हमारी चुनाव प्रणाली में जिसे सबसे ज्यादा वोट मिले वह जीत जाता है। इसमें वोट प्रतिशत की बात गौण हो जाती है। जब जीतने वाली पार्टी का वोट प्रतिशत आधे से कम हो तथा उससे सबक लेकर सारे विपक्षी एकजुट हो जाएं तो यही तत्व अपने आप महत्वपूर्ण हो जाता है। अतीत में हमने देखा है कि जब-जब गैरकांग्रेसी दल एकजुट हुए हैं कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा। इस बार बिहार में भाजपा-विरोधी तीन दल एकजुट हो गए तो समीकरण बदल गए और भाजपा के हिस्से ऐसी शोचनीय पराजय आई। भाजपा ने महागठबंधन को तोडऩेेे और कमजोर करने में अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं रखी। उसने जदयू के दागी नेताओं को टिकट दिए, दलबदल को बढ़ावा दिया, ओवैसी को प्रच्छन्न समर्थन दिया, मुलायम सिंह के साथ भी गुपचुप दोस्ती की लेकिन उसकी कोई भी युक्ति कारगर नहीं हो सकी।
महागठबंधन ने जो शानदार जीत हासिल की है उसका सबसे बड़ा श्रेय तीनों पार्टियों के नेताओं को जाता है, जिन्होंने अपनी एकता में कोई दरार नहीं आने दी और चुनाव की लंबी प्रक्रिया के दौरान किसी भी तरह की बदमज़गी उत्पन्न नहीं होने दी। लालू प्रसाद और नीतीश कुमार दोनों पुराने साथी और मित्र रहे हैं इसलिए उनके दुबारा एक साथ आने में कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं थी। इसमें तीसरे दल के रूप में कांग्रेस की जो सकारात्मक भूमिका रही उसका श्रेय राहुल गांधी को देना ही होगा, जिन्होंने चुनाव के बहुत पहले नीतीश कुमार से बात कर साथ-साथ चलने का मंतव्य प्रकट कर दिया था। उसका जो लाभ कांग्रेस को मिला है वह सामने है। यह उल्लेखनीय है कि न सिर्फ भाजपा बल्कि अनेक टीकाकारों द्वारा बार-बार कहा जाता रहा कि लालू प्रसाद का साथ लेने से नीतीश कुमार को नुकसान होगा, ऐसी सारी भविष्यवाणी निरर्थक सिद्ध हुई।
आज सुबह से टीवी पर जो बहसें आ रही हैं उसमें भी लालू बनाम नीतीश का बखेड़ा उत्पन्न करने की कोशिशें हो रही हैं। ऐसे लोग खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे की कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। यह स्पष्ट है कि नीतीश कुमार तीसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। जदयू को राजद के मुकाबले तीन-चार सीटें भले ही कम मिली हों, लेकिन उससे कोई फर्क पडऩे वाला नहीं है। हम अतीत के अनुभव से जानते हैं कि लालू जी ने कांग्रेस का साथ दिया तो उसे पूरी तरह निभाया। वे नीतीश के साथ भी दोस्ती निभाएंगे इसमें कोई शक नहीं है। कुल मिलाकर महागठबंधन ने जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शक्तियों को एकजुट होकर चलने का रास्ता प्रशस्त किया है और देश के संविधान की रक्षा के लिए इस समीकरण का बने रहना परम आवश्यक है।
भारतीय जनता पार्टी ने बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान और उसके व्यापक परिदृश्य में जिस तरह की राजनीति की, जैसी प्रवृत्तियों को बढ़ाया दिया और जैसी भाषा का प्रयोग किया उससे आम जनता के भीतर गहरी असुरक्षा का भाव पनप रहा था तथा नरेन्द्र मोदी की क्षमता पर भी सवाल उठने लगे थे। सोचकर देखिए कि चुनावों के दौरान श्री मोदी ने बिहार में बत्तीस आम सभाएं कीं। आज तक किसी भी प्रधानमंत्री ने किसी प्रदेश के चुनाव में इतनी दिलचस्पी नहीं दिखाई। फिर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह बिहार में पैंतालीस दिन तक डेरा डाले रहे। केन्द्र में इस प्रदेश से आधे दर्जन मंत्री तो पहले से हैं। फिर भी दर्जन भर और मंत्रियों की ड्यूटी चुनाव में लगा दी गई। ऐसा माहौल खड़ा किया गया मानो नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री का चुनाव लड़ रहे हों। मतदाताओं ने इस रवैय्ये को पसंद नहीं किया।
यही नहीं, श्री मोदी ने चुनाव अभियान के प्रारंभ में ही बिहार के डीएनए की बात उठा दी। प्रधानमंत्री से ऐसी असंयत भाषा की उम्मीद नहीं की जाती थी। फिर उन्होंने पैकेज देने की बात कुछ इस अंदाज में की मानो जनता पर अहसान कर रहे हों। प्रदेश के खुद्दार मतदाताओं ने इसे भी अपना अपमान ही माना। फिर दिल्ली के पास दादरी से लेकर मुंबई तक जो दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं घटित हुईं उनका भी कोई संज्ञान लेना मोदी सरकार ने उचित नहीं समझा तथा आम जनता के मन में यही बात आई कि यह बिहार चुनाव के समय साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण व बहुमतवाद तैयार करने की कोशिश ही है। लेखकों, कलाकारों द्वारा पुरस्कार व सम्मान लौटाने पर भी उनकी बात को समझने की कोशिश करने की बजाय उल्टे उन पर अनर्गल आरोप जडऩे व टिप्पणियां करने का जो काम भाजपा के मंत्रियों व नेताओं ने किया उसे भी बिहार की राजनीतिक चेतना से लैस प्रबुद्ध मतदाताओं ने स्वीकार नहीं किया।
इस वृहत्तर पृष्ठभूमि में यह भी याद रखने की आवश्यकता है कि आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार अब तक कोई कमाल नहीं कर पाई है। दाल और प्याज की कीमतें जिस तरह बढ़ी हैं उससे हर नागरिक परेशान और चिंतित है। जो स्वदेशी उद्योगपति नरेन्द्र मोदी के अंधसमर्थक थे उनका भी मोह भंग होने लगा है जो अभी नारायण मूर्ति व किरण मजूमदार शॉ के वक्तव्यों से प्रकट हुआ। जिन विदेशी उद्यमियों व निवेशकों ने नरेन्द्र मोदी पर दांव लगाया था वे भी स्वयं को ठगा गया महसूस कर रहे हैं। रेटिंग एजेंसी मूडी की रिपोर्ट चावल का दाना है। विदेश नीति में इस सरकार की असफलता अब दिखाई देने लगी है। नेपाल के साथ संबंध बिगड़ते हैं तो उसका सबसे पहले प्रभाव बिहार पर ही पड़ता है। इस बात को सरकार ने सही ढंग से नहीं समझा। अब जानकार लोग कहने लगे हैं कि अगर विश्व बाजार में तेल की कीमतें न गिरी होतीं तो भारत की अर्थव्यवस्था का न जाने क्या हाल होता।
ऐसी और बहुत सी बातें हैं जो जनता के मन में उमड़-घुमड़ रही हैं। अगर नरेन्द्र मोदी अपने आपको एक सफल प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं तो सबसे पहले उन्हें गुजरात का मुख्यमंत्री होने की मानसिकता से निकलना होगा। उन्हें संघ का स्वयंसेवक होने का गर्व भी छोडऩा होगा। आखिरी बात अमित शाह को नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए तत्काल अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए।
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