Sunday, 15 November 2015

पेरिस पर हमला


 इस्लामिक स्टेट या आईएस ने पेरिस पर आतंकी हमला कर एक बार फिर अपनेे नृशंस, विचारहीन और अमानवीय चरित्र का परिचय दिया है। आईएस के इस दुष्कृत्य की जितनी भी भर्त्सना की जाए कम है। पेरिस के पूर्व आईएस ने इजिप्ट के आकाश पर सोवियत विमान मार गिराने की जिम्मेदारी ली थी। पश्चिम एशिया में वह इस तरह के अनेक क्रूर आक्रमणों को पहले भी अंजाम दे चुका है। इस्लाम के नाम पर दुनिया के बड़े हिस्से में हिंसा और दहशत का माहौल बनाने वाला इस्लामिक स्टेट पहला संगठन नहीं है। पिछले तीन दशक में मुजाहिदीन, तालिबान, लश्कर-ए-तोयबा, अलकायदा, बोको हराम इत्यादि संगठनों की करतूतें विश्व समाज ने देखी और भोगी हैं। इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे अमानुषिक कृत्यों का पुरजोर विरोध होना चाहिए तथा इन्हें जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए हर संभव उपाय किए जाना चाहिए। यह काम कैसे हो? इक्कीसवीं सदी के विश्व को जो किसी अतीत की गुफा में ले जाना चाहते हों उनकी मानसिकता क्या है? वे प्रेरणा कहां से पाते हैं? अपने हिंसक इरादों को अमल में लाने के लिए उन्हें हथियार और रसद कहां से मिलते हैं? उनके शरणस्थल कहां हैं? उनका प्रशिक्षण कहां होता है? वे कौन सी ताकतें हैं जो उन्हें उकसा रही हैं? इन सब बातों को जाने बिना आईएस और उस जैसे अन्य संगठनों से कैसे लड़ा जाए?

कनाडा में बसे तारीक फतह जैसे इस्लामी अध्येता कहते हैं कि इस्लाम के प्रादुर्भाव के साथ ही कट्टरपंथ और जिहादी मानसिकता की शुरुआत हो गई थी। निर्वासित लेखिका अयान हिरसी अली जैसी अध्येता कहती हैं कि यह मक्का इस्लाम और मदीना इस्लाम के बीच के द्वंद्व से उपजा माहौल है। प्रसिद्ध पत्रकार बर्नाड लेविन इस्लाम को एक जिहादी धर्म के रूप में ही देखते हैं। तस्लीमा नसरीन जिन्हें लज्जा उपन्यास लिखने के कारण निर्वासन भोगना पड़ा, वे भी समय-समय पर ऐसे ही विचार प्रकट करती हैं। इन सबने इस्लाम धर्म का गहन अध्ययन किया है और निजी अनुभवों के साक्ष्य भी इनके पास हैं। अत: मानना होगा कि ये जो कह रहे हैं उसमें सत्य का अंश है तथा इनके विचारों को हल्के में खारिज नहीं किया जा सकता। फिर भी इनसे तस्वीर का एक पहलू ही हमारे सामने आता है। क्या इसका कोई दूसरा पक्ष भी है? अगर किसी विषय पर कुछ ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं भी तो क्या उन्हें वर्तमान समय पर ज्यों का त्यों आरोपित किया जा सकता है? क्या वर्तमान में ऐसे कोई कारक तत्व नहीं हो सकते जिन्होंने आज के दृश्य को प्रभावित किया है? ऐसे तत्व क्या हैं और क्या उनका ईमानदारी से विश्लेषण करने की कोई कोशिश की गई है?

एक तो इस तथ्य पर गौर करना चाहिए कि दुनिया में धर्म के नाम पर राष्ट्रों का निर्माण कब कैसे हुआ। इतिहास में बहुत पीछे न जाकर बीसवीं सदी की ही बात करें तो ऐसा क्यों हुआ कि लगभग एक ही समय में धर्म पर आधारित दो देशों का उदय हुआ। मैं इस बात को कुछ सप्ताह पूर्व लिख चुका हूं कि इस्लाम पर आधारित पाकिस्तान और यहूदी धर्म पर आधारित इजरायल दोनों की स्थापना द्वितीय विश्व युद्ध के तुरंत बाद हुई। इनके निर्माण की पृष्ठभूमि क्या थी? पाकिस्तान के बारे में भारतवासी बहुत कुछ जानते हैं। वे ये भी जान लें कि इजरायल की स्थापना में भी उन्हीं साम्राज्यवादी पश्चिमी ताकतों का हाथ था। हिन्दी में इस विषय पर बहुत कम लिखा गया है, लेकिन जिज्ञासु पाठक महेन्द्र कुमार मिश्र की पुस्तक ''फिलस्तीन और अरब इसराइल संघर्ष" पढ़ सकते हैं। अंग्रेजी समझने वाले पाठक गीता हरिहरन द्वारा संपादित पुस्तक ''फ्रॉम इंडिया टू पैलेस्टाइन : एसेज़ इन सॉलीडरीटी"  पढ़ सकते हैं। इस्लाम की एक गंभीर अध्येता करेन आर्मस्ट्रांग ने इस विषय पर अनेक पुस्तकें लिखी हैं। उनका मानना है कि धर्म के नाम पर जितना खून- खराबा हुआ है उससे कई गुना अधिक हिंसा दूसरे कारणों से हुई है जिनमें एक कारण जनतंत्र की रक्षा करना भी है।

आज इस्लाम के नाम पर हो रही हिंसा के एक के बाद एक प्रकरण सामने आ रहे हैं, लेकिन क्या वाकई इस्लाम में कट्टरता के तत्व स्थापना काल से मौजूद रहे हैं? हम इतिहास में जिन दुर्दम्य आक्रांताओं के बारे में पढ़ते हैं मसलन चंगेज खां, वह और उस जैसे अनेक इस्लाम के अनुयायी नहीं थे। विश्व विजय का सपना लेकर निकला सिकंदर न यहूदी था न मुसलमान न ईसाई। हिटलर, मुसोलिनी, फ्रांको, सालाजार इत्यादि भी इस्लाम को मानने वाले नहीं थे। तुर्की के राष्ट्रपिता कमाल अतातुर्क ने तो बीसवीं सदी के प्रारंभिक समय में खिलाफत को चुनौती देकर एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की स्थापना की थी।  इजिप्त के नासिर और इंडोनेशिया के सुकार्णों ने भी धर्मनिरपेक्षता की नींव पर अपने नवस्वतंत्र देशों को खड़ा करने का उपक्रम किया था।

यह पूछना चाहिए कि सुकार्णों को अपदस्थ कर सुहार्तों को लाने में किसका हाथ था और नासिर बेहतर थे या उनके बाद बने राष्ट्रपति अनवर सादात। पश्चिम एशिया के अनेक देशों में से ऐसे अनेक सत्ताधीश हुए जो अपने को बाथिस्ट कहते थे और जो धार्मिक कट्टरता से बिल्कुल दूर थे। इराक में बाथिस्ट पार्टी को हटाकर सद्दाम हुसैन भले ही सत्ता में आए हों, लेकिन उनके विदेश मंत्री ईसाई थे और उनके इराक में धार्मिक असहिष्णुता नहीं थी; यही बात सीरिया के बारे में कही जा सकती है। लेबनान में तो ईसाई और इस्लामी दोनों बारी-बारी से राज करते रहे। हम अपने पड़ोस में बंगलादेश को ले सकते हैं। अमेरिकन राष्ट्रपति निक्सन ने बंगलादेश में जनतांत्रिक शक्तियों के उभार पर कोई ध्यान नहीं दिया व तानाशाह याह्या खान का समर्थन करते रहे।  बंगलादेश बन जाने के बाद मुजीबुर्ररहमान ने धर्मनिरपेक्षता का रास्ता अपनाया और आज उनकी बेटी शेख हसीना भी उसी रास्ते पर चल रही है।

आज इस्लामिक स्टेट के नाम पर जो दहशत का भयानक मंजर छाया हुआ है उसका प्रणेता कौन है? ऐसी खबरें लंबे समय से आ रही हैं कि आईएस को नवपूंजीवादी, नवसाम्राज्यवादी ताकतों ने ही खड़ा किया ताकि सीरिया और ईरान आदि में सत्ता पलट किया जा सके। इसके पहले अफगानिस्तान और इराक में तो अमेरिका और उसके पिठ्ठू कब्जा कर ही चुके हैं। इजिप्त और ट्युनिशिया में अरब-बसंत के नाम पर जो आंदोलन खड़े हुए थे उनका भी मकसद यही था। एक समय महाप्रतापी इंग्लैंड ने अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड तक अपने उपनिवेश कायम किए। आज अमेरिका उसी मिशन को आगे बढ़ा रहा है। इसीलिए जब रूस, सीरिया व ईरान का साथ देता है तो यह अमेरिका व उसके साथियों को नागवार गुजरता है। इस प्रकट विडंबना की ओर भी ध्यान जाना चाहिए कि अमेरिका ने आज तक सऊदी अरब के खिलाफ कभी कोई कदम नहीं उठाया। जबकि सऊदी नागरिक ओसामा बिन लादेन को अपने कुटिल खेल में मोहरा बनाकर शामिल किया। इस्लामी जगत में सर्वाधिक कट्टरता अगर कहीं है तो वह सऊदी अरब में है। औरतों की स्वाधीनता पर सर्वाधिक प्रतिबंध भी तो वहीं है। जिहाद के लिए मुख्यत: पैसा वहीं से भेजा जाता है और वहां के शासकों की अय्याशी के किस्से मशहूर हैं। आशय यह कि इन तमाम बातों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है। तात्कालिक प्रतिक्रियाओं से हल नहीं निकलेगा। जब तक आईएस की पीठ पर हाथ रखने वालों का विरोध नहीं होगा तब तक इस गंभीर चुनौती का सामना नहीं हो पाएगा। बंगलादेश में मार डाले गए ब्लॉगर पत्रकारों सहित अनेक ऐसे इस्लामी बुद्धिजीवी हैं जो कट्टरपंथ व जड़वाद का विरोध तमाम खतरे उठाकर भी कर रहे हैं। शेष विश्व को इनके समर्थन में खड़ा होने से मुकाबला करना आसान होगा।
देशबन्धु में 16 नवंबर 2015 को प्रकाशित विशेष सम्पादकीय

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