Thursday 7 January 2016

पठानकोट : संबंधों की परीक्षा


 भारतीय जनता पार्टी के अनेक उद्धत नेता एवं कार्यकर्ता जब देखो तब अपने विरोधियों को पाकिस्तान भेज देने की धमकी अथवा बिनमांगी सलाह देते रहते हैं। उनका दुर्भाग्य कि वे अभी तक एक भी भारतीय को अपना देश छोड़ पाकिस्तान नहीं भेज पाए। तिस पर विडंबना यह कि उल्टे एक पाकिस्तानी को पिछले दिनों भारत की नागरिकता प्राप्त हो गई। इसे राजनैतिक उलट बांसी ही मानना होगा। पाकिस्तान के नागरिक अदनान सामी विगत एक दशक से अधिक समय से भारत की नागरिकता मिल जाने की उम्मीद में किसी न किसी प्रकार यहां रह रहे थे। उस समय तंज कसा जाता था कि श्री सामी को यूपीए की सरकार में किसका वरदहस्त प्राप्त है। आज भाजपा-विरोधी चुटकी ले रहे हैं कि एनडीए राज में अदनान सामी को किसका संरक्षण प्राप्त है। इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा है कि उन्हें किस बलबूते भारत की नागरिकता प्राप्त हो गई।

हमें जहां तक याद आता है प्रोफेसर एजाज अहमद पहले पाकिस्तानी थे जिन्हें भारत की नागरिकता प्राप्त हुई। वामपंथी समाजचिंतक और लेखक प्रोफेसर अहमद पाकिस्तान छोड़कर बरसों से अमेरिका में रह रहे थे जब वे राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में भारत लौटे। लौटना इस अर्थ में कि उनका जन्म विभाजन के पूर्व भारत में ही हुआ था। इसमें कोई शक नहीं कि एजाज अहमद के आने से भारत के बौद्धिक परिवेश की अभिवृद्धि हुई। उनके पश्चात बंगलादेश की नागरिक तस्लीमा नसरीन ने भारत में शरण ली जब 'लज्जा' उपन्यास लिखने के कारण कठमुल्लों ने ढाका में उनका रहना दूभर कर दिया। यहां एक अन्य विडंबना से हमारा साक्षात्कार होता है। तस्लीमा नसरीन को भारत सरकार ने यहां अस्थायी रूप से रहने का आज्ञापत्र तो दिया है, किन्तु उन्हें अपने देश की नागरिकता अभी तक प्रदान नहीं की है। अगर यूपीए पर आरोप था कि वह वोट बैंक की राजनीति के चलते सुश्री नसरीन को नागरिकता नहीं दे रही है तो एनडीए को फिर किसका संकोच या भय है।

ये तीनों प्रसंग इस सच्चाई की ताईद करते हैं कि भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में ऐसी कोई दूरी नहीं जिसे पार न किया जा सके और ऐसी कोई खाई नहीं है जिसे पाटा न जा सके। जैसा कि अदनान सामी ने कहा कि उनकी पत्नी जर्मन है और यह विकल्प उनके सामने खुला हुआ था कि वे जर्मनी की नागरिकता ग्रहण कर लेते, किन्तु उनके मन में भारत का नागरिक बनने की ही अभिलाषा थी। उन्होंने कहा कि वे जब इंग्लैण्ड में पढ़ाई कर रहे थे तब कोई निबंध लिखने का अवसर आने पर उन्हें अंत:प्रेरणा हुई कि अन्य सबको छोड़कर महात्मा गांधी पर ही लिखा जाए। तस्लीमा नसरीन पर भी किसी हद तक यही बात लागू होती है। वे बीच में नार्वे या स्वीडन में कहीं लंबे समय तक रहीं और यह अवसर उन्हें था कि एक राजनैतिक शरणार्थी के रूप में वे किसी यूरोपीय देश की नागरिकता हासिल कर लेतीं। लेकिन उनके मन में कहीं तो यह बात रही होगी कि बंगलादेश छूटा तो भारत ही उनका दूसरा घर हो सकता है।

भारत की नागरिकता हासिल करने की इच्छा के पीछे जो मूल विचार है मैं उसका परीक्षण गत शनिवार को पठानकोट के वायुसैनिक अड्डे पर हुए आतंकवादी हमले के संदर्भ में करना चाहूंगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक सप्ताह पहले ही लाहौर में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मिल कर लौटे थे। उससे एक आशा बंधती थी कि भारत-पाक के बीच बातचीत शुरु होगी और उसके सकारात्मक परिणाम यथासमय सामने आएंगे। इस आतंकी हमले ने यात्रा से उपजी सद्भावना को नष्ट कर दिया। यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि यह दु:साहस उन ताकतों ने ही किया जो दोनों देशों के बीच संबंधों की बहाली नहीं चाहतीं। प्रश्न उठता  है कि ये ताकतें कौन हैं? पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने बिना समय गंवाए इस हमले की भत्र्सना की है। अधिकतर प्रेक्षक मान रहे हैं कि पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार का इस कार्रवाई में कोई हाथ नहीं था। यहां स्मरण करना उचित होगा कि पाकिस्तान ने पहली बार भारत पर हुए किसी आतंकी हमले की खुलकर भर्त्सना की है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी पाकिस्तान की सरकार पर कोई दोषारोपण नहीं किया है। उन्होंने इतना भर कहा है कि यह आतंकी हमला मानवता के दुश्मनों ने किया है। भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री से ऐसे संयत वक्तव्य की उम्मीद किसी ने नहीं की थी। इससे प्रतीत होता है कि वे पाकिस्तान के साथ बातचीत आगे बढ़ाने के रास्ते में जो भी बाधाएं आएंगी उन्हें दरकिनार कर आगे बढ़ाना चाहेंगे। पाक विदेश मंत्रालय के वक्तव्य से भी यही संकेत मिलता है। दुर्भाग्य यह है कि आज के दौर में किसी भी घटना पर शांत भाव से विवेचना करना लगभग असंभव हो गया है। कोई घटना घटी नहीं कि टीवी चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ देने की होड़ लग जाती है और आनन-फानन में अधकचरे विशेषज्ञ और उतने ही अज्ञानी सूत्रधार बढ़-चढ़कर अपनी राय देने लगते हैं।

यह भी ठीक नहीं है कि इन दिनों राजनीति में बुद्धि और तर्क का सहारा लेने के बजाय असंयत आलोचना, अमर्यादित भाषा और अनर्गल आक्षेप लगाना ही मानो नियम बन गया है। इसी तरह सोशल मीडिया पर चुटकियां लेने अथवा चुटकुले लिखने से स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं होता। आज जबकि नरेन्द्र मोदी की सरकार को डेढ़ वर्ष से अधिक बीत चुका है, उनके विरोधियों को चाहिए कि वे तर्क और तथ्यों का सहारा लेकर सरकार पर आक्रमण करें तभी वे मतदाताओं का मन दुबारा जीत पाएंगे। भाजपा सरकार के दावों और नारों में जो खोखलापन था वह तो वैसे ही जनता के सामने आ चुका है। फिलहाल जब पाकिस्तान के साथ संबंध कैसे हों, इस पर बहस हो रही है तब यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यह सिर्फ दो सरकारों के बीच का मामला नहीं है बल्कि दोनों देशों की जनता की शांति, सुरक्षा और खुशहाली के प्रश्न इससे जुड़े हुए हैं।

मेरी पाकिस्तान के बारे में समझ है कि जब तक वहां जनतांत्रिक ताकतें मजबूत नहीं होंगी तब तक पठानकोट जैसी वारदातें होती रहेंगी। पाकिस्तान का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ था, लेकिन यह अवधारणा देखते ही देखते खोखली सिद्ध हो गई। धार्मिक कट्टरता हर समाज में किसी न किसी अंश में होती है, लेकिन अधिसंख्यक जनता व्यर्थ के विवादों में न पड़कर सुकून के साथ गुजर-बसर करना चाहती है। पाकिस्तान में आज शायद ही कोई व्यक्ति हो जिसे विभाजन के दिनों की याद हो। वहां की नई पीढ़ी को तो इस बारे में जो कुछ भी पता होगा तो पुस्तकों से ही। भारत की तरह वहां का युवा वर्ग भी विश्व-ग्राम में प्रगति के सपने देख रहा है। वहां ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो लोकतंत्र के प्रबल समर्थक हैं। उन्होंने सैनिक सरकारों के दौरान कई तरह की प्रताडऩाएं भी झेली हैं। दोनों देशों ने उग्रवादी शक्तियों द्वारा चुने हुए प्रधानमंत्रियों को हिंसा का शिकार होते हुए भी देखा है। पाकिस्तान के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वहां सेना चुनी हुई सरकार पर हमेशा भारी पड़ती रही है। इस वस्तुस्थिति को स्वीकार करने से ही आगे का रास्ता खुल सकता है।

जैसा कि संभवत: पूर्व प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल ने कहा था कि हम अपने पड़ोसी नहीं बदल सकते। इसका मतलब यही है कि भारत-पाक के बीच संबंधों का सामान्य होना दोनों की प्रगति के लिए निहायत आवश्यक है। इसमें सार्क देशों की उन्नति का बीज भी छुपा हुआ है। सामान्य बुद्धि कहती है कि पठानकोट जैसी आतंकी वारदातों के कारण जब माहौल बिगड़ता है तो उसका लाभ सिर्फ हथियारों के सौदागरों को मिलता है। जीडीपी याने हमारी मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा सैनिक साजो-सामान खरीदने में लग जाता है। जबकि सामान्य वातावरण में यही रकम लोगों की बेहतरी अर्थात् समाज कल्याण के विभिन्न उपक्रमों में लगाई जा सकती है।  हमारे दोनों देशों के बीच निर्बाध व्यापारिक संबंध बनें, सांस्कृतिक संबंध गहरे हों और एक लचीली सीमा के आर-पार बिना पासपोर्ट और वीजा के आना-जाना हो सके, हम सबको यह स्वप्न देखना चाहिए। फिर जिसकी जब जैसी इच्छा हो वहां जाकर अपना घर बसा ले। इस हेतु भारत की जनता, जो लोकतंत्र का अर्थ समझती है, का यह दायित्व बनता है कि वह पाकिस्तान में लोकतांत्रिक शक्तियों को मदद करे। वे जितने मजबूत होंगे, हथियारों के सौदागर  और पाक सेना व आईएसआई में बैठे उनके दलाल उतने ही कमजोर पड़ेंगे।

देशबन्धु में 07 जनवरी 2016 को प्रकाशित 

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