बहरहाल आज हमारी बात मुख्यत: स्वामी विवेकानन्द को लेकर है। छत्तीसगढ़ में पिछले तीस-पैंतीस वर्षों के दौरान धीरे-धीरे कर यह विश्वास प्रबल हुआ है कि विवेकानन्द ने अपना बचपन इस नगर में कभी गुजारा था। इस बिना पर रायपुर में जहां देखो वहां विवेकानन्द नज़र आते हैं। उनकी एक मूर्ति पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के प्रांगण में स्थापित है, दूसरी रायपुर के प्राचीन बूढ़ातालाब में। प्रसंगवश लिखना होगा कि बूढ़ातालाब का निर्माण स्वामीजी के जन्म के पांच सौ साल पहले हुआ था। आम जनता के बीच आज भी उसे बूढ़ातालाब ही कहा जाता है, यद्यपि लगभग तेरह-चौदह वर्ष पूर्व तत्कालीन सरकार ने (जनभावनाओं की उपेक्षा करते हुए) उसका नामकरण विवेकानन्द सरोवर कर दिया था। यह नाम सिर्फ सरकारी रिकार्ड में दर्ज होकर रह गया है। प्रदेश के औद्योगिक नगर भिलाई में राज्य सरकार का जो तकनीकी विश्वविद्यालय है वह भी स्वामी विवेकानन्द के नाम पर है। शत-प्रतिशत सरकारी अनुदान पर चलने वाला विवेकानन्द विद्यापीठ भी है और रायपुर के हवाई अड्डे का नाम भी स्वामी विवेकानन्द एयरपोर्ट है। इसके अलावा और भी कहीं कुछ हो तो मुझे याद नहीं आता।
हमें बतलाया गया है कि स्वामी विवेकानन्द के पिता विश्वनाथ दत्त सन् 1877 में तत्कालीन कलकत्ता छोड़कर रायपुर आए थे। उन्होंने यहां बूढ़ापारा में डे भवन का कोई हिस्सा या पूरा मकान किराए पर लिया था और कुछ समय तक इन्होंने यहां वकालत की थी। विवेकानन्द की आयु उस समय मात्र चौदह वर्ष थी और वे सातवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। श्री दत्त रायपुर आए थे तो इसमें बहुत आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि यहां उसी दौर में बल्कि उसके पहले से अनेक बंगाली परिवार आकर बसे थे। जब रायपुर में नगरपालिका गठित हुई तब अंग्रेज सरकार ने क्रमश: देवेन्द्र नाथ चौधरी एवं शैलेन्द्र नाथ बोस को उसका अध्यक्ष मनोनीत किया था। आज उन्हीं के नाम पर शहर में देवेन्द्र नगर एवं शैलेन्द्र नगर कालोनियां बसी हैं। लेकिन क्या बालक नरेन्द्र (स्वामी जी) भी अपने पिता के साथ यहां आए थे? वे यहां कितने समय तक रहे? और रायपुर प्रवास में उन्होंने क्या किया? इन सबके बहुत स्पष्ट उत्तर हमें नहीं मिलते। स्वामीजी के छोटे भाई महेन्द्रनाथ ने उनकी जीवनी में उनका पिताजी के साथ आने का उल्लेख किया है, जबकि अन्यत्र यह भी कहा गया है कि वे कुछ माह बाद आए। महापुरुषों के साथ दंतकथाएं जुड़ जाती हैं। उनको ही सत्य मान लेना हो तो बात अलग है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख पत्र आर्गनाइजर में प्रकाशित एक लेख में बताया गया है कि विवेकानन्द बूढ़ातालाब में तैरने जाते थे, इस वजह से आज भी उस इलाके के रहवासी इसे एक पवित्र सरोवर मानते हैं। इस लेखक की कल्पनाशीलता की सराहना करने का मन होता है। वह हमें यह भी बतलाता है कि रायपुर में पढ़ाई की अच्छी व्यवस्था नहीं थी इसलिए बालक नरेन्द्र का समय अपने पिता के साथ आध्यात्मिक प्रश्नों पर बौद्धिक बहसों में बीतता था। वह इसके आगे यह सूचना भी देता है कि कलकत्ता से रेल द्वारा जबलपुर, फिर आगे बैलगाड़ी से रायपुर आते हुए बालक नरेन्द्र के मन में आध्यात्म का संचार हुआ। मुझे लगता है कि हमारे ये लेखक मित्र फिल्मों की पटकथा बखूबी लिख सकते हैं।
अब तक ऐसी धारणा बन चुकी है कि डे भवन में ही श्री दत्त और उनका परिवार रुका था। यह घर अंग्रेज सरकार के एक अधिकारी रहे रायसाहब भूतनाथ डे ने बनवाया था। उनके बेटे हरिनाथ डे नेशनल लाइब्रेरी कलकत्ता के पहले भारतीय लाइबे्ररियन थे और यह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि थी। हरिनाथ डे के बारे में कहा जाता है कि वे कोई चौंतीस भाषाओं के ज्ञाता थे और उन्होंने अनेक भाषाओं की पुस्तकों का अनुवाद भी अंग्रेजी में किया था। उनका जन्म 1877 में और मृत्यु मात्र चौंतीस वर्ष की आयु में 1911 में हो गई थी। इस विपर्यय को क्या कहिए कि जिस व्यक्ति का घर रायपुर में था और जिसकी पढ़ाई (बिना अच्छा स्कूल हुए?) रायपुर में हुई और जिसे अपने संक्षिप्त जीवन में ही ऐसी उपलब्धियां हासिल करने का वातावरण रायपुर में मिला उस हरिनाथ को रायपुर ने, भुला दिया कहना गलत होगा, उन्हें कभी ठीक से याद भी नहीं किया। हमारे नगर में उनके नाम पर एक स्कूल या एक पुस्तकालय भी नहीं है। अगर मैं इसे अपने नगर की बौद्धिक दरिद्रता कहूं, तो क्या ऐसा कहना गलत होगा?
एक समय जब यह संभावना व्यक्त की गई कि विवेकानन्द ने अपना बचपन डे बाड़ा में गुजारा था तब डे परिवार के वारिसान उस गौरव का श्रेय लेने से स्वयं को नहीं रोक पाए थे। लेकिन कालांतर में जब राज्य शासन ने विवेकानन्द की स्मृति में इस भवन के अधिग्रहण का फैसला किया तो वे घबरा उठे कि शहर के मध्य में स्थित कहीं यह कीमती संपत्ति उनके हाथ से न निकल जाए। वे एक सिरे से इस बात को नकार देते हैं कि दत्त परिवार वहां कभी रहा था। वे इसके बदले किसी अन्य भवन की ओर इशारा कर देते हैं। कुल मिलाकर इस बारे में प्रामाणिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। फिर भी मीडिया का कमाल देखिए कि एक अखबार ने डे भवन में रखे ग्रामोफोन की तस्वीर यह कहकर छापी है कि इस पर विवेकानन्द संगीत सुना करते थे। उस बेचारे पत्रकार को नहीं मालूम कि रिकार्ड वाले ग्रामोफोन का आविष्कार अमेरिका में 1887 में हुआ था जबकि विवेकानन्द 1879 में कलकत्ता वापिस जा चुके थे। ऐसी खोजी पत्रकारिता को नमन करने का मन होता है।
मैं इस बारे में यही कहना चाहता हूं कि हमें इतिहास के साथ खिलवाड़ करने का कोई अधिकार नहीं है। यदि सप्रमाण हम कोई बात कर सकें तब तो ठीक है, लेकिन इतिहास पुरुषों के बारे में दंतकथाएं गढऩे से नुकसान होता है कि हम उनके जीवन के संदेश को भूलकर बाहरी कर्मकांड में लग जाते हैं। विवेकानन्द रायपुर आए थे या नहीं आए थे इसकी अगर कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है तो उसे हाशिए पर रखकर उनके कृतित्व पर ध्यान लगाना बेहतर होगा। अपनी आध्यात्मिक प्यास मिटाने के लिए मनुष्य ईश्वर और देवताओं की शरण में जाता है, किन्तु विवेकानन्द ईश्वर नहीं, एक जीते-जागते व्यक्ति थे जिन्होंने मात्र उन्चालीस वर्ष की आयु पाई, लेकिन उतने में ही भारत के अलावा विश्व के अनेक देशों को अपनी मेधा से चमत्कृत कर दिया।
आज हम विवेकानन्द का स्मरण करें तो उनके दो रूप देखने में आते हैं। एक ओर कन्याकुमारी स्थित विवेकानन्द शिला स्मारक और इसके अलावा विवेकानन्द के नाम पर स्थापित अनेकानेक संगठन व उपक्रम हैं जिनके सूत्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हाथों हैं। ये संस्थाएं एक राजनीतिक दृष्टिकोण लेकर स्वामी विवेकानन्द की एक नयी छवि निर्मित करने में लगी हुई हैं। नेहरू युवा केन्द्र के अध्यक्ष ने तो बहुत स्पष्ट रूप से कहा है कि वे नेहरू के बजाय विवेकानन्द को युवाओं का आदर्श बनाकर स्थापित करना चाहते हैं। ये लोग इस तरह स्वामी विवेकानन्द की वह खंडित छवि प्रस्तुत कर रहे हैं, जो हिन्दुत्व की अवधारणा के अनुकूल पड़ती है। किन्तु विवेकानन्द का एक दूसरा रूप भी है जो मुझ जैसे करोड़ों लोगों के मन में हैं। हम उन्हें रामकृष्ण परमहंस के पट्टशिष्य के रूप में देखते हैं, महान लेखक रोम्या रोलां द्वारा लिखी गयी जीवनी के चरितनायक के रूप में देखते हैं और उनकी एक पूर्ण छवि उनके विचारों के माध्यम से अपने मानसपटल पर उत्कीर्ण करते हैं।
प्रसिद्ध लेखक शंकर जिन्होंने कितने अनजाने तथा चौरंगी जैसे उपन्यास लिखे हैं उन्होंने विशद अनुसंधान के बाद विवेकानन्द की ''जीवनी अनचीन्हा अजाना विवेकानन्द" शीर्षक से लिखी है जिसका अंग्रेजी अनुवाद द मंक एज मैन (व्यक्ति के रूप में साधु) शीर्षक से हुआ है। यह पुस्तक स्वामीजी के बहुवर्णी जीवन के विभिन्न आयामों से हमें परिचित कराती हैं। अगर इसका हिन्दी अनुवाद उपलब्ध हो तो पाठकों को अवश्य पढऩा चाहिए ताकि विवेकानंद के जीवन और कृतित्व का एक संतुलित मूल्यांकन हम कर सकें।
देशबन्धु में 14 जनवरी 2016 को प्रकाशित
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