Thursday, 28 January 2016

वर्ग विभेद की भाषा व योजनाएं


 मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया और अब स्टार्ट अप इंडिया। ऐसा लगता है मानो भारत पूरी तरह से इंडिया बनकर ही दम लेगा। यह वर्तमान समय की भारी विडंबना है कि एक स्वतंत्र सार्वभौम देश अपनी तमाम भाषाओं को भूलकर उस भाषा पर फिदा हुए जा रहा है जो भारत को अपना उपनिवेश बना लेने वालों की भाषा थी। हमें अंग्रेजी भाषा से कोई एतराज नहीं है बल्कि उस भाषा के समृद्ध साहित्य को हम विश्व धरोहर मानते हैं। किन्तु जब वही भाषा देश को दो वर्गों में बांटने का औजार बन जाए तो चिंता होना स्वाभाविक है। यह विडंबना उस समय और गहरी हो जाती है जब हम देखते हैं कि जो राजनीतिक वर्ग बात-बात में मैकाले को धिक्कारता था आज उसी के शासनकाल में उपरोक्त नामकरण हो रहे हैं। हमें यह देखकर कौतुक भी होता है कि मोदीराज आने के बाद जो लोग संस्कृत का गुणगान करने से नहीं थकते थे आज उन उत्साहियों को कहीं कोई भाव नहीं मिल रहा।

इस विडंबना का एक और रूप भी है। पिछले दो-तीन दशकों में हमने धीरे-धीरे कर शब्दों के संक्षिप्तिकरण अथवा एक्रोनिम को व्यवहार में लाने का रास्ता चुन लिया है। यह काम स्वाभाविक ढंग से नहीं हुआ है। इस देश के अंग्रेजीदां नौकरशाहों द्वारा जानबूझ कर संस्थाओं, कार्यक्रमों और योजनाओं के नाम इस ढंग से रखे जा रहे हैं कि उनका पूर्णता में प्रयोग संभव ही न हो तथा मजबूर होकर संक्षिप्त संज्ञाओं का उपयोग करना पड़े। इसके कारण तथाकथित रूप से अधिक पढ़े और कम पढ़ों के बीच एक खाई पैदा होते जा रही है। आप देश की अस्सी फीसदी आबादी के सामने कोई योजना लेकर जाते हैं और संक्षिप्त नाम से समझाते हैं। ऐसे में आम नागरिक पूरे नाम से परिचित न होने के कारण उसके उद्देश्य को कभी भी पूरी तरह से समझ नहीं पाता। ये दूसरी बात है कि सुनने में ये नाम लुभावने लगते हैं मसलन नीति आयोग या मुद्रा बैंक।

इन दिनों आप यदि अखबारों को देखें और उनमें छपी सरकारी विज्ञप्तियों को तो ऐसी कितनी ही संक्षिप्त संज्ञाओं से आप रूबरू हो सकते हैं। जो पत्रकार इन समाचारों को बनाते हैं वे भी नहीं जानते कि इनका अर्थ और प्रयोजन क्या है। कहने का आशय यह कि भाषा जिसका प्रमुख काम संवाद स्थापित करना है, लोगों के बीच आपसी समझ बढ़ाना है, वही भाषा वर्ग विभेद पैदा करने का कारक बनते जा रही है। सच तो यह है कि इस देश का शासक वर्ग यही चाहता है। यहां शासक वर्ग से हमारा आशय मुख्यत: नौकरशाहों से है। यह भी एक विपर्यय है कि भारत में जनतांत्रिक राजनीति का जैसे-जैसे विकास हो रहा है वैसे-वैसे ही सत्तातंत्र पर नौकरशाही का शिकंजा और मजबूत होते जा रहा है। आज की राजनीति तात्कालिक लाभ पर केन्द्रित हो गई है और उसमें लोभी, लालची राजनेताओं का मार्गदर्शन चतुर, चालाक नौकरशाह करने लगे हैं। ये भी खुश, वे भी खुश। नौकरशाहों को जनता से कोई लेना-देना नहीं और जिन्हें जनता से लेना-देना है वे पांच साल का लाइसेंस लेकर मदमत्त हुए चलते हैं।

देश के प्रधानमंत्री भाषण देने की कला में निष्णात हैं। कभी-कभी लगता है कि अगर वे अभिनय जगत में गए होते तो वहां उनसे बढ़कर प्रतिभाशाली कोई और सिद्ध न होता। प्रधानमंत्री पिछले दो साल से लगातार चुनावी मनोदशा में ही हैं। वे देश-विदेश में कहीं भी पुरानी सरकार की खिल्ली उड़ाने से बाज नहीं आते।  उन्होंने चुनाव के पूर्व बड़ी-बड़ी घोषणाएं की थीं, लेकिन अब वे जनता से समय मांगने लगे हैं। दिल्ली के सिंहासन पर बैठकर उन्हें देश की वास्तविकताओं का अनुमान कुछ बेहतर तरीके से लग रहा होगा। इसके बावजूद उनकी सरकार का जैसा कामकाज चल रहा है उसे देखकर कई बार ऐसी शंका होती है कि उनके हाथ-पैर बंधे हुए हैं। वे संघ परिवार के गणों द्वारा जनतांत्रिक मूल्यों की निरंतर हो रही हत्या पर मौन साधे रहते हैं। दूसरी ओर वे जो कार्यक्रम और योजनाएं दे रहे हैं उनमें से अधिकतर बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा पूंजी बाजार द्वारा प्रवर्तित की गई प्रतीत होती हैं। इस तरह दोनों तरफ से देश में वर्गभेद लगातार पनप रहा है।

यूपीए के दौरान भाजपा द्वारा कांग्रेस का बहुत उपहास किया जाता था। यह कहा जाता था कि मनमोहन सिंह कठपुतली प्रधानमंत्री हैं जबकि सत्ता के वास्तविक सूत्र श्रीमती सोनिया गांधी के हाथों केन्द्रित है। कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगाना तो मानो फैशन ही बन गया था और है। फिर भी उस दौर के टीवी पर अनगिनत दृश्य दर्शकों को स्मरण होंगे कि सोनिया गांधी ने डॉ. मनमोहन सिंह के साथ शिष्टाचार बरतने में हमेशा आवश्यक सावधानी बरती। उन्हें जब भी बात करना हुई तो वे स्वयं प्रधानमंत्री निवास तक गईं तथा पार्टी कार्यकारिणी की बैठक के अलावा कभी भी उन्होंने मुख्य आसंदी ग्रहण नहीं की। लेकिन इस सरकार में क्या हो रहा है यह लोग दैनंदिन देख रहे हैं। संघ कार्यालय से बुलावा आता है और बड़े-बड़े मंत्री वहां हाजिरी लगाने पहुंच जाते हैं। पिछले दिनों स्वयं प्रधानमंत्री को संघ प्रमुख मोहन भागवत के सामने उपस्थित होना पड़ा। संघ को ऐसे शक्ति प्रदर्शन की क्या आवश्यकता थी और क्या इससे प्रधानमंत्री के लिए नियत शिष्टाचार (प्रोटोकाल) का उल्लंघन नहीं हुआ?

इसी तरह पिछले दिनों प्रधानमंत्री अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान फेसबुक के कार्पोरेट दफ्तर में गए। यह बात भी कुछ समझ नहीं पड़ी। प्रधानमंत्री की भेंट यात्रा उन दिनों हुई जब भारत में भी नेट निरपेक्षता पर गर्मागरम बहस छिड़ी हुई है। यह तथ्य सामने आया है कि फेसबुक के मालिक मार्क ज़ूकरबर्ग नेट निरपेक्षता की अवधारणा को सिरे से खत्म कर एकाधिकार स्थापित करने के प्रयत्नों में जुटे हुए हैं। किसी भी देश के शासन प्रमुख को ऐसे मामलों में सतर्क व सावधान रहकर ही दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाना चाहिए। फेसबुक भारत में पहले से ही अच्छा खासा व्यवसाय कर रही है, लेकिन वह हमारे यहां नेट आधारित सेवाओं पर एकाधिकार जमाना चाहे तो उसका समर्थन कैसा किया जा सकता है तथा उसमें प्रधानमंत्री की परोक्ष सहमति का लेशमात्र संदेह भी क्यों हो? अभी प्रधानमंत्री ने एक के बाद एक जो योजनाएं शुरु की हैं उनमें से भी कुछ के बारे में यह प्रश्न उठता है कि क्या इनसे सचमुच देश का विकास होगा व इनका असली मकसद क्या है?

स्टार्ट अप इंडिया एक ऐसा ही कार्यक्रम है जिसको लेकर मैं बहुत आश्वस्त नहीं हूं। एक तो इस योजना का लाभ मुख्यरूप से देश के अभिजात शिक्षण संस्थानों यथा आईआईटी अथवा आईआईएम से निकले युवा ही उठा पाएंगे। दूसरे, निजी क्षेत्र के निवेशक पहले से यह काम कर रहे हैं। सरकार को उसमें जाने की आवश्यकता नहीं थी। तीसरे, इसमें रोजगार के बहुत अधिक अवसर पैदा होने की गुंजाइश नहीं दिखती। दूसरे शब्दों में भारत के उन अधिसंख्यक युवाओं के लिए स्टार्ट अप इंडिया का कोई मतलब नहीं है जो अपने प्रदेश के किसी सामान्य विश्वविद्यालय की डिग्री हाथ में लिए रोजगार तलाश रहे हैं और जो दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी तक बन जाने का अवसर पाने के लिए मारे-मारे यहां से वहां फिरते हैं। आप कहेंगे कि इनके लिए मुद्रा बैंक है तो फिर उन बैंक मैनेजरों से जाकर पूछिए जो इन्हें ऋण देने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं। मतलब फिर वही खाई बढऩे की आशंका यहां भी है।

हमारी राय में तो स्टार्ट अप शब्द ही अपने आप में भ्रामक है। वह भले ही दुनिया के किसी भी देश में लागू हो। प्रतिभाशाली युवाओं को अपना व्यवसाय खड़ा करने के लिए अपने संपर्कों के बल पर पूंजी जुटाना मुश्किल नहीं होता। यद्यपि कुछेक ऐसे भी होते हैं जो अपनी ज़िद और लगन के बल पर व्यवसाय स्थापित कर लेते हैं। लेकिन बाद में क्या होता है? विश्व का पूंजी बाजार एकाधिकार को बढ़ावा देता है। एक दिन बड़ी मछली छोटी मछली को निगल लेती है। स्टार्ट अप के अनेक प्रसंगों में हमने इसे देखा है। पूंजीवाद के इस खेल पर विस्तार में फिर कभी बात करेंगे। आज जब गणतंत्र के छैंसठ साल पूरे कर सड़सठवें वर्ष में कदम रखा है तब हमें उन शक्तियों से और उस भाषा से सावधान रहने की आवश्यकता है जो समाज में विषमता बढ़ाने का काम करती है।

देशबन्धु में 28 जनवरी 2016 को प्रकाशित 

Wednesday, 20 January 2016

सम-विषम : सफल प्रयोग, आगे क्या?


 दिल्ली में केजरीवाल सरकार द्वारा प्रायोगिक तौर पर प्रारंभ किया गया सम-विषम फार्मूला 15 जनवरी को स्थगित हो गया है। अब आगे क्या होगा इस बारे में विचार-विमर्श चल रहा है। इस प्रयोग से जो कुछ मुख्य बातें उभर कर आईं उन्हें शायद इस प्रकार रखा जा सकता है-
1. सम-विषम फार्मूला के कारण उन पंद्रह दिनों में दिल्ली की सड़कों पर प्रतिदिन दस लाख वाहन कम उतरे। इससे सड़कों पर भीड़ कम हुई व ट्रैफिक जाम जैसी समस्या अमूमन देखने नहीं मिली।
2. पर्यावरण के मुद्दे पर गंभीर काम करने वाली संस्था सीएसई ने दावा किया कि इस एक पखवाड़े में दिल्ली में प्रदूषण के स्तर में कमी आई। संस्था की साख को देखते हुए इस पर विश्वास करना चाहिए।
3. भारतीय जनता पार्टी व कांग्रेस दोनों ने इस प्रयोग का विरोध करने अथवा मजाक उड़ाने में कोई कमी नहीं की। उन्होंने यह नहीं बताया कि प्रदूषण कम करने के लिए इन पार्टियों के पास क्या फार्मूला है।
4. कार्पोरेट मीडिया में भी अधिकतर इस प्रयोग का उपहास ही किया गया। गोकि बाद-बाद में दबे स्वर में उसने स्वीकार किया कि यह प्रयोग सही दिशा में था।
5. सम-विषम प्रयोग को देश के सर्वोच्च न्यायालय का जो समर्थन मिला वह निश्चय ही मनोबल बढ़ाने वाला था। दिल्ली उच्च न्यायालय में किसी की याचिका स्वीकार होने के बाद संशय होने लगा था, लेकिन अंतत: उसने भी इस मामले में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया।
6. देश की राजधानी के सुविधाभोगी वर्ग को इस प्रयोग से सबसे अधिक परेशानी हुई। यह वही वर्ग है जो सार्वजनिक यातायात के लिए बस कॉरीडोर का विरोध करते रहा है। इन्हें लगता है कि सड़कें सिर्फ इन्हीं के लिए बनाई गई हैं।
7. यह एक छोटा सा प्रयोग था जिसकी अवधि थी मात्र पंद्रह दिन की। इसमें भी वीआईपी समेत कईयों को छूट दे दी गई थी। अमेरिका सहित अनेक दूतावासों ने प्रयोग का स्वागत किया, किन्तु एक भी वीआईपी ने अपना विशेषाधिकार छोडऩा उचित नहीं समझा।
8. इस अवधि में बसों और मेट्रो के फेरे बढ़ाए गए याने निजी वाहनों को कम कर सार्वजनिक यातायात को बढ़ावा दिया गया।

प्रदूषण के दैत्य से दिल्लीवासियों को बचाने के लिए अरविंद केजरीवाल को दीर्घकालीन व स्थायी उपायों पर विचार करने की आवश्यकता है। सच तो यह है कि यह समस्या न तो सिर्फ श्री केजरीवाल की है और न सिर्फ दिल्लीवासियों की। भारत सरकार के अलावा विभिन्न राज्यों की सरकारों व सभी पार्टियों को इस बारे में मिल-बैठ कर सोचने की आवश्यकता है। सत्तारूढ़ भाजपा व प्रमुख विपक्ष कांग्रेस पर तो इसका मुख्य दायित्व तो है ही; समस्या के वैज्ञानिक व तकनीकी पक्ष को समझने वाले विशेषज्ञों को भी विचार और निर्णय की प्रक्रिया में शामिल करने से ही आगे का रास्ता निकलेगा। एक उदाहरण दिया जा सकता है। दिल्ली में ही प्रदूषण कम करने के लिए बसों में डीजल की जगह सीएनजी उपयोग करने हेतु सीएसई ने सुप्रीम कोर्ट तक जाकर लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की। इसका लाभ लंबे समय तक दिल्ली को मिला। दिल्ली साइंस फोरम जैसी संस्थाएं भी इस दिशा में निरंतर काम कर रही हैं। प्रोफेसर दिनेश मोहन व सुनीता नारायण जैसे विशेषज्ञों की सेवाएं लेना हर तरह से लाभकारी है।

अभी जैसे एक बात उठी कि कार से जितना वायु प्रदूषण होता है उससे कई गुना अधिक सड़कों पर उडऩे वाली धूल से होता है। बात दुरुस्त है। लेेकिन इस बात पर किसी ने गौर नहीं किया कि वाहनों की तेज रफ्तार के कारण सड़क पर जो घर्षण होता है उससे सीमेंट और डामर के जो कण उड़ते हैं वे ही बड़ी सीमा तक धूल में बदल जाते हैं। आशय यह कि यदि सड़कों पर गाडिय़ां कम हैं तो धूल भी उतनी ही कम उड़ेगी। इसे विस्तारपूर्वक समझना हो तो किसी विशेषज्ञ के पास ही जाना होगा। इसी तरह डीजल की बात है। डीजल वाहनों से धुआं भी अधिक उड़ता है और उससे कैंसर का खतरा भी बढ़ता है। यूरोप में डीजल कारों के लिए जो पैमाने लागू हैं वे भारत में नहीं हैं। यूरोपीय मानक हासिल करने के लिए क्या करना पड़ेगा, नीति निर्धारकों को यह बात भी समझना होगी।

यह हम जानते हैं कि वायु प्रदूषण सिर्फ वाहनों से नहीं होता, कारखानों की चिमनियों से उठने वाला धुआं भी इसका एक बड़ा कारण है। दिल्ली में ही जो ताप विद्युत संयंत्र लगे हैं वे राजधानी की वायु को प्रदूषित करते हैं। क्या इन कारखानों को बंद किया सकता है अथवा इन्हें कहीं दूर स्थानांतरित किया जा सकता है? यह भी एक प्रश्न है। हमें ध्यान आता है कि कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली के अनेक उद्योग इसी बिना पर अदालती आदेश से बंद कर दिए गए थे। उन कारखानों को संभवत: दिल्ली की सीमा से बाहर राजस्थान में जगह दे दी गई। यहां एक साथ तीन-चार सवाल खड़े होते हैं- 1. क्या स्वच्छ वायु पर सिर्फ दिल्ली का ही अधिकार है? 2. अगर कारखाने बाहर कहीं जाकर लगाए जा रहे हैं तो वहां के पर्यावरण का क्या होगा? 3. कारखानों से जिनकी रोजी-रोटी चल रही है, उनके जीवनयापन का क्या होगा? ध्यान रहे कि अनेक कारखाने लघु आकार के हैं। 4. अगर ताप विद्युत संयंत्रों को बंद कर दिए जाएं तो देश को बिजली कहां से मिलेगी? 5. परमाणु बिजली को स्वच्छ पर्याय बताया जाता है, लेकिन उसमें जो खतरे निहित हैं क्या उनकी अनदेखी की जा सकती है?

भारत में जब कम्प्यूटर युग आया तब आमतौर पर एक विश्वास था कि अब दफ्तरों को फाइलों और कागजों से मुक्ति मिल जाएगी। पेपरलेस ऑफिस की कल्पना लोग करने लगे थे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। कम्प्यूटर मोबाईल और स्मार्ट फोन के बावजूद कागज की खपत कार्यालयों में लगातार बढ़ ही रही है। अब तो बल्कि एक या दो लाइन का भी कोई संदेश हो तो ए-4 आकार का पूरा प्रिंटआउट निकालना पड़ता है। दूसरी ओर कम्प्यूटर व अन्य संसाधनों के कारण जो ई-कबाड़ उत्पन्न हो रहा है वह भी पूरी दुनिया में चिंता का विषय बनते जा रहा है। एक दूसरे संदर्भ में यही बात टीवी पर लागू होती है। देश मेें इस वक्त विभिन्न भाषाओं को मिलाकर कोई एक हजार चैनल चल रहे होंगे। जिस टीवी को लोक शिक्षण का माध्यम माना गया था वह आज ट्वन्टी फोर सेवन के चलते ध्वनि प्रदूषण फैलने का माध्यम बन गया है।

ऐसी ही कुछ स्थिति पर्यटन को लेकर हो रही है। कम से कम इस देश की सरकारें मानकर चलती हैं कि टूरिज्म एक ग्रीन इंडस्ट्री है। याने कि पर्यटन उद्योग पर्यावरण अनुकूल है। यह एक बड़ा झूठ है। जिस रफ्तार से पर्यटन बढ़ रहा है उस रफ्तार से हर तरह का प्रदूषण भी हमारे देश में ही नहीं, दूसरे देशों में भी बढ़ रहा है। तो बात चाहे ट्रैफिक की हो, चाहे कारखाने की, चाहे कम्प्यूटर की, चाहे पर्यटन की और चाहे ऐसे ही किसी अन्य विषय की, सब तरफ शासन और जनता दोनों के बीच एक लापरवाही की भावना विद्यमान प्रतीत होती है। इसमें सरकारों का जितना दोष है, उससे कम दोष जनता का नहीं है। एक स्वच्छ पर्यावरण के लिए आम जनता को अपने भीतर एक किस्म का संयम विकसित करने की आवश्यकता है। मुझे यहां महात्मा गांधी का उदाहरण देना चाहिए- वे कागज की छोटी-छोटी पर्चियां और आलपिनें सहेज कर रखते थे और यथा आवश्यकता उपयोग करते थे।

मैं जानता हूं कि हममें से कोई गांधी नहीं हो सकता, लेकिन ऐसे कुछेक बिन्दु अवश्य हैं जिन पर ध्यान देने से भारत में वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण इन तीनों पर काबू करने में सहायता मिल सकती है। चूंकि बात दिल्ली के ट्रैफिक से शुरू हुई थी तो विशेषकर उस पर केन्द्रित कर यह विचार करना चाहिए कि हमें निजी वाहन की आवश्यकता कब और कितनी है। दिल्ली के नागरिकों ने सम-विषम फार्मूले का पालन करने में गजब का अनुशासन, इच्छा शक्ति और सार्वजनिक एकजुटता का परिचय दिया है। आज उसी को आगे बढ़ाते हुए दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार दोनों मिलकर राजधानी में अगर सार्वजनिक परिवहन तंत्र को सुदृढ़ करें, सड़कों को साईकिल व पैदल चलने वालों के लिए सुगम व सुरक्षित बनाएं, डीजल गाडिय़ों को धीरे-धीरे खत्म करें, पुराने जर्जर हो चुके ट्रकों को बदलें, भीड़भाड़ वाले इलाके में वाहन प्रवेश बिल्कुल बंद हो तो दिल्ली की आबोहवा बदलने में देर न लगेगी। भारत के अन्य नगरों के लिए भी यह एक अनुकरणीय उदाहरण होगा।

देशबन्धु में 21 जनवरी 2016 को प्रकाशित 

Wednesday, 13 January 2016

विवेकानन्द और रायपुर



छत्तीसगढ़ की राजधानी नया रायपुर में इन दिनों बीसवां राष्ट्रीय युवा महोत्सव चल रहा है। इसका आयोजन नेहरु युवा केन्द्र संगठन ने किया है जबकि उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वीडियो-वार्ता के जरिए 12 जनवरी को किया जो कि स्वामी विवेकानन्द का जन्मदिवस है। यह हम छत्तीसगढ़वासियों के लिए खुशी का विषय है कि प्रदेश की राजधानी में राष्ट्रीय स्तर के इतने बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है। इस बीच हम अपने प्रदेश में अंतरराष्ट्रीय स्तर के क्रिकेट, हॉकी और टेनिस आदि खेलों के मुकाबले देख चुके हैं। इसी साल छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय स्कूली खेलों का भी आयोजन होगा। कुल मिलाकर इन आयोजनों से इस प्रदेश की क्षमताओं एवं आत्मविश्वास का परिचय मिलता है जिसने अभी पन्द्रह वर्ष पूरे कर सोलहवें वर्ष में कदम रखा ही है। अनेक कारणों से नकारात्मक खबरों में रहने वाले छत्तीसगढ़ की यह एक सकारात्मक तस्वीर है और उसके लिए प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह बधाई के हकदार हैं।

बहरहाल आज हमारी बात मुख्यत: स्वामी विवेकानन्द को लेकर है। छत्तीसगढ़ में पिछले तीस-पैंतीस वर्षों के दौरान धीरे-धीरे कर यह विश्वास प्रबल हुआ है कि विवेकानन्द ने अपना बचपन इस नगर में कभी गुजारा था। इस बिना पर रायपुर में जहां देखो वहां विवेकानन्द नज़र आते हैं। उनकी एक मूर्ति पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के प्रांगण में स्थापित है, दूसरी रायपुर के प्राचीन बूढ़ातालाब में। प्रसंगवश लिखना होगा कि बूढ़ातालाब का निर्माण स्वामीजी के जन्म के पांच सौ साल पहले हुआ था। आम जनता के बीच आज भी उसे बूढ़ातालाब ही कहा जाता है, यद्यपि लगभग तेरह-चौदह वर्ष पूर्व तत्कालीन सरकार ने (जनभावनाओं की उपेक्षा करते हुए) उसका नामकरण विवेकानन्द सरोवर कर दिया था। यह नाम सिर्फ सरकारी रिकार्ड में दर्ज होकर रह गया है। प्रदेश के औद्योगिक नगर भिलाई में राज्य सरकार का जो तकनीकी विश्वविद्यालय है वह भी स्वामी विवेकानन्द के नाम पर है। शत-प्रतिशत सरकारी अनुदान पर चलने वाला विवेकानन्द विद्यापीठ भी है और रायपुर के हवाई अड्डे का नाम भी स्वामी विवेकानन्द एयरपोर्ट है। इसके अलावा और भी कहीं कुछ हो तो मुझे याद नहीं आता।

हमें बतलाया गया है कि स्वामी विवेकानन्द के पिता विश्वनाथ दत्त सन् 1877 में तत्कालीन कलकत्ता छोड़कर रायपुर आए थे। उन्होंने यहां बूढ़ापारा में डे भवन का कोई हिस्सा या पूरा मकान किराए पर लिया था और कुछ समय तक इन्होंने यहां वकालत की थी। विवेकानन्द की आयु उस समय मात्र चौदह वर्ष थी और वे सातवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। श्री दत्त रायपुर आए थे तो इसमें बहुत आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि यहां उसी दौर में बल्कि उसके पहले से अनेक बंगाली परिवार आकर बसे थे। जब रायपुर में नगरपालिका गठित हुई तब अंग्रेज सरकार ने क्रमश: देवेन्द्र नाथ चौधरी एवं शैलेन्द्र नाथ बोस को उसका अध्यक्ष मनोनीत किया था। आज उन्हीं के नाम पर शहर में देवेन्द्र नगर एवं शैलेन्द्र नगर कालोनियां बसी हैं। लेकिन क्या बालक नरेन्द्र (स्वामी जी) भी अपने पिता के साथ यहां आए थे? वे यहां कितने समय तक रहे? और रायपुर प्रवास में उन्होंने क्या किया? इन सबके बहुत स्पष्ट उत्तर हमें नहीं मिलते। स्वामीजी के छोटे भाई महेन्द्रनाथ ने उनकी जीवनी में उनका पिताजी के साथ आने का उल्लेख किया है, जबकि अन्यत्र यह भी कहा गया है कि वे कुछ माह बाद आए। महापुरुषों के साथ दंतकथाएं जुड़ जाती हैं। उनको ही सत्य मान लेना हो तो बात अलग है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख पत्र आर्गनाइजर में प्रकाशित एक लेख में बताया गया है कि विवेकानन्द बूढ़ातालाब में तैरने जाते थे, इस वजह से आज भी उस इलाके के रहवासी इसे एक पवित्र सरोवर मानते हैं। इस लेखक की कल्पनाशीलता की सराहना करने का मन होता है। वह हमें यह भी बतलाता है कि रायपुर में पढ़ाई की अच्छी व्यवस्था नहीं थी इसलिए बालक नरेन्द्र का समय अपने पिता के साथ आध्यात्मिक प्रश्नों पर बौद्धिक बहसों में बीतता था। वह इसके आगे यह सूचना भी देता है कि कलकत्ता से रेल द्वारा जबलपुर, फिर आगे बैलगाड़ी से रायपुर आते हुए बालक नरेन्द्र के मन में आध्यात्म का संचार हुआ। मुझे लगता है कि हमारे ये लेखक मित्र फिल्मों की पटकथा बखूबी लिख सकते हैं।

अब तक ऐसी धारणा बन चुकी है कि डे भवन में ही श्री दत्त और उनका परिवार रुका था। यह घर अंग्रेज सरकार के एक अधिकारी रहे रायसाहब भूतनाथ डे ने बनवाया था। उनके बेटे हरिनाथ डे नेशनल लाइब्रेरी कलकत्ता के पहले भारतीय लाइबे्ररियन थे और यह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि थी। हरिनाथ डे के बारे में कहा जाता है कि वे कोई चौंतीस भाषाओं के ज्ञाता थे और उन्होंने अनेक भाषाओं की पुस्तकों का अनुवाद भी अंग्रेजी में किया था। उनका जन्म 1877 में और मृत्यु मात्र चौंतीस वर्ष की आयु में 1911 में हो गई थी। इस विपर्यय को क्या कहिए कि जिस व्यक्ति का घर रायपुर में था और जिसकी पढ़ाई (बिना अच्छा स्कूल हुए?) रायपुर में हुई और जिसे अपने संक्षिप्त जीवन में ही ऐसी उपलब्धियां हासिल करने का वातावरण रायपुर में मिला उस हरिनाथ को रायपुर ने, भुला दिया कहना गलत होगा, उन्हें कभी ठीक से याद भी नहीं किया। हमारे नगर में उनके नाम पर एक स्कूल या एक पुस्तकालय भी नहीं है। अगर मैं इसे अपने नगर की बौद्धिक दरिद्रता कहूं, तो क्या ऐसा कहना गलत होगा?

एक समय जब यह संभावना व्यक्त की गई कि विवेकानन्द ने अपना बचपन डे बाड़ा में गुजारा था तब डे परिवार के वारिसान उस गौरव का श्रेय लेने से स्वयं को नहीं रोक पाए थे। लेकिन कालांतर में जब राज्य शासन ने विवेकानन्द की स्मृति में इस भवन के अधिग्रहण का फैसला किया तो वे घबरा उठे कि शहर के मध्य में स्थित कहीं यह कीमती संपत्ति उनके हाथ से न निकल जाए। वे एक सिरे से इस बात को नकार देते हैं कि दत्त  परिवार वहां कभी रहा था। वे इसके बदले किसी अन्य भवन की ओर इशारा कर देते हैं। कुल मिलाकर इस बारे में प्रामाणिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। फिर भी मीडिया का कमाल देखिए कि एक अखबार ने डे भवन में रखे ग्रामोफोन की तस्वीर यह कहकर छापी है कि इस पर विवेकानन्द संगीत सुना करते थे। उस बेचारे पत्रकार को नहीं मालूम कि रिकार्ड वाले ग्रामोफोन का आविष्कार अमेरिका में 1887 में हुआ था जबकि विवेकानन्द 1879 में कलकत्ता वापिस जा चुके थे। ऐसी खोजी पत्रकारिता को नमन करने का मन होता है।

मैं इस बारे में यही कहना चाहता हूं कि हमें इतिहास के साथ खिलवाड़ करने का कोई अधिकार नहीं है। यदि सप्रमाण हम कोई बात कर सकें तब तो ठीक है, लेकिन इतिहास पुरुषों के बारे में दंतकथाएं गढऩे से नुकसान होता है कि हम उनके जीवन के संदेश को भूलकर बाहरी कर्मकांड में लग जाते हैं। विवेकानन्द रायपुर आए थे या नहीं आए थे इसकी अगर कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है तो उसे हाशिए पर रखकर उनके कृतित्व पर ध्यान लगाना बेहतर होगा। अपनी आध्यात्मिक प्यास मिटाने के लिए मनुष्य ईश्वर और देवताओं की शरण में जाता है, किन्तु विवेकानन्द ईश्वर नहीं, एक जीते-जागते व्यक्ति थे जिन्होंने मात्र उन्चालीस वर्ष की आयु पाई, लेकिन उतने में ही भारत के अलावा विश्व के अनेक देशों को अपनी मेधा से चमत्कृत कर दिया।

आज हम विवेकानन्द का स्मरण करें तो उनके दो रूप देखने में आते हैं। एक ओर कन्याकुमारी स्थित विवेकानन्द शिला स्मारक और इसके अलावा विवेकानन्द के नाम पर स्थापित अनेकानेक संगठन व उपक्रम हैं जिनके सूत्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हाथों हैं। ये संस्थाएं एक राजनीतिक दृष्टिकोण लेकर स्वामी विवेकानन्द की एक नयी छवि निर्मित करने में लगी हुई हैं। नेहरू युवा केन्द्र के अध्यक्ष ने तो बहुत स्पष्ट रूप से कहा है कि वे नेहरू के बजाय विवेकानन्द को युवाओं का आदर्श बनाकर स्थापित करना चाहते हैं। ये लोग इस तरह स्वामी विवेकानन्द की वह खंडित छवि प्रस्तुत कर रहे हैं, जो हिन्दुत्व की अवधारणा के अनुकूल पड़ती है। किन्तु विवेकानन्द का एक दूसरा रूप भी है जो मुझ जैसे करोड़ों लोगों के मन में हैं। हम उन्हें रामकृष्ण परमहंस के पट्टशिष्य के रूप में देखते हैं, महान लेखक रोम्या रोलां द्वारा लिखी गयी जीवनी के चरितनायक के रूप में देखते हैं और उनकी एक पूर्ण छवि उनके विचारों के माध्यम से अपने मानसपटल पर उत्कीर्ण करते हैं।

प्रसिद्ध लेखक शंकर जिन्होंने कितने अनजाने तथा चौरंगी जैसे उपन्यास लिखे हैं उन्होंने विशद अनुसंधान के बाद विवेकानन्द की ''जीवनी अनचीन्हा अजाना विवेकानन्द" शीर्षक से लिखी है जिसका अंग्रेजी अनुवाद द मंक एज मैन (व्यक्ति के रूप में साधु) शीर्षक से हुआ है। यह पुस्तक स्वामीजी के बहुवर्णी जीवन के विभिन्न आयामों से हमें परिचित कराती हैं। अगर इसका हिन्दी अनुवाद उपलब्ध हो तो पाठकों को अवश्य पढऩा चाहिए ताकि विवेकानंद के जीवन और कृतित्व का एक संतुलित मूल्यांकन हम कर सकें।

देशबन्धु में 14 जनवरी 2016 को प्रकाशित 
 

Thursday, 7 January 2016

हिंदी ग़ज़ल

मेरी उम्र के पाठकों को शायद याद हो कि एक दौर में हम आकाशवाणी से समाचार सुना करते थे। समाचार बुलेटिन का आरंभ इस तरह से होता था- ''अब आप देवकीनंदन पांडेय (या विनोद कश्यप, इंदु वाही, अशोक बाजपेयी या कोई अन्य) से हिन्दी में समाचार सुनिए।"  इस पर हम चुटकियां लेते थे कि हिन्दी में समाचार कहने में क्या तुक है। क्या ''अब आप समाचार सुनिए'' कहने मात्र से काम नहीं चलता।  यह पुराना किस्सा इसलिए याद आ गया कि मैं आज तक यह नहीं समझ पाया कि हिन्दी गज़ल कहने से क्या साबित होता है। अगर अरबी-फारसी में लिखी गज़ल को देवनागरी में लिखा गया हो तब तो यह स्पष्ट करने की आवश्यकता पड़ सकती है कि यह रचना किस  भाषा में की गई है। अगर उर्दू से भेद दिखाने के लिए हिन्दी पर जोर दिया जा रहा है तब बात समझ में नहीं आती क्योंकि दोनों के बीच कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं है। 

इस तथ्य को सभी स्वीकार करते हैं और मैं भी गाहे-बगाहे उल्लेख कर चुका हूं कि हमारी कविता में गज़ल अपना स्थान बना चुकी है। यह संभव है कि चालीस-पैंतालीस साल पहले जब हिन्दी कवियों ने गज़ल का चलन प्रारंभ किया तब एक नए फॉर्म को अलग से रेखांकित करने के लिए हिन्दी गज़ल संज्ञा का प्रयोग किया गया हो, लेकिन अब यह बात पुरानी हो चुकी है। जैसे कविता की अन्य उप-विधाएं हैं, वैसे ही गज़ल भी हैं। इस नाते हिन्दी के सारे गज़लकारों से मेरा अनुरोध है कि वे अब गज़ल के साथ हिन्दी लिखना बंद कर दें। इसमें मुझे अत्युक्ति दोष नजर आता है। पाठक जानते हैं कि त्रिलोचन तथा कुछ अन्य कवियों ने सॉनेट लिखे, लेकिन उन्होंने कभी उसे हिन्दी सॉनेट नहीं कहा। अभी गजल के बाद हाईकू लिखने का चलन प्रारंभ हो चुका है, लेकिन ध्यान नहीं पड़ता कि किसी कवि ने उसे हिन्दी हाईकू की संज्ञा दी हो। मुझे लगता है कि अगर हिंदी गज़लकार सिर्फ गज़ल संज्ञा का प्रयोग करें तो उर्दू अदब में भी वे साथ-साथ स्वीकृति हासिल कर पाएंगे। 
'अलाव' पत्रिका  का समकालीन हिन्दी गज़ल पर एक पुस्तकाकार विशेषांक हाल-हाल में प्रकाशित हुआ है। इसमें केवल गोस्वामी का जो संक्षिप्त लेख है उससे मेरी उपरोक्त टिप्पणी का समर्थन होता है। पत्रिका के संपादक और सुपरिचित रचनाकार रामकुमार कृषक ने यह अंक प्रकाशित कर सही मायने में एक महत्वपूर्ण काम किया है। उन्होंने एक ऐसी रिक्ति को भरने की कोशिश की है जिसके बारे में जानते तो सब थे, लेकिन जिसकी ओर ध्यान देने की आवश्यकता अभी तक हिन्दी जगत में समझी नहीं गई थी। श्री कृषक स्वयं गज़लें लिखते हैं। उन्होंने यह अंक प्रकाशित कर अपनी प्रिय विधा की ओर हो रहे दुर्लक्ष्य को दूर करने की दिशा में सार्थक परिश्रम किया है। इस हेतु वे बधाई के पात्र हैं। जब बाकी लोग जानबूझकर मुंह फेरे हुए हैं तो हम खुद अपनी बात क्यों न उठाएं, यह भाव इस अंक के लेखों में है और मैं उसे सही मानता हूं। 
पांच सौ पृष्ठ के इस विशेषांक में बहुत सारे समीक्षात्मक लेख हैं। अनेक गज़लकारों की प्रतिनिधि रचनाओं का एक संक्षिप्त चयन भी इसमें है। अपने लेखों से अंक को प्रतिष्ठा देने वालों में विश्वनाथ त्रिपाठी, विजय बहादुर सिंह, असगर वजाहत और राजेश जोशी इत्यादि अनेक नाम हैं। यह निश्चित ही एक संग्रहणीय और उपयोगी अंक है। यह संभावना बनती है कि रामकुमार कृषक इसे कुछ समय बाद पुस्तक के रूप में प्रकाशित करें। तब यह हिन्दी काव्य शास्त्र के अध्येताओं के लिए लंबे समय तक काम आने वाली संदर्भ पुस्तक बन जाएगी। संपादक ने पत्रिका को नौ खंडों में बांटा है। पहले खंड में हिन्दी गज़ल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को उद्घाटित करते लेख हैं और आखिरी खंड में तेईस गज़लकारों की सपरिचय तीन-तीन प्रतिनिधि रचनाएं दी गई हैं। इनके बीच बाकी खंडों में अनेक लेखकों, समीक्षकों व संपादकों के विचार संकलित किए गए हैं, कुछ संक्षिप्त, कुछ विस्तारपूर्वक। इनमें गज़ल की भाषा, व्याकरण, छंद अनुशासन, गेयता आदि पहलुओं पर विवेचन हुआ है।
इस विशेषांक की सामग्री का अनुशीलन करने से अनेक बिन्दु स्पष्ट होते हैं। सबसे पहले तो यही पता चलता है कि हिन्दी के लिए गज़ल कोई नई विधा नहीं है। आज हम अधिकतर जिस खड़ी बोली हिन्दी को व्यवहार में लाते हैं उसके प्रणेता अमीर खुसरो ने भी गज़लें कही थी। नित्यानंद श्रीवास्तव के लेख में तो यह दावा तक किया गया है कि जयदेव कृत गीत गोविन्द में गज़ल का शिल्प-विधान है। गोस्वामी तुलसीदास की पद ''श्री रामचन्द्र कृपालु भज मन" को भी वे गज़ल की श्रेणी में रखते हैं। उनकी इस स्थापना को विद्वान समालोचक कितना स्वीकार करेंगे, यह कहना कठिन है। बहरहाल, इतना तो तय है कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने एक उपनाम से गज़लें लिखी थीं, जिसका उल्लेख इस अंक के अनेक लेखकों ने किया है। नित्यानंद जी ने उनके समकालीन, आध्यात्मिक गुरु स्वामी रामतीर्थ की गज़लों के उद्धरण दिए हैं और इस तरह एक नई जानकारी जोड़ी है। भारतेन्दु के बाद जिन कवियों ने गज़ल को साधने की कोशिश की उनमें निराला, शमशेर बहादुर सिंह और त्रिलोचन के नाम मुख्य रूप से आते हैं। विकास क्रम में इन नामों का उल्लेख किया जाना उचित है, किन्तु साथ-साथ यह कहना भी आवश्यक है कि इन्होंने अपनी रचना सामर्थ्य सिद्ध करने के लिए भले ही गजलें लिखी हो, लेकिन वह इनमें से किसी की भी मुख्य विधा नहीं थी। दरअसल, हिन्दी में गज़ल को लोकप्रिय करने का काम दुष्यंत कुमार के साथ प्रारंभ होता है। इसे सभी निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं तथा इस विशेषांक में शायद ही कोई ऐसा लेखक है जिसने दुष्यंत का उल्लेख न किया हो। हां मुझे यह देखकर थोड़ी निराशा भी हुई कि किसी भी लेखक ने कमलेश्वर और उनके द्वारा संपादित 'सारिका' का जिक्र नहीं किया जबकि मेरी याददाश्त के अनुसार दुष्यंत कुमार को सारिका के मंच से ही सर्वप्रथम ख्याति मिली थी। 
दुष्यंत कुमार के गज़लगजल संकलन 'साए में धूप' की चर्चा अनेक लेखकों ने की है। इसमें कोई संदेह नहीं कि दुष्यंत को अपनी इन रचनाओं के माध्यम से जो लोकप्रियता प्राप्त हुई वह उनके समकालीनों के लिए दुर्लभ थी। आज भी चाहे स्कूल कॉलेज में वाद-विवाद प्रतियोगिता हो, चाहे राजनैतिक मंच से नेताओं के भाषण या फिर आंदोलनकारियों की सभा, दुष्यंत कुमार के शेर मुहावरों की तरह प्रयुक्त किए जाते हैं। मसलन ''कौन कहता है आसमान में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।" या फिर ''अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।" पाठकों को स्मरण होगा कि अरविंद केजरीवाल ने अपनी चुनावी सभाओं में इन शेरों का काफी उपयोग किया। किसी भी रचनाकार के लिए यह देखना संतोष का विषय हो सकता है कि कवि के शब्दों में समाज को प्रभावित करने की कितनी क्षमता है। 
दुष्यंत कुमार को मिली लोकप्रियता का विश्लेषण इस अंक के लेखकों ने अपनी-अपनी तरह से किया है। इसमें मिथक भी जुड़ गए हैं। यहां तक दावा किया गया कि दुष्यंत कुमार की ये गज़लें आपातकाल के विरोध में लिखी गई थी। ऐसा कहने वाले उनकी एक नई छवि गढऩे की कोशिश कर रहे हैं। जीवन सिंह ने लिखा कि दुष्यंत ने गज़ल का उपयोग तानाशाही के विरुद्ध लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों के पक्ष में एक हथियार के रूप में किया। इस पर श्री सिंह ने कुछ विस्तार से बात की है। वे दुष्यंत की तुलना नागार्जुन से करते हुए कहते हैं- ''दुष्यंत कुमार की खासियत और हिम्मत दोनों रही कि वे उसे तानाशाही और आतंक की राजनीति के विरुद्ध एक ऐसे मोर्चे पर ले गए जो जिंदगी का अग्रिम मोर्चा होता है।" इसका खंडन इसी अंक में जानकी प्रसाद शर्मा के साक्षात्कार से होता है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि आपातकाल लगने के कुछ माह बाद ही दुष्यंत का निधन हो गया था तथा 'साए में धूप' की अनेक गज़लें उनके पहले के संग्रहों में आ चुकी थीं। दुष्यंत कुमार के बाद अदम गोंडवी का जिक्र मुख्य रूप से हुआ है। इनके अलावा विशेषांक के संपादक रामकुमार कृषक, सहयोगी संपादक विनय मिश्र तथा बल्ली सिंह चीमा, ज्ञानप्रकाश विवेक, रामनारायण स्वामी, राम मेश्राम इत्यादि अनेक कवियों की चर्चा इस अंक के लेखों में की गई है। इनमें ऐसे अनेक लेख हैं जो स्वतंत्र रूप से प्रकाशित होने पर शायद अधिक प्रभाव छोड़ते, लेकिन कुछेक नामों की बार-बार चर्चा और उनके योगदान की प्रशंसा के चलते अंक में एक तरह की बोझिलता आ गई है। इस ओर शायद संपादक का ध्यान नहीं गया या उनके सामने यह समस्या शायद रही हो कि जिनसे लेख आमंत्रित किए हैं उन्हें अप्रसन्न कैसे किया जाए। लेख आ गया, तो उसे प्रकाशित करना शायद मजबूरी हो गई। दूसरी ओर चंद्रसेन विराट, ओम प्रभाकर जैसे नामों का जिक्र ही नहीं हुआ। सूर्यभानु गुप्त की चर्चा भी जैसे चलते-चलते हुई।
एक बढिय़ा बात यह देखने मिली कि हिन्दी साहित्य में गज़ल के आगमन और अपना विशिष्ट स्थान बना लेने का लगभग सबने स्वागत किया है। विश्वनाथ त्रिपाठी ने माना है कि बोधगम्य और लोकप्रिय होने के लिए गज़ल की विधा कारगर है। डॉ. मैनेजर पाठक ने जो साक्षात्कार दिया है उसमें वे गज़लगजल के प्रति अपनी पूर्व धारणा बदलने की बात स्वीकार करते हैं। राजेश जोशी का मानना है कि हिन्दी की गज़ल सामाजिक और राजनीतिक गज़ल है। विजय बहादुर सिंह हिन्दी गज़ल की कमियों पर सवाल उठाते हैं, लेकिन वे इस माध्यम से हिन्दी और उर्दू के पास आने व घुलमिल जाने की संभावना देखते हैं। इसी तगज़लरह असगर वजाहत का कहना है कि हिन्दी गज़ल एक तरह से उर्दू गज़ल परंपरा का विकास है। वे कमियों की तरफ इशारा करते हैं और उम्मीद करते हैं कि गज़ल के फार्म की जो चुनौतियां हैं वह उसका सामना करेगी। 
महेन्द्र नेह ने अपने लेख में फैज अहमद 'फैज' के हवाले से कहा है कि अब गज़ल को हिन्दी वाले ही बचाकर ले जाएंगे। यह बात सुनने में अविश्वसनीय लगती है। फैज ने कब, कहां ऐसा कहा, इसका विवरण उपलब्ध होता तो बेहतर था। इसी लेख में श्री नेह कहते हैं कि अब समीक्षकों द्वारा उसकी उपेक्षा का सवाल लगभग बेमानी हो गया है। कुछ अन्य लेखकों ने भी इस तरह की बातें की है। यह थोड़ी अजीब स्थिति है। आज जिस विधा में लिख रहे हैं उसे लोकप्रियता मिली है, उसका स्थान बन चुका है, लेकिन इसमें इतराने की कोई बात नहीं है। अगर गजलकार अपनी कमजोरियों को स्वीकार नहीं करेंगे तो इसमें उनका ही नुकसान है। यह ठीक है कि गज़ल के शेर सुनने में अच्छे लगते हैं। छंद और गेयता के कारण वे स्मृतिकोष में सुरक्षित भी हो जाते हैं, लेकिन हर रचनाकार की सामर्थ्य,अपनी सीमा होती है। जिस तरह कवियों की संख्या अनंत है, लेकिन सबकी मान्यता एक जैसी नहीं है, वही स्थिति गज़ल के साथ भी है। जो रचना अच्छी होगी वह याद रही आएगी।
मैं यहां एक-दो बिंदुओं पर गज़लकारों व गज़ल के पैरोकारों का ध्यान खासकर आकृष्ट करना चाहता हूं। यह स्पष्ट है कि गीत की ही भांति गज़ल में गेयता एक प्रमुख तत्व है, किंतु आए दिन जो गज़लें पढऩे मिलती हैं, उनमें से अधिकतर मंच के योग्य नहीं हैं। समाज में साहित्य की लोकप्रियता बढ़ाने में गज़ल महती योगदान कर सकती है, पर इसके लिए कवियों को पत्रिकाओं के बजाय मंच सिद्ध करने पर ध्यान देने चाहिए। उनके सजग प्रयत्नों से मंच भी स्वास्थ्य लाभ कर पाएगा। दूसरे, गज़लकारों को इस मिथ्या अभिमान से बचने की आवश्यकता है कि उन्होंने आकर छंदमुक्त कविता का युग समाप्त कर दिया है। वर्तमान समय की जटिलताओं को उद्घाटित करने में नई कविता या छंदमुक्त कविता ही उपयुक्त माध्यम है; गीत या गजल में उसकी आंशिक पूर्ति ही संभव है। 
कुल मिलाकर अलाव के इस विशेषांक से गज़ल या कि हिन्दी गज़ल के बारे में हमारी जानकारी व समझ में वृद्धि होती है। हिन्दी गज़ल को लेकर कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, लेकिन उनमें इतने विस्तारपूर्वक विमर्श की गुंजाइश नहीं थी। अधिकतर पुस्तकें गज़लकारों द्वारा अपने समर्थन में लिखी गई थी जबकि अलाव के लेख विविध विचारों को प्रतिबिंबित करते हैं। इससे एक सम्यक सोच विकसित होने का अवसर मिलता है। रामकुमार कृषक व विनय मिश्र को पुन: बधाई और सभी पाठकों को नववर्ष की शुभकामनाएं।
आलोच्य पत्रिका - अलाव
अंक- 45
संपादक-प्रकाशक- रामकुमार कृषक द्वारा सी-3/59, 
नागार्जुन नगर, सादतपुर विस्तार, दिल्ल्ली-110090
पृष्ठ- 496
मूल्य- 150 रुपए 

अक्षरपर्व जनवरी 2016 अंक की प्रस्तावना 

पठानकोट : संबंधों की परीक्षा


 भारतीय जनता पार्टी के अनेक उद्धत नेता एवं कार्यकर्ता जब देखो तब अपने विरोधियों को पाकिस्तान भेज देने की धमकी अथवा बिनमांगी सलाह देते रहते हैं। उनका दुर्भाग्य कि वे अभी तक एक भी भारतीय को अपना देश छोड़ पाकिस्तान नहीं भेज पाए। तिस पर विडंबना यह कि उल्टे एक पाकिस्तानी को पिछले दिनों भारत की नागरिकता प्राप्त हो गई। इसे राजनैतिक उलट बांसी ही मानना होगा। पाकिस्तान के नागरिक अदनान सामी विगत एक दशक से अधिक समय से भारत की नागरिकता मिल जाने की उम्मीद में किसी न किसी प्रकार यहां रह रहे थे। उस समय तंज कसा जाता था कि श्री सामी को यूपीए की सरकार में किसका वरदहस्त प्राप्त है। आज भाजपा-विरोधी चुटकी ले रहे हैं कि एनडीए राज में अदनान सामी को किसका संरक्षण प्राप्त है। इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा है कि उन्हें किस बलबूते भारत की नागरिकता प्राप्त हो गई।

हमें जहां तक याद आता है प्रोफेसर एजाज अहमद पहले पाकिस्तानी थे जिन्हें भारत की नागरिकता प्राप्त हुई। वामपंथी समाजचिंतक और लेखक प्रोफेसर अहमद पाकिस्तान छोड़कर बरसों से अमेरिका में रह रहे थे जब वे राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में भारत लौटे। लौटना इस अर्थ में कि उनका जन्म विभाजन के पूर्व भारत में ही हुआ था। इसमें कोई शक नहीं कि एजाज अहमद के आने से भारत के बौद्धिक परिवेश की अभिवृद्धि हुई। उनके पश्चात बंगलादेश की नागरिक तस्लीमा नसरीन ने भारत में शरण ली जब 'लज्जा' उपन्यास लिखने के कारण कठमुल्लों ने ढाका में उनका रहना दूभर कर दिया। यहां एक अन्य विडंबना से हमारा साक्षात्कार होता है। तस्लीमा नसरीन को भारत सरकार ने यहां अस्थायी रूप से रहने का आज्ञापत्र तो दिया है, किन्तु उन्हें अपने देश की नागरिकता अभी तक प्रदान नहीं की है। अगर यूपीए पर आरोप था कि वह वोट बैंक की राजनीति के चलते सुश्री नसरीन को नागरिकता नहीं दे रही है तो एनडीए को फिर किसका संकोच या भय है।

ये तीनों प्रसंग इस सच्चाई की ताईद करते हैं कि भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में ऐसी कोई दूरी नहीं जिसे पार न किया जा सके और ऐसी कोई खाई नहीं है जिसे पाटा न जा सके। जैसा कि अदनान सामी ने कहा कि उनकी पत्नी जर्मन है और यह विकल्प उनके सामने खुला हुआ था कि वे जर्मनी की नागरिकता ग्रहण कर लेते, किन्तु उनके मन में भारत का नागरिक बनने की ही अभिलाषा थी। उन्होंने कहा कि वे जब इंग्लैण्ड में पढ़ाई कर रहे थे तब कोई निबंध लिखने का अवसर आने पर उन्हें अंत:प्रेरणा हुई कि अन्य सबको छोड़कर महात्मा गांधी पर ही लिखा जाए। तस्लीमा नसरीन पर भी किसी हद तक यही बात लागू होती है। वे बीच में नार्वे या स्वीडन में कहीं लंबे समय तक रहीं और यह अवसर उन्हें था कि एक राजनैतिक शरणार्थी के रूप में वे किसी यूरोपीय देश की नागरिकता हासिल कर लेतीं। लेकिन उनके मन में कहीं तो यह बात रही होगी कि बंगलादेश छूटा तो भारत ही उनका दूसरा घर हो सकता है।

भारत की नागरिकता हासिल करने की इच्छा के पीछे जो मूल विचार है मैं उसका परीक्षण गत शनिवार को पठानकोट के वायुसैनिक अड्डे पर हुए आतंकवादी हमले के संदर्भ में करना चाहूंगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक सप्ताह पहले ही लाहौर में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मिल कर लौटे थे। उससे एक आशा बंधती थी कि भारत-पाक के बीच बातचीत शुरु होगी और उसके सकारात्मक परिणाम यथासमय सामने आएंगे। इस आतंकी हमले ने यात्रा से उपजी सद्भावना को नष्ट कर दिया। यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि यह दु:साहस उन ताकतों ने ही किया जो दोनों देशों के बीच संबंधों की बहाली नहीं चाहतीं। प्रश्न उठता  है कि ये ताकतें कौन हैं? पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने बिना समय गंवाए इस हमले की भत्र्सना की है। अधिकतर प्रेक्षक मान रहे हैं कि पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार का इस कार्रवाई में कोई हाथ नहीं था। यहां स्मरण करना उचित होगा कि पाकिस्तान ने पहली बार भारत पर हुए किसी आतंकी हमले की खुलकर भर्त्सना की है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी पाकिस्तान की सरकार पर कोई दोषारोपण नहीं किया है। उन्होंने इतना भर कहा है कि यह आतंकी हमला मानवता के दुश्मनों ने किया है। भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री से ऐसे संयत वक्तव्य की उम्मीद किसी ने नहीं की थी। इससे प्रतीत होता है कि वे पाकिस्तान के साथ बातचीत आगे बढ़ाने के रास्ते में जो भी बाधाएं आएंगी उन्हें दरकिनार कर आगे बढ़ाना चाहेंगे। पाक विदेश मंत्रालय के वक्तव्य से भी यही संकेत मिलता है। दुर्भाग्य यह है कि आज के दौर में किसी भी घटना पर शांत भाव से विवेचना करना लगभग असंभव हो गया है। कोई घटना घटी नहीं कि टीवी चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ देने की होड़ लग जाती है और आनन-फानन में अधकचरे विशेषज्ञ और उतने ही अज्ञानी सूत्रधार बढ़-चढ़कर अपनी राय देने लगते हैं।

यह भी ठीक नहीं है कि इन दिनों राजनीति में बुद्धि और तर्क का सहारा लेने के बजाय असंयत आलोचना, अमर्यादित भाषा और अनर्गल आक्षेप लगाना ही मानो नियम बन गया है। इसी तरह सोशल मीडिया पर चुटकियां लेने अथवा चुटकुले लिखने से स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं होता। आज जबकि नरेन्द्र मोदी की सरकार को डेढ़ वर्ष से अधिक बीत चुका है, उनके विरोधियों को चाहिए कि वे तर्क और तथ्यों का सहारा लेकर सरकार पर आक्रमण करें तभी वे मतदाताओं का मन दुबारा जीत पाएंगे। भाजपा सरकार के दावों और नारों में जो खोखलापन था वह तो वैसे ही जनता के सामने आ चुका है। फिलहाल जब पाकिस्तान के साथ संबंध कैसे हों, इस पर बहस हो रही है तब यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यह सिर्फ दो सरकारों के बीच का मामला नहीं है बल्कि दोनों देशों की जनता की शांति, सुरक्षा और खुशहाली के प्रश्न इससे जुड़े हुए हैं।

मेरी पाकिस्तान के बारे में समझ है कि जब तक वहां जनतांत्रिक ताकतें मजबूत नहीं होंगी तब तक पठानकोट जैसी वारदातें होती रहेंगी। पाकिस्तान का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ था, लेकिन यह अवधारणा देखते ही देखते खोखली सिद्ध हो गई। धार्मिक कट्टरता हर समाज में किसी न किसी अंश में होती है, लेकिन अधिसंख्यक जनता व्यर्थ के विवादों में न पड़कर सुकून के साथ गुजर-बसर करना चाहती है। पाकिस्तान में आज शायद ही कोई व्यक्ति हो जिसे विभाजन के दिनों की याद हो। वहां की नई पीढ़ी को तो इस बारे में जो कुछ भी पता होगा तो पुस्तकों से ही। भारत की तरह वहां का युवा वर्ग भी विश्व-ग्राम में प्रगति के सपने देख रहा है। वहां ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो लोकतंत्र के प्रबल समर्थक हैं। उन्होंने सैनिक सरकारों के दौरान कई तरह की प्रताडऩाएं भी झेली हैं। दोनों देशों ने उग्रवादी शक्तियों द्वारा चुने हुए प्रधानमंत्रियों को हिंसा का शिकार होते हुए भी देखा है। पाकिस्तान के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वहां सेना चुनी हुई सरकार पर हमेशा भारी पड़ती रही है। इस वस्तुस्थिति को स्वीकार करने से ही आगे का रास्ता खुल सकता है।

जैसा कि संभवत: पूर्व प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल ने कहा था कि हम अपने पड़ोसी नहीं बदल सकते। इसका मतलब यही है कि भारत-पाक के बीच संबंधों का सामान्य होना दोनों की प्रगति के लिए निहायत आवश्यक है। इसमें सार्क देशों की उन्नति का बीज भी छुपा हुआ है। सामान्य बुद्धि कहती है कि पठानकोट जैसी आतंकी वारदातों के कारण जब माहौल बिगड़ता है तो उसका लाभ सिर्फ हथियारों के सौदागरों को मिलता है। जीडीपी याने हमारी मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा सैनिक साजो-सामान खरीदने में लग जाता है। जबकि सामान्य वातावरण में यही रकम लोगों की बेहतरी अर्थात् समाज कल्याण के विभिन्न उपक्रमों में लगाई जा सकती है।  हमारे दोनों देशों के बीच निर्बाध व्यापारिक संबंध बनें, सांस्कृतिक संबंध गहरे हों और एक लचीली सीमा के आर-पार बिना पासपोर्ट और वीजा के आना-जाना हो सके, हम सबको यह स्वप्न देखना चाहिए। फिर जिसकी जब जैसी इच्छा हो वहां जाकर अपना घर बसा ले। इस हेतु भारत की जनता, जो लोकतंत्र का अर्थ समझती है, का यह दायित्व बनता है कि वह पाकिस्तान में लोकतांत्रिक शक्तियों को मदद करे। वे जितने मजबूत होंगे, हथियारों के सौदागर  और पाक सेना व आईएसआई में बैठे उनके दलाल उतने ही कमजोर पड़ेंगे।

देशबन्धु में 07 जनवरी 2016 को प्रकाशित