Friday, 13 November 2015

कहानी के सौ साल

 इस साल 'उसने कहा था' का प्रकाशन हुए पूरे सौ साल बीत चुके हैं। यह वर्ष भीष्म साहनी की जन्मशती का भी है। इसके अलावा कहानी पत्रिका के उस विशेषांक को भी साठ साल हो गए हैं, जिसमें 'चीफ की दावत' सहित अनेक वे कहानियां छपी थीं, जिनसे कहानी विधा में एक नए युग का सूत्रपात माना गया था। जैसा कि साहित्य का हर विद्यार्थी जानता है, पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने मात्र तीन कहानियां लिखी थीं- उसने कहा था, सुखमय जीवन व बुद्धू का कांटा। मात्र इनके बल पर वे सिद्धहस्त कथाकार कहलाए। 'उसने कहा था' को तो अमर कथा का दर्जा प्राप्त हो चुका है। आज एक शताब्दी बाद भी उसे पढ़ा जाता है और पढ़ते हुए यही लगता है मानो वह आज की ही कहानी है। उसने कहा था को हिन्दी की पहिली मुकम्मल एवं आधुनिक कहानी मान जाए तो गलत नहीं होगा। कथानक, कथोपकथन, चरित्र चित्रण, भाषा, शैली, आरंभ, चरमोत्कर्ष, उपसंहार- विवेचना के हर कोण पर कहानी खरी उतरती है।
गुलेरी जी ने जब कहानी लिखी, तब तक प्रेमचंद भी कथाकार के रूप में अपनी पहिचान बना चुके थे। 'पंच परमेश्वर' कहानी भी 1915 में ही लिखी गई थी। यहां से एक लंबा दौर प्रारंभ होता है, जिसे प्रेमचंद युग की संज्ञा दी जा सकती है। इस दौर में रचे कथा साहित्य को आदर्शवाद, यथार्थोन्मुख आदर्शवाद, यथार्थवाद, प्रगतिवाद जैसी अनेक सरणियों में समीक्षकों ने निबद्ध किया। श्रीपतराय द्वारा संचालित-संपादित 'कहानी' के उक्त विशेषांक तक यह दौर चलता रहा। इस युग में पं. सुदर्शन, शिवपूजन सहाय, जैनेन्द्र, यशपाल, विशंभरनाथ शर्मा कौशिक, सुभद्राकुमारी चौहान, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा इत्यादि अनेक कथाकारों ने ख्याति प्राप्त की, लेकिन न तो उन्होंने किसी नए आंदोलन को प्रारंभ किया और न किसी नवयुग का सूत्रपात। 1955 में कहानी का विशेषांक आने के साथ दृश्य परिवर्तन हुआ। कहानी का स्थान अब नई कहानी ने ले लिया। नई कहानियां नाम से एक नई पत्रिका भी प्रारंभ हो गई। कहानी के विशेषांक के समय से मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, भैरव प्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय, अमरकांत, निर्मल वर्मा, शेखर जोशी, धर्मवीर भारती, आनंद प्रकाश जैन, कमल जोशी, रामकुमार, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा आदि कथा क्षितिज पर एक नई आभा बिखेरते हुए उदित हुए तथा नई कहानियां पत्रिका इनमें से अनेक को आगे ले जाने का वाहन बनी। नई कहानी के इस दौर में ही ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह इत्यादि कथाकार भी प्रकाश में आए।
कहानी पत्रिका ने एक युगांतकारी भूमिका निभाई। उसके बाद वह नए सिरे से नए लेखकों की पहिचान देने में सक्रिय हो गई। सन् साठ के दशक में कितने ही नए कहानीकार इस माध्यम से सामने आए। कुछ के नाम याद आते हैं- प्रबोध कुमार, ओमप्रकाश मेहरा, ममता कालिया, रवींद्र कालिया, रामनारायण शुक्ल, रमेश बक्षी, सतीश जमाली, देवेन्दु, नीलकांत, प्रकाश बाथम, निरुपमा सेवती इत्यादि। मैं कुछ अन्य पत्रिकाओं का भी उल्लेख यहां करना चाहूंगा। साठ के दशक में तब के कलकत्ता से कथाकार छेदीलाल गुप्त एवं उनके साथियों ने सुप्रभात नामक कथा पत्रिका निकाली। आगरा से भी नीहारिका शीर्षक से एक पत्रिका प्रारंभ हुई। मेरठ से छपने वाली अरुण ने अपना अलग स्थान बनाया जिसमें उर्दू और मराठी कहानियों के अनुवाद मुख्यत: छपते थे। फ्रिक तौसवीं, शौकत थानवी, ना.सी. फड़के, पु.ल. देशपांडे आदि की रचनाएं सर्वप्रथम इस पत्रिका में ही पढ़ीं। साठ का दशक जब विदा लेने को था, लगभग उसी समय महीप सिंह, मनहर चौहान व कुछ अन्य मित्रों ने मिलकर न सिर्फ सचेतन कहानी आंदोलन चलाया, बल्कि सचेतन कहानी नामक पत्रिका भी प्रारंभ की। यह शायद हिन्दी कहानी में चलाया गया पहिला आंदोलन था। यद्यपि यह लंबे समय तक नहीं चल पाया।
कथा जगत में इसके पश्चात दो अन्य आंदोलनों का ध्यान मुझे आता है। दोनों के प्रणेता कमलेश्वर थे। एक तो उन्होंने समानांतर कहानी आंदोलन (जो अल्पजीवी सिद्ध हुआ) प्रारंभ किया; दूसरे सारिका का संपादन करते हुए उन्होंने जहां एक ओर हिन्दी गज़ल को प्रतिष्ठित किया, वहीं उन्होंने लघु कथा को एक स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित करने की चेष्टा की। कहना न होगा कि दोनों विधाएं खूब फल-फूल रही हैं। इस बीच धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, ज्ञानोदय इत्यादि पत्रिकाओं ने पाठकों को अनेक कथाकारों की कृतियों से परिचित होने का अवसर दिया। शिवानी व मालती जोशी को जो लोकप्रियता हासिल हुई, उसमें दोनों बहुप्रसारित साप्ताहिकों की भूमिका को स्मरण करना चाहिए। ज्ञानोदय ने भी एक प्रयोग किया- सहयोगी उपन्यास प्रकाशित करने का। पहिले ग्यारह सपनों का देश छपा और फिर एक इंच मुस्कान।
बहरहाल, कहानी को एक नया मोड़ मिला, राजेन्द्र यादव के संपादन में पुनर्प्रकाशित 'हंस' से। आज जितने भी प्रमुख कथाशिल्पी हैं, उनमें से शायद ही कोई ऐसा हो जो हंस में न छपा हो। राजेन्द्र जी ने हंस में स्त्री-विमर्श एवं दलित-विमर्श की खूब सोच-समझकर शुरूआत की तथा उससे न सिर्फ कथा साहित्य में, बल्कि समूचे हिन्दी जगत में एक नई चेतना का प्रसार हुआ। उन्होंने अपने ढंग से साहित्य के सामाजिक दायित्व एवं सोद्देश्यता को परिभाषित किया। राजेन्द्र यादव ने इस तरह हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा।
इस वृहत्तर पृष्ठभूमि में 'अक्षर पर्व' का उत्सव अंक कहानी विशेषांक के रूप में आपके सम्मुख है। इसकी भूमिका छह साल पहिले बनी थी, जब 2009 में हमने कविता विशेषांक प्रकाशित किया था। किसी न किसी कारण से योजना टलती चली गई। अब जाकर इस विचार को मूर्त रूप मिल सका है। वैसे भी कविता विशेषांक के बाद कहानी विशेषांक की योजना बनना लाजिमी था, लेकिन अक्षर पर्व का यह अंक 2009 की ही भांति सामान्य तौर से प्रकाशित होने वाले विशेषांकों से एक मायने में बिल्कुल भिन्न है। इसमें सिर्फ वे ही रचनाएं ली गई हैं जो अक्षर पर्व में पूर्व में प्रकाशित हो चुकी हैं। एक तरह से यह हमारा अपना विहंगावलोकन है। दूसरे, ये सारी रचनाएं नई सदी के मोड़ पर लिखी गई हैं, याने 2000 के 4-5 साल पहिले या 10-15 साल बाद तक। अर्थात् गत दो दशक की अवधि में हिन्दी कथा साहित्य की जो दशा-दिशा रही है, उसकी एक आंशिक झलक यहां संकलित रचनाओं से मिल सकती है।
इस अंक के लिए रचनाओं का चयन करना मेरे लिए एक दुष्कर दायित्व था। 1997 से लेकर हाल-हाल तक प्रकाशित छह सौ से अधिक कहानियों में से किसे लें और किसे छोड़ें, यह प्रश्न सामने था। माथापच्ची के बाद पहिला निर्णय यही लिया कि अंक में अनूदित रचनाएं शामिल न की जाएं। इसके बाद उपन्यासिकाओं एवं उपन्यास अंशों को भी छोडऩे की बात तय की। ये दोनों निर्णय अनिच्छा से ही लिए। फिर यह बात उठी कि भीष्मजी सहित अनेक ज्येष्ठ कथाकारों की जो रचनाएं समय-समय पर प्रकाशित हुई हैं, उनमें से चयन कैसे हो। पुराने अंकों के पन्ने पलटते हुए मुझे इनकी जो कहानी एकबारगी जम गई, वह रख ली। स्थानाभाव के कारण अक्षर पर्व में प्रकाशित उनकी सारी कहानियां लेना तो संभव नहीं था न। अन्य सहयोगी लेखकों की कहानियों को दुबारा पढ़ते हुए कथावस्तु की विविधता को ध्यान में रखकर चयन करने का प्रयत्न किया ताकि एक कोलाज़ की शक्ल में वर्तमान समय की सच्चाइयां भरसक सामने आ सकें। इस तरह कहानी विशेषांक में एक ओर ज्येष्ठ लेखकों की रचनाएं हैं तो दूसरी ओर उन लेखकों की भी जिनसे पाठक शायद बहुत अच्छी तरह परिचित नहीं हैं। चयन में जहां कथावस्तु को प्राथमिकता दी है, वहीं यह प्रयास भी किया है कि भाषा व शैली में जो विविधता एवं नवाचार है, वह भी यथासंभव प्रकट हो सके।
अक्षर पर्व मुख्यत: कहानी की पत्रिका नहीं है। यह दायित्व कुछ अन्य पत्रिकाएं लम्बे समय से बखूबी निभा रही हैं। उनमें कहानी कला को लेकर निरंतर विमर्श और आलोचनाएं चलती रहती हैं, फिर भी अक्षर पर्व में जो कथा साहित्य प्रकाशित हुआ है वह अपने समय का दस्तावेज है। विगत तीस वर्षों में भारत के सामाजिक परिदृश्य में बहुत से परिवर्तन आए हैं। इसके पीछे जो आर्थिक, राजनीतिक कारण हैं उनसे हम अनभिज्ञ नहीं हैं। आज का कहानी लेखक इन परिवर्तनों को खुली आंखों से देख रहा है। आम नागरिक के जीवन में निजी और सामाजिक दोनों स्तरों पर जो प्रभाव पड़ा है वह कथाकार से छुपा हुआ नहीं है। इस संक्रमण काल की बेचैनी और छटपटाहट विभिन्न स्तरों पर कहानियों में बखूबी चित्रित हुई है।  मेरा विश्वास है यहां प्रकाशित कहानियों से एक बार गुजरने के बाद पाठक इस बात से सहमत होंगे।
पत्रिका के एक अंक में, भले ही वह विशेषांक क्यों न हो, सीमित स्थान के चलते रचनाओं की संख्या भी सीमित ही होगी। इसीलिए हमने तय किया है कि प्रस्तुत अंक कहानी विशेषांक का खंड-एक होगा तथा दिसंबर अंक खंड-दो के रूप में प्रकाशित किया जाएगा। आशा है कि हमेशा की तरह इस अंक का भी पाठक जगत में स्वागत होगा। अंत में सुधी पाठकों से क्षमा याचना कि याददाश्त के बल पर लिखी इस प्रस्तावना में कोई महत्वपूर्ण नाम छूटने की और अन्य गलतियां हो सकती हैं।
अक्षर पर्व नवंबर 2015 अंक की प्रस्तावना

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