Friday, 27 November 2015

तेजस्वी बिहार


 बिहार के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कामकाज उनके मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण के साथ प्रारंभ हो गया है। वे अपने पांच साल के दौरान कैसा शासन दे पाएंगे इस पर चर्चाएं होने लगी हैं। इसमें भी पहले के दो साल न सिर्फ बिहार बल्कि पूरे देश की राजनीति के लिए बहुत मायने रखते हैं। अगर नीतीश के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार उनकी अर्जित ख्याति के अनुरूप सुचारु चलती है तो इसका सबसे बड़ा लाभ असम के आसन्न चुनावों में मिलेगा जहां से भाजपा ने बहुत उम्मीद बांध रखी है। अगले वर्ष जिन पांच राज्यों में चुनाव होना है उनमें से शेष चार में भाजपा का कोई खास दखल नहीं है, लेकिन असम के लिए उसने अपनी तैयारियां काफी पहले से प्रारंभ कर दी थीं। दूसरी ओर महागठबंधन के दलों में कांग्रेस ही एकमात्र पार्टी है जिसकी प्रतिष्ठा असम में दांव पर लगी है। अगर बिहार सरकार अच्छे से चलती है, तो इससे असम में कांग्रेस को फायदा होगा। और इस ''अगर" को चुटकी मारकर नहीं उड़ाया जा सकता।

 19 नवंबर को नीतीश मंत्रिमंडल को शपथ ग्रहण में अनेक दलों व विभिन्न प्रदेशों के प्रतिनिधि गुलदस्ते लेकर पहुंचे। इस अवसर पर डॉ. फारूख अब्दुल्ला ने जो टिप्पणी की उसे अलग से रेखांकित करना होगा। एक समय था जब स्वयं डॉ. अब्दुल्ला तीसरे मोर्चे के बड़े नेता के रूप में उभर रहे थे। उन्हें शायद विश्वास हो गया था कि वे एक दिन प्रधानमंत्री अवश्य बनेंगे। यह सपना टूटा तो वे राष्ट्रपति बनने की दौड़ में शामिल हो गए। इसका जिक्र देश के आला खुफिया अधिकारी ए.एस. दुल्लत ने अपनी हाल में प्रकाशित आत्मकथा ''कश्मीर: द वाजपेयी ईयर्स" में किया है। इन्हीं डॉ. अब्दुल्ला ने पटना में नीतीश कुमार की हौसला अफजाई की कि वे आने वाले समय में प्रधानमंत्री बन सकते हैं। उन्होंने कोई नई बात नहीं की लेकिन जिस मौके पर की उसमें एक बार फिर नीतीशजी की महत्वाकांक्षा को नए पंख मिल सकते हैं। नीतीश कुमार राजनीति के उतार-चढ़ावों को भली-भांति जानते हैं और फिलहाल उम्मीद यही रखना चाहिए कि वे भावावेश में कोई निर्णय नहीं लेंगे।

आज यह बात इसलिए करना पड़ रही है क्योंकि पांचवी बार बने मुख्यमंत्री ने अपने मंत्रिमंडल का जैसा गठन किया है उसे लेकर आलोचना भी की जा सकती है और शंका भी उभरती है। इस नए मंत्रिमंडल में नीतीश कुमार ने अपने बहुत से पुराने साथियों को फिलहाल अलग रखा है। अधिकतर मंत्री युवा और नए हैं। बताया गया है कि उन्होंने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों का चयन करने में सामाजिक समीकरणों का विशेष ध्यान रखा है। इसके विपरीत यह भी कहा गया कि उन्होंने भौगोलिक समीकरणों को भुला दिया है। लेकिन इन सबसे बढ़कर आलोचना इसलिए हो रही है कि दुर्धर्ष नेता लालू प्रसाद यादव के दोनों बेटों को न सिर्फ मंत्रिमंडल में स्थान मिला है बल्कि एक को उपमुख्यमंत्री याने नंबर दो और एक को तीसरे क्रम की वरीयता दी गई है। दोनों भाई पहली बार विधायक बने हैं तथा उन्हें इतना महत्व देना बहुतों को असामान्य प्रतीत हो रहा है।

हमें याद आता है कि पांच तारीख को जैसे ही यह चुनाव परिणाम आए वैसे ही चर्चाएं आरंभ हो गई थीं कि लालूजी अपनी बेटी मीसा भारती को या फिर छोटे बेटे तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री बनाएंगे। दो-एक दिन बाद यह चर्चा भी उठी कि लोकसभा चुनाव हार चुकी सुश्री मीसा को वे राज्यसभा में ले जाएंगे तथा तेजस्वी ही उपमुख्यमंत्री होंगे। एक और चर्चा इस बीच हुई कि मीसा भारती नहीं, बल्कि राबड़ी देवी राज्यसभा में जाएंगी। जहां पूर्व मुख्यमंत्री होने के नाते उन्हें यथेष्ट सुविधाएं प्राप्त होंगी तथा राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका निभाने के लिए लालू प्रसादजी को एक उपयुक्त ठिकाना मिल जाएगा। जो भी हो, इन चर्चाओं से यह तो सिद्ध हुआ कि बिहार की राजनीति में सबसे बड़े दल का नेता होने के नाते लालूजी की बात का कदम-कदम पर वजन होगा। अपने दोनों बेटों को आलोचना होने की स्पष्ट संभावना के बावजूद मंत्रिमंडल में स्थान दिलवाकर उन्होंने अपना महत्व तो सिद्ध किया ही है; इसके अलावा उन्होंने ऐसा शायद कुछ व्यवहारिक कारणों से भी किया होगा।

इस तथ्य पर गौर करें कि लालू प्रसाद ने अपने बड़े बेटे तेजप्रताप को उपमुख्यमंत्री नहीं बनाया बल्कि इस पद के लिए अपने छोटे बेटे का चयन किया। इसके पीछे शायद कारण यह था कि तेजस्वी के तेवर अपने अग्रज की तुलना में कहीं ज्यादा तीखे, लड़ाकू और प्रखर हैं। यह भी हो सकता है कि उसने पिछले डेढ़-दो साल के दौरान अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ का बेहतर परिचय दिया हो। कारण जो भी रहा हो, इससे लालू प्रसाद को एक लाभ अवश्य हुआ है कि उनकी व्यक्ति आधारित पार्टी में लालू के बाद कौन का झगड़ा अब शायद नहीं उठेगा। उनकी विरासत को तेजस्वी संभाल लेंगे। एक तरह से तमिलनाडु में करुणानिधि को जो पारिवारिक कलह देखना पड़ी वह स्थिति बिहार में नहीं होगी। हमें यहां ख्याल आता है कि ओडिशा में बीजू पटनायक की विरासत बड़े बेटे प्रेम की बजाय छोटे बेटे नवीन ही संभाल रहे हैं।

लालू प्रसाद के दोनों बेटों के मंत्री बनने को लेकर जो आलोचना हो रही है, उसके दो पक्ष हैं- एक- वंशवाद और दो- तेजस्वी और तेजप्रताप की शैक्षणिक योग्यता। भारत में वंशवाद की बात तो करना ही नहीं चाहिए। यह अकेले भारत की नहीं, बल्कि पूरे एशिया की फितरत है। कम्युनिस्ट चीन भी इससे बचा नहीं है। और अब तो अमेरिका में भी हम वंशवाद का नए सिरे से उभार देख रहे हैं। एडम्स, रूज़वेल्ट और कैनेडी को भूल जाइए। अब बुश और क्लिंटन का जमाना है। पहले सीनियर बुश राष्ट्रपति बने, फिर छोटे बेटे जार्ज बुश। बड़े बेटे जेब बुश फ्लोरिडा के गर्वनर थे। वे भी राष्ट्रपति पद के लिए अवसर तलाश रहे हैं। बिल क्लिंटन के बाद हिलेरी क्लिंटन तो सामने दिख ही रही हैं। कनाडा में पियरे ट्रूडो के पुत्र जस्टिन ट्रूडो हाल-हाल में नए प्रधानमंत्री चुने गए हैं। भारत की महिमा इस मामले में अपरंपार है।

जम्मू-कश्मीर से लेकर केरल तक और पूर्वोत्तर से लेकर लक्षद्वीप तक कोई भी ऐसी जगह नहीं है जहां राजनीति में वंश परंपरा के दर्शन न होते हों। जब पंजाब में पिता-पुत्र एक साथ मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री हो सकते हैं तो बिहार में जो हुआ है उसे अपवाद क्यों समझा जाए। इस बारे में सैकड़ों दृष्टांत दिए जा सकते हैं। उनकी बात करने से समय ही नष्ट होगा। दूसरी बात, यादव बंधुओं की शैक्षणिक योग्यता को लेकर है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार दोनों भाईयों ने हायर सेकेण्डरी की पढ़ाई भी पूरी नहीं की। आज के समय में एक सामान्य परिवार के लिए यह घनघोर चिंता का विषय है। जिन लालू प्रसाद ने स्वयं विषम परिस्थितियों का मुकाबला कर अपनी पढ़ाई जारी रखी, वे अपने बेटों को पढ़ाने में क्यों चूक गए, यह कोई अच्छा दृष्टांत  नहीं है। महज अनुमान लगाया जा सकता है कि लालू प्रसाद-राबड़ी देवी दोनों ने अपनी राजनीति के फेर में संतानों की जैसी फिक्र करनी चाहिए थी वैसी नहीं की। खैर! यह उनके अपने घर की बात है।

इधर उपमुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद तेजस्वी की शैक्षणिक योग्यता को लेकर जो आलोचना हुई उसके जवाब में तेजस्वी ने ट्विटर पर यह टिप्पणी की कि-''किसी को भी पुस्तक का सिर्फ आवरण देखकर उसके बारे में राय नहीं बनाना चाहिए। मीठी शहद और कड़वी दवाई की तरह किसी क्षमता का फायदा थोड़ा वक्त बीत जाने के बाद ही मिलता है।" तेजस्वी सोच सकते हैं कि उन्होंने अपने विरोधियों को करारा जवाब दे दिया है, लेकिन इतने से बात नहीं बनेगी। उन्हें आने वाले दिनों में अपनी योग्यता सिद्ध करने के लिए जी-तोड़ परिश्रम करना होगा। हमारी राय में औपचारिक पढ़ाई वांछित तो है, लेकिन राजनीति में सहजबुद्धि की आवश्यकता अधिक पड़ती है। क्या इस कसौटी पर तेजस्वी खरा उतर पाएंगे। हमने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के कामराज को देखा है जो न हिन्दी जानते थे, न अंग्रेजी, लेकिन एक बेहतरीन प्रशासक सिद्ध हुए। बंशीलाल भी ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन एक समय उन्होंने हरियाणा का कायाकल्प किया। गत वर्ष जब स्मृति ईरानी की इसी बिना पर आलोचना हुई थी तो इसी कॉलम में हमने उनका बचाव किया था। यह दुर्भाग्य की बात है कि वे अपने आपको सक्षम मंत्री सिद्ध नहीं कर सकीं। तेजस्वी और तेजप्रताप दोनों के सामने दोनों तरह के उदाहरण हैं। वे किस रास्ते जाते हैं, इसके लिए कोई लंबी प्रतीक्षा नहीं करना होगी। तब तक धैर्य रखा जा सकता है।
 
देशबन्धु में 26 नवंबर 2015 को प्रकाशित

Wednesday, 18 November 2015

बिहार चुनाव : कुछ अन्य बातें


 बिहार की राजनीति को बारीकी से समझने वाले पत्रकारों में संकर्षण ठाकुर का नाम प्रमुखता के साथ लिया जा सकता है। वे स्वयं बिहार के हैं और उन्होंने बिहार के दो प्रमुख राजनेताओं लालू प्रसाद यादव तथा नीतीश कुमार पर विश्लेषणपरक पुस्तकें भी लिखी हैं। जैसा कि इनसे पता चलता है वे लालू प्रसाद की राजनीति के विरोधी और नीतीश के प्रशंसक हैं। उनके निष्कर्ष जमीनी अध्ययन पर आधारित हैं इसलिए अभी विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद श्री ठाकुर ने नीतीश के चुनाव प्रबंधक प्रशांत किशोर पर किसी अंग्रेजी अखबार में  आधा पेज का लेख प्रकाशित किया तो मैं कुछ सोच में डूब गया। इस लेख का सार यह है कि महागठबंधन की जीत में प्रशांत किशोर की रणनीति का बहुत बड़ा योगदान रहा। मैंने पहली बार देखा कि किसी चुनावी प्रबंधक की ऐसी छवि प्रस्तुत की गई जो अतिशयोक्ति की हद को छूती हो। चूंकि लिखने वाले एक जानकार पत्रकार हैं इसलिए उनकी बात को यूं ही नहीं उड़ाया जा सकता।

बिहार में महागठबंधन की अभूतपूर्व जीत के बारे में टीकाकारों के अपने-अपने विश्लेषण हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने अपने हाल में प्रकाशित लेख में बहुत चतुराई के साथ मोदी-शाह की टीम को ही भाजपा की हार के लिए दोषी ठहरा दिया है। इसके अलावा कहीं गणित फेल होने की बात हो रही है, तो कहीं केमिस्ट्री सफल होने की। इसमें प्रशांत किशोर याने एक चुनाव प्रबंधक की भूमिका कितनी प्रभावी रही होगी, यह अलग प्रश्न उभर आया है। उल्खेनीय है कि श्री किशोर ने 2014 में नरेन्द्र मोदी के चुनाव प्रबंधक  के तौर पर काम किया था। यह अभी रहस्य ही है कि वे श्री मोदी को छोड़कर नीतीश कुमार के खेमे में कैसे आ गए। एकाध जगह कहीं लिखा गया कि चुनाव जीतने के बाद भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में उन्हें अपमानित किया। इससे आहत होकर उन्होंने पाला बदल लिया। बिहार के नतीजे आने के बाद वे दिल्ली गए और पढऩे में आया कि वे एक तरफ राहुल गांधी से मिले और दूसरी तरफ अरुण जेटली से भी।

इस समूचे संदर्भ में एक कयास तो ऐसा लगाया जा रहा है कि लालू प्रसाद को महागठबंधन की जीत का श्रेय न मिले, इसलिए प्रशांत किशोर का नाम आगे किया गया है। इस बात पर विश्वास करने का मन नहीं होता। संभव है कि भविष्य में लालूजी और नीतीशजी के बीच वर्चस्व का प्रश्न उठे, किन्तु हमें नहीं लगता कि चुनाव जीतने के पांच-सात दिन बाद ही ऐसा होने लगेगा। इससे एक दूसरी शंका उभरती है कि लालू-नीतीश की निकटता से चिंतित नीतीश खेमे के ही लोग तो कहीं अपनी होशियारी दिखाने के लिए ऐसा नहीं कर रहे? एक तीसरी संभावना और है कि प्रशांत किशोर स्वयं अपने छवि निर्माण में लगे हों ताकि आने वाले समय में उनकी मूल्यवान सेवाएं कांग्रेस या कोई अन्य पार्टी हासिल करने के लिए उत्सुक हो उठे। मेरा अपना मानना है कि चुनाव प्रबंधन अपने आप में एक कला है और जिन्होंने इसे साध लिया है वे सराहना के पात्र होते हैं, लेकिन जब पक्ष या विपक्ष में लहर उठी हो तो फिर सारा मामला आम नागरिक की आशा-आकांक्षा पर आकर टिक जाता है। वहां फिर कोई गणित, कोई रणनीति, कोई प्रबंधन काम नहीं आता और अगर आता भी है तो सीमित रूप में।

बहरहाल नीतीश कुमार औपचारिक रूप से महागठबंधन के नेता चुन लिए गए हैं तथा कल याने 20 तारीख को वे एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण करेंगे। अपने शपथ ग्रहण में उन्होंने अनेक राज्यों के मुख्यमंत्रियों को शामिल होने का न्यौता दिया है। जिनमें से सिर्फ नवीन पटनायक ने ही अपनी असमर्थता जताई है। यह भव्य शपथ ग्रहण समारोह एक तरफ महागठबंधन के लिए अपनी अपूर्व सफलता का जश्न मनाने का अवसर होगा वहीं नीतीश कुमार इसे राष्ट्रीय रंगमंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के एक नायाब मौके के रूप में भी देखेंगे। कुछ ऐसी ही सुप्त महत्वाकांक्षा नवीन पटनायक की भी है और अनुमान लगाया जा सकता है कि वे शायद इसी कारण पटना नहीं आ रहे हों।

सुना है कि नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री ने शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे को भी आमंत्रित किया है। उद्धव चूंकि लगातार मोदी का विरोध कर रहे हैं, इस संदर्भ में इस निमंत्रण को देखा जा सकता है। इसका एक व्यवहारिक पक्ष भी हो सकता है कि महाराष्ट्र खासकर मुंबई में जो मराठी बनाम बाहरी के नाम पर झड़पें होती हैं उस पर विराम लगाने का कोई संकेत यहां से जाए। याद करें कि जब बिहार में किसी रेलवे स्टेशन पर पूर्वोत्तर के नागरिकों के साथ दुर्व्यवहार हुआ था तो तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद स्वयं असम गए थे और गुवाहाटी की सड़कों पर पैदल घूमकर उन्होंने क्षमायाचना की थी। ऐसी पहल करने से वातावरण सुधरता है, स्थितियां सामान्य होती हैं और नागरिकों के बीच सद्भावना पनपती है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। नीतीश कुमार मितभाषी हैं, लेकिन लालू प्रसाद अपने मंतव्य प्रकट करने में शब्दों में कंजूसी नहीं करते। उन्होंने तो रिजल्ट आते साथ ही ऐलान कर दिया है कि वे अब राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय होंगे। यहां नोट करना चाहिए कि बिहार के बाद कांग्रेस में भी स्फूर्ति आई है, लेकिन उसे अपने भावी लक्ष्य के बारे में अभी कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। वह राष्ट्रीय पार्टी है और 2016 में होने वाले विधानसभा चुनावों में ही उसकी संभावनाएं छुपी हुई हैं।

बिहार में महागठबंधन की विजय से जुड़े एक अन्य पहलू पर अभी बहुत ध्यान नहीं गया है। यह सबको पता है कि चाहे राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद हों, चाहे अध्यक्ष नीतीश कुमार, चाहे जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव- ये सब डॉ. राममनोहर लोहिया की आक्रामक और व्यक्तिवादी राजनीति के प्रशंसक थे और उसी से प्रेरित होकर राजनीति में आए थे। ये एक तरफ जॉर्ज फर्नांडीज़ के तीखे तेवरों के मुरीद थे, तो दूसरी तरफ मधु लिमये व किशन पटनायक की सौम्य विचारशीलता इन्हें प्रभावित करती थी। तब के इन समाजवादी युवाओं में शरद यादव पहले व्यक्ति थे जो 1975  में संयुक्त विपक्ष के प्रत्याशी बन लोकसभा उपचुनाव जीत संसद में पहुंचे थे। वे छात्र राजनीति से निकलकर  एकाएक राष्ट्रीय क्षितिज पर आ गए थे। जबकि लालू प्रसाद इत्यादि के राजनैतिक कॅरियर की शुरुआत आपातकाल में छात्र आंदोलन और जेल यात्रा से हुई। ऐतिहासिक दृष्टि से विवेचना करें तो 1946-47 से लेकर 2014 तक समाजवादी खेमा और उसके विभिन्न धड़ों की राजनीति कांग्रेस-विरोध पर ही केन्द्रित थी।

जब स्वतंत्र देश की पहली सरकार बन रही थी तब पंडित नेहरू के समाजवादी मित्रों ने उनका साथ छोड़ दिया था।  डॉ. लोहिया ने तो गैर-कांग्रेसवाद का नारा ईजाद किया था जिसकी पहली सफलता 1967 में देखने मिली जब कांग्रेस से दलबदल कर विभिन्न प्रदेशों में संविद सरकारें (संयुक्त विधायक दल) बनीं। ये सरकारें आपसी विग्रह के कारण लंबे समय तक तो नहीं चल पाईं, लेकिन इसका असली लाभ लोहिया के अनुयायियों के बजाय जनसंघ ने उठाया। इसके बावजूद विभिन्न पार्टियों में बंटे समाजवादियों के कांग्रेस विरोध में कोई कमी नहीं आई। 1977 में सारे कांग्रेस-विरोधी जनता पार्टी के नाम पर एकजुट हुए जिसका कालांतर में लाभ भाजपा को मिला। 1998 में भी जब कांग्रेस सरकार बनने की संभावना जग रही थी तब एक-दूसरे समाजवादी मुलायम सिंह ने उसमें सेंध लगा दी थी। इस इतिहास को देखने से स्पष्ट होता है कि ऐसा पहली बार 2015 में जाकर हुआ है जब कांग्रेस और समाजवादी दोनों एक साथ मिलकर चुनाव लड़े और लड़े ही नहीं, चुनाव जीते भी।

यह स्पष्ट है कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टियां- इनके बीच कोई बहुत ज्यादा वैचारिक मतभेद नहीं हैं। किसी हद तक सीपीआई याने भाकपा की भी इनसे कोई बड़ी वैचारिक असहमति नहीं है। अगर ये सब मिलकर एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार कर लें और उस पर ईमानदारी के साथ अमल करें तो यह महागठबंधन देश की राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन करने में कामयाब हो सकता है। इसमें तीनों समाजवादियों नेताओं को अपनी-अपनी भूमिका भी अभी से तय करना होगी- नीतीश सुशासन का मॉडल पेश करें, लालूप्रसाद वोट बटोरने का और वरिष्ठता के नाते शरद यादव समन्वय का जिम्मा उठाएं।
देशबन्धु में 19 नवंबर 2015 को प्रकाशित

Sunday, 15 November 2015

पेरिस पर हमला


 इस्लामिक स्टेट या आईएस ने पेरिस पर आतंकी हमला कर एक बार फिर अपनेे नृशंस, विचारहीन और अमानवीय चरित्र का परिचय दिया है। आईएस के इस दुष्कृत्य की जितनी भी भर्त्सना की जाए कम है। पेरिस के पूर्व आईएस ने इजिप्ट के आकाश पर सोवियत विमान मार गिराने की जिम्मेदारी ली थी। पश्चिम एशिया में वह इस तरह के अनेक क्रूर आक्रमणों को पहले भी अंजाम दे चुका है। इस्लाम के नाम पर दुनिया के बड़े हिस्से में हिंसा और दहशत का माहौल बनाने वाला इस्लामिक स्टेट पहला संगठन नहीं है। पिछले तीन दशक में मुजाहिदीन, तालिबान, लश्कर-ए-तोयबा, अलकायदा, बोको हराम इत्यादि संगठनों की करतूतें विश्व समाज ने देखी और भोगी हैं। इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे अमानुषिक कृत्यों का पुरजोर विरोध होना चाहिए तथा इन्हें जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए हर संभव उपाय किए जाना चाहिए। यह काम कैसे हो? इक्कीसवीं सदी के विश्व को जो किसी अतीत की गुफा में ले जाना चाहते हों उनकी मानसिकता क्या है? वे प्रेरणा कहां से पाते हैं? अपने हिंसक इरादों को अमल में लाने के लिए उन्हें हथियार और रसद कहां से मिलते हैं? उनके शरणस्थल कहां हैं? उनका प्रशिक्षण कहां होता है? वे कौन सी ताकतें हैं जो उन्हें उकसा रही हैं? इन सब बातों को जाने बिना आईएस और उस जैसे अन्य संगठनों से कैसे लड़ा जाए?

कनाडा में बसे तारीक फतह जैसे इस्लामी अध्येता कहते हैं कि इस्लाम के प्रादुर्भाव के साथ ही कट्टरपंथ और जिहादी मानसिकता की शुरुआत हो गई थी। निर्वासित लेखिका अयान हिरसी अली जैसी अध्येता कहती हैं कि यह मक्का इस्लाम और मदीना इस्लाम के बीच के द्वंद्व से उपजा माहौल है। प्रसिद्ध पत्रकार बर्नाड लेविन इस्लाम को एक जिहादी धर्म के रूप में ही देखते हैं। तस्लीमा नसरीन जिन्हें लज्जा उपन्यास लिखने के कारण निर्वासन भोगना पड़ा, वे भी समय-समय पर ऐसे ही विचार प्रकट करती हैं। इन सबने इस्लाम धर्म का गहन अध्ययन किया है और निजी अनुभवों के साक्ष्य भी इनके पास हैं। अत: मानना होगा कि ये जो कह रहे हैं उसमें सत्य का अंश है तथा इनके विचारों को हल्के में खारिज नहीं किया जा सकता। फिर भी इनसे तस्वीर का एक पहलू ही हमारे सामने आता है। क्या इसका कोई दूसरा पक्ष भी है? अगर किसी विषय पर कुछ ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं भी तो क्या उन्हें वर्तमान समय पर ज्यों का त्यों आरोपित किया जा सकता है? क्या वर्तमान में ऐसे कोई कारक तत्व नहीं हो सकते जिन्होंने आज के दृश्य को प्रभावित किया है? ऐसे तत्व क्या हैं और क्या उनका ईमानदारी से विश्लेषण करने की कोई कोशिश की गई है?

एक तो इस तथ्य पर गौर करना चाहिए कि दुनिया में धर्म के नाम पर राष्ट्रों का निर्माण कब कैसे हुआ। इतिहास में बहुत पीछे न जाकर बीसवीं सदी की ही बात करें तो ऐसा क्यों हुआ कि लगभग एक ही समय में धर्म पर आधारित दो देशों का उदय हुआ। मैं इस बात को कुछ सप्ताह पूर्व लिख चुका हूं कि इस्लाम पर आधारित पाकिस्तान और यहूदी धर्म पर आधारित इजरायल दोनों की स्थापना द्वितीय विश्व युद्ध के तुरंत बाद हुई। इनके निर्माण की पृष्ठभूमि क्या थी? पाकिस्तान के बारे में भारतवासी बहुत कुछ जानते हैं। वे ये भी जान लें कि इजरायल की स्थापना में भी उन्हीं साम्राज्यवादी पश्चिमी ताकतों का हाथ था। हिन्दी में इस विषय पर बहुत कम लिखा गया है, लेकिन जिज्ञासु पाठक महेन्द्र कुमार मिश्र की पुस्तक ''फिलस्तीन और अरब इसराइल संघर्ष" पढ़ सकते हैं। अंग्रेजी समझने वाले पाठक गीता हरिहरन द्वारा संपादित पुस्तक ''फ्रॉम इंडिया टू पैलेस्टाइन : एसेज़ इन सॉलीडरीटी"  पढ़ सकते हैं। इस्लाम की एक गंभीर अध्येता करेन आर्मस्ट्रांग ने इस विषय पर अनेक पुस्तकें लिखी हैं। उनका मानना है कि धर्म के नाम पर जितना खून- खराबा हुआ है उससे कई गुना अधिक हिंसा दूसरे कारणों से हुई है जिनमें एक कारण जनतंत्र की रक्षा करना भी है।

आज इस्लाम के नाम पर हो रही हिंसा के एक के बाद एक प्रकरण सामने आ रहे हैं, लेकिन क्या वाकई इस्लाम में कट्टरता के तत्व स्थापना काल से मौजूद रहे हैं? हम इतिहास में जिन दुर्दम्य आक्रांताओं के बारे में पढ़ते हैं मसलन चंगेज खां, वह और उस जैसे अनेक इस्लाम के अनुयायी नहीं थे। विश्व विजय का सपना लेकर निकला सिकंदर न यहूदी था न मुसलमान न ईसाई। हिटलर, मुसोलिनी, फ्रांको, सालाजार इत्यादि भी इस्लाम को मानने वाले नहीं थे। तुर्की के राष्ट्रपिता कमाल अतातुर्क ने तो बीसवीं सदी के प्रारंभिक समय में खिलाफत को चुनौती देकर एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की स्थापना की थी।  इजिप्त के नासिर और इंडोनेशिया के सुकार्णों ने भी धर्मनिरपेक्षता की नींव पर अपने नवस्वतंत्र देशों को खड़ा करने का उपक्रम किया था।

यह पूछना चाहिए कि सुकार्णों को अपदस्थ कर सुहार्तों को लाने में किसका हाथ था और नासिर बेहतर थे या उनके बाद बने राष्ट्रपति अनवर सादात। पश्चिम एशिया के अनेक देशों में से ऐसे अनेक सत्ताधीश हुए जो अपने को बाथिस्ट कहते थे और जो धार्मिक कट्टरता से बिल्कुल दूर थे। इराक में बाथिस्ट पार्टी को हटाकर सद्दाम हुसैन भले ही सत्ता में आए हों, लेकिन उनके विदेश मंत्री ईसाई थे और उनके इराक में धार्मिक असहिष्णुता नहीं थी; यही बात सीरिया के बारे में कही जा सकती है। लेबनान में तो ईसाई और इस्लामी दोनों बारी-बारी से राज करते रहे। हम अपने पड़ोस में बंगलादेश को ले सकते हैं। अमेरिकन राष्ट्रपति निक्सन ने बंगलादेश में जनतांत्रिक शक्तियों के उभार पर कोई ध्यान नहीं दिया व तानाशाह याह्या खान का समर्थन करते रहे।  बंगलादेश बन जाने के बाद मुजीबुर्ररहमान ने धर्मनिरपेक्षता का रास्ता अपनाया और आज उनकी बेटी शेख हसीना भी उसी रास्ते पर चल रही है।

आज इस्लामिक स्टेट के नाम पर जो दहशत का भयानक मंजर छाया हुआ है उसका प्रणेता कौन है? ऐसी खबरें लंबे समय से आ रही हैं कि आईएस को नवपूंजीवादी, नवसाम्राज्यवादी ताकतों ने ही खड़ा किया ताकि सीरिया और ईरान आदि में सत्ता पलट किया जा सके। इसके पहले अफगानिस्तान और इराक में तो अमेरिका और उसके पिठ्ठू कब्जा कर ही चुके हैं। इजिप्त और ट्युनिशिया में अरब-बसंत के नाम पर जो आंदोलन खड़े हुए थे उनका भी मकसद यही था। एक समय महाप्रतापी इंग्लैंड ने अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड तक अपने उपनिवेश कायम किए। आज अमेरिका उसी मिशन को आगे बढ़ा रहा है। इसीलिए जब रूस, सीरिया व ईरान का साथ देता है तो यह अमेरिका व उसके साथियों को नागवार गुजरता है। इस प्रकट विडंबना की ओर भी ध्यान जाना चाहिए कि अमेरिका ने आज तक सऊदी अरब के खिलाफ कभी कोई कदम नहीं उठाया। जबकि सऊदी नागरिक ओसामा बिन लादेन को अपने कुटिल खेल में मोहरा बनाकर शामिल किया। इस्लामी जगत में सर्वाधिक कट्टरता अगर कहीं है तो वह सऊदी अरब में है। औरतों की स्वाधीनता पर सर्वाधिक प्रतिबंध भी तो वहीं है। जिहाद के लिए मुख्यत: पैसा वहीं से भेजा जाता है और वहां के शासकों की अय्याशी के किस्से मशहूर हैं। आशय यह कि इन तमाम बातों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है। तात्कालिक प्रतिक्रियाओं से हल नहीं निकलेगा। जब तक आईएस की पीठ पर हाथ रखने वालों का विरोध नहीं होगा तब तक इस गंभीर चुनौती का सामना नहीं हो पाएगा। बंगलादेश में मार डाले गए ब्लॉगर पत्रकारों सहित अनेक ऐसे इस्लामी बुद्धिजीवी हैं जो कट्टरपंथ व जड़वाद का विरोध तमाम खतरे उठाकर भी कर रहे हैं। शेष विश्व को इनके समर्थन में खड़ा होने से मुकाबला करना आसान होगा।
देशबन्धु में 16 नवंबर 2015 को प्रकाशित विशेष सम्पादकीय

Friday, 13 November 2015

कहानी के सौ साल

 इस साल 'उसने कहा था' का प्रकाशन हुए पूरे सौ साल बीत चुके हैं। यह वर्ष भीष्म साहनी की जन्मशती का भी है। इसके अलावा कहानी पत्रिका के उस विशेषांक को भी साठ साल हो गए हैं, जिसमें 'चीफ की दावत' सहित अनेक वे कहानियां छपी थीं, जिनसे कहानी विधा में एक नए युग का सूत्रपात माना गया था। जैसा कि साहित्य का हर विद्यार्थी जानता है, पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने मात्र तीन कहानियां लिखी थीं- उसने कहा था, सुखमय जीवन व बुद्धू का कांटा। मात्र इनके बल पर वे सिद्धहस्त कथाकार कहलाए। 'उसने कहा था' को तो अमर कथा का दर्जा प्राप्त हो चुका है। आज एक शताब्दी बाद भी उसे पढ़ा जाता है और पढ़ते हुए यही लगता है मानो वह आज की ही कहानी है। उसने कहा था को हिन्दी की पहिली मुकम्मल एवं आधुनिक कहानी मान जाए तो गलत नहीं होगा। कथानक, कथोपकथन, चरित्र चित्रण, भाषा, शैली, आरंभ, चरमोत्कर्ष, उपसंहार- विवेचना के हर कोण पर कहानी खरी उतरती है।
गुलेरी जी ने जब कहानी लिखी, तब तक प्रेमचंद भी कथाकार के रूप में अपनी पहिचान बना चुके थे। 'पंच परमेश्वर' कहानी भी 1915 में ही लिखी गई थी। यहां से एक लंबा दौर प्रारंभ होता है, जिसे प्रेमचंद युग की संज्ञा दी जा सकती है। इस दौर में रचे कथा साहित्य को आदर्शवाद, यथार्थोन्मुख आदर्शवाद, यथार्थवाद, प्रगतिवाद जैसी अनेक सरणियों में समीक्षकों ने निबद्ध किया। श्रीपतराय द्वारा संचालित-संपादित 'कहानी' के उक्त विशेषांक तक यह दौर चलता रहा। इस युग में पं. सुदर्शन, शिवपूजन सहाय, जैनेन्द्र, यशपाल, विशंभरनाथ शर्मा कौशिक, सुभद्राकुमारी चौहान, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा इत्यादि अनेक कथाकारों ने ख्याति प्राप्त की, लेकिन न तो उन्होंने किसी नए आंदोलन को प्रारंभ किया और न किसी नवयुग का सूत्रपात। 1955 में कहानी का विशेषांक आने के साथ दृश्य परिवर्तन हुआ। कहानी का स्थान अब नई कहानी ने ले लिया। नई कहानियां नाम से एक नई पत्रिका भी प्रारंभ हो गई। कहानी के विशेषांक के समय से मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, भैरव प्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय, अमरकांत, निर्मल वर्मा, शेखर जोशी, धर्मवीर भारती, आनंद प्रकाश जैन, कमल जोशी, रामकुमार, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा आदि कथा क्षितिज पर एक नई आभा बिखेरते हुए उदित हुए तथा नई कहानियां पत्रिका इनमें से अनेक को आगे ले जाने का वाहन बनी। नई कहानी के इस दौर में ही ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह इत्यादि कथाकार भी प्रकाश में आए।
कहानी पत्रिका ने एक युगांतकारी भूमिका निभाई। उसके बाद वह नए सिरे से नए लेखकों की पहिचान देने में सक्रिय हो गई। सन् साठ के दशक में कितने ही नए कहानीकार इस माध्यम से सामने आए। कुछ के नाम याद आते हैं- प्रबोध कुमार, ओमप्रकाश मेहरा, ममता कालिया, रवींद्र कालिया, रामनारायण शुक्ल, रमेश बक्षी, सतीश जमाली, देवेन्दु, नीलकांत, प्रकाश बाथम, निरुपमा सेवती इत्यादि। मैं कुछ अन्य पत्रिकाओं का भी उल्लेख यहां करना चाहूंगा। साठ के दशक में तब के कलकत्ता से कथाकार छेदीलाल गुप्त एवं उनके साथियों ने सुप्रभात नामक कथा पत्रिका निकाली। आगरा से भी नीहारिका शीर्षक से एक पत्रिका प्रारंभ हुई। मेरठ से छपने वाली अरुण ने अपना अलग स्थान बनाया जिसमें उर्दू और मराठी कहानियों के अनुवाद मुख्यत: छपते थे। फ्रिक तौसवीं, शौकत थानवी, ना.सी. फड़के, पु.ल. देशपांडे आदि की रचनाएं सर्वप्रथम इस पत्रिका में ही पढ़ीं। साठ का दशक जब विदा लेने को था, लगभग उसी समय महीप सिंह, मनहर चौहान व कुछ अन्य मित्रों ने मिलकर न सिर्फ सचेतन कहानी आंदोलन चलाया, बल्कि सचेतन कहानी नामक पत्रिका भी प्रारंभ की। यह शायद हिन्दी कहानी में चलाया गया पहिला आंदोलन था। यद्यपि यह लंबे समय तक नहीं चल पाया।
कथा जगत में इसके पश्चात दो अन्य आंदोलनों का ध्यान मुझे आता है। दोनों के प्रणेता कमलेश्वर थे। एक तो उन्होंने समानांतर कहानी आंदोलन (जो अल्पजीवी सिद्ध हुआ) प्रारंभ किया; दूसरे सारिका का संपादन करते हुए उन्होंने जहां एक ओर हिन्दी गज़ल को प्रतिष्ठित किया, वहीं उन्होंने लघु कथा को एक स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित करने की चेष्टा की। कहना न होगा कि दोनों विधाएं खूब फल-फूल रही हैं। इस बीच धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, ज्ञानोदय इत्यादि पत्रिकाओं ने पाठकों को अनेक कथाकारों की कृतियों से परिचित होने का अवसर दिया। शिवानी व मालती जोशी को जो लोकप्रियता हासिल हुई, उसमें दोनों बहुप्रसारित साप्ताहिकों की भूमिका को स्मरण करना चाहिए। ज्ञानोदय ने भी एक प्रयोग किया- सहयोगी उपन्यास प्रकाशित करने का। पहिले ग्यारह सपनों का देश छपा और फिर एक इंच मुस्कान।
बहरहाल, कहानी को एक नया मोड़ मिला, राजेन्द्र यादव के संपादन में पुनर्प्रकाशित 'हंस' से। आज जितने भी प्रमुख कथाशिल्पी हैं, उनमें से शायद ही कोई ऐसा हो जो हंस में न छपा हो। राजेन्द्र जी ने हंस में स्त्री-विमर्श एवं दलित-विमर्श की खूब सोच-समझकर शुरूआत की तथा उससे न सिर्फ कथा साहित्य में, बल्कि समूचे हिन्दी जगत में एक नई चेतना का प्रसार हुआ। उन्होंने अपने ढंग से साहित्य के सामाजिक दायित्व एवं सोद्देश्यता को परिभाषित किया। राजेन्द्र यादव ने इस तरह हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा।
इस वृहत्तर पृष्ठभूमि में 'अक्षर पर्व' का उत्सव अंक कहानी विशेषांक के रूप में आपके सम्मुख है। इसकी भूमिका छह साल पहिले बनी थी, जब 2009 में हमने कविता विशेषांक प्रकाशित किया था। किसी न किसी कारण से योजना टलती चली गई। अब जाकर इस विचार को मूर्त रूप मिल सका है। वैसे भी कविता विशेषांक के बाद कहानी विशेषांक की योजना बनना लाजिमी था, लेकिन अक्षर पर्व का यह अंक 2009 की ही भांति सामान्य तौर से प्रकाशित होने वाले विशेषांकों से एक मायने में बिल्कुल भिन्न है। इसमें सिर्फ वे ही रचनाएं ली गई हैं जो अक्षर पर्व में पूर्व में प्रकाशित हो चुकी हैं। एक तरह से यह हमारा अपना विहंगावलोकन है। दूसरे, ये सारी रचनाएं नई सदी के मोड़ पर लिखी गई हैं, याने 2000 के 4-5 साल पहिले या 10-15 साल बाद तक। अर्थात् गत दो दशक की अवधि में हिन्दी कथा साहित्य की जो दशा-दिशा रही है, उसकी एक आंशिक झलक यहां संकलित रचनाओं से मिल सकती है।
इस अंक के लिए रचनाओं का चयन करना मेरे लिए एक दुष्कर दायित्व था। 1997 से लेकर हाल-हाल तक प्रकाशित छह सौ से अधिक कहानियों में से किसे लें और किसे छोड़ें, यह प्रश्न सामने था। माथापच्ची के बाद पहिला निर्णय यही लिया कि अंक में अनूदित रचनाएं शामिल न की जाएं। इसके बाद उपन्यासिकाओं एवं उपन्यास अंशों को भी छोडऩे की बात तय की। ये दोनों निर्णय अनिच्छा से ही लिए। फिर यह बात उठी कि भीष्मजी सहित अनेक ज्येष्ठ कथाकारों की जो रचनाएं समय-समय पर प्रकाशित हुई हैं, उनमें से चयन कैसे हो। पुराने अंकों के पन्ने पलटते हुए मुझे इनकी जो कहानी एकबारगी जम गई, वह रख ली। स्थानाभाव के कारण अक्षर पर्व में प्रकाशित उनकी सारी कहानियां लेना तो संभव नहीं था न। अन्य सहयोगी लेखकों की कहानियों को दुबारा पढ़ते हुए कथावस्तु की विविधता को ध्यान में रखकर चयन करने का प्रयत्न किया ताकि एक कोलाज़ की शक्ल में वर्तमान समय की सच्चाइयां भरसक सामने आ सकें। इस तरह कहानी विशेषांक में एक ओर ज्येष्ठ लेखकों की रचनाएं हैं तो दूसरी ओर उन लेखकों की भी जिनसे पाठक शायद बहुत अच्छी तरह परिचित नहीं हैं। चयन में जहां कथावस्तु को प्राथमिकता दी है, वहीं यह प्रयास भी किया है कि भाषा व शैली में जो विविधता एवं नवाचार है, वह भी यथासंभव प्रकट हो सके।
अक्षर पर्व मुख्यत: कहानी की पत्रिका नहीं है। यह दायित्व कुछ अन्य पत्रिकाएं लम्बे समय से बखूबी निभा रही हैं। उनमें कहानी कला को लेकर निरंतर विमर्श और आलोचनाएं चलती रहती हैं, फिर भी अक्षर पर्व में जो कथा साहित्य प्रकाशित हुआ है वह अपने समय का दस्तावेज है। विगत तीस वर्षों में भारत के सामाजिक परिदृश्य में बहुत से परिवर्तन आए हैं। इसके पीछे जो आर्थिक, राजनीतिक कारण हैं उनसे हम अनभिज्ञ नहीं हैं। आज का कहानी लेखक इन परिवर्तनों को खुली आंखों से देख रहा है। आम नागरिक के जीवन में निजी और सामाजिक दोनों स्तरों पर जो प्रभाव पड़ा है वह कथाकार से छुपा हुआ नहीं है। इस संक्रमण काल की बेचैनी और छटपटाहट विभिन्न स्तरों पर कहानियों में बखूबी चित्रित हुई है।  मेरा विश्वास है यहां प्रकाशित कहानियों से एक बार गुजरने के बाद पाठक इस बात से सहमत होंगे।
पत्रिका के एक अंक में, भले ही वह विशेषांक क्यों न हो, सीमित स्थान के चलते रचनाओं की संख्या भी सीमित ही होगी। इसीलिए हमने तय किया है कि प्रस्तुत अंक कहानी विशेषांक का खंड-एक होगा तथा दिसंबर अंक खंड-दो के रूप में प्रकाशित किया जाएगा। आशा है कि हमेशा की तरह इस अंक का भी पाठक जगत में स्वागत होगा। अंत में सुधी पाठकों से क्षमा याचना कि याददाश्त के बल पर लिखी इस प्रस्तावना में कोई महत्वपूर्ण नाम छूटने की और अन्य गलतियां हो सकती हैं।
अक्षर पर्व नवंबर 2015 अंक की प्रस्तावना

Thursday, 12 November 2015

बिहार के बाद क्या?

 



पहले तो लोग इस बात पर माथापच्ची करते रहे कि बिहार में विधानसभा चुनावों के नतीजे क्या होंगे। जिस दिन मतदान का आखिरी चरण सम्पन्न हुआ उस दिन तमाम विशेषज्ञ एक्जिट पोलों की चीर-फाड़ में लग गए। 8 नवंबर को जब बहुप्रतीक्षित परिणाम सामने आए तब से उन नतीजों का विश्लेषण करने का काम चल रहा है। यह स्वाभाविक है तथा अभी कुछ दिन और चलेगा। सोशल मीडिया की जहां तक बात है उसमें लतीफों की बहार आई हुई है। बल्कि दीवाली के समय यह कहना अधिक सही होगा कि फुलझडिय़ां और पटाखे छूट रहे हैं। नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी के दौरान कई महीनों तक पारंपरिक मीडिया और सोशल मीडिया दोनों का जमकर उपयोग किया था। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी इसमें कोई कमी नहीं आई किन्तु इसके साथ यह भी हुआ कि नए-नवेले प्रधानमंत्री पर दोनों तरह के मीडिया में टीका-टिप्पणियां होना शुरु हो गईं, फिर बात चाहे उनकी परिधानप्रियता की हो, चाहे उनके मंत्रियों की योग्यता की। राजनीति में हर व्यक्ति को सार्वजनिक टीकाओं का सामना करना ही होता है। जो जितना बड़ा है उस पर उतनी ही ज्यादा बातें होती हैं। इस मामले में हमारे प्रधानमंत्री ने कमाल कर दिया। विगत डेढ़ वर्ष के दौरान उनको लेकर जितने कटाक्ष किए गए हैं वैसी स्थिति शायद कभी किसी सत्ता प्रमुख के सामने नहीं आई।

बहरहाल बिहार के परिणाम आ जाने के बाद अब राजनैतिक विश्लेषकों के समक्ष देश के राजनीतिक भविष्य के बारे में सोचने का समय शायद आ गया है। 2019 में लोकसभा के अगले चुनाव होंगे। इसमें अभी साढ़े तीन साल का वक्त है। इस बीच असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुड्डुचेरी, केरल, फिर उत्तरप्रदेश और अन्य प्रदेशों के चुनाव बारी-बारी होना है। पांच प्रदेशों के चुनाव होने में अब बहुत अधिक समय नहीं बचा है। पूर्वोत्तर और एक छोटा प्रदेश होने के कारण असम पर बाकी देश का ध्यान अक्सर नहीं जाता। यद्यपि भौगोलिक और सामाजिक कारणों से वहां की राजनीति कई बार ऐसे मोड़ पर पहुंच जाती है, जिसका असर पूरे देश पर पड़ता है। अभी असम में तरुण गोगई के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार काबिज है। श्री गोगई पिछले पन्द्रह वर्ष से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हैं। उनका तीसरा कार्यकाल पूरा होने जा रहा है। कुछ समय पहले असंतुष्ट नेता हिमांता बिस्वा सरमा ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा की सदस्यता ली। वे अपने साथ लगभग एक दर्जन विधायकों को भी ले गए। याने भाजपा ने जिस तरह बिहार में दलबदल को प्रश्रय दिया वही काम अब असम में हो रहा है। दूसरी ओर, मुस्लिम हितों की बात करने वाले एक नेता बदरुद्दीन अकमल का भी वहां काफी प्रभाव है। इन दो पाटों के बीच कांग्रेस की रणनीति आसन्न विधानसभा चुनाव में क्या होगी? वहां पार्टी को किसका साथ मिलेगा? मतदाता एक दलबदलू नेता पर कितना विश्वास करेगी और क्या  अल्पसंख्यक समाज बिहार की तर्ज पर कांग्रेस का साथ देगा? ऐसे अनेक प्रश्न उठते हैं।

इसके साथ-साथ बात आती है पश्चिम बंगाल की। तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने नीतीश कुमार को बधाई देने में जरा भी वक्त नहीं गंवाया। सवाल उठता है कि पश्चिम बंगाल में क्या समीकरण बनेंगे। एक ओर ममता बनर्जी दूसरी ओर माकपा की अगुवाई में वाममोर्चा। चूंकि बिहार में वाममोर्चे ने अपना पृथक रास्ता चुना इसलिए अनुमान होता है कि पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे के साथ उसका कोई तालमेल नहीं बैठेगा। लेकिन क्या तृणमूल कांग्रेस के साथ कांग्रेस का कोई गठबंधन संभव है? अगर इस दिशा में प्रयत्न हुए तो ममता दी उसकी क्या कीमत वसूलेंगी? और क्या कांग्रेस इस प्रदेश में अकेले लडऩे में सक्षम है? महागठबंधन के अन्य दो दलों की बंगाल में क्या भूमिका होगी? यदि लालू जी अथवा नीतीश जी की बिहार के बाहर अगर कोई महत्वाकांक्षा है तो क्या उसके बीजारोपण की शुरुआत ममता बनर्जी केेे साथ हाथ मिलाकर होगी? अगर तृणमूल कांग्रेस, वाममोर्चा और कांग्रेस तीनों अलग-अलग चुनाव लड़े तो क्या इसका कोई लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिल पाएगा? दिल्ली और बिहार में तो भाजपा के पास अनेक कद्दावर नेता थे। पश्चिम बंगाल में कौन हैं? इस कमी का क्या असर भाजपा पर पड़ेगा? गरज यह कि यहां भी सवाल बहुतेरे हैं।

तमिलनाडु में एक अलग ही दृश्य उपस्थित होता है। पिछले लगभग चालीस साल से हम वहां दो क्षेत्रीय दलों के बीच सत्ता की उलट-पुलट देखते आए हैं।  इनका नेतृत्व जो दो बड़े नेता कर रहे हैं वे कब तक अपना दायित्व संभाल पाएंगे कहना कठिन है। डीएमके के करुणानिधि वृद्ध, अशक्त और अस्वस्थ हैं। उनके तीन पत्नियों वाले परिवार में राजनीतिक विरासत को लेकर जो कलह चल रही है वह सर्वविदित है। करुणानिधि राष्ट्रीय स्तर पर अपने प्रतिनिधि के रूप में बेटी कनिमोझी को स्थापित करना चाहते हैं, जबकि प्रदेश में उनकी प्रकट इच्छा छोटे बेटे स्टालिन को राजनीतिक विरासत सौंपने की रही है।  अनुमान कर सकते हैं कि आसन्न विधानसभा चुनाव स्टालिन के सक्रिय मार्गदर्शन में लड़े जाएंगे जिसमें कनिमोझी उनके साथ होंगी। बड़े भाई अजगीरी की क्या भूमिका होगी यह स्पष्ट नहीं है। दूसरी ओर जयललिता की सक्रियता भी स्वास्थ्य संबंधी कारणों से बाधित हुई है ऐसा सुनने में आता है। अगर जयललिता पूरी तैयारी के साथ चुनाव मैदान में उतर सके तब भी क्या तमिलनाडु के मतदाता उन्हें लगातार दूसरा मौका देंगे? जयललिता और नरेन्द्र मोदी के बीच मधुर संबंध हैं, लेकिन क्या दोनों के बीच कोई औपचारिक गठबंधन होना संभव है? इसी तरह डीएमके और कांग्रेस के बीच जो गठबंधन लंबे समय तक चला क्या वह दुबारा बन सकेगा? इस दक्षिण प्रदेश में भाकपा और माकपा दोनों के अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र हैं। यद्यपि राज्यसभा में जाने के लिए उन्हें कभी करुणानिधि तो कभी जयललिता की चिरौरी करना पड़ती है। क्या तमिलनाडु में कांग्रेस समाजवादी और साम्यवादी दोनों मोर्चों को साथ लेकर कोई महा-महागठबंधन बना पाएगी?

एक अन्य दक्षिण प्रदेश केरल में भी कुछ ही दिनों में विधानसभा चुनाव होना है। केरल को राजनीतिक दृष्टि से एक अत्यन्त जागरुक प्रदेश माना जाता है। यहां सामान्यत: हर पांच साल में सरकार  बदल जाती है। फिलहाल सरकार कांग्रेस की है इसलिए यह सोच लेना आसान है कि अगली सरकार माकपा के नेतृत्व में वाममोर्चे की बनेगी। लेकिन मामला इतना सरल नहीं है। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि उसके पास वी.एस. अच्युतानंदन के बाद कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। पिछले चुनावों में वी.एस. को किनारे कर दिया गया था, किन्तु यह उनकी ही छवि थी जिसके कारण माकपा लगातार दूसरी बार सत्ता में आने के करीब पहुंच सकी। कांग्रेस में ओमन चांडी मुख्यमंत्री हैं, लेकिन उन्हें लगातार पार्टी की अंतर्कलह से और पार्टी नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझना पड़ रहा है। यह उल्लेखनीय है कि केरल विधानसभा में भाजपा को आज तक एक भी सीट नहीं मिली है, फिर भी वह धीरे-धीरे अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाते गई है। विगत नगरीय निकाय चुनावों में भाजपा ने तिरुअनंतपुरम नगर निगम में अठाइस सीटें हासिल कीं। अभी हाल में सम्पन्न चुनाव में उसकी सीटें बढ़कर पैंतीस-छत्तीस हो गई हैं और कांग्रेस वहां तीसरे नंबर पर पहुंच गई है। याने कांग्रेस और माकपा के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। अगले साल जब कांग्रेस और माकपा के बीच मुकाबला होगा तब पहली बार भाजपा शायद विधानसभा में अपना खाता खोलने की उम्मीद कर सकती है।

हमारी उम्मीद है कि राजनैतिक अध्येता इन सारी स्थितियों का विश्लेषण कर हमारा ज्ञानवर्धन करेंगे कि आने वाले दिनों में देश की राजनीति की दिशा क्या होगी।
देशबन्धु में 11 नवंबर 2015 को प्रकाशित

Sunday, 8 November 2015

जनतांत्रिक शक्तियों की विजय

 


बिहार के चुनाव परिणाम देश की जनता के लिए एक बड़ी राहत लेकर आए हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक चुनावी सभा में विश्वास व्यक्त किया था कि बिहार की जनता इस साल दो दिवाली मनाएगी। एक 8 तारीख को और दूसरी 11 तारीख को। उनका कथन सत्य से बढ़कर सिद्ध हुआ है। इस मायने में कि आज देश की तीन चौथाई जनता बिहारवासियों के साथ दिवाली के पहले दिवाली मना रही है। बिहार विधानसभा के लिए महागठबंधन की भारी जीत और भाजपा व उसके सहयोगियों के निराशाजनक प्रदर्शन में बहुत सारे संदेश छुपे हुए हैं। यूं तो लगभग साल भर पहले दिल्ली विधानसभा के चुनावों में करारी शिकस्त मिलने में भी भाजपा के लिए कुछ स्पष्ट दिशा संकेत थे लेकिन तब जिनकी उसने अनदेखी कर दी थी। अपने स्थापना काल से ही भाजपा भावनाओं से खिलवाड़ करने की राजनीति करती आई है। 2014 के आम चुनावों में स्पष्ट विजय मिल जाने के बाद उसे लगने लगा था कि वह जो कर रही है वही ठीक है, लेकिन अब शायद समय आ गया है कि उसे नए सिरे से अपनी राजनीति और रणनीति दोनों पर पुनर्विचार करना चाहिए।

हमारी चुनाव प्रणाली में जिसे सबसे ज्यादा वोट मिले वह जीत जाता है। इसमें वोट प्रतिशत की बात गौण हो जाती है। जब जीतने वाली पार्टी का वोट प्रतिशत आधे से कम हो तथा उससे सबक लेकर सारे विपक्षी एकजुट हो जाएं तो यही तत्व अपने आप महत्वपूर्ण हो जाता है। अतीत में हमने देखा है कि जब-जब गैरकांग्रेसी दल एकजुट हुए हैं कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा। इस बार बिहार में भाजपा-विरोधी तीन दल एकजुट हो गए तो समीकरण बदल गए और भाजपा के हिस्से ऐसी शोचनीय पराजय आई। भाजपा ने महागठबंधन  को तोडऩेेे और कमजोर करने में अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं रखी। उसने जदयू के दागी नेताओं को टिकट दिए, दलबदल को बढ़ावा दिया, ओवैसी को प्रच्छन्न समर्थन दिया, मुलायम सिंह के साथ भी गुपचुप दोस्ती की लेकिन उसकी कोई भी युक्ति कारगर नहीं हो सकी।

महागठबंधन ने जो शानदार जीत हासिल की है उसका सबसे बड़ा श्रेय तीनों पार्टियों के नेताओं को जाता है, जिन्होंने अपनी एकता में कोई दरार नहीं आने दी और चुनाव की लंबी प्रक्रिया के दौरान किसी भी तरह की बदमज़गी उत्पन्न नहीं होने दी। लालू प्रसाद और नीतीश कुमार दोनों पुराने साथी और मित्र रहे हैं इसलिए उनके दुबारा एक साथ आने में कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं थी। इसमें तीसरे दल के रूप में कांग्रेस की जो सकारात्मक भूमिका रही उसका श्रेय राहुल गांधी को देना ही होगा, जिन्होंने चुनाव के बहुत पहले नीतीश कुमार से बात कर साथ-साथ चलने का मंतव्य प्रकट कर दिया था। उसका जो लाभ कांग्रेस को मिला है वह सामने है। यह उल्लेखनीय है कि न सिर्फ भाजपा बल्कि अनेक टीकाकारों द्वारा बार-बार कहा जाता रहा कि लालू प्रसाद का साथ लेने से नीतीश कुमार को नुकसान होगा, ऐसी सारी भविष्यवाणी निरर्थक सिद्ध हुई।

आज सुबह से टीवी पर जो बहसें आ रही हैं उसमें भी लालू बनाम नीतीश का बखेड़ा उत्पन्न करने की कोशिशें हो रही हैं। ऐसे लोग खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे की कहावत को चरितार्थ कर रहे  हैं। यह स्पष्ट है कि नीतीश कुमार तीसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। जदयू को राजद के मुकाबले तीन-चार सीटें भले ही कम मिली हों, लेकिन उससे कोई फर्क पडऩे वाला नहीं है। हम अतीत के अनुभव से जानते हैं कि लालू जी ने कांग्रेस का साथ दिया तो उसे पूरी तरह निभाया। वे नीतीश के साथ भी दोस्ती निभाएंगे इसमें कोई शक नहीं है। कुल मिलाकर महागठबंधन ने जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शक्तियों को एकजुट होकर चलने का रास्ता प्रशस्त किया है और देश के संविधान की रक्षा के लिए इस समीकरण का बने रहना परम आवश्यक है।

भारतीय जनता पार्टी ने बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान और उसके व्यापक परिदृश्य में जिस तरह की राजनीति की, जैसी प्रवृत्तियों को बढ़ाया दिया और जैसी भाषा का प्रयोग किया उससे आम जनता के भीतर गहरी असुरक्षा का भाव पनप रहा था तथा नरेन्द्र मोदी की क्षमता पर भी सवाल उठने लगे थे। सोचकर देखिए कि चुनावों के दौरान श्री मोदी ने बिहार में बत्तीस आम सभाएं कीं। आज तक किसी भी प्रधानमंत्री ने किसी प्रदेश के चुनाव में इतनी दिलचस्पी नहीं दिखाई। फिर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह बिहार में पैंतालीस दिन तक डेरा डाले रहे। केन्द्र में इस प्रदेश से आधे दर्जन मंत्री तो पहले से हैं। फिर भी दर्जन भर और मंत्रियों की ड्यूटी चुनाव में लगा दी गई। ऐसा माहौल खड़ा किया गया मानो नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री का चुनाव लड़ रहे हों। मतदाताओं ने इस रवैय्ये को पसंद नहीं किया।

यही नहीं, श्री मोदी ने चुनाव अभियान के प्रारंभ में ही बिहार के डीएनए की बात उठा दी। प्रधानमंत्री से ऐसी असंयत भाषा की उम्मीद नहीं की जाती थी। फिर उन्होंने पैकेज देने की बात कुछ इस अंदाज में की मानो जनता पर अहसान कर रहे हों। प्रदेश के खुद्दार मतदाताओं ने इसे भी अपना अपमान ही माना। फिर दिल्ली के पास दादरी से लेकर मुंबई तक जो दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं घटित हुईं उनका भी कोई संज्ञान लेना मोदी सरकार ने उचित नहीं समझा तथा आम जनता के मन में यही बात आई कि यह बिहार चुनाव के समय साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण व बहुमतवाद तैयार करने की कोशिश ही है। लेखकों, कलाकारों द्वारा पुरस्कार व सम्मान लौटाने पर भी उनकी बात को समझने की कोशिश करने की बजाय उल्टे उन पर अनर्गल आरोप जडऩे व टिप्पणियां करने का जो काम भाजपा के मंत्रियों व नेताओं ने किया उसे भी बिहार की राजनीतिक चेतना से लैस प्रबुद्ध मतदाताओं ने स्वीकार नहीं किया।

इस वृहत्तर पृष्ठभूमि में यह भी याद रखने की आवश्यकता है कि आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार अब तक कोई कमाल नहीं कर पाई है। दाल और प्याज की कीमतें जिस तरह बढ़ी हैं उससे हर नागरिक परेशान और चिंतित है। जो स्वदेशी उद्योगपति नरेन्द्र मोदी के अंधसमर्थक थे उनका भी मोह भंग होने लगा है जो अभी नारायण मूर्ति व किरण मजूमदार शॉ के वक्तव्यों से प्रकट हुआ। जिन विदेशी उद्यमियों व निवेशकों ने नरेन्द्र मोदी पर दांव लगाया था वे भी स्वयं को ठगा गया महसूस कर रहे हैं। रेटिंग एजेंसी मूडी की रिपोर्ट चावल का दाना है। विदेश नीति में इस सरकार की असफलता अब दिखाई देने लगी है। नेपाल के साथ संबंध बिगड़ते हैं तो उसका सबसे पहले प्रभाव बिहार पर ही पड़ता है। इस बात को सरकार ने सही ढंग से नहीं समझा। अब जानकार लोग कहने लगे हैं कि अगर विश्व बाजार में तेल की कीमतें न गिरी होतीं तो भारत की अर्थव्यवस्था का न जाने क्या हाल होता।

ऐसी और बहुत सी बातें हैं जो जनता के मन में उमड़-घुमड़ रही हैं। अगर नरेन्द्र मोदी अपने आपको एक सफल प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं तो सबसे पहले उन्हें गुजरात का मुख्यमंत्री होने की मानसिकता से निकलना होगा। उन्हें संघ का स्वयंसेवक होने का गर्व भी छोडऩा होगा। आखिरी बात अमित शाह को नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए तत्काल अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए।

देशबन्धु में 09 नवंबर 2015 को प्रकाशित विशेष सम्पादकीय

Thursday, 5 November 2015

कुंभलगढ़ और हल्दीघाटी


 मन मयूर नाच उठा जैसे मुहावरों का प्रयोग अब शायद ही कोई करता हो। मयूर पंख, नाचे मयूरी जैसे नामवाली फिल्में भी अब किसे याद हैं। मयूर भारत का राष्ट्रीय पक्षी है, लेकिन उसकी चर्चा भी कहां सुनने मिलती है। जब वन्य जीवन की बात होती है तो बाघ को बचाने की फिक्र ही सामने आती है। मोर बेचारा किसी गिनती में नहीं आता। कुल मिलाकर जंगल में मोर नाचा किसने देखा वाली कहावत ही चरितार्थ हो रही है। इसलिए उस दिन जब अरावली की पर्वतमाला में बसे उस छोटे से गांव में मोरों का एक पूरा कुनबा देखा तो मन सहज  प्रफुल्लित हो उठा। दिल्ली भी अरावली की गोद में बसी है। वहां भी कभी-कभार मोर देखने मिल जाते हैं। ऐसा लगता है कि राष्ट्रीय पक्षी को आश्रय देने की पूरी जिम्मेदारी इसी पर्वतमाला ने उठा रखी है जो दिल्ली से लेकर दक्षिण राजस्थान में गुजरात की सीमा तक फैली हुई है।

हमें मयूर दल के दर्शन अनायास ही हो गए। मुख्य मकसद तो कुंभलगढ़ को देखना था। पंद्रहवीं शताब्दी में राणा कुंभा द्वारा बनवाया गया यह किला इधर कुछ वर्षों से चर्चा में आ गया है और एक पर्यटन केन्द्र के रूप में विकसित हो रहा है। एक समय जब लोग उदयपुर घूमने आते थे तो वहां की झीलों को और महल को देखकर खुश हो लेते थे। श्रद्धालुजन निकट स्थित नाथद्वारा और एकलिंगजी के दर्शन करने भी चले जाते थे। देशप्रेम पर्यटकों को हल्दीघाटी तक भी ले जाता था। लेकिन कुंभलगढ़ अपने भव्य सूनेपन में अकेले रहा आता था। यह कुछ आश्चर्य की ही बात है कि इस प्राचीन किले की तरफ अभी तक सैलानियों और पर्यटन प्रबंधकों का ध्यान क्यों नहीं गया। अब स्थिति कुछ बदल रही है। इस स्थान के साथ हमारे इतिहास के दो महत्वपूर्ण अध्याय जुड़े हुए हैं। एक तो चित्तौडग़ढ़ में जब राजवंश को समूल नष्ट करने का षडय़ंत्र रचा गया तब पन्ना धाय पांच साल के बालक उदयसिंह को लेकर यहीं आई थीं। दूसरे, महाराणा प्रताप का जन्म इसी किले में हुआ था।

कुंभलगढ़ के किले से इतिहास की एक और ऐसी कथा जुड़ी है जिसका उल्लेख पाठ्य पुस्तकों में नहीं मिलता। जिन राणा कुंभा ने इस अभेद्य गढ़ का निर्माण करवाया था उनकी हत्या उनके सगे बेटे ऊधा ने साम्राज्य के लालच में कर दी थी। आजकल किले में शाम को ध्वनि और प्रकाश का जो कार्यक्रम चलता है उसमें इस तथ्य का उल्लेख किया जाता है। यह घटना बताती है कि सत्ता के लिए बाप को कैद कर लेना, या मार डालना या भाई की हत्या कर देना- इन सबका किसी धर्म विशेष से लेना-देना नहीं है। जब हम सत और असत के प्रतिमान धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर गढ़ लेते हैं तब ऐसे तथ्यों की सच्चाई तक पहुंचने में हमारी सहायता करती है और इसलिए इनकी अनदेखी नहीं की जाना चाहिए।

कुंभलगढ़ उदयपुर से लगभग अस्सी किलोमीटर की दूरी पर है। केलवाड़ा नामक गांव से चढ़ाई प्रारंभ होती है और लगभग आठ-नौ किलोमीटर तक आप ऊपर चलते जाते हैं। जिस पहाड़ी पर किला अवस्थित है उसकी ऊंचाई समुद्र सतह से कोई इकतीस-बत्तीस सौ फीट होगी। इसके बाद एक के बाद एक कई दरवाजों और सीढिय़ों को पार करते हुए लगभग पांच सौ फीट और ऊपर चढऩा होता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण किले की देखभाल करता है, लेकिन अब वहां सूनी दीवालों के अलावा और कुछ नहीं है। ऊपर पहुंच जाने के बाद यह अनुमान अवश्य होता है कि इस किले पर चढ़ाई करना और इसे जीत लेना असंभव सी बात रही होगी। बताया जाता है कि सिर्फ एक बार दुश्मन की सेना यहां तक पहुंच पाई थी। एक तरह से यह गढ़ राणा कुंभा की समर-सिद्धता की गवाही देता है।

कुंभलगढ़ की दूसरी बड़ी विशेषता उसका परकोटा है। मूल रूप में इस परकोटे की लंबाई छत्तीस किलोमीटर थी और इसकी चौड़ाई कोई पच्चीस-तीस फीट के आसपास होगी। परकोटा लगभग नष्ट हो चुका है। सिर्फ एक दिशा में लगभग एक किलोमीटर लंबा हिस्सा बाकी है जिसे देखकर चीन की दीवार की याद आ जाना स्वाभाविक है। परकोटे का शेष भाग कब, कैसे नष्ट हो गया और उसे कैसे बचाया नहीं जा सका, यह हमें कोई नहीं बता पाया। किले के अलावा तलहटी में कई वर्ग कि.मी. में फैले विशाल प्रक्षेत्र में तीन सौ से अधिक मंदिर अवस्थित हैं। इनमें से अनेक किले का निर्माण होने के पहले के हैं। इनमें जैन मंदिरों की संख्या काफी है। समझा जाता है कि यहां पहले कभी जैन मंदिर ही रहे होंगे। कालांतर में किसी कारणवश वहां पूजा-पाठ बंद हो गया होगा।

जैसा कि हम जानते हैं मेवाड़ राज्य की पहली राजधानी चित्तौडग़ढ़ में थी। इसके बाद कुंभलगढ़ बसा, फिर राणा उदयसिंह ने उदयपुर की स्थापना की। उदयपुर से कुंभलगढ़ को जाने वाले रास्ते पर भी कोई पंद्रह किलोमीटर बाद एक सड़क हल्दीघाटी की ओर फूटती है जो आगे नाथद्वारा की ओर चली जाती है। हल्दीघाटी के  साथ महाराणा प्रताप की वीरता और उनके स्वामिभक्त चपल वेग घोड़े चेतक की कहानी जुड़ी हुई है। इस जगह का नाम हल्दीघाटी एकदम सटीक और उपयुक्त है। यहां एक संकरा दर्रा है जिसमें महाराणा प्रताप ने अकबर के सेनापति राजा मानसिंह की फौज को घेरने की व्यूह रचना की थी। इस दर्रे की मिट्टी का रंग हल्दी की ही तरह पीला है। इसके पास में ही चेतक की समाधि है। पहले लोग यहां आते थे तो इस समाधि पर और दर्रे पर जाकर माथा नवाते थे, लेकिन अब यहां इक्के-दुक्के पर्यटक ही आते हैं और इसका कारण है।

हल्दीघाटी में दर्रे के दो किलोमीटर पहले जो गांव है वहां एक स्थानीय उद्यमी ने महाराणा प्रताप म्यूजियम की स्थापना कर दी है। यह स्थान सैलानियों के आकर्षण का बड़ा केन्द्र बन गया है। भीतर एक प्रेक्षागृह है जिसमें महाराणा प्रताप के जीवन पर लगभग दस मिनट की एक फिल्म दिखाई जाती है। इसमें एक जगह सूत्रधार एक महत्वपूर्ण बात कहता है- शहंशाह अकबर एवं महाराणा प्रताप के बीच हुई लड़ाई साम्प्रदायिक नहीं थी। अकबर की सेना का नेतृत्व जयपुर के राजा मानसिंह कर रहे थे, जबकि प्रताप के सेनापति हकीम खान सूर थे। फिल्म खत्म होती है। अंत में स्वाधीनता सेनानियों के चित्र दिखाए जाते हैं उनमें लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और भगतसिंह के साथ-साथ डॉ. हेडगेवार किस तर्क से उपस्थित हैं, यह पाठक स्वयं समझ सकते हैं।

फिल्म खत्म होती है तो एक गुफानुमा लंबी सी दीर्घा में दर्शकों को ले जाया जाता है जहां उपकरणों की सहायता से संचालित महाराणा प्रताप के जीवन की त्रिआयामी झलकियां दिखाई जाती हैं। यहां एक बार फिर आप उन सूचनाओं से रूबरू होते हैं जो पहले आप फिल्म में देख आए हैं। इसके आगे का दृश्य रोचक है। दीर्घा से बाहर निकलते साथ सामने गुलकंद, गुलाबजल और ऐसी कुछ अन्य सामग्रियां बेचने की दुकानें सजी हुई हैं। आपका गाइड आपसे इन दुकानों पर खरीदारी करने का जोरदार आग्रह करता है। दुकानदार भी हांक लगाकर पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करते हैं। देखते ही देखते आप जिस देशभक्ति की भावना को हृदय में धारण कर बाहर निकले थे वह व्यापार के कौतुक में तिरोहित हो जाती है। इसके बाद आप अपने स्मार्टफोन में संजोई सैल्फियों के साथ खुशी-खुशी अगले ठिकाने के लिए चल पड़ते हैं।

देशबन्धु में 05 नवंबर 2015 को प्रकाशित