Thursday 24 September 2015

सागौन के फूल और उदास नर्मदा


 हर मौसम की अपनी एक निराली छटा होती है और वह जगह-जगह पर बदल भी जाती है। इंग्लैण्ड में नन्हे-नन्हे पौधों पर खिलने वाले डैफोडिल के चमकीले पीले फूल बसंत ऋतु की अगवानी करते हैं, तो जापान में बसंत के आगमन के साथ चारों ओर चैरी के सफेद फूलों से आकाश का रंग भी हिम धवल हो जाता है। हमारे देश में भी अलग-अलग ऋतुओं में अलग-अलग स्थानों पर प्रकृति की शोभा के अनगिनत रूप देखने मिल जाते हैं। सतपुड़ा के जंगलों में फरवरी-मार्च में पलाश के फूलों से मानो आग सुलग उठती है और जब गर्मी आती है तो जलती हुई चट्टानों पर अमलतास के पीले गुच्छे शीतल छाया कर देते हैं। इन वनों से गुजरने वाली पगडंडियों पर मैं बहुत चला हूं और इनसे गुजरने वाली सड़कों पर न जाने कितने सफर तय किए हैं। अभी कुछ समय पहले बालाघाट-सिवनी होते हुए जबलपुर की यात्रा की तो इस वर्षा ऋतु में सतपुड़ा की छवि देखकर मन एक बार फिर मुदित हो उठा।

मैंने इस बार बालाघाट से लेकर बरगी तक सागौन को जिस तरह से फूलते हुए देखा उससे लगा कि जैसे यह अद्भुत दृश्य मैं पहली बार देख रहा हूं। विशेषकर लखनादौन के आस-पास तो ऐसा नज़ारा  था कि मन हुआ यात्रा यहीं रोक कर नीचे घाटी में फूल रहे सागौन के सफेद फूलों को जी भर कर निहार लूं। ऐसा तो नहीं कि यह दृश्य मैंने पहली बार देखा हो, लेकिन इस नएपन के अहसास का एक कारण यह हो सकता है कि बरसात में सड़क मार्ग से यात्रा करने के अवसर कम ही आते हैं। न जाने कब कहां किस रपटे के ऊपर से बरसाती झरने का पानी बह रहा हो और आगे जाना संभव न हो! या फिर बरसात में सड़क टूट गई हो और उस पर चलना दुश्वार हो जाए! लेकिन अब पहले के मुकाबले सड़कें काफी बेहतर हो गई हैं। रपटों की जगह ऊंचे पुल भी बन गए हैं। यह बात अलग है कि जिन पहाड़ी झरनों का पानी नि:संकोच पी लेते थे, और जिनमें उतरकर नहा भी लेते थे, वे अब अधिकतर समय सूखे ही रहते हैं जिसकी गवाही किनारे खड़े अर्जुन के वृक्ष देते हैं।

बहरहाल सतपुड़ा के जंगलों में सागौन को फूलते हुए देखा तो बहुत सी बातें मन में उठीं। एक तो सागौन के वृक्ष अपने आप में शानदार होते हैं। नब्बे डिग्री के कोण पर आकाश की ओर बढ़ते हुए  वृक्ष पतझड़ में किसी ऊंचे स्तंभ की तरह प्रतीत होते हैं। बड़ी-चौड़ी खुरदरी पत्तियां वैसे तो शायद किसी काम में नहीं आतीं, लेकिन उनके आवरण में न जाने कितने सूक्ष्म जीव-जन्तु पलते होंगे। एक समय था जब सागौन से ही हर तरह का फर्नीचर बनता था। ऐसी अद्भुत लकड़ी भला और किस वृक्ष की है? वजन में हल्की, बेहद टिकाऊ, दीमक से सुरक्षित और वैदरप्रूफ याने जो न बरसात में फूले और न गर्मी में सिकुड़े। उस पर कलाकारी भी चाहे जितनी कर लो। हमारे पुराने मध्यप्रदेश याने विदर्भ, महाकौशल और छत्तीसगढ़ का सागौन पूरी दुनिया में सी.पी. टीक के नाम से जाना जाता है। लेकिन सागौन के यही गुण उसके लिए जानलेवा हो जाते हैं। लालची लोगों के लिए पूरी दुनिया का सागौन भी कम है।

एक ओर हम इस यात्रा में पुष्पित-प्रफुल्लित सागौन को देख रहे थे, तो दूसरी ओर यह सोचकर भी हैरानी हो रही थी कि इस मौसम में कांस कैसे फूल रहा है। महाकवि तुलसीदास ने तो लिखा था कि जब वर्षा ऋतु बूढ़ी हो जाती है तब कांस फूलती है। जबकि अभी तो सावन चल रहा था और भादों आना बाकी था। याने चौमासा खत्म होने में पूरे डेढ़ माह का समय था। तो क्या फूली हुई कांस ने चेतावनी दे दी थी कि बादलों को जितना बरसना था बरस चुके और वर्षा ऋतु थक कर कहीं जाकर छुप गई है! मालूम नहीं हमारे मौसम विज्ञानी जीव जगत और वनस्पति जगत से मिलने वाले इन संकेतों का कोई संज्ञान लेते हैं या नहीं। तुलसीदास ने जो लिखा था वह उनकी अवलोकन शक्ति का परिणाम था और हमें याद आता है कि घाघ व भड्डरी ने ऐसे ही अवलोकनों के द्वारा मौसम से संबंधित सैकड़ों भविष्यवाणियां की थीं। क्या आज इनका नाम किसी को स्मरण है?

यूं तो जबलपुर भी मेरा घर है, किन्तु इस बार की यात्रा प्रगतिशील लेखक संघ की जबलपुर इकाई के निमंत्रण पर हो रही थी। प्रलेस हर वर्ष परसाईजी की जयंती पर व्याख्यान आयोजित करता है। इस बार जाने क्या सोचकर मुझे बुला लिया गया। जैसा कि कहते हैं मेरे पैर में सनीचर है तो मैंने निमंत्रण स्वीकार करने में देरी नहीं की। जबलपुर का अपना आकर्षण तो था ही, मुझे यह ध्यान भी था कि इस वर्ष परसाईजी को हमारे बीच से गए पूरे बीस साल हो चुके हैं तथा यह कि उनके विचारों का महत्व हमारे लिए निरंतर बढ़ते जा रहा है। मैं देखता हूं कि फेसबुक जैसे माध्यम पर परसाई जी की रचनाओं को निरंतर उद्धृत किया जा रहा है। यह इसीलिए न कि उन्हें पढ़कर वर्तमान की विसंगितयों से जूझने के लिए शक्ति पाते हैं।

जबलपुर में बहुत पहले एक भंवरताल नाम से उद्यान हुआ करता था। बाद में इसका नाम रानी दुर्गावती उद्यान रख दिया गया। यह एक विचित्र सत्य है कि रानी दुर्गावती ने जो रानीताल, चेरीताल और आधारताल जैसे विशालकाय तालाब खुदवाए थे, जिनसे जबलपुर की प्यास बुझती थी और आसपास के खेतों को पानी मिलता था, वे पूरी तरह पाट दिए गए हैं और इक्के-दुक्के नामकरण कर उनकी स्मृति को संजोने का यत्न हो रहा है। जिस अद्भुत मदनमहल के साथ रानी दुर्गावती की स्मृतियां जुड़ी हैं, वह भी अब चारों तरफ से नवनिर्माण की चपेट में आ गया है। मदनमहल के निकट ही बैलेसिंग रॉक नामक एक प्राकृतिक अजूबा था जिसे देखने लोग दूर-दूर से आते थे उसके बारे में खबर पढ़ी कि उसे किसी व्यक्ति ने अपने निजी खाते में चढ़वा लिया है जिस पर कोर्ट-कचहरी में मामला चल रहा है। कुल मिलाकर जबलपुरवासी इस बात से संतुष्ट हैं कि उनके पास मदनमहल नामक एक रेलवे स्टेशन है और रानी दुर्गावती के नाम पर एक पार्क एक म्यूजियम और एक विश्वविद्यालय।

प्रगतिशील लेखक संघ का कार्यक्रम तो घंटे-दो-घंटे का था, वह भी शाम के समय। मैंने सोच रखा था कि दो दिन जबलपुर घूमने-फिरने में बिताऊंगा। जिस नवीन विद्या भवन में पांचवीं-छठवीं की पढ़ाई की वह भंवरताल उद्यान के पास ही है। मैं अपने स्कूल तक गया और साठ साल बाद उसके प्रांगण में कदम रखे। पहले जहां स्कूल परिसर में दोनों तरफ खपरैल वाले एक मंजिले भवन थे वहां अब पक्की तीन मंजिली इमारतें खड़ी हो गई हैं। एक विधि महाविद्यालय भी चलने लगा है। स्कूल का खेल का मैदान पहले की ही तरह सुरक्षित है और सबसे अच्छा यह लगा कि स्कूल प्रांगण में शापिंग काम्पलेक्स नहीं बनाया गया है। परिसर में एक खंड संस्थापक प्राचार्य किशोरीलाल पांडेय के नाम पर है। ध्यान आया कि उन्होंने अपने समय की अप्रतिम गायिका एम.एस. शुभलक्ष्मी का कार्यक्रम भवन निर्माण के लिए धन संग्रह हेतु कराया था और तब मुझे उन्हें सुनने का विरल सौभाग्य मिला था।

जबलपुर की एक भौगोलिक विशेषता है कि एक दिशा में गौर नदी इसकी सीमा बनाती है और दो दिशाओं में नर्मदा। इनके किनारों पर गौरैयाघाट, ग्वारीघाट, तिलवाराघाट व भेड़ाघाट स्थापित हैं। तिलवाराघाट में इस बरसात में भी बहुत कम पानी था। जीवनदायिनी नर्मदा को ऐसा उदास मैंने पहले शायद कभी नहीं देखा। नदी के तीर पर बहुत सारे मंदिर बन गए हैं, लेकिन निकट ही जिस शाहनाला पर लोग-बाग वनभोज करने याने पिकनिक मनाने जाते थे उसे मैं कोशिश करके भी नहीं खोज पाया। समय बदलने के साथ बहुत कुछ बदल जाता है किंतु नयापन तभी अच्छा है जब वह पहिले से बेहतर हो।
देशबन्धु में 24 सितम्बर 2015 को प्रकाशित

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