मंगलौर का हवाई अड्डा देश
के अन्य मंझोले विमानतलों की तरह ही है। वैसे इसे अंतरराष्ट्रीय विमानतल का
दर्जा मिला है क्योंकि यहां से प्रतिदिन खाड़ी के देशों को तीन-चार
उड़ानें जा रही हैं। लेकिन मुझे यहां एक अटपटी विशेषता देखने मिली। विमानतल
के प्रस्थान खंड में छातों की एक दूकान थी जिसमें छह सौ रुपए से लेकर छ:
हजार रुपए तक के रंग-बिरंगे छाते मिल रहे थे। जिज्ञासा करने पर सेल्समैन ने
बताया कि छह हजार का छाता ऑटोमेटिक है। अपने पल्ले यह नहीं पड़ा कि एक
छाते में ऐसा क्या यंत्र हो सकता है। गनीमत थी कि कीमत सुनकर मैं बेहोश
नहीं हुआ। और पूछने पर पता चला कि केरल की छाता बनाने वाली कंपनी ने दक्षिण
भारत के कुछ और विमानतलों पर ऐसी दुकानें खोल रखी हैं। शायद खाड़ी देशों
की ओर जाने वाले हवाई यात्री ये छाते खरीदकर वहां बारिश से न सही, धूप से
बचते हों!
हमारी आठ दिन की यात्रा का यह अंतिम रोचक प्रसंग था, लेकिन इस बीच हमने जो कुछ देखा उनमें से कुछ का उल्लेख होना बाकी है। जैसे-दक्षिण भारत की प्रमुख नदी कावेरी कोडग़ू जिले के दक्षिण-पश्चिम से निकलकर दक्षिण-पूर्व की ओर जब बहती है तो वह दुबारे नामक एक रमणीक स्थान से गुजरती है। दुबारे में नदी की शोभा एकबारगी ही आकर्षित करती है, खासकर धारा के बीचोंबीच उभर आए छोटे-छोटे टीलों पर उगे विशाल मैंग्रोव वृक्ष जो एक तरह से कावेरी के ऊपर चंदोबा तान देते हैं। नदी के दूसरे किनारे पर जाने के लिए मोटरबोट का सहारा लेना पड़ता है। उस किनारे पर दुबारे एलीफेंट केंप याने हाथियों का शिविर है। कर्नाटक वन विभाग के अंतर्गत इस शिविर में हाथियों को प्रशिक्षित करने का काम किया जाता है। यह शिविर अंग्रेजों के जमाने में कायम किया गया था। हम जिस दिन पहुंचे उस दिन बारिश के कारण मिट्टी चिकनी हो गई थी और यह पर्यटकों के लिए कौतुक भरा दृश्य था कि कावेरी में स्नान के लिए अपनी मां के साथ उतरता एक हस्तिशावक बार-बार फिसल जा रहा था। उसने तंग आकर अंतत: नहाने का इरादा ही छोड़ दिया। बच्चे तो बच्चे ही ठहरे, आदमी के हों या हाथी के।
दुबारे और मडि़केरी के बीच कावेरी पर दृश्यावलोकन के लिए एक और सुंदर स्थान है जिसे उचित ही कावेरी निसर्गधाम नाम दिया गया है। यहां पर नदी घने वृक्षों की छाया के बीच से गुजरती है। एक लक्ष्मण झूला लगा दिया गया है जिसके पार वनराशि के बीच सैर-सपाटे के इंतजाम कर दिए गए हैं। यूं तो इस जगह में कोई विशेष बात नहीं थी, लेकिन मुझे लगा कि हमारे छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल के कर्ता-धर्ता यहां से पर्यटन विकास के लिए दो-चार बातें सीख सकते हैं। निसर्गधाम में एक छोटा सा चिडिय़ाघर था और एक हिरण उद्यान। इसके अलावा अलग-अलग ऊंचाई के कुछ मचान जहां से प्राकृतिक छटा का आनंद लिया जा सकता था। मुझे इस जगह पहुंच कर रायपुर के निकट स्थित सोमनाथ की याद आई जहां खारून और शिवनाथ का संगम है।
मंगलौर चूंकि सागर तट पर है इसलिए वहां गर्मी होना स्वाभाविक है, लेकिन वहां से जब मडि़केरी की ओर चलते हैं तो शीतलता के अलावा धीरे-धीरे वातावरण बदलने लगता है। हरियाली तो शुरु से अंत तक साथ रहती है, लेकिन उसकी रंगत कुछ और रूप ले लेती है। पूरब की ओर चलते हुए दक्षिण कन्नड़ जिले की सीमा जहां तक है लगभग वहां तक सुपारी और नारियल के वृक्षों के साथ रबर के पेड़ भी लगातार दिखाई देते हैं। इस अंचल में रबर की खेती होती है। पेड़ों में प्लास्टिक की थैलियां टांग दी गई हैं। पेड़ के तने से द्रव निकल कर इनमें इकट्ठा कर लिया जाता है जो बाद में रबर फैक्ट्रियों में चला जाता है। इन ऊंचे पेड़ों के बीच जहां भी समतल भूखंड हैं वहां धान की खेती होती है। लेकिन जैसे-जैसे आप ऊपर चढ़ते हैं रबर का स्थान दूसरे पेड़ ले लेते हैं और धान की जगह कॉफी के पौधे आ जाते हैं। मंगलौर के इलाके में इसके अलावा काजू की खेती भी व्यवसायिक पैमाने पर होती है और इलाके में काजू का प्रसंस्करण करने वाली अनेक इकाईयां कायम हैं।
मैंने पिछली किश्त में चॉकलेट की चर्चा की थी। मडि़केरी के आस-पास एक और कुटीर उद्योग चलता है-मदिरा उत्पादन का। जिन दुकानों पर मसाले और चॉकलेट मिलते हैं वहीं या उनके आस-पास आपको घर की बनी विभिन्न स्वादों वाली मदिरा खरीदने का निमंत्रण भी मिल जाता है। सोचा कि अपने रसप्रिय मित्रों के लिए उपहार स्वरूप यहां से कुछ नमूने ले लिए जाएं, लेकिन फिर मालूम पड़ा कि सरकार ने गृह उद्योग के रूप में मदिरा निर्माण पर रोक लगा रखी है और उसके नाम पर बोतलों में जो बिक रहा है वह एसेंस मात्र है। यह सच्चाई जानकर निराशा तो हुई लेकिन अच्छा हुआ कि बेवकूफ बनने से बच गए। मडि़केरी में ही इसके अलावा बांस के करील बाजार में बिकते हुए देखे। यह भी बातचीत में पता चला कि इस प्रांतर में और भी अनेक तरह की वनस्पतियां पाई जाती हैं। आशय यह कि कोडग़ू जिला जैवविविधता से सम्पन्न है और गनीमत है कि अंधाधुंध आधुनिकीकरण से काफी हद तक बचा हुआ है।
यह तो हम जानते ही हैं कि केरल से बड़ी संख्या में लोग खाड़ी के देशों में रोजगार के लिए आते हैं। वे अपनी मेहनत से वहां जो कमाते हैं उससे भारत के विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने में काफी सहायता मिलती है। केरल के लगभग हर शहर में एक नई सम्पन्नता के दर्शन होते हैं, वह भी इन्हीं की बदौलत। कोझीकोड, कोच्चि इत्यादि नगरों का स्वरूप बहुत तेजी के साथ बदला है। यही बात मंगलौर के बारे में भी कही जा सकती है। अगर भारत के नक्शे पर एक निगाह डालें तो पश्चिमी समुद्र तट पर मंगलौर से नीचे तक सीधे पट्टी चली गई है जिसका भौगोलिक-आर्थिक परिवेश लगभग एक जैसा है। हां, इतना अवश्य है कि मंगलौर याने दक्षिण कन्नड़ जिले में प्रमुख रूप से तुलु भाषा बोली जाती है जबकि केरल में मलयाली।
मंगलौर पिछले कुछ सालों से नकारात्मक समाचारों के लिए सुर्खियों में रहा है। श्रीराम सेने आदि के समाचार टीवी पर देखने-सुनने मिल जाते हैं। मैं यह अनुमान लगाता हूं कि एक तरफ इस अंचल का औद्योगीकरण और दूसरी ओर खाड़ी देशों से हो रही आमदनी- इन दोनों के चलते स्थानीय निवासियों के रहन-सहन में बदलाव तो आया ही है, साथ-साथ सामाजिक संबंधों में अलगाव के लक्षण दिखाई देने लगे हैं। एक तरफ इस अंचल में साक्षरता और शिक्षा का प्रतिशत बहुत ऊंचा है तो दूसरी ओर लोक व्यवहार में जड़वाद और कठमुल्लापन फैलता हुआ प्रतीत होता है। जिस दक्षिण कन्नड़ जिले ने भारत की बैंकिंग व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान के अलावा उडुपी भोजनालय और मणिपाल जैसी शिक्षण संस्थाएं देश को दी हों, वहां यह जो नया माहौल बन रहा है उससे चिंता उपजती ही है।
और अंत में, दो प्रसंग जिनका संबंध इस अंचल में हुए शिक्षा प्रसार से है। मंगलौर के कादरी मंदिर में हमारी भेंट शहडोल के एक तिवारीजी से हुई। वे अपनी पत्नी और बेटी के साथ आए थे। मंगलौर के निकट सूरतकल एनआईटी देश के श्रेष्ठ तकनीकी संस्थानों में एक है। तिवारी दंपति अपनी बेटी को छोडऩे के लिए आए थे जिसका प्रवेश इस संस्था में अखिल भारतीय कोटे से हुआ है। इसी तरह मडि़केरी के अब्बी जलप्रपात पर हमें एक सिख दंपति मिल गए। वे बंबई से अपनी बेटी के साथ आए थे जिसे मंगलौर के कस्तूरबा गांधी मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिला था। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन शिक्षण संस्थानों के चलते देश की युवा पीढ़ी मंगलौर में एक लघु भारत की रचना कर रही है। अगर धर्म के नाम पर दंगा-फसाद करने वाले इस सच्चाई को समझ सकें तो बेहतर होगा।
हमारी आठ दिन की यात्रा का यह अंतिम रोचक प्रसंग था, लेकिन इस बीच हमने जो कुछ देखा उनमें से कुछ का उल्लेख होना बाकी है। जैसे-दक्षिण भारत की प्रमुख नदी कावेरी कोडग़ू जिले के दक्षिण-पश्चिम से निकलकर दक्षिण-पूर्व की ओर जब बहती है तो वह दुबारे नामक एक रमणीक स्थान से गुजरती है। दुबारे में नदी की शोभा एकबारगी ही आकर्षित करती है, खासकर धारा के बीचोंबीच उभर आए छोटे-छोटे टीलों पर उगे विशाल मैंग्रोव वृक्ष जो एक तरह से कावेरी के ऊपर चंदोबा तान देते हैं। नदी के दूसरे किनारे पर जाने के लिए मोटरबोट का सहारा लेना पड़ता है। उस किनारे पर दुबारे एलीफेंट केंप याने हाथियों का शिविर है। कर्नाटक वन विभाग के अंतर्गत इस शिविर में हाथियों को प्रशिक्षित करने का काम किया जाता है। यह शिविर अंग्रेजों के जमाने में कायम किया गया था। हम जिस दिन पहुंचे उस दिन बारिश के कारण मिट्टी चिकनी हो गई थी और यह पर्यटकों के लिए कौतुक भरा दृश्य था कि कावेरी में स्नान के लिए अपनी मां के साथ उतरता एक हस्तिशावक बार-बार फिसल जा रहा था। उसने तंग आकर अंतत: नहाने का इरादा ही छोड़ दिया। बच्चे तो बच्चे ही ठहरे, आदमी के हों या हाथी के।
दुबारे और मडि़केरी के बीच कावेरी पर दृश्यावलोकन के लिए एक और सुंदर स्थान है जिसे उचित ही कावेरी निसर्गधाम नाम दिया गया है। यहां पर नदी घने वृक्षों की छाया के बीच से गुजरती है। एक लक्ष्मण झूला लगा दिया गया है जिसके पार वनराशि के बीच सैर-सपाटे के इंतजाम कर दिए गए हैं। यूं तो इस जगह में कोई विशेष बात नहीं थी, लेकिन मुझे लगा कि हमारे छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल के कर्ता-धर्ता यहां से पर्यटन विकास के लिए दो-चार बातें सीख सकते हैं। निसर्गधाम में एक छोटा सा चिडिय़ाघर था और एक हिरण उद्यान। इसके अलावा अलग-अलग ऊंचाई के कुछ मचान जहां से प्राकृतिक छटा का आनंद लिया जा सकता था। मुझे इस जगह पहुंच कर रायपुर के निकट स्थित सोमनाथ की याद आई जहां खारून और शिवनाथ का संगम है।
मंगलौर चूंकि सागर तट पर है इसलिए वहां गर्मी होना स्वाभाविक है, लेकिन वहां से जब मडि़केरी की ओर चलते हैं तो शीतलता के अलावा धीरे-धीरे वातावरण बदलने लगता है। हरियाली तो शुरु से अंत तक साथ रहती है, लेकिन उसकी रंगत कुछ और रूप ले लेती है। पूरब की ओर चलते हुए दक्षिण कन्नड़ जिले की सीमा जहां तक है लगभग वहां तक सुपारी और नारियल के वृक्षों के साथ रबर के पेड़ भी लगातार दिखाई देते हैं। इस अंचल में रबर की खेती होती है। पेड़ों में प्लास्टिक की थैलियां टांग दी गई हैं। पेड़ के तने से द्रव निकल कर इनमें इकट्ठा कर लिया जाता है जो बाद में रबर फैक्ट्रियों में चला जाता है। इन ऊंचे पेड़ों के बीच जहां भी समतल भूखंड हैं वहां धान की खेती होती है। लेकिन जैसे-जैसे आप ऊपर चढ़ते हैं रबर का स्थान दूसरे पेड़ ले लेते हैं और धान की जगह कॉफी के पौधे आ जाते हैं। मंगलौर के इलाके में इसके अलावा काजू की खेती भी व्यवसायिक पैमाने पर होती है और इलाके में काजू का प्रसंस्करण करने वाली अनेक इकाईयां कायम हैं।
मैंने पिछली किश्त में चॉकलेट की चर्चा की थी। मडि़केरी के आस-पास एक और कुटीर उद्योग चलता है-मदिरा उत्पादन का। जिन दुकानों पर मसाले और चॉकलेट मिलते हैं वहीं या उनके आस-पास आपको घर की बनी विभिन्न स्वादों वाली मदिरा खरीदने का निमंत्रण भी मिल जाता है। सोचा कि अपने रसप्रिय मित्रों के लिए उपहार स्वरूप यहां से कुछ नमूने ले लिए जाएं, लेकिन फिर मालूम पड़ा कि सरकार ने गृह उद्योग के रूप में मदिरा निर्माण पर रोक लगा रखी है और उसके नाम पर बोतलों में जो बिक रहा है वह एसेंस मात्र है। यह सच्चाई जानकर निराशा तो हुई लेकिन अच्छा हुआ कि बेवकूफ बनने से बच गए। मडि़केरी में ही इसके अलावा बांस के करील बाजार में बिकते हुए देखे। यह भी बातचीत में पता चला कि इस प्रांतर में और भी अनेक तरह की वनस्पतियां पाई जाती हैं। आशय यह कि कोडग़ू जिला जैवविविधता से सम्पन्न है और गनीमत है कि अंधाधुंध आधुनिकीकरण से काफी हद तक बचा हुआ है।
यह तो हम जानते ही हैं कि केरल से बड़ी संख्या में लोग खाड़ी के देशों में रोजगार के लिए आते हैं। वे अपनी मेहनत से वहां जो कमाते हैं उससे भारत के विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने में काफी सहायता मिलती है। केरल के लगभग हर शहर में एक नई सम्पन्नता के दर्शन होते हैं, वह भी इन्हीं की बदौलत। कोझीकोड, कोच्चि इत्यादि नगरों का स्वरूप बहुत तेजी के साथ बदला है। यही बात मंगलौर के बारे में भी कही जा सकती है। अगर भारत के नक्शे पर एक निगाह डालें तो पश्चिमी समुद्र तट पर मंगलौर से नीचे तक सीधे पट्टी चली गई है जिसका भौगोलिक-आर्थिक परिवेश लगभग एक जैसा है। हां, इतना अवश्य है कि मंगलौर याने दक्षिण कन्नड़ जिले में प्रमुख रूप से तुलु भाषा बोली जाती है जबकि केरल में मलयाली।
मंगलौर पिछले कुछ सालों से नकारात्मक समाचारों के लिए सुर्खियों में रहा है। श्रीराम सेने आदि के समाचार टीवी पर देखने-सुनने मिल जाते हैं। मैं यह अनुमान लगाता हूं कि एक तरफ इस अंचल का औद्योगीकरण और दूसरी ओर खाड़ी देशों से हो रही आमदनी- इन दोनों के चलते स्थानीय निवासियों के रहन-सहन में बदलाव तो आया ही है, साथ-साथ सामाजिक संबंधों में अलगाव के लक्षण दिखाई देने लगे हैं। एक तरफ इस अंचल में साक्षरता और शिक्षा का प्रतिशत बहुत ऊंचा है तो दूसरी ओर लोक व्यवहार में जड़वाद और कठमुल्लापन फैलता हुआ प्रतीत होता है। जिस दक्षिण कन्नड़ जिले ने भारत की बैंकिंग व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान के अलावा उडुपी भोजनालय और मणिपाल जैसी शिक्षण संस्थाएं देश को दी हों, वहां यह जो नया माहौल बन रहा है उससे चिंता उपजती ही है।
और अंत में, दो प्रसंग जिनका संबंध इस अंचल में हुए शिक्षा प्रसार से है। मंगलौर के कादरी मंदिर में हमारी भेंट शहडोल के एक तिवारीजी से हुई। वे अपनी पत्नी और बेटी के साथ आए थे। मंगलौर के निकट सूरतकल एनआईटी देश के श्रेष्ठ तकनीकी संस्थानों में एक है। तिवारी दंपति अपनी बेटी को छोडऩे के लिए आए थे जिसका प्रवेश इस संस्था में अखिल भारतीय कोटे से हुआ है। इसी तरह मडि़केरी के अब्बी जलप्रपात पर हमें एक सिख दंपति मिल गए। वे बंबई से अपनी बेटी के साथ आए थे जिसे मंगलौर के कस्तूरबा गांधी मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिला था। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन शिक्षण संस्थानों के चलते देश की युवा पीढ़ी मंगलौर में एक लघु भारत की रचना कर रही है। अगर धर्म के नाम पर दंगा-फसाद करने वाले इस सच्चाई को समझ सकें तो बेहतर होगा।
देशबन्धु में 03 सितम्बर 2015 को प्रकाशित
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