प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विगत एक वर्ष से माह में एक बार आकाशवाणी पर मन की बात कर रहे हैं। चूंकि प्रधानमंत्री की मन की बात है इसलिए आकाशवाणी के अलावा दूरदर्शन तथा व्यवसायिक समाचार चैनलों से भी उसका प्रसारण होता है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने मानो इसी राह पर चलते हुए अपने प्रदेश में आकाशवाणी के केन्द्रों से माह में एक बार रमन के गोठ की शुरुआत कर दी है जिसका पहला प्रसारण बीते रविवार 13 सितम्बर को हुआ। प्रधानमंत्री अपने मन की बात करने के लिए आकाशवाणी की सेवाएं लें तो इसमें आपत्ति की कोई बात नहीं है। इसी तरह अगर किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री भी प्रदेशवासियों तक आकाशवाणी के माध्यम से अपने विचार पहुंचाना चाहेें तो इसे एक स्वागत योग्य पहल माना जा सकता है। संभव है कि आने वाले दिनों में अन्य प्रदेशों के मुख्यमंत्री भी डॉ. रमन सिंह का अनुकरण करने लगेंगे।
जनतंत्र की मजबूती के लिए यह नितांत आवश्यक है कि जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि जनता के साथ जीवंत संवाद बनाए रखें। इस दृष्टि से प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के प्रसारण की उपयोगिता समझ आती है। लेकिन उसकी एक सीमा है। यह संवाद यदि एकालाप में बदल जाए, यदि वह सिर्फ रस्म अदायगी बनकर रह जाए, यदि वह रसहीन, प्राणहीन औपचारिकता में परिणत हो जाए तो ऐसी व्यवस्था लम्बे समय तक नहीं चल सकती। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के विचारों को जानने की प्रारंभिक उत्सुकता जन-मन में हो सकती है। नएपन का कौतूहल उसके साथ जुड़ा होता है। किन्तु यदि संदेश में कोई नई बात न हो, उसमें अगर घिसे-पिटे वायदे ही दोहराए जाएं तो सुनने वाले जल्दी ही उकताने लगेंगे। यह एक ऐसी सच्चाई है जिस पर सत्ताधीशों के मीडिया प्रबंधकों को ध्यान देने की आवश्यकता है। उन्हें इसके लिए खासे परिश्रम और कल्पनाशीलता की दरकार होगी कि हर माह वे इस एकालाप में किसी नए रस का संचार कर सकें।
मुझे प्रधानमंत्री जो अपने मन की बात करते हैं उसे लेकर कुछ अधिक शंका होती है। यह तो जनता पिछले कई वर्षों से देख रही है कि नरेन्द्र मोदी को भाषण देना अतिप्रिय है। वे एक सधे हुए अभिनेता की भांति स्वराघातों व भाव मुद्राओं का प्रयोग कर जब कोई बात करते हैं तो श्रोताओं से एक बड़े वर्ग को अपने साथ बहाकर ले जाते हैं। लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि उन्हें जनता के साथ संवाद याने दोतरफा बातचीत करते हुए लगभग नहीं के बराबर देखा गया है। वे जब आमसभाएं करते हैं तब श्रोताओं से अपनी बात के समर्थन में हुंकारा भरवाते हैं, किन्तु याद नहीं आता कि उन्होंने आमने-सामने कभी लोगों से बातचीत की हो। इसका यह अर्थ होता है कि जनता क्या सोच रही है इसे वे अपने प्रत्यक्ष अनुभव से नहीं जान पाते। उनके गुप्तचर जो सूचनाएं देते हैं उनके आधार पर ही वे अपने एकालाप की तैयारी करते होंगे।
यह तो सबको पता है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का भी जनता से कोई सीधा संवाद नहीं था। वे प्रचलित अर्थों में राजनेता भी नहीं थे इसलिए उन्होंने यदा-कदा आमसभाएं संबोधित भी कीं तो बेहद ठण्डे मन से। यूं तो उन्होंने अपने दस साल के कार्यकाल में चार-बार पत्रकार वार्ता करने की हिम्मत भी जुटाई, लेकिन उनमें भी वे सहज होकर बात नहीं कर पाए। इसीलिए उन्हें विपक्षियों ने मौन मोहन की उपाधि से विभूषित कर दिया था। नरेन्द्र मोदी के आने के बाद जनता ने खासकर पत्रकारों ने बड़ी उम्मीद लगा रखी थी कि नए प्रधानमंत्री के साथ खुलकर बातचीत के अवसर मिलेंगे। दुर्भाग्य कि ऐसा न हो सका। प्रधानमंत्री यदा-कदा पत्रकारों से मिलते हंै तब पत्रकारों को उनके साथ सेल्फी खिंचाने का ''गौरवपूर्ण" क्षण भले ही हासिल हो जाता हो, बातचीत तो नहीं होती। इसीलिए मोदीजी को मौनेंद्र मोदी भी कहा जाने लगा है।
भाजपा के लगभग सभी मुख्यमंत्री एक दूसरी तस्वीर पेश करते हैं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को इस पद पर ग्यारह साल से अधिक का समय बीत चुका है। वे चाहे विधायक रहे हों या संसद सदस्य, केन्द्रीय मंत्री रहे हों या पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष या फिर मुख्यमंत्री, उन्होंने हर स्तर पर जनता के साथ जीवंत संवाद और संपर्क बनाए रखा। वे जब रायपुर में रहते हैं तो लगभग प्रतिदिन दो-तीन सौ लोगों से व्यक्तिगत तौर पर और दर्जनों प्रतिनिधि मंडलों से मिलते हैं। वे प्रदेश में निरंतर दौरा भी करते हैं और अप्रैल-मई की भरी धूप में प्रदेशवासियों ने उन्हें जनसंपर्क अभियान में निकलते हुए देखा है। इसके अलावा वे मीडिया के लिए भी सहज उपलब्ध होते हैं। इसे देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि वे जनभावनाओं से अपरिचित नहीं हैं तथा अपने प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर नीतिगत निर्णय लेते होंगे। यह कहने की बात नहीं कि बहुत अच्छे इरादों से लिए गए निर्णयों में भी राजनीतिक और पार्टीगत विवशताएं आड़े आ जाती हैं।
अब जबकि डॉ. रमनसिंह ने आकाशवाणी के माध्यम से जनता को संबोधित करने की पहल की है तो इसका स्वागत करते हुए शंका उपजती है कि मुख्यमंत्री भी कहीं एकालाप की दिशा में तो नहीं जा रहे हैं। यह हम उम्मीद करना चाहेंगे कि ऐसा नहीं होगा और डॉ. रमनसिंह पूर्व की भांति प्रदेश की जनता के साथ संवाद का कोई भी अवसर नहीं छोड़ेंगे। यद्यपि इसमें एक बड़ी अड़चन उस सुरक्षातंत्र की है जिससे शायद स्वयं मुख्यमंत्री चाहें भी तो पार नहीं पा सकते। मेरी उम्र के लोगों को वे दिन याद आ जाते हैं जब प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक किसी भी बड़े नेता से आम जनता सीधे-सीधे जाकर बात कर सकती थी। अगर हमने ब्रिटेन की संसदीय परंपराओं को सही ढंग से अपनाया होता तो शायद आज भी वैसा सहज संवाद संभव हो पाता।
बहरहाल 'मन की बात' हो या 'रमन के गोठ'- एक आवश्यक प्रश्न अपनी जगह पर कायम है कि देश और प्रदेश के शीर्ष नेता जब जनता के सामने कोई घोषणा करते हैं, कोई वायदा करते हैं, तो उस पर अमल किस तरह से होता है, उसके लिए जो प्रशासनिक तैयारी और राजनीतिक इच्छाशक्ति होना चाहिए, वह होती है या नहीं? यह प्रश्न भी उठता है कि क्या एक प्रधानमंत्री या एक मुख्यमंत्री प्रभावी प्रशासन की सारी जिम्मेदारी अपने कंधे पर ले सकता है और क्या ऐसा होना वांछित है? जो सरकारी अमला है, जो एक व्यवस्था लंबे समय से बनी हुई है उसकी भूमिका तथा उत्तरदायित्व कहां तक है? मंत्रिमंडल के सहयोगी, विभागों के सचिव तथा संचालक, जिलाधीश इत्यादि ये सब इस तस्वीर में कहां हैं?
मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को जनता के साथ द्विपक्षीय संवाद तो निश्चित रूप से करना ही चाहिए। इसके आगे उन्हें यह देखने की आवश्यकता है कि प्रशासनतंत्र अपनी भूमिका का निर्वाह भलीभांति करता है या नहीं। हमारे देश में त्रिस्तरीय शासन व्यवस्था है। इसमें पंचायती राज संस्थाओं को भी अधिकार-सम्पन्न बनाने की बात कही गई है। इस पृष्ठभूमि में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि बड़े नेता यदि कोई घोषणा करते हैं या आश्वासन देते हैं तो उससे पंचायती राज संस्थाओं के अधिकारों का हनन न हो। इसी तरह सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों को व्यापक नीतिगत निर्णय तो लेना चाहिए, लेकिन जहां तक संभव हो व्यक्तिगत समस्याओं में उलझने से बचना चाहिए। मैं एक उदाहरण से बात साफ करना चाहूंगा। जब कभी कोई दुर्घटना होती है सरकार हताहतों के लिए मुआवजा घोषित करती है, लेकिन दुर्घटना के पीछे कारण क्या थे इस ओर से आंखें मूंद लेती है। यह इसलिए होता है क्योंकि नौकरशाही की दिलचस्पी मुख्यमंत्री को खुश करने में होती है न कि अपनी सामान्य जिम्मेदारी निर्वहन करने में। मैं समझता हूं कि इस पर आगे और बहस की आवश्यकता है।
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