Saturday 12 September 2015

शिक्षक राष्ट्रपति, शिक्षक प्रधानमंत्री


 



अब
इस बारे में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि भारत विश्व गुरु है। यह वशिष्ठ, विश्वामित्र और सांदीपनि की पुण्यधरा है, जिनके पास स्वयं ईश्वर अवतार धर कर शिक्षा पाने गए। गुरु द्रोणाचार्य का विद्यालय है, जिसमें पांडव कुमार तमाम कलाओं में पारंगत होकर निकले। इसी भूमि पर चाणक्य हुए जिन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य को चक्रवर्ती सम्राट बनने की प्रेरणा व उसके लिए दीक्षा दी। अतीतकाल में यहीं तक्षशिला और नालंदा सरीखे विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई।  इस भारत में ही हम देशवासी 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाते हैं, शिक्षकों को प्रणाम कर उनकी चरण धूलि लेते हैं, उन्हें शाल-श्रीफल से सम्मानित करते हैं। अहा! धन्य है यह देश जहां शिक्षक का, गुरु का इतना समादर होता है। उनके इस सौभाग्य से संभवत: स्वर्ग के देवता भी ईष्र्या करते हैं। वे भी शायद मन ही मन इच्छा करते हैं कि एक दिन के लिए सही मनुष्य जन्म लेकर भारत में शिक्षक बन जाएं।

अब देवताओं की बात तो देवता जानें, किंतु यह तो हमारे समक्ष है कि देश में सर्वोच्च पदों को विभूषित कर रहे श्रीमंत भी अपने हृदय में शिक्षक बनने की अभिलाषा संजोए रखते हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण 4 सितम्बर को मिला जब राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तथा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दोनों ने अलग-अलग स्थानों पर बच्चों की कक्षाएं लीं।  हमारे राष्ट्रपति ने तो अपने कॅरियर की शुरुआत ही शिक्षक के रूप में की थी और लोकसभा-राज्यसभा में भी यदा-कदा उनके शिक्षकीय गुणों के दर्शन हो जाते थे। इधर राष्ट्रपति भवन के विशाल परिसर में लगभग एकाकी रहते हुए उन्हें शायद अकुलाहट होती हो और उससे उबरने के लिए उन्होंने नौनिहालों के साथ समय बिताने की ठानी हो! जहां तक प्रधानमंत्री का प्रश्न है, यह तो सारा देश जानता है कि संसद छोड़कर वे देश में कहीं भी कभी भी किसी की भी क्लास लेने के लिए उत्सुक और तत्पर रहते हैं। वे इसके पूर्व भारत में ही नहीं, जापान से लेकर अमेरिका तक कक्षाएं ले चुके हैं। सो उनके लिए तो यह एक तरह से उनकी दिनचर्या का अंग ही था।

हमारे ऐसे दिग्गज बाकायदा शाला में जाएं और विद्यार्थियों से बातचीत करें तो सामान्यत: इस पहल का स्वागत करना चाहिए। हमें स्मरण आता है कि देश के दूसरे और तीसरे राष्ट्रपति अर्थात् डॉ. राधाकृष्णन और डॉ. जाकिर हुसैन दोनों अपने समय के सर्वोत्तम शिक्षकों में गिने जाते थे। उनके बाद डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के रूप में देश को एक और ऐसा विद्वान राष्ट्रपति के रूप में मिला जो अतीत में शिक्षक रह चुका था। राजनीति और प्रशासन में ऐसे अनेक उदाहरण इसके नीचे की सीढिय़ों पर मिल जाएंगे। देश को चलाने वाले आई.ए.एस. और आई.पी.एस. अफसरों में एक बड़ी संख्या में उन जनों की है जो अखिल भारतीय सेवा में चुने जाने के पहले कहीं अध्यापक के पद पर सेवा दे रहे थे। इनके भीतर का शिक्षक भी बीच-बीच में जाग उठता है। अखबार के पाठकों के सामने प्राय: प्रतिदिन ऐसे शीर्षक आते हैं कि मुख्यमंत्री ने क्लास ली, मंत्री ने क्लास ली, मुख्यसचिव ने क्लास ली या कलेक्टर ने क्लास ली। इस आशय के शीर्षक पढ़कर यह संदेह भी होता है कि क्या स्वयं पत्रकारों के मन में भी शिक्षक बनने और क्लास लेने की चाह बनी रहती है! तभी वे बड़े लोगों द्वारा क्लास लेने पर इस तरह मुग्ध हो जाते हैं।

शिक्षक दिवस के एक दिन पूर्व जब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे तब उसके आसपास ही यह समाचार भी मिला कि छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री सहित अनेक मंत्री व अधिकारी स्वयं शासकीय विद्यालयों में जाकर उनकी सुध लेंगे। अगर मुझे सही स्मरण है तो प्रदेश के मुख्य सचिव ने रायपुर के पास किसी ग्रामीण शाला में कक्षा लेकर इस अभियान का शुभारंभ भी कर दिया है। इस तरह यदि देश में सर्वोच्च पदों से लेकर जिले और तहसील तक पहुंचकर सत्तासीन लोग शालाओं की तरफ ध्यान देने लगे तथा शिक्षकों व विद्यार्थियों से जीवंत संपर्क स्थापित कर सकें तो विश्वास होता है कि देश में शिक्षा क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन होने में अधिक समय नहीं लगेगा। जब नीति निर्माता और पालनकर्ता स्वयं ध्यान देंगे तो स्थितियां सुधरने के बारे में शंका क्यों हो?

यह भी एक संयोग है कि अभी कुछ दिन पूर्व ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने निर्णय दिया कि शासकीय पदों पर कार्यरत सभी व्यक्तियों के पाल्यों को शासकीय विद्यालयों में ही अनिवार्य रूप से पढऩा चाहिए। इस निर्णय का स्वागत तत्काल हुआ। दो-चार दिन तक इसकी प्रशंसा मिली, प्रतिक्रियाएं भी आईं, लेकिन फिर उसे विस्मृत कर दिया गया। एक ओर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की पहल, दूसरी ओर उच्च न्यायालय का एक निर्णय। यूं ऊपरी तौर पर दोनों एक ही दिशा में जाते दिखाई देते हैं, किन्तु गहरे पैठने पर दोनों के बीच का अन्तर्विरोध स्पष्ट होने लगता है। हम स्मरण करें कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकारों में शामिल करने जैसा महत्वपूर्ण कदम उठाया था। इसे क्रियान्वित करने के लिए जिस वैधानिक सक्षमता की आवश्यकता थी वह डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह की पहल से संभव हुई व अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा का कानून अमल में आया। यह अधिनियम अभी तक उसी रूप में लागू है, किन्तु इसको प्रभावी ढंग से लागू क्यों नहीं किया जा रहा, इस प्रश्न का उत्तर सिर्फ मौन से मिलता है।

हमें इस बात की प्रसन्नता है कि देश-प्रदेश के कर्णधार विद्यार्थियों से रूबरू हो रहे हैं। राष्ट्रपति  एक शासकीय विद्यालय में बाकायदा एक विषय चुनकर उसे पढ़ाने के लिए गए किन्तु प्रधानमंत्री ने दिल्ली छावनी में भारतीय सेना के मानेकशा सेंटर के भव्य सभागार में कक्षा लगाना उचित समझा। वहां उन्होंने किसी विषय विशेष पर बच्चों को पढ़ाने के बजाय गुरु-शिष्य परंपरा आदि के बारे में बातें कीं। इनके व्याख्यान का सीधा प्रसारण देश भर में दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से होना था, लेकिन अनेक स्थानों पर विद्युत व्यवस्था में अवरोध इत्यादि कारणों से बच्चे उसे सुनने से वंचित रह गए। चूंकि नियमित कक्षा नहीं थी इसलिए विद्यार्थी अपने प्रधानमंत्री से सीधे सवाल-जवाब भी नहीं कर सके। वे अगर राष्ट्रपति का अनुसरण करते तो इसमें लगा समय और श्रम अधिक लाभकारी हो सकता था। वैसे प्रधानमंत्री पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम का भी अनुसरण कर सकते थे जो विद्यार्थियों के बीच सीधे जाकर बातचीत किया करते थे। यह बात अलग है कि डॉ. कलाम की भेंटें सम्पन्न स्कूलों के बच्चों से ही होती थी।

हम यह जानने के लिए उत्सुक हैं कि 4 अप्रैल की इन कक्षाओं से अंतत: क्या उपलब्धि हुई। हमें प्रसन्नता होगी यदि इससे शिक्षकों के मन में अपने विषय के प्रति गौरव जागृत हो, उनका आत्मसम्मान बढ़े तथा वे नई ऊर्जा, नए विश्वास से देश की भावी पीढ़ी को विकसित करने के लिए पुन: संकल्पित और समर्पित हो जाएं। किन्तु यक्ष प्रश्न है कि ऐसा होगा कैसे? इलाहाबाद उच्च न्यायालय का जो फैसला आया उस पर शायद तत्काल ही रोक लगा दी गई। शिक्षा का अधिकार कानून की जो दुर्दशा है उसके बारे में जितना लिखा जाए कम है। खबरें तो ये आ रही हैं कि इस कानून में बड़े पैमाने पर संशोधन किए जाने की मुहिम चल रही है। जो निजी शालाएं हैं वे किसी भी कीमत पर साधनहीन बच्चों को अपने स्कूल में नि:शुल्क तो क्या, फीस लेकर पढ़ाने के लिए भी राजी नहीं। शिक्षक एक बार राजी हो भी जाएं तो साधन-सम्पन्न अभिभावकों की दृष्टि में इससे बढ़कर पाप और कुछ नहीं हो सकता कि अमीर और गरीब के बच्चे साथ पढ़ें।

प्रधानमंत्री ने अपने एकपक्षीय व्याख्यान में गुरु-शिष्य परंपरा का बखान किया। यह उस युग की बात है जब गुरु का पद उसी को मिलता था जो प्रभुतासम्पन्न समाज के बच्चों को पढ़ा सके। आखिरकार द्रोणाचार्य ने एकलव्य को अपनी कक्षा में बैठाने से साफ-साफ इंकार कर दिया था। और सांदीपनि की कक्षा में सुदामा सिर्फ इसलिए पढ़ पाए क्योंकि वे द्विज थे। आज की स्थिति तो और बदतर है। आज से लगभग तीस साल पहले वल्र्ड बैंक के इशारे पर जब नियमित शिक्षकों की भर्ती पूरे देश में बंद कर दी गई और उनका स्थान तदर्थ शिक्षकों ने ले लिया तब से शिक्षा व्यवस्था निरंतर रसातल को जा रही है। आज किसी प्रदेश सरकार के पास यह अधिकार भी नहीं है कि वह शासकीय शालाओं में पूर्णकालिक शिक्षकों की नियुक्ति कर सके।

प्रथम जैसी संस्था द्वारा जो एसीईआर (असर) रिपोर्ट प्रकाशित होती है वह सरकारी स्कूलों की दुर्दशा का बयान तो करती ही है, लेकिन दुर्दशा  के कारणों पर मौन रहती है। बात साफ है। हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था पूंजीपतियों के हाथों में सौंपने की पूरी तैयारी कर ली है। देश भर में महंगे से महंगे निजी स्कूल जिन्हें न जाने क्यों पब्लिक स्कूल कहा जाता है, खुल रहे हैं। मुंबई स्थित धीरूभाई अंबानी इंटरनेशनल स्कूल इसका ज्वलंत उदाहरण है। कुछ समय बाद होगा यह कि साधनहीन बच्चों को पढऩे के अवसर ही नहीं होंगे, उनकी शालाएं बंद हो जाएंगी; जो मुंहमांगी फीस देकर पढ़ सकेंगे स्कूल उनके लिए ही होंगे और तब देश में फिर से गुरु-शिष्य परंपरा स्थापित होगी। द्रोणाचार्य पढ़ाएंगे और उनके छात्रों में सौ कौरव होंगे और पांडव सिर्फ पांच।
देशबन्धु में 10 सितम्बर 2015 को प्रकाशित

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