सुविधा का लाभ उठाया तथा भिलाई निवासी लेखिका को ईटार आमंत्रित किया। आप देख सकते हैं कि सम्मेलन की इस योजना से एक ओर अच्छी कृतियों से पाठकों का परिचय हो रहा है, तो दूसरी ओर लेखकों को पाठकों के साथ जीवंत संवाद स्थापित करने का अवसर भी जुट रहा है।
 
मैं उम्मीद करता हूं कि अक्षर पर्व के सुधी पाठक आज मुझे सम्मेलन के बारे में कुछ और सूचना देने पर आपत्ति न करेंगे। मैं चूंकि संस्था का अध्यक्ष हूं, इसलिए मेरा यह निवेदन भी है कि मैं जो कह रहा हूं, उसे आत्मश्लाघा न माना जाए। संभव है कि पूर्व में कभी सम्मेलन के कार्यक्रमों के बारे में मैंने कोई चर्चा इस स्तंभ में की हो, लेकिन अगर ऐसा हुआ है तो बहुत पहिले तथा नए पाठकों के लिए यह चर्चा नई ही होगी। सम्मेलन ने अपना मुख्य उद्देश्य यही माना है कि उत्तम साहित्य जनता तक कैसे पहुंचे, इसके लिए निरंतर प्रयत्न किए जाएं। जब हिन्दी समाज में साहित्य के प्रति अरुचि का भाव निरंतर बढ़ता प्रतीत हो रहा है; बोलचाल में और अखबारों में अंग्रेजी के शब्द एवं मुहावरे हिन्दी को लगातार बेदखल करने में लगे हैं; संस्थाओं, योजनाओं, कार्यक्रमों के भारी-भरकम नामों का अंग्रेजी में शब्दलाघव किया जा रहा है; मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों तक में हिन्दी माध्यम की पाठशालाएं बंद की जा रही हैं; अंग्रेजी को पहिली कक्षा से अनिवार्य की जाने की वकालत हो रही है, तब यह काम पहिले की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो उठता है। भाषा बचेगी तो जातीय स्मृतियां बचेंगी, वरना एक दिन हम अपनी विरासत और परंपराओं को ही खो बैठेंगे।
इस उद्देश्य को सामने रखकर 2001 में ही सम्मेलन ने एक और पहल की- गीत यामिनी कार्यक्रम के रूप में। यूं तो गीतकारों के लिए अनेक मंच उपलब्ध हैं और तथाकथित कवि सम्मेलन आज मनोरंजन का एक जनप्रिय माध्यम बन चुका है लेकिन गीत यामिनी की अवधारणा इससे हटकर है। यह कार्यक्रम प्रतिवर्ष 12 फरवरी को आयोजित किया जाता है, भारत कोकिला सरोजिनी नायडू के जन्मदिन की पूर्व संध्या पर। दरअसल, जब इस योजना पर विचार-विमर्श चल रहा था, तभी ध्यान आया कि सरोजिनी नायडू का जन्मदिन कुछ सप्ताह बाद ही है तो कार्यक्रम उनके नाम पर समर्पित करने का फैसला ले लिया गया। पहिले साल का आयोजन तो रायपुर में हुआ, किन्तु उसके बाद से हम एक के बाद एक प्रदेश के अन्य नगरों एवं कस्बों में जा रहे हैं। गीत यामिनी में प्रदेश के प्रतिष्ठित गीतकार उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं। उन्हें कोई पारिश्रमिक नहीं दिया जाता, सिर्फ मार्गव्यय की व्यवस्था होती है। वे उत्साह के साथ आयोजन में शरीक होते हैं कि हजार-पांच सौ श्रोताओं के बीच कविता की शर्तें पूरी करने वाले गीत सुनाने का एक दुर्लभ अवसर प्राप्त होगा। लटकों-झटकों से दूर इस आयोजन में वे अपनी बेहतर रचनाएं प्रस्तुत करते हैं जिनसे श्रोताओं के मनोरंजन के साथ लोकशिक्षण का काम भी किसी सीमा तक होता है। कहना होगा कि कविजनों को यह जानकर आत्मसंतोष मिलता है कि जनता में अच्छी कविता सुनने की समझ व ललक दोनों कायम हैं।
छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने विशेषत: युवजनों के मध्य साहित्यिक रुचि जागृत करने के लिए कुछ अन्य अभिनव आयोजन भी किए हैं। एक कार्यक्रम है- पीढिय़ों के अंतर को पाटता साहित्य। 2012 में पहिली बार यह आयोजन सिर्फ कविता पर केन्द्रित था, लेकिन 2014 में कविता व कहानी- इन दो विधाओं को लिया गया। इसमें सम्मेलन ने कॉलेज के विद्यार्थियों को प्रतिभागी के तौर पर आमंत्रित किया। प्राध्यापक मित्रों से आग्रह किया कि वे अपने कॉलेज में 1-2 विद्यार्थियों का चयन करें, भले ही वे हिन्दी के विद्यार्थी न हों, उन्हें अपनी पसंद के कवि या कथाकार की रचनाएं चुनकर दें, उनके साथ बैठकर रचना की बारीकी समझाएं व रचनापाठ के लिए तैयार करें। इसके बाद रायपुर में निर्धारित तिथियों पर विद्यार्थियों ने चुनी गई रचनाओं का पाठ किया। इससे तीन-चार काम सधे-
1. विद्यार्थियों का आधुनिक हिन्दी साहित्य की श्रेष्ठ रचनाओं व रचनाकारों से परिचय हुआ। 2. प्राध्यापकों ने निर्धारित पाठ्यक्रम के बाहर जानकर स्वयं भी रचनाएं पढ़ीं, छांटी व छात्रों को तैयार किया। 3. कॉलेज के पुस्तकालय में हिन्दी पुस्तकों पर जमा धूल साफ हुई। 4. रायपुर के वृहद आयोजन में प्रदेश भर के साहित्य अनुरागियों को एक-दूसरे से परिचय व संपर्क विकसित करने का अवसर मिला। 5. अध्यापक मित्रों को भी लीक से हटकर साहित्य के अध्यापन का मौका मिला। 6. उपस्थित श्रोताओं को भी श्रेष्ठ रचनाएं सुनने मिलीं।
मेरी बात यहां समाप्त होती है। सम्मेलन के कार्यक्रमों की जानकारी देने का मकसद यही था कि हमारे साहित्यिक मित्र जहां हैं, वहां सोचें कि व्यापक जनसमाज, विशेषकर युवा पीढ़ी में अपनी भाषा व साहित्य के प्रति उत्कंठा व लगाव जागृत करने के लिए और भी क्या नए प्रयत्न हो सकते हैं। हमारे मध्य ऐसे मूर्धन्य रचनाकार हैं जो कविता में तो जनता के बीच जाने की इच्छा व्यक्त करते हैं, लेकिन वास्तव में चाहते यह हैं कि जनता उनके पास आए। हम जो उपक्रम कर रहे हैं, उससे शायद किसी दिन हासिल हो कि जनता कवि का घर पहिचानने लगे।
 अक्षर पर्व जुलाई 2015 अंक की प्रस्तावना 

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