मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया और अब स्टार्ट अप इंडिया। ऐसा लगता है मानो भारत पूरी तरह से इंडिया बनकर ही दम लेगा। यह वर्तमान समय की भारी विडंबना है कि एक स्वतंत्र सार्वभौम देश अपनी तमाम भाषाओं को भूलकर उस भाषा पर फिदा हुए जा रहा है जो भारत को अपना उपनिवेश बना लेने वालों की भाषा थी। हमें अंग्रेजी भाषा से कोई एतराज नहीं है बल्कि उस भाषा के समृद्ध साहित्य को हम विश्व धरोहर मानते हैं। किन्तु जब वही भाषा देश को दो वर्गों में बांटने का औजार बन जाए तो चिंता होना स्वाभाविक है। यह विडंबना उस समय और गहरी हो जाती है जब हम देखते हैं कि जो राजनीतिक वर्ग बात-बात में मैकाले को धिक्कारता था आज उसी के शासनकाल में उपरोक्त नामकरण हो रहे हैं। हमें यह देखकर कौतुक भी होता है कि मोदीराज आने के बाद जो लोग संस्कृत का गुणगान करने से नहीं थकते थे आज उन उत्साहियों को कहीं कोई भाव नहीं मिल रहा।
इन दिनों आप यदि अखबारों को देखें और उनमें छपी सरकारी विज्ञप्तियों को तो ऐसी कितनी ही संक्षिप्त संज्ञाओं से आप रूबरू हो सकते हैं। जो पत्रकार इन समाचारों को बनाते हैं वे भी नहीं जानते कि इनका अर्थ और प्रयोजन क्या है। कहने का आशय यह कि भाषा जिसका प्रमुख काम संवाद स्थापित करना है, लोगों के बीच आपसी समझ बढ़ाना है, वही भाषा वर्ग विभेद पैदा करने का कारक बनते जा रही है। सच तो यह है कि इस देश का शासक वर्ग यही चाहता है। यहां शासक वर्ग से हमारा आशय मुख्यत: नौकरशाहों से है। यह भी एक विपर्यय है कि भारत में जनतांत्रिक राजनीति का जैसे-जैसे विकास हो रहा है वैसे-वैसे ही सत्तातंत्र पर नौकरशाही का शिकंजा और मजबूत होते जा रहा है। आज की राजनीति तात्कालिक लाभ पर केन्द्रित हो गई है और उसमें लोभी, लालची राजनेताओं का मार्गदर्शन चतुर, चालाक नौकरशाह करने लगे हैं। ये भी खुश, वे भी खुश। नौकरशाहों को जनता से कोई लेना-देना नहीं और जिन्हें जनता से लेना-देना है वे पांच साल का लाइसेंस लेकर मदमत्त हुए चलते हैं।
देश के प्रधानमंत्री भाषण देने की कला में निष्णात हैं। कभी-कभी लगता है कि अगर वे अभिनय जगत में गए होते तो वहां उनसे बढ़कर प्रतिभाशाली कोई और सिद्ध न होता। प्रधानमंत्री पिछले दो साल से लगातार चुनावी मनोदशा में ही हैं। वे देश-विदेश में कहीं भी पुरानी सरकार की खिल्ली उड़ाने से बाज नहीं आते। उन्होंने चुनाव के पूर्व बड़ी-बड़ी घोषणाएं की थीं, लेकिन अब वे जनता से समय मांगने लगे हैं। दिल्ली के सिंहासन पर बैठकर उन्हें देश की वास्तविकताओं का अनुमान कुछ बेहतर तरीके से लग रहा होगा। इसके बावजूद उनकी सरकार का जैसा कामकाज चल रहा है उसे देखकर कई बार ऐसी शंका होती है कि उनके हाथ-पैर बंधे हुए हैं। वे संघ परिवार के गणों द्वारा जनतांत्रिक मूल्यों की निरंतर हो रही हत्या पर मौन साधे रहते हैं। दूसरी ओर वे जो कार्यक्रम और योजनाएं दे रहे हैं उनमें से अधिकतर बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा पूंजी बाजार द्वारा प्रवर्तित की गई प्रतीत होती हैं। इस तरह दोनों तरफ से देश में वर्गभेद लगातार पनप रहा है।
यूपीए के दौरान भाजपा द्वारा कांग्रेस का बहुत उपहास किया जाता था। यह कहा जाता था कि मनमोहन सिंह कठपुतली प्रधानमंत्री हैं जबकि सत्ता के वास्तविक सूत्र श्रीमती सोनिया गांधी के हाथों केन्द्रित है। कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगाना तो मानो फैशन ही बन गया था और है। फिर भी उस दौर के टीवी पर अनगिनत दृश्य दर्शकों को स्मरण होंगे कि सोनिया गांधी ने डॉ. मनमोहन सिंह के साथ शिष्टाचार बरतने में हमेशा आवश्यक सावधानी बरती। उन्हें जब भी बात करना हुई तो वे स्वयं प्रधानमंत्री निवास तक गईं तथा पार्टी कार्यकारिणी की बैठक के अलावा कभी भी उन्होंने मुख्य आसंदी ग्रहण नहीं की। लेकिन इस सरकार में क्या हो रहा है यह लोग दैनंदिन देख रहे हैं। संघ कार्यालय से बुलावा आता है और बड़े-बड़े मंत्री वहां हाजिरी लगाने पहुंच जाते हैं। पिछले दिनों स्वयं प्रधानमंत्री को संघ प्रमुख मोहन भागवत के सामने उपस्थित होना पड़ा। संघ को ऐसे शक्ति प्रदर्शन की क्या आवश्यकता थी और क्या इससे प्रधानमंत्री के लिए नियत शिष्टाचार (प्रोटोकाल) का उल्लंघन नहीं हुआ?
इसी तरह पिछले दिनों प्रधानमंत्री अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान फेसबुक के कार्पोरेट दफ्तर में गए। यह बात भी कुछ समझ नहीं पड़ी। प्रधानमंत्री की भेंट यात्रा उन दिनों हुई जब भारत में भी नेट निरपेक्षता पर गर्मागरम बहस छिड़ी हुई है। यह तथ्य सामने आया है कि फेसबुक के मालिक मार्क ज़ूकरबर्ग नेट निरपेक्षता की अवधारणा को सिरे से खत्म कर एकाधिकार स्थापित करने के प्रयत्नों में जुटे हुए हैं। किसी भी देश के शासन प्रमुख को ऐसे मामलों में सतर्क व सावधान रहकर ही दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाना चाहिए। फेसबुक भारत में पहले से ही अच्छा खासा व्यवसाय कर रही है, लेकिन वह हमारे यहां नेट आधारित सेवाओं पर एकाधिकार जमाना चाहे तो उसका समर्थन कैसा किया जा सकता है तथा उसमें प्रधानमंत्री की परोक्ष सहमति का लेशमात्र संदेह भी क्यों हो? अभी प्रधानमंत्री ने एक के बाद एक जो योजनाएं शुरु की हैं उनमें से भी कुछ के बारे में यह प्रश्न उठता है कि क्या इनसे सचमुच देश का विकास होगा व इनका असली मकसद क्या है?
स्टार्ट अप इंडिया एक ऐसा ही कार्यक्रम है जिसको लेकर मैं बहुत आश्वस्त नहीं हूं। एक तो इस योजना का लाभ मुख्यरूप से देश के अभिजात शिक्षण संस्थानों यथा आईआईटी अथवा आईआईएम से निकले युवा ही उठा पाएंगे। दूसरे, निजी क्षेत्र के निवेशक पहले से यह काम कर रहे हैं। सरकार को उसमें जाने की आवश्यकता नहीं थी। तीसरे, इसमें रोजगार के बहुत अधिक अवसर पैदा होने की गुंजाइश नहीं दिखती। दूसरे शब्दों में भारत के उन अधिसंख्यक युवाओं के लिए स्टार्ट अप इंडिया का कोई मतलब नहीं है जो अपने प्रदेश के किसी सामान्य विश्वविद्यालय की डिग्री हाथ में लिए रोजगार तलाश रहे हैं और जो दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी तक बन जाने का अवसर पाने के लिए मारे-मारे यहां से वहां फिरते हैं। आप कहेंगे कि इनके लिए मुद्रा बैंक है तो फिर उन बैंक मैनेजरों से जाकर पूछिए जो इन्हें ऋण देने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं। मतलब फिर वही खाई बढऩे की आशंका यहां भी है।
हमारी राय में तो स्टार्ट अप शब्द ही अपने आप में भ्रामक है। वह भले ही दुनिया के किसी भी देश में लागू हो। प्रतिभाशाली युवाओं को अपना व्यवसाय खड़ा करने के लिए अपने संपर्कों के बल पर पूंजी जुटाना मुश्किल नहीं होता। यद्यपि कुछेक ऐसे भी होते हैं जो अपनी ज़िद और लगन के बल पर व्यवसाय स्थापित कर लेते हैं। लेकिन बाद में क्या होता है? विश्व का पूंजी बाजार एकाधिकार को बढ़ावा देता है। एक दिन बड़ी मछली छोटी मछली को निगल लेती है। स्टार्ट अप के अनेक प्रसंगों में हमने इसे देखा है। पूंजीवाद के इस खेल पर विस्तार में फिर कभी बात करेंगे। आज जब गणतंत्र के छैंसठ साल पूरे कर सड़सठवें वर्ष में कदम रखा है तब हमें उन शक्तियों से और उस भाषा से सावधान रहने की आवश्यकता है जो समाज में विषमता बढ़ाने का काम करती है।
देशबन्धु में 28 जनवरी 2016 को प्रकाशित